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तीस साल बाद भी क्यों हैं पिछड़े अपने वाजिब हक-हुकूक से वंचित?

वर्ष 1990 में मंडल आयोग की अनुशंसाओं को आंशिक तौर पर ही लागू किया गया। क्रीमीलेयर के प्रावधान और पदोन्नति में आरक्षण नहीं दिए जाने के कारण ओबीसी की समुचित हिस्सेदारी नहीं बन सकी है। विधायिका में आरक्षण न होना भी एक बड़ी वजह है। बता रहे हैं सिद्धार्थ

मंडल दिवस (7 अगस्त, 1990) पर विशेष : आनुपातिक आरक्षण से ही मुमकिन है वर्ण-जाति आधारित असमानता का खात्मा

भारतीय सामाजिक जीवन के तथ्यों से परिचित कोई भी व्यक्ति इस सच्चाई से इंकार नहीं कर सकता कि भारत में मामला चाहे संसाधनों में हिस्सेदारी का हो या फिर शासन-प्रशासन में भागीदारी का, बहुसंख्यक दलित, पिछड़े और आदिवासी आज भी हाशिए पर हैं। और यह भी कि उनकी हैसियत क्या है।  दरअसल, हैसियत इससे तय होता है कि वर्ण-जाति के श्रेणीक्रम में उसकी अवस्थिति कहां है?  भारतीय संविधान के लागू होने ( 26 जनवरी 1950) के करीब 70 वर्ष बाद भी भारतीय समाज में सभी निर्णायक केंद्रों पर उन तथाकथित उच्च जातियों का बिना किसी अपवाद के करीब-करीब पूर्ण रूपेण नियंत्रण है, जिन्हें इस श्रेणीक्रम के शीर्ष तीन वर्णों – ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य- में शामिल किया गया था।  इस श्रेणी क्रम के चलते चौथे वर्ण शूद्रों (अन्य पिछड़ा वर्ग) की हैसियत हर स्तर पर इन तीन वर्णों से आज भी नीचे ही है। इन चार वर्णों से बाहर कद दिए गिए, अन्त्यजों (अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों) की स्थिति ऐतिहासिक तौर पर इस चौथे वर्ण से भी बदतर रही है और आज भी है, लेकिन राजनीतिक प्रतिनिधित्व, सरकारी नौकरियों एवं शिक्षा के क्षेत्र में दलितों की स्थिति आनुपातिक तौर पर ओबीसी से बेहतर हो गई है। यानि दलितों की स्थिति अन्य पिछड़ा वर्ग से उन क्षेत्रों  बेहतर हो गई है, जिन क्षेत्रों में उनके लिए संविधान लागू होने के साथ ही आरक्षण लागू हो गया. इन क्षेत्रों में ओबीसी, दलितों-आदिवासियों से पिछड़ गए क्योंकि उन्हें आरक्षण नहीं दिया गया, जो आरक्षण उन्हें छत्रपति शाहूजी महाराज ने अपनी कोल्हापुर रियासत में 1902 में ही प्रदान कर दिया था।  इसका निहितार्थ यह है कि वर्ण-जाति श्रेणीक्रम आधारित असमानता तोड़ने या कम करने का अभी तक केवल आरक्षण ही कारगर उपाय साबित हुआ है, इसके अलावा कोई भी अन्य उपाय मनु की संहिता की उस जकड़बंदी में सेंध नहीं लगा पाया है जिसमें उन्होंने वर्णों के आधार पर अधिकारों एवं कर्तव्यों का बंटवारा किया था और हर वर्ण की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक हैसियत तय कर दी थी। 

हम पाते हैं कि भले ही 26 जनवरी 1950 को लागू संविधान ने हर तरह के असमानता के खात्मे की सैद्धांतिक एवं औपचारिक घोषणा कर दी हो, लेकिन भारतीय समाज में आज भी वर्ण-जाति आधारित असमानता के श्रेणीक्रम का पूरी तरह पालन हो रहा है। पूंजीवादी विकास भी इसे तोड़ नहीं पाया है, इसके उलट उसने इस श्रेणीक्रम को और संस्थाबद्ध कर दिया है।

आइए, तथ्यों की रोशनी में वर्ण-जाति आधारित असमानता के श्रेणीक्रम और उसमें आरक्षण की भूमिका को देखते हैं। सबसे पहले देश की संसद को हैं। संसद  देश में जनप्रतिनिधियों की  सर्वोच्च निकाय ही नहीं, सबसे ताकतवर संस्था है क्योंकि उसे ही संविधान में संशोधन करने एवं कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है।  इसी संसद में भारत की संप्रभुता निहित है। देखते हैं कि इसमें किसका कितना प्रतिनिधित्व है। वर्तमान लोकसभा में (यानी 2019 में चुने गए सदन) कुल 543 सांसदों में 120 ओबीसी, 86 अनुसूचित जाति और 52 अनुसूचित जनजाति के हैं और हिंदू सवर्ण जातियों के सांसदों की संख्या 232 है। आनुपातिक तौर देखें, तो ओबीसी सांसदों का लोकसभा में प्रतिशत 22.09 है, जबकि मंडल कमीशन और अन्य आंकड़ों के अनुसार आबादी में इनका अनुपात 52 प्रतिशत है। इकनॉमिक टाइम्स में प्रकाशित एक विश्लेषण के मुताबिक, आबादी में करीब 21 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखने वाले सवर्णों का लोकसभा में प्रतिनिधित्व उनकी आबादी  से करीब दो गुना 42.7 प्रतिशत है। आखिर 52  प्रतिशत ओबीसी को अपनी आबादी के अनुपात से आधे से भी कम और सवर्णों को उनकी आबादी से दो गुना प्रतिनिधित्व क्यों मिला हुआ है। 

वाजिब अधिकारों से वंचित है देश में ओबीसी की 52 फीसदी आबादी

इसका सीधा सा कारण है भारतीय समाज में सवर्णों ( ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और कुछ अन्य) का वर्ण-जाति आधारित वर्चस्व। एससी-एसटी को उनकी आबादी के अनुपात में लोकसभा में इसलिए प्रतिनिधित्व मिला हुआ है क्योंकि उनके लिए आबादी के अनुपात में आरक्षण है। इस बात की पूरी संभावना है कि यदि एससी-एसटी के लिए आरक्षण नहीं होता तो उनका लोकसभा में प्रतिनिधित्व ओबीसी से भी बहुत कम होता। ओबीसी का उनकी आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व नहीं है क्योंकि उन्हें आबादी के अनुपात में विधायिका में आरक्षण प्राप्त नहीं है।

इसे नौकरशाही के संदर्भ में देखते हैं। भले ही संसद विधान बनाती हो, लेकिन नौकरशाही नीतियों के निर्माण एवं क्रियान्वयन के मामले में निर्णायक संस्था  है। उसमें विभिन्न मंत्रालयों के सचिव निर्णायक होते हैं। ‘द प्रिंट’ में प्रकाशित एक विश्लेषण के अनुसार, 2019 में पीएमओ सहित केंद्र सरकार के विभिन्न विभागों में कुल 89 शीर्ष आईएएस अधिकारियों ( सचिवों) में से एक भी ओबीसी समुदाय से नहीं था और इनमें केवल एक एससी  और 3 एसटी समुदाय के थे। अब जरा विस्तार से केंद्रीय नौकरशाही को देखते हैं। आरटीआई, 2005 के तहत मांगी गई सूचना के हिसाब से 1 जनवरी 2016 को केंद्रीय कार्मिक मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा जारी आंकड़े बताते हैं कि ग्रुप-ए के कुल 84 हजार 521 पदों में से 57 हजार 202 पर  सामान्य वर्गों ( सवर्णों) का कब्जा था यानि कुल नौकरियों के 66.67 प्रतिशत पर 21 प्रतिशत सवर्णों का नियंत्रण था। इसमें सबसे बदतर स्थिति 52 प्रतिशत आबादी वाले ओबीसी वर्ग की थी। इस वर्ग के पास ग्रुप-ए के सिर्फ 13.1 प्रतिशत पद थे यानि आबादी का सिर्फ एक तिहाई, जबकि सवर्णों के पास आबादी से ढाई गुना पद थे। कमोवेश यही स्थिति ग्रुप-बी पदों के संदर्भ में भी थी। ग्रुप बी के कुल पदों के 61 प्रतिशत पदों पर सवर्ण काबिज थे।

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यही स्थिति विश्वविद्यालयों-महाविद्यालयों के शिक्षक पदों में भी थी। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की वार्षिक रिपोर्ट (2016-17) के अनुसार 30 केंद्रीय विश्वविद्यालयों और राज्यों के 80 सरकारी विश्वविद्यालयों में प्रोफेसरों के कुल 31 हजार 448 पदों में सिर्फ 9 हजार 130 पदों पर ही ओबीसी, एससी-एसटी के शिक्षक है यानि सिर्फ 29.03 प्रतिशत। यहां 52 प्रतिशत ओबीसी की हिस्सेदारी केवल 4,785 (15.22 प्रतिशत) है जो कि आबादी के हिसाब से बहुत ही कम है।

अब जरा उन निर्णायक पदों को देखते हैं, जहां किसी समुदाय के लिए कोई आरक्षण नहीं है। ऐसा ही एक पद विश्वविद्यलय के कुलपतियों का है। उच्च शिक्षा व्यवस्था में कुलपति सबसे निर्णायक होता है, विशेषकर नियुक्ति एवं पदोन्नति के मामले में। 5 जनवरी, 2018 को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ( यूजीसी) द्वारा दी गई सूचना के अनुसार देश के  (उस समय के) 496 कुलपतियों में 6 एससी, 6 एसटी और 36 ओबीसी समुदाय के थे। यानि सवर्ण 90.33 प्रतिशत और ओबीसी 7.23 प्रतिशत, एसी 1.2 प्रतिशत और एसटी 1.2 प्रतिशत। यहां ओबीसी को अपनी आबादी का करीब आठवां हिस्सा प्राप्त है और एससी-एसटी को  न्यूनतम से भी न्यूनतम, क्योंकि उनके लिए भी यहां आरक्षण का प्रावधान नहीं है।  इसके पहले हम केंद्र सरकार के 89 सचिवों में एक के भी ओबीसी ने होने के तथ्य को देख चुके हैं, क्योंकि वहां भी आरक्षण नहीं है।

ओबीसी को आबादी के अनुपात में कम राजनीतिक प्रतिनिधित्व और सरकारी नौकरियों में कम हिस्सेदारी के कई कारण हैं, पहला आजादी के 42 वर्ष बाद (1992) में सरकारी नौकरियों में आरक्षण मिलना, दूसरा उच्च शिक्षा में आरक्षण मिलने में 56 वर्ष (2006) लग जाना और तीसरा उन्हें उनकी आबादी के अनुपात से आधा आरक्षण मिलना। चौथा सुप्रीम कोर्ट द्वारा ओबीसी के लिए  क्रीमी लेयर का प्रावधान तय कर देना। पांचवा, उन्हें पदोन्नति में आरक्षण  नहीं मिलना।

ओबीसी समुदाय के सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ेपन के सम्बन्ध में अनेक तथ्य उपलब्ध हैं। राष्ट्रीय संपदा में हिस्सेदारी के मामले में देखें तो पाते हैं कि (2013 के आंकड़े) कुल संपदा में ओबीसी की हिस्सेदारी सिर्फ 31 प्रतिशत है, जबकि सवर्णों की हिस्सदारी 45 प्रतिशत है,  दलितों की हिस्सेदारी अत्यन्त कम सिर्फ 7 प्रतिशत है, क्योंकि वे वर्ण-जाति के श्रेणीक्रम में सबसे नीचे हैं। कुल भूसंपदा का 41 प्रतिशत सवर्णों के पास है, ओबीसी का हिस्सा 35 प्रतिशत है और एससी के पास 7 प्रतिशत है। भवन संपदा का 53 प्रतिशत सवर्णों के पास है, ओबीसी के पास 23 प्रतिशत और एसीसी के पास 7 प्रतिशत है। वित्तीय संपदा ( शेयर और डिपाजिट) का 48 प्रतिशत सवर्णों के पास है, ओबीसी के पास 26 प्रतिशत और एससी के पास 8 प्रतिशत। भारत में प्रति परिवार औसत 15 लाख रूपया है, लेकिन सवर्ण परिवारों के संदर्भ में यह औसत 29  लाख रूपये है, ओबीसी के संदर्भ में 13 लाख और एससी के संदर्भ में 6 लाख रूपये है यानि  सर्वणों की प्रति परिवार औसत संपदा ओबीसी से दो गुना से अधिक है। (1) 

उपरोक्त तथ्य दो बातें प्रमाणित करते हैं। पहली यह कि भारतीय समाज में धन-संपदा, नौकरी, शिक्षा एवं राजनीतिक प्रतिनिधित्व सभी मामलों में मनु द्वारा संहितावद्ध वर्ण-जाति आधारित असमानता का श्रेणीक्रम आज पूरी तरह कायम है। यदि ओबीसी या दलितों की 70 वर्षों में बेहतर हुई है तो उनकी तुलना में सवर्णों की स्थिति और बेहतर हुई है यानि जो धन-संपदा एवं नौकरियां सृजित हुई हैं, उसके बड़े हिस्से पर पर मुट्टठीभर सवर्णों ने नियत्रंण कर लिया है। जिसके चलते वर्ण-जाति आधारित असमानता का श्रेणीक्रम टूटा नहीं, बल्कि कुछ क्षेत्रों में मजबूत हुआ है। जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण के चलते दलितों एवं आदिवासियों की आबादी के अनुपात में लोकसभा-विधानसभाओं एवं अन्य क्षेत्रों में प्रतिनिधित्व मिला  है, लेकिन ओबीसी को किसी भी क्षेत्र में आबादी के अनुपात में प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं हुआ है। दूसरा इन तथ्यों से यह प्रमाणित होता है कि सिर्फ उन्हीं क्षेत्रों में ही ओबीसी या दलितों के प्रतिनिधित्व में सापेक्षिक तौर पर वृद्धि हुई, जहां आरक्षण लागू है। इसका निहितार्थ यह है वर्ण-जाति आधारित असमानता के श्रेणीक्रम को तोड़ने का एक मात्र कारगर उपाय सिर्फ आरक्षण ही  है।

वर्ण-जाति आधारित ऐतिहासिक वंचना से मुक्ति के लिए ओबीसी को उनकी आबादी के अनुपात में आरक्षण मिलना चाहिए, क्रीमीलेयर खत्म होनी चाहिए और पदोन्नति में आरक्षण मिलना चाहिए। अब तो आर्थिक तौर पर पिछड़े ( इडब्ल्यूएस) वर्गों ( जिसका वास्तविक अर्थ सवर्ण है) को 10 प्रतिशत आरक्षण देकर सरकार ने आरक्षण की अधिकतम 50 प्रतिशत सीमा को भी तोड़ दिया है, और अब  कुल आरक्षण 60 प्रतिशत हो गया है। जाहिर तौर पर अब कोई वजह नहीं रह गई है कि ओबीसी को उसकी आबादी के अनुपात में आरक्षण न मिले।

संदर्भ :

  1. थोराट, सुखदेव, एवं एस. माधेश्वरन. (2018). ग्रेडेड कास्ट इनइक्वलिटी एंड पॉवर्टी: एविडेंस ऑन रोल ऑफ इकॉनमिक डिस्क्रिमिनेशन. जर्नल ऑफ सोशल इन्क्लूजन स्टडीज , 4(1), 3-29

संपादन (नवल/अमरीश)


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सिद्धार्थ

डॉ. सिद्धार्थ लेखक, पत्रकार और अनुवादक हैं। “सामाजिक क्रांति की योद्धा सावित्रीबाई फुले : जीवन के विविध आयाम” एवं “बहुजन नवजागरण और प्रतिरोध के विविध स्वर : बहुजन नायक और नायिकाएं” इनकी प्रकाशित पुस्तकें है। इन्होंने बद्रीनारायण की किताब “कांशीराम : लीडर ऑफ दलित्स” का हिंदी अनुवाद 'बहुजन नायक कांशीराम' नाम से किया है, जो राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित है। साथ ही इन्होंने डॉ. आंबेडकर की किताब “जाति का विनाश” (अनुवादक : राजकिशोर) का एनोटेटेड संस्करण तैयार किया है, जो फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित है।

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