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वर्धा विश्वविद्यालय के कुलपति द्वारा सविता आंबेडकर पीठ की घोषणा के मायने क्या हैं?

सवाल यह है कि सविता आंबेडकर (प्रो. रजनीश शुक्ल के शब्दों में माई साहब) के नाम पर यह पीठ क्यों स्थापित की जा रही है? जहां तक मेरा अध्ययन है, स्त्री विषयक सविता आंबेडकर का कोई ऐसा काम नहीं है जिसे रेखांकित करने के लिए उनके नाम पर स्त्री अध्ययन पीठ बनाई जाए। बता रहे हैं सिद्धार्थ

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र के कुलपति प्रो. रजनीश शुक्ल ने स्त्री प्रश्नों के अध्ययन के लिए विश्वविद्यालय में सविता आंबेडकर (माई साहब) पीठ की स्थापना की घोषणा की है। यह सूचना उन्होंने ‘स्त्रीकाल’ के संपादक संजीव चंदन एवं ‘स्त्रीकाल’ की संस्थापक संपादकीय सदस्य डॉ. अनुपमा गुप्ता के साथ सोशल मीडिया फेसबुक पर लाइव बातचीत के दौरान दी। उन्होंने यह भी बताया कि इस पर काम पहले से चल रहा था। 

दरअसल, ‘स्त्रीकाल’ ने सोशल मीडिया पर लाइव बातचीत पर आधारित एक नये कार्यक्रम की शुरूआत की है, जिसे ‘दक्षिणावर्त सवालों के घेरे में’ नाम दिया है। इस बातचीत की पहली कड़ी में बीते 14 अगस्त की बातचीत ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद बनाम संविधानवाद’ विषय पर केंद्रित थी और इसमें प्रो. रजनीश शुक्ल मुख्य वक्ता थे। 

‘स्त्रीकाल’ के इस लाइव में विविध विषयों पर बातचीत हुई। इस लेख में मेरा सरोकार सिर्फ प्रोफेसर रजनीश शुक्ल की उस घोषणा से है, जिसमें उन्होंने डॉ. आंबेडकर को संदर्भित करते हुए और उनकी स्त्री दृष्टि पर बात करते हुए सविता आंबेडकर पीठ स्थापित करने की घोषणा की। ऐसा करते समय प्रो. शुक्ल ने उन्हें ‘माई साहब’ कहकर संबोधित किया।

प्रोफेसर रजनीश शुक्ल की घोषणा से कुछ प्रश्न सामने आते हैँ, जिनके बारे में विचार-मंथन किया जाना चाहिए। 

  1. स्त्री अध्ययन या डॉ. आंबेडकर की स्त्री दृष्टि को आगे बढ़ाने में सविता आंबेडकर की क्या भूमिका थी?
  2. यदि डॉ. आंबेडकर की विरासत के साथ (पत्नी के रूप में) जुड़े होने के चलते उस पीठ का नाम सविता आंबेडकर ने नाम पर रखने की घोषणा की गई, तो क्या उसकी वास्तविक हकदार रमाबाई आंबेडकर नहीं हैं?
  3. भारत में सिंद्धांत एवं व्यवहार में आंबेडकरवादी स्त्री दृष्टि की मजबूत नींव फुले दंपत्ति ने डाली थी। इसमें सिद्धांत एवं व्यवहार दोनों मामलों में सावित्री बाई फुले की निर्णायक भूमिका थी। फुले दंपत्ति की विरासत को डॉ. आंबेडकर ने आगे बढाया। फिर क्यों इस पीठ की स्थापना सावित्रीबाई फुले के नाम नहीं की जा रही है?
  4. सावित्रीबाई फुले और रमाबाई आंबेडकर पर सविता आंबेडकर को वरीयता देने की पीछे क्या सोच हो सकती है?

भारत में स्त्री संबंधी कोई अध्ययन भारत की पितृसत्ता के विशिष्ट चरित्र की पहचान किए बगैर नहीं हो सकती है। इस अध्ययन की बुनियाद फुले दंपत्ति ने डाली थी। सबसे पहले पितृसत्ता शब्द को लेते हैं। यह एक विश्वव्यापी अवधारणा है। पितृसत्ता की केंद्रीय विचारधारा यह है कि पुरूष स्त्रियों से श्रेष्ठ है तथा महिलाओं पर पुरूषों का नियंत्रण होना चाहिए। इसमें सारत: महिलाओं को पुरूषों की सम्पत्ति के रूप में देखा जाता है। पितृसत्ता में स्त्रियों के जीवन के जिन पहलुओं पर पुरूषों का नियंत्रण रहता है, उसमें सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है उनकी प्रजनन क्षमता। इसके लिए उसकी यौनिकता पर नियंत्रण जरूरी है। स्त्री की यौनिकता पर नियंत्रण के अलावा उसकी उत्पादकता और श्रम शक्ति पर भी नियंत्रण पुरूष का हो जाता है। एंगेल्स ने इस पूरी प्रक्रिया के संदर्भ में कहा कि “यह स्त्री की विश्व स्तर की ऐतिहासिक हार थी। पुरूष घर का स्वामी बन गया, स्त्री महज पुरूष की इच्छाओं की पूर्ति का माध्यम भर रह गई।” उपरोक्त सोच को सबसे पहले भारत में फुले दंपत्ति ने विचार एवं व्यवहार दोनों में चुनौती दी।

प्रो. रजनीश शुक्ल, कुलपति, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र

लेकिन, भारत में पितृसत्ता सिर्फ विश्वव्यापी पितृसत्ता की छायाप्रति नहीं रही है। हां, यह सच है कि भारत की पितृसत्ता विश्वव्यापी पितृसत्ता के सामान्य लक्षणों को अपने में समेटे हुए है, लेकिन इसका अपना विशिष्ट चरित्र है, जो इसे दुनिया भर में स्थापित पितृसत्ता से बिलकुल अलग करता है। भारतीय पितृसत्ता का वर्ण-जाति व्यवस्था से अटूट संबंध है। यानी भारतीय सामाजिक व्यवस्था में वर्ण-जाति व्यवस्था और पितृसत्ता को अलग ही नहीं किया जा सकता है, दोनों एक-दूसरे पर आश्रित हैं। इसका केंद्र सजातीय विवाह है। जाति को तभी बनाए रखा जा सकता है और उसकी शुद्धता की गांरटी दी जा सकती थी, जब स्त्रियों का विवाह उन्हीं की जातियों के भीतर हो। अर्थात स्त्री  यौनिकता और प्रजनन पर न केवल पति, बल्कि पूरी जाति का पूर्ण नियंत्रण कायम रखा जाए। इसके लिए यह जरूरी था कि हिंदू अपनी-अपनी जाति की स्त्रियों के जीवन पर पूर्ण नियंत्रण कायम करें और इस नियंत्रण को पवित्र कर्तव्य माना जाए। इसके बुनियादी लक्षणों की पहचान फुले दंपत्ति ने की थी और वैचारिक एवं व्यवहारिक स्तर पर उसे चुनौती दी थी। बाद में डॉ. आंबेडकर ने उनके चिंतन को आगे बढ़ाया।

वर्ष 1916 में कोलंबिया विश्वविद्यालय में अपने शोध-पत्र ‘भारत में जातियां : उनका तंत्र, उत्पत्ति और विकास’ में डॉ. आंबेडकर ने साफ कहा कि जाति की व्यवस्था तभी कायम रखी जा सकती है, जब सजातीय विवाह हों और सजातीय विवाह के लिए जरूरी है कि स्त्री की यौनिकता पर न केवल उसके पति का, बल्कि पूरी जाति का नियंत्रण हो। पितृसत्ता के इस विशिष्ट स्वरूप को ही उमा चक्रवर्ती जैसी महिला इतिहाकारों ने ब्राह्मणवादी या जातिवादी पितृसत्ता के रूप में परिभाषित किया। लेकिन इसकी पहली बार मुकम्मल पहचान करने वाले फुले दंपत्ति ही थे, जिसमें सावित्रीबाई फुले की अहम भूमिका थी। इसके साथ आधुनिक भारत में स्त्री शिक्षा की नींव भी फुले दंपत्ति ने डाली थी। सच तो यह है कि फुले दंपत्ति ने सभी वर्ण-जाति की महिलाओं के लिए स्त्री शिक्षा का द्वार खोला।

स्त्री शिक्षा और भारत की विशिष्ट ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की पहचान और उसके खिलाफ कारगर जमीनी प्रतिवाद एवं प्रतिरोध विकसित करने के लिए इस देश में यदि किसी महिला के नाम स्त्री अध्ययन पीठ की स्थापना की जानी चाहिए, तो उसकी सबसे पहली हकदार सावित्रीबाई फुले हैं। इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि अन्य बहुत सारी महिलाएं हुई हैं, जिनके नाम पर भी स्त्री अध्ययन पीठों की स्थापना की जा सकती है।

यह भी पढ़ें : रमाबाई, रमाई उर्फ रामू , जिनकी कुर्बानियों ने भीमा को डॉ. आंबेडकर बनाया

सवाल यह है कि यदि सावित्रीबाई फुले की जगह यदि सविता आंबेडकर (प्रो. रजनीश शुक्ल के शब्दों में माई साहब) के नाम पर भारत के अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय में यह पीठ क्यों स्थापित की जा रही है? जहां तक मेरा अध्ययन है, सविता आंबेडकर का स्त्री विषयक कोई ऐसा काम नहीं है, जिसे रेखांकित करने के लिए उनके नाम पर स्त्री अध्ययन पीठ बनाई जाए।

हां, एक तर्क बेशक हो सकता है, वह है डॉ. आंबेडकर के साथ पत्नी के रूप में उनका जुड़ाव। जिससे यह सोचा जा सकता है कि डॉ. आंबेडकर की पितृसत्ता की समझ को स्थापित करने, उसे आगे बढ़ाने और समकालीन समय से जोड़ने के लिए इस पीठ की स्थापना करने की घोषणा की गई है। प्रश्न यह उठता है कि अगर डॉ. आंबेडकर की स्त्री दृष्टि को आगे बढ़ाने और उनकी विरासत  के साथ स्त्री अध्ययन के प्रश्नों को जोड़ने के लिए ऐसा किया गया है, तो इसकी सबसे पहली हकदार रमाबाई आंबेडकर हैं, न कि सविता आंबेडकर। 

यह सर्वविदित है कि सविता आंबेडकर ने जीवन के एक महत्वपूर्ण पड़ाव पर डॉ. आंबेडकर के साथ उनके जीवनसाथी के रूप में रहीं और उनका साथ दिया तथा उनके साथ उन्होंने बौद्ध धम्म भी ग्रहण किया, लेकिन यह खुला तथ्य है कि सविता आंबेडकर उनके जीवन में तब आईं, जब डॉ. आंबेडकर अपनी प्रसिद्धि और उपलब्धियों के शीर्ष थे और भौतिक तौर पर भी उनका जीवन काफी बेहतर था। जबकि इसके विपरीत रमाबाई आंबेडकर ने उनके जीवन में उस समय प्रवेश किया था जब भीमा के डॉ. आंबेडकर बनने की प्रक्रिया शुरू हुई थी। दोनों ने 27 वर्षों तक जीवन के सुख-दुख सहे। दुख ज्यादा, सुख बहुत कम। दोनों की शादी 1908 में उस समय हुई थी, जब डॉ. आंबेडकर की उम्र 17 वर्ष और रमाबाई की उम्र 9 वर्ष थी। रमाबाई का मायके का नाम रामीबाई था। शादी के बाद उनका नाम रमाबाई पड़ा। आंबेडकर के अनुयायी माता रमाबाई को ‘रमाई’ कहते हैं। सच तो यह है, जैसा कि डॉ. आंबेडकर ने भी स्वीकार किया है, भीमा को डॉ. आंबेडकर बनाने में रमाबाई आंबेडकर ने खुद को एवं अपने तीन-तीन बच्चों को कुर्बान कर दिया। डॉ. आंबेडकर प्यार से रमाबाई को रामू कहकर पुकारते थे। उन्होंने रामू (रमाबाई) के निधन (1935) के करीब 6 वर्ष बाद, सन 1941 में प्रकाशित अपनी किताब ‘पाकिस्तान ऑर पार्टिशन ऑफ इंडिया’ को रमाबाई को इन शब्दों में समर्पित किया है– 

‘रामू की याद को समर्पित

‘उसके सुन्दर हृदय, उदात्त चेतना, शुद्ध चरित्र व असीम धैर्य और मेरे साथ कष्ट भोगने की उस तत्परता के लिए, जो उसने उस दौर में प्रदर्शित की, जब हम मित्र-विहीन थे और चिंताओं और वंचनाओं के बीच जीने को मजबूर थे। इस सबके लिए मेरे आभार के प्रतीक के रूप में।’ (आंबेडकर, 2019)    

समर्पण के इन शब्दों से कोई भी समझ सकता है कि डॉ. आंबेडकर रमाबाई के व्यक्तित्व का कितना ऊंचा मूल्यांकन करते हैं और उनके जीवन में उनकी कितनी अहम भूमिका थी। उन्होंने उनके हृदय की उदारता, कष्ट सहने की अपार क्षमता और असीम धैर्य को याद किया है। इस समर्पण में वे इस तथ्य को रेखांकित करना नहीं भूलते हैं कि दोनों के जीवन में एक ऐसा समय रहा है, जब उनका कोई संगी-साथी नहीं था। वे दोनों ही एक दूसरे के संगी-साथी थे। वह भी ऐसे दौर में जब दोनों वंचनाओं और विपत्तियों के बीच जी रहे थे। दोनों ने एक साथ मिलकर समाज के लिए कितना और किस कदर कष्ट उठाया इसका वर्णन उन्होंने ‘बहिष्कृत भारत’ की एक संपादकीय में भी किया है। उन्होंने इस बात पर भी विशेष जोर दिया है कि जिंदगी के एक बड़े हिस्से में (जब आंबेडकर विदेशों में पढ़ाई कर रहे थे) गृहस्थी का सारा बोझ रमाबाई ने अपने कंधे पर उठा रखा था। आंबेडकर विदेश से पढ़ाई करके वापस आने के बाद सामाजिक कामों में इस कदर लग गए कि उनके पास 24 घंटे में से आधा घंटा भी रमाबाई के लिए नहीं बचता था। रमाबाई उस वक्त भी गृहस्थी का सारा बोझ अकेले उठाती थीं।

सारे तथ्य इस बात के साक्षी हैं कि डॉ. आंबेडकर के जीवन को आकार देने और 17 वर्षीय भीमा को डॉ. आंबेडकर बनाने में रमाबाई आंबेडकर ने खुद को खपा दिया। जैसा कि मैं पहले कह चुका हूं कि सविता आंबेडकर उनके जीवन में तब आईं, जब डॉ. आंबेडकर प्रसिद्धि, सफलता के शीर्ष पर थे और भौतिक तौर भी बेहतर स्थिति में थे।

इन सारे तथ्यों को देखते हुए कहा जा सकता है और कहा जाना चाहिए कि पत्नी के रूप में डॉ. आंबेडकर स्त्री-पुरूष समानता की दिशा में डॉ. आंबेडकर द्वारा किए गए अनथक प्रयासों (1916 के शोध-पत्र से लेकर हिंदू कोड बिल तक) का पत्नी के रूप में यदि कोई प्रतीकात्मक वारिस हो सकता है, तो वह रमाबाई आंबेडकर हैं, न कि सविताबाई आंबेडकर।

निष्कर्ष के तौर मेरा कहना है कि महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में यदि स्त्री अध्ययन की कोई पीठ की स्थापना होती है, तो वह सावित्रीबाई फुले के नाम पर हो, क्योंकि डॉ. आंबेडकर की स्त्री दृष्टि फुले दंपत्ति की दृष्टि का ही विस्तार है, डॉ. आंबेडकर ने जिसका सैद्धांतिकरण किया। आज भी स्त्री संबंधों की ब्राह्मणवादी दृष्टि (स्त्री को पूरे जीवन पुरूष के अधीन रहना है) के बरक्स स्त्री-पुरूष समानता की बहुजन-दलित परंपरा के आधुनिक प्रतीक फुले दंपत्ति हैं। माना कि संघ के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के वैचारिक प्रतिनिधि (उन्होंने बातचीत के दौरान खुद इसकी घोषणा की) प्रो. रजनीश शुक्ल के लिए ब्राह्मणवाद को खुली चुनौती देने वाली सावित्रीबाई फुले को स्वीकार करना शायद मुश्किल काम था, जिन्होंने खुलेआम तौर पर कहा था कि- 

अतीत के इन ब्राह्मणों के धर्मग्रंथ फेंक दो
करो ग्रहण शिक्षा, जाति की बेड़ियों को तोड़ दो
उपेक्षा, उत्पीड़न और दीनता का अन्त करो !

पुनश्च, यदि डॉ. आंबेडकर की पत्नी के रूप में उनकी विरासत से भौतिक तौर पर जोड़ने के लिए कोई स्त्री अध्ययन पीठ बनाई जाती है, उसकी पहली हकदार रमाबाई आंबेडकर हैं, न कि सविता आंबेडकर। पता नहीं किस तर्क के आधार प्रो. रजनीश शुक्ल ने सविता आंबेडकर को आंबेडकर की विरासत का वाहक माना और उनके नाम पर स्त्री अध्ययन पीठ की घोषणा की।

(संपादन : नवल/अनिल/अमरीश)


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लेखक के बारे में

सिद्धार्थ

डॉ. सिद्धार्थ लेखक, पत्रकार और अनुवादक हैं। “सामाजिक क्रांति की योद्धा सावित्रीबाई फुले : जीवन के विविध आयाम” एवं “बहुजन नवजागरण और प्रतिरोध के विविध स्वर : बहुजन नायक और नायिकाएं” इनकी प्रकाशित पुस्तकें है। इन्होंने बद्रीनारायण की किताब “कांशीराम : लीडर ऑफ दलित्स” का हिंदी अनुवाद 'बहुजन नायक कांशीराम' नाम से किया है, जो राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित है। साथ ही इन्होंने डॉ. आंबेडकर की किताब “जाति का विनाश” (अनुवादक : राजकिशोर) का एनोटेटेड संस्करण तैयार किया है, जो फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित है।

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