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कारवां पत्रिका के पत्रकारों पर हमला करने वालों को क्यों बचा रही दिल्ली पुलिस?

बीते 11 अगस्त, 2020 को दिल्ली में कारवां पत्रिका के तीन पत्रकारों पर उन्मादी भीड़ द्वारा जानलेवा हमला किया गया और इनमें से एक महिला पत्रकार के साथ यौन हिंसा की गई। लेकिन घटना के चार दिन बाद भी दिल्ली पुलिस ने प्राथमिकी दर्ज नहीं की है। आखिर इसकी वजह क्या है? नवल किशोर कुमार की खबर

दिल्ली पुलिस का नया नारा है – “दिल्ली पुलिस, दिल की पुलिस”। यह नारा दिल्ली पुलिस ने अपनी छवि सुधारने के लिए गढ़ा है। लेकिन यह सिर्फ नारा है। हालत यह है कि दिल्ली प्रेस की प्रतिष्ठित पत्रिका कारवां के तीन पत्रकारों पर बीते 11 अगस्त, 2020 को हुए जानलेवा हमले और एक महिला पत्रकार के साथ हुई यौन हिंसा के मामले में दिल्ली पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी है। केंद्र सरकार के अधीन काम करने वाली दिल्ली पुलिस की कार्यशैली का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि घटना के चार दिन बाद भी प्राथमिकी तक दर्ज नहीं की गयी है। चूंकि यह घटना तब घटित हुई जब कारवां  के तीन पत्रकार फरवरी, 2020 में हुए दिल्ली हिंसा मामलें में एक शिकायतकर्ता से रिपोर्टिंग के सिलसिले में मिलने गए थे। ऐसे में यह सवाल भी उठता है कि क्या दिल्ली पुलिस द्वारा इस मामले में निष्क्रियता के पीछे कोई राजनीतिक साजिश है? 

उल्लेखनीय है कि इससे पहले 26 फरवरी, 2020 को फारवर्ड प्रेस से जुड़े स्वतंत्र पत्रकार सुशील मानव और उनके साथी व रंगमंच कलाकार अवधू आजाद के साथ उत्तर-पूर्वी दिल्ली के ही मौजपुर इलाके में घटित हुई थी।  दोनों को हिंदू बहुल इलाके में भीड़ ने बुरी तरह पीटा था। मार-पीट के दौरान भीड़ में शामिल एक शख्स ने कनपटी पर पिस्तौल सटाकर उनसे हनुमान चालीसा व गायत्री मंत्र पढ़ने को कहा था।

कारवां के पत्रकारों पर इस ताजा हमले के बाद देश भर के बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने चिंता व्यक्त की है तथा इसे अभिव्यक्ति स्वतंत्रता पर करारा हमला कहा है। इस संबंध में बीते 13 अगस्त को प्रेस क्लब ऑफ इंडिया ने एक बैठक आयोजित की जिसमें प्रसिद्ध लेखिका अरुंधति रॉय, जानेमाने अधिवक्ता प्रशांत भूषण, प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के अध्यक्ष आनंद सहाय और कारवां के पॉलिटिकल एडिटर हरतोष सिंह बल ने अपनी बात रखी। 

हमें पहेली के अदृश्य हिस्सों को दिखाना ही होगा : आनंद सहाय

प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के अध्यक्ष आनंद सहाय ने इस मौके पर कहा कि “हम [मीडियाकर्मी] केवल जनता की आंख और कान नहीं है – हम उसकी अंतरात्मा भी हैं और बने रहेंगे। पत्रकार ऐसे लोग हैं जो अपने पाठकों को सूचनाएं देते हैं, जो जानकारियों को वैचारिक परिप्रेक्ष्य में रखते हैं। हम अपने पाठकों को बताते हैं कि क्या हो रहा है, हम उन्हें समझाते हैं कि क्या हो रहा है और अगर ज़रुरत हो, तो हम जो हो रहा है उसकी निंदा भी करते हैं। परन्तु फरवरी में (उत्तर-पूर्वी दिल्ली दंगों में) जो कुछ हुआ, उस मामले में मीडिया ने अपनी यह ज़िम्मेदारी नहीं निभायी। [कारवां के] इन साहसी पत्रकारों की कहानी हमें बताती है कि फरवरी में जो कुछ हुआ … फरवरी से लेकर अगस्त तक अभी भी जारी है। और वह जारी रहेगा। केवल मीडिया के बतौर नहीं, केवल वाचडॉग के बतौर नहीं, परन्तु लोगों की अंतरात्मा को जगाने वालों के बतौर, उन्हें समझाने वालों के बतौर हमें चीज़ों को जोड़ पर पूरा परिदृश्य उन्हें दिखाना होगा। हमें पहेली के अदृश्य हिस्सों को खोजना होगा … यही हमारा काम है।”    

छोटे मीडिया संस्थानों में साबूत है रीढ़ की हड्डी : अरूंधति

वहीं अपने संबोधन में प्राख्यात लेखिका अरूंधति रॉय ने कहा कि “इस देश में हिंसा पर आधारित जिस फ़ासिस्ट विचारधारा का जन्म 1925 में हुआ था, वह अब सड़कों पर दिखाई दे रही है। वह जो कर रही है उसमें शामिल है हर किस्म के प्रतिरोध, हर किस्म के विरोध को समाप्त कर देना … एक आज़ाद वायरस इस देश में घूम रहा है, एक आज़ाद नफरत हवा में है। इसके कारण हमारी सडकें उन सभी के लिए खतरनाक बन गईं हैं जो उन सत्ताधारियों से असहमत हैं जिन्होनें इस देश की हर संस्था को अपने नियंत्रण में ले लिया है। इसलिए, हमें आज छोटे मीडिया संस्थाओं को सलाम करना चाहिए और उन व्यक्तियों को भी जिनकी रीढ़ की हड्डी में अब भी कुछ दम बचा है।” 

संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते (बाएं से दाएं) कारवां के पत्रकार प्रभजीत सिंह, लेखिका अरूंधति रॉय, प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के अध्यक्ष आनंद सहाय, वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण व कारंवा के राजनीतिक संपादक हरतोष सिंह बल

सड़क पर घूम रही खून की प्यासी भीड़ : प्रशांत भूषण

प्रसिद्ध अधिवक्ता व सामाजिक कार्यकर्ता प्रशांत भूषण ने कारंवा पत्रिका के पत्रकारों के साथ हुई लोमहर्षक घटना पर अपनी टिप्पणी में कहा कि  “देश की सड़कों पर कानून और व्यवस्था मानों बची ही नहीं है। सड़कों पर खून की प्यासी भीड़ घूम रहीं है। वे उन पत्रकारों को निशाना बना रहीं हैं जिनका लेखन उन्हें पसंद नहीं आता … सत्ताधारी दल ने अब तक इस घटना की निंदा नहीं की है और ना ही यह कहा है कि उससे उसका कोई सम्बन्ध नहीं है … बस किसी भी तरह मीडिया को डराने के, उस पर नियंत्रण करने के, उसे खरीदने का प्रयास हो रहे हैं। अगर इससे काम नहीं चलता, अगर मीडिया के कुछ लोग फिर भी नहीं मानते, अगर वे बिकने को तैयार नहीं होते तो उन्हें धमकाने के लिए सरकारी एजेंसियों को उनके पीछे लगा दिया जाता है जैसा कि एनडीटीवी के मामले में हुआ या रिपोर्टरों के साथ मारपीट की जाती है जैसा कि हमने यहाँ देखा।”

क्या हुआ था 11 अगस्त को कारवां के तीन पत्रकारों के साथ?

दरअसल, कारवां के तीन पत्रकार प्रभजीत सिंह, शाहिद तांत्रे और एक महिला पत्रकार सुभाष मोहल्ले में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हिंसा की एक शिकायतकर्ता से रिपोर्टिंग के सिलसिले में मिलने गए थे। इस बीच स्थानीय धर्मांध भीड़ ने उनके उपर हमला बोला। उनके अचानक हुए हमले में महिला पत्रकार भी शिकार हुई। उसे न केवल मारा पीटा गया बल्कि उसके सामने एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति ने खुद को नंगा कर लिया और अपने गुप्तांग दिखाये। जब वह ऐसा कर रहा था तब उसके चेहरे पर उन्मादी हंसी थी।

इस मामले में भजनपुरा पुलिस थाने में लिखित शिकायत दर्ज करायी गयी है। महिला पत्रकार ने अपनी शिकायत में लिखा है कि “जैसे ही मैं वहां से निकलने लगी, एक अधेड़ उम्र का आदमी, जिसने धोती और टीशर्ट पहन रखी थी और उसके गंजे सिर पर एक चोटी थी, वह मेरे सामने आकर खड़ा हो गया। उस आदमी ने अपनी धोती खोली और अपने गुप्तांग दिखाने लगा। वह आपत्तिजनक और अश्लील इशारे करने लगा और मुझ पर हंसने लगा।” वहीं इस मामले में शाहिद तांत्रे नामक पत्रकार भीड़ के हत्थे चढ़ गए थे। उन्मादी जब उन्हें लात-घूंसों से पीट रहे थे तब सांप्रदायिक गालियां भी दे रहे थे। यहां तक कि पुलिस की मौजूदगी में भी वे तांत्रे को खींचकर ले जाना चाहते थे और उनकी मॉब लिंचिंग कर देने पर उतारू थे। 

पुलिस की मौजूदगी में मारती रही भीड़

घटना के संबंध में कारवां के पत्रकार प्रभजीत सिंह ने फारवर्ड प्रेस से बातचीत में कहा कि रिपोर्टिंग के दौरान जब वे लोग सुभाष मोहल्ले में लगे भगवा झंडे की तस्वीर खींच रहे थे तभी लोग जुट गए और उनसे परिचय पत्र मांगने लगे। वे यह बताने पर संतुष्ट नहीं थे कि वे कारवां पत्रिका के रिपोर्टर हैं। इसी क्रम में जब शाहिद तांत्रे ने अपना परिचय पत्र दिखाया तब वे और भड़क गए। उन लोगों ने हमला बोल दिया। इस क्रम में महिला पत्रकार एक गली में घुस गयीं जहां एक गेट लगा था। इधर गेट के बाहर प्रभजीत और शाहिद भीड़ के बीच थे। भीड़ में शामिल लोग उन्हें मार रहे थे। 

यह भी पढ़ें : फारवर्ड प्रेस से जुड़े स्वतंत्र पत्रकार सुशील मानव हुए दिल्ली दंगे के शिकार

प्रभजीत ने बताया कि उन्हें इस बात की आशंका थी कि कहीं भीड़ में शामिल लोग शाहिद की हत्या न कर दें। वे उन्हें बचाने की कोशिश में लगे रहे। वे लोगों से बात कर रहे थे। लेकिन तब तक भीड़ उन्मादी भीड़ बन चुकी थी। उनके उपर मिन्नतों का भी कोई असर नहीं हो रहा था। पहले भीड़ में शामिल लोगों ने कहा कि कैमरे में ली गयी तस्वीर डिलीट करो। तस्वीर डिलीट करने के बाद भी वे शांत नहीं हुए। यह सब करीब पौन घंटे तक होता रहा तब जाकर दिल्ली पुलिस के दो कांस्टेबल वहां आए। लेकिन तब तक भीड़ में शामिल लोगों की संख्या पचास से अधिक थी और वे उन दो कांस्टेबलों का भी कहना नहीं मान रहे थे। इसके करीब आधे घंटे के बाद पुलिस की एक टीम आयी जिसमें कुछेक अधिकारी भी थे। प्रभजीत के मुताबिक, पुलिस ने उन्हें और शाहिद को भीड़ से बचाया और भजनपुरा थाना ले गयी। बाद में महिला पत्रकार भी किसी तरह अपनी जान बचाकर थाना पहुंचीं।

सवालों के घेरे में दिल्ली पुलिस

दरअसल, इस पूरे वाकये में शिकायतकर्ताओं द्वारा दी गयी जानकारी से यह तो स्पष्ट है कि पुलिस ने समय रहते आवश्यक कार्रवाई नहीं की। जबकि उन्हें इसकी सूचना थी कि एक भीड़ ने तीन पत्रकारों को घेर लिया और उनमें एक महिला पत्रकार भी शामिल है, इसके बावजूद पुलिस के नाम पर केवल दो कांस्टेबल पहुंचे जो भीड़ के सामने स्वयं बेबस थे। इसके बाद भी पुलिस को मौका-ए-वारदात पर पहुंचने में करीब आधा घंटा लगा। भजनपुरा पुलिस की कार्यशैली पर सवाल इससे भी उठता है कि जब तीनों पत्रकार थाने में थे तब चिकित्सकीय जांच करवाने के लिए भी पीड़ित पत्रकारों ने कहा। उनके बार-बार कहने पर पुलिस ने उनका मेडिकल करवाया।

वहीं इस मामले में यह तो साफ है कि कारवां पत्रिका के तीन पत्रकारों के उपर जो हमला हुआ उसका गवाह दिल्ली पुलिस भी रही। लेकिन इसके बावजूद पुलिस द्वारा एफआईआर दर्ज नहीं किया गया है। इस संबंध में फारवर्ड प्रेस ने भजनपुरा थाना के एसएचओ से बातचीत की तो उन्होंने केवल यह कहकर मामले को टाल दिया कि मामले की जांच चल रही है।

बहरहाल, चूंकि एफआईआर दर्ज नहीं किया गया है, इसलिए किसी के खिलाफ कोई कार्रवाई भी नहीं की गई है। अपने सामने हुई घटना के बारे में भी पुलिस द्वारा कोई कार्रवाई नहीं किया जाना सवाल तो खड़े करता ही हैं। 

(संपादन : अनिल/अमरीश)

लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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