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जीते आदिवासी, केआईएसएस से आईयूएईएस ने छीनी डब्ल्यूसीए-2023 की मेजबानी

राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मूलनिवासी नेतृत्व और भारतीय मानवशास्त्रियों के विरोध के मद्देनजर, आईयूएईएस ने कलिंग इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज को वर्ल्ड एंथ्रोपोलॉजी कांग्रेस की मेजबानी करने के अधिकार से वंचित कर दिया है। परन्तु इससे यह मुद्दा समाप्त नहीं हो जाता कि केआईएसएस एक फैक्ट्री स्कूल है, जो बड़ी खनन कम्पनियों के धन से संचालित होता है। गोल्डी एम. जार्ज की खबर

इंटरनेशनल यूनियन ऑफ़ एंथ्रोपोलॉजिकल एंड एथनोलॉजिकल साइंसेज (आईयूएईएस) ने घोषणा की है कि वर्ल्ड कांग्रेस ऑफ़ एंथ्रोपोलॉजी (डब्ल्यूसीए) 2023 की मेजबानी में भुवनेश्वर, ओडिशा स्थित कलिंग इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज (केआईएसएस) की कोई भूमिका नहीं होगी। आईयूएईएस ने बीते 16 अगस्त, 2020 को यह सूचना संबलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. दीपक कुमार बेहरा को एक पत्र के ज़रिए दी। इसके पहले, चार भारतीय संस्थाओं को डब्ल्यूसीए का आयोजन और उसकी मेजबानी करने की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी थी। ये थे : उत्कल विश्वविद्यालय (भुवनेश्वर, ओडिशा), संबलपुर विश्वविद्यालय (संबलपुर, ओडिशा), इंडियन एंथ्रोपोलॉजिकल एसोसिएशन (दिल्ली) और कलिंग इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज (केआईएसएस)। कांग्रेस का आयोजन केआईएसएस के कैंपस में किया जाना था। 

  

आदिवासियों के अधिकारों से सरोकार रखने वाले करीब दो सौ से अधिक नेताओं, शिक्षाशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, जनांदोलनों के प्रतिनिधियों और विद्यार्थी संगठनों आदि ने केआईएसएस को डब्ल्यूसीए, 2023 की मेजबानी सौंपे जाने का विरोध करते हुए एक अनुरोध पत्र  पर हस्ताक्षर किए थे। इस पत्र को आईयूएईएस के अध्यक्ष जुंजी कोइज़ुमी और उत्कल व संबलपुर विश्वविद्यालयों के कुलपतियों क्रमशः सौमेंद्र मोहन पटनायक और दीपक कुमार बेहरा को भेजा गया था। हस्ताक्षरकर्ताओं ने केआईएसएस पर गंभीर आरोप लगाते हुए इन तीनों संस्था प्रमुखों से अपील की थी कि वे इस संस्थान से कोई लेना-देना न रखें। 

प्रोफेसर डी. के. बेहरा को संबोधित पत्र में आईयूएईएस ने अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए लिखा, “आगामी वर्ल्ड एंथ्रोपोलॉजी कांग्रेस के आयोजन में केआईएसएस की भूमिका केवल अधोसंरचना, साजो-सामान और अन्य संसाधन उपलब्ध करवाने तक सीमित थी। आयोजन के अकादमिक और मानवशास्त्रीय आयामों के लिए शेष तीन संस्थाएं ज़िम्मेदार थीं। परन्तु, आयोजन में केआईएसएस की भागीदारी को लेकर राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विवाद बढ़ता ही जा रहा था। इस मसले पर भारत और दुनिया भर के मानवशास्त्रियों द्वारा व्यक्त विचारों को मद्देनज़र रखते हुए आईयूएईएस की कार्यकारी समिति ने विभिन्न स्तरों पर व्यापक विचार-विमर्श के बाद यह निर्णय लिया है कि 2023 की वर्ल्ड एंथ्रोपोलॉजी कांग्रेस के आयोजन में वह केआईएसएस से किसी प्रकार का सहयोग नहीं लेगी।”    

ध्यातव्य है कि यह वृहद आयोजन 15 से 19 जनवरी  2023 तक होगा और इसमें 150 देशों के 10 हजार से ज्यादा प्रतिभागियों की उपस्थिति अपेक्षित है। आईयूएईएस, दुनिया में मानवशास्त्र और नृवंशविज्ञान के अध्येताओं और शोधार्थियों की सबसे बड़ी संस्था है। इस संस्था द्वारा हर पांच वर्ष में आयोजित की जाने वाली कांग्रेस, मानव जाति के वैज्ञानिक अध्ययन में रत विद्वतजनों का सबसे पुराना जमावड़ा है और 45 साल बाद भारत में होने जा रहा है। 

आदिवासी और मानवशास्त्री केआईएसएस के विरोध में क्यों? 

भारत के मूलनिवासी ‘फैक्ट्री स्कूलिंग’ करने वालीं ऐसे संस्थाओं का विरोध करते आ रहे हैं जो आदिवासी बच्चों को शिक्षित करने की बजाय उन्हें उनकी जड़ों से, उनके इतिहास और संस्कृति से दूर करती हैं और आदिवासियों के जीने के तरीके को पिछड़ा, आदिम, असभ्य और अशिष्ट बताती हैं। ओडिशा के मंकिर्दिया नामक आदिम आदिवासी समुदाय के बारे में केआईएसएस के संस्थापक व सांसद अच्युत सामंत ने कहा था, “…वे केवल वन उत्पादों से अपना पेट भरते हैं और पत्तों से अपना शरीर ढंकते हैं। ओडिशा में 13 आदिम आदिवासी समुदाय रहते हैं। वे बंदरों की तरह पेड़ों की डालियों पर रहते और सोते हैं। उन्हें मंकिर्दिया – अर्थात बन्दर – कहा जाता है…कई तरह के आदिम समुदाय हैं…वे कुछ समझते ही नहीं हैं।”

केआईएसएस, ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर में स्थित एक आवासीय स्कूल है जो केवल आदिवासी बच्चों के लिए है। इसके संस्थापक अच्युत सामंत, कंधमाल से बीजू जनता दल के सांसद हैं। वर्तमान में केआईएसएस में ओडिशा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, मिजोरम, असम और अन्य राज्यों के विभिन्न आदिवासी समुदायों के करीब 30,000 लड़के-लड़कियां रहते हैं। केआईएसएस का इस दावे, कि वह ‘दुनिया का पहला आदिवासी विश्वविद्यालय’ है, से आदिवासी अध्येता कतई सहमत नहीं हैं। 

केआईएसएस में प्रार्थना सभा में भाग लेते और टूथ ब्रश का इस्तेमाल करने का अभ्यास करते विद्यार्थी

केआईएसएस जैसी संस्थाएं फैक्ट्री स्कूलिंग  के ज़रिये मूलनिवासियों की संस्कृति और परम्पराओं को संरक्षित रखने के मानवशास्त्र और नृवंशविज्ञान के प्रयासों को कमज़ोर कर रहे हैं। ये संस्थाएं, दरअसल, आदिवासी बच्चों पर प्रयोग करने वाली प्रयोगशालाएं हैं। आदिवासी अध्येताओं और मानवशास्त्रियों का तर्क है कि केआईएसएस में बच्चों को उड़िया बोलने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है जबकि उनमें से अधिकांश की मातृभाषा यह नहीं है। आदिवासी त्योहारों को हतोत्साहित किया जाता है और शायद ही कभी मनाया जाता है। वहां बच्चे सरस्वती और गणेश की पूजा करते हैं और इस प्रकार उच्च जातियों के हिन्दुओं की प्रथाओं और परम्पराओं के प्रभाव में आते हैं। 

मानवाधिकार संगठन सर्वाइवल इंटरनेशनल के अनुसार, “पूरी दुनिया में करीब बीस लाख आदिवासी बच्चों को फैक्ट्री स्कूलों में पढ़ाया जा रहा है, जहां उनकी देशज पहचान धूमिल की जाती है और उनके दिमाग में ऐसी चीज़ें भरी जातीं हैं जिनसे वे वर्चस्वशाली समाज के सांचे में ढल सकें। ये स्कूल बच्चों को उनके घरों, परिवारों, भाषा और संस्कृति से काट देते हैं और वहां उनका भावनात्मक, शारीरिक और यौन शोषण भी किया जाता है। उदाहरण के लिए, अकेले भारत के महाराष्ट्र राज्य में 2001 से 2016 के बीच, आवासीय स्कूलों में अध्यनरत लगभग 1,500 आदिवासी बच्चों की मौत हो गयी, जिनमें से 30 ने आत्महत्या की।” आदिवासी और मूलनिवासी अध्येताओं का कहना है कि शिक्षा पर समुदाय का नियंत्रण होना चाहिए और शिक्षा का लोगों की धरती, भाषा और संस्कृति से जुड़ाव होना चाहिए। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिससे मूलनिवासी समूहों में उनकी संस्कृति के प्रति अपराधबोध नहीं बल्कि गर्व का भाव उत्पन्न हो।       

यह भी पढ़ें:  आदिवासियों की संस्कृति को खारिज करने वाला केआईएसएस करेगा डब्ल्यूसीए-2023 की मेजबानी, आदिवासी बुद्धिजीवी खफ़ा

आईयूएईएस का स्पष्टीकरण

आईयूएईएस अध्यक्ष जुंजी कोइज़ुमी और महासचिव नोएल बी. सलाज़ार द्वारा हस्ताक्षरित पत्र में स्पष्ट किया गया है कि “यह निर्णय संबंधित संस्था (केआईएसएस) की कार्यपद्धति के प्रति किसी तरह का पूर्वाग्रह रखे बिना लिया गया है। परन्तु आईयूएईएस अपनी स्थापना के लक्ष्य – अर्थात राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर और आईयूएईएस और वर्ल्ड एंथ्रोपोलॉजिकल यूनियन (डब्ल्यूएयू) के अन्दर भी मानवशास्त्रियों को एक मंच पर लाने – के प्रति समर्पित बना रहेगा। आईयूएईएस की कार्यकारी समिति का यह निर्णय इस सिद्धांत पर आधारित है कि डब्ल्यूएसी के आयोजन जैसे महत्वपूर्ण मसले में सभी एकमत होने चाहिए।”  

आईयूएईएस ने कहा कि वह अगले डब्ल्यूएसी का आयोजन भारत में करने के लिए पूर्णतः प्रतिबद्ध है और इसलिए उसने भारत और दुनिया के मानवशास्त्रियों और उनके संगठनों और संस्थाओं से अनुरोध किया है कि वे आयोजन के लिए आवश्यक धन और अन्य संसाधन जुटाने में मदद करें। आईयूएईएस ने डब्ल्यूएसी 2023 की मेजबानी करने वाली शेष तीन संस्थाओं –  इंडियन एंथ्रोपोलॉजिकल एसोसिएशन और उत्कल व संबलपुर विश्वविद्यालयों से यह अपील की है कि वे आयोजन की सफलता के लिए काम करते रहें। 

आदिवासी बुद्धिजीवियों और नेताओं ने आईयूएईएस के निर्णय का किया स्वागत  

आदिवासी बुद्धिजीवियों, अध्येताओं और नेताओं ने आईयूएईएस द्वारा आयोजन से केआईएसएस जैसे फैक्ट्री स्कूल को अलग करने के निर्णय का स्वागत किया है। टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज के गुवाहाटी कैंपस के पूर्व निदेशक वर्जीनियस खाखा, जो सन 2014 में प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा गठित आदिवासी मामलों पर उच्च स्तरीय समिति के अध्यक्ष भी थे, ने इस निर्णय का स्वागत करते हुए कहा, “इससे सामंत का अपने आप को आदिवासियों का उद्धारक सिद्ध करने के प्रयास की हवा निकल जाएगी। असल में वे मूलनिवासियों के संस्कृति और परम्पराओं का दानवीकरण कर रहे हैं। आज हम विभिन्न समुदायों के बीच समानता की बात करते हैं। विविधता हमारे समकालीन समाज की पहचान है। हमें सभी की संस्कृतियों और परम्पराओं का आदर करने के सचेत प्रयास करने होंगे। जब आप अपनी संस्कृति और परंपरा का सम्मान नहीं करते तो दूसरे आपको नीचा दिखाते हैं, वे आपको ऐसा व्यक्ति बताते हैं, जिसकी कोई कीमत ही नहीं है। फिर, केआईएसएस जैसे फैक्ट्री स्कूलों के साथ अन्य समस्याएं भी हैं, जैसे वहां कितने आदिवासी शिक्षक हैं।”   

वर्जीनियस खाखा (बाएं) और छोटूभाई वसावा

मुद्दे और भी हैं। आदिवासी महिला अधिकार कार्यकर्ता एलिन लकरा पूछती हैं कि आखिर इस तरह का आयोजन एक निजी संस्थान में क्यों होन चाहिए – वह भी ऐसे संसथान में जो आदिवासियों को उनकी संस्कृति से विलग करने का प्रयास कर रहा है। लकरा कहतीं हैं, “आखिर क्या कारण है कि आईयूएईएस ने अमरकंटक जैसे आदिवासी विश्वविद्यालयों से संपर्क नहीं किया? जो संस्थान आदिवासियों को गैर-आदिवासी बनाने में रत हैं उनमें किसी तरह की मानवशास्त्रीय गतिविधियां नहीं होनी चाहिए। वर्ना हम इतिहास के औपनिवेशिक दौर में वापस चले जाएंगे। 

अन्य आदिवासी नेताओं को आदिवासियों के लिए फैक्ट्री स्कूल चलने वालों के इरादों पर संदेह है। भील समुदाय के एक प्रमुख नेता छोटूभाई वसावा, जो भारतीय ट्राइबल पार्टी के संस्थापक और गुजरात के झागडिया से विधायक हैं, कहते हैं, “वर्चस्वशाली समुदायों के लोग आदिवासियों को धोखा देने के लिए सामाजिक संगठन बनाते हैं। वे अपने राजनैतिक एजेंडा को हासिल करने के लिए उनका बलि के बकरों की तरह इस्तेमाल करते हैं। अगर अच्युत सामंत जैसे लोग समाजसेवा करना चाहते हैं तो वे राजनीति में क्यों आते हैं? इसका अर्थ यही है कि उनका असली एजेंडा आदिवासी अस्मिता को हमेशा के लिए समाप्त कर देना है।” 

यहां यह स्मरण दिलाना ज़रूरी है कि ओडिशा सरकार जिन उद्योगों और खनन परियोजनाओं की स्थापना के लिए एमओयू कर रही है उनमें से अधिकांश आदिवासियों के भूमि पर स्थापित होंगी। इस सन्दर्भ में वर्जीनियस खाखा पूछते हैं, “सरकार एक ओर इस तरह के एमओयू पर हस्ताक्षर कर रही है तो दूसरी ओर फैक्ट्री स्कूलों को प्रोत्साहन दे रही है। ओडिशा के आदिवासी इलाके, खनिज सम्पदा से भरपूर हैं परन्तु वहां के निवासी गरीब हैं। एक तरह से यह 17वीं और 18वीं सदी के औपनिवेशिक शासन की वापसी है। अंततः वे हमें बताएंगे कि जो लोग आदिवासी संस्कृति में रचे-बसे हैं वे आदिम, बर्बर, जंगली और असभ्य हैं। केआईएसएस से मेजबानी का अधिकार वापस लेना बहिष्करण की राजनीति को नकारने और विविधता की अवधारणा को मज़बूत करने के दिशा में कदम है।”  

आदिवासी मामलों का मंत्रालय, आदिवासी उपयोजना के अंतर्गत आदिवासियों की शिक्षा के लिए धन उपलब्ध करवाता है। इस धन से उपयोजना के नियमों के अनुरूप आदिवासी इलाकों में स्कूल व अन्य शैक्षणिक संस्थान स्थापित कए जाने चाहिए। निजी संस्थाओं द्वारा शिक्षा प्रदान करने के नाम पर छल-कपट किये जाने का विरोध करते हुए वसावा कहते हैं, “बच्चों को अपने अभिवावकों के साथ रहते हुए और बिना अपनी संस्कृति और पहचान खोये शिक्षा दी जानी चाहिए। केआईएसएस जैसे संस्थान एक तरह से बच्चों को कैदी बना लेते हैं। उन्हें उनके त्योहारों और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण मौकों पर उनके घर नहीं जाने दिया जाता। हम आईयूएईएस के निर्णय का स्वागत करते हैं और हमारे अनुरोध पर विचार करने के लिए उसे धन्यवाद देते हैं।”   

अस्मिता को मिटाने के प्रयास 

परन्तु इस निर्णय के बाद भी फैक्ट्री स्कूलों की समस्या बनी रहेगी। जो वुडमैन अपने एक अध्ययन, जिसका शीर्षक है, “जो हमारे बच्चों की शिक्षा को नियंत्रित करता है वही हमारे भविष्य का नियंता होता है,” में कहते हैं कि लाखों मूलनिवासी बच्चों को स्कूलों में उनकी मातृभाषा में बात करने से या तो रोका जाता है या हतोत्साहित किया जाता है। इससे देशज लोगों की भाषाओं का अस्तित्व खतरे में पढ़ जाता है। किसी भी भाषा के लुप्त होने की शुरुआत तब होती है जब बच्चे वह भाषा बोलना बंद कर देते है जो उनके माता-पिता बोलते हैं। यह एक बहुत बड़ी आपदा है क्योंकि किसी भी समुदाय की भाषा, उसकी संस्कृति, उसके जीवन और उसकी ऐतिहासिक विरासत को समझने के लिए आवश्यक होती है। फैक्ट्री स्कूल आदिवासी और अन्य मूलनिवासी बच्चों – जिनकी अपनी भाषा और संस्कृति है – को भविष्य के आज्ञाकारी श्रमिक बना सकती है। वुडमैन के अनुसार राज्य, जो कि दुनिया का सबसे बड़ा फैक्ट्री स्कूल है, उन लोगों को, जिन पर कर की राशि खर्च होती है, को करदाता, और देयताओं को आस्तियां बनाता है।” 

फैक्ट्री स्कूलों के प्रायोजक अक्सर बड़ी कम्पनियां और प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करने वाले औद्योगिक समूह होते हैं। ये उद्योग आदिवासियों की धरती, उनके संसाधनों और उनके श्रम को अपने लाभ के लिए प्रयुक्त करना चाहते हैं। फैक्ट्री स्कूल इन उद्देश्यों की पूर्ति की दीर्घकालिक योजना का हिस्सा हैं। केआईएसएस, जिसे वेदांता और अदानी सहित कई खनन कम्पनियां धन उपलब्ध करवातीं हैं, भी इसका अपवाद नहीं है। ये कम्पनियां ओडिशा के आदिवासियों की ज़मीन पर नज़रें गड़ाए हुए हैं। वुडमैन कहते हैं, “भारत और मेक्सिको में प्राकृतिक संसाधनों को चूसने वाले उद्योग, ऐसे स्कूलों को प्रायोजित करते हैं जो बच्चों को खनन को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं और उनके अपनी ज़मीनों से जुड़ाव को ‘आदिम’ बताते हैं। राज्य इन स्कूलों का उपयोग मूलनिवासियों के मन में राष्ट्रवाद का भाव भरने और उनके स्वतंत्रता आंदोलनों को कुचलने के लिए करते हैं। इससे दीर्घावधि में, अंततः, मूलनिवासियों के अलग पहचान समाप्त हो जाती है। 

(अनुवाद: अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

गोल्डी एम जार्ज

गोल्डी एम. जॉर्ज फॉरवर्ड प्रेस के सलाहकार संपादक रहे है. वे टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज से पीएचडी हैं और लम्बे समय से अंग्रेजी और हिंदी में समाचारपत्रों और वेबसाइटों में लेखन करते रहे हैं. लगभग तीन दशकों से वे ज़मीनी दलित और आदिवासी आंदोलनों से जुड़े रहे हैं

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