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गांधी और वाल्मीकि नहीं, आंबेडकर हैं भंगी समुदाय के महानायक

इस पुस्तक के माध्यम से लेखक न केवल वाल्मीकि अथवा भंगी कही जाने वाली जाति को डॉ. आंबेडकर के विचारों से अवगत कराना चाहता है बल्कि इस जाति से डॉ. आंबेडकर के भावनात्मक संबंधों को भी रेखांकित करना चाहता है ताकि वाल्मीकि समाज उन्हें अपने नेता, नायक, प्रेरणास्त्रोत और पथप्रदर्शक के रूप में स्वीकार करे, बता रही हैं पूनम तुषामड़

डॉ. भीमराव आंबेडकर ने भारतीय सामाजिक व्यवस्था में सबसे अधिक तिरस्कृत, अपमानित और शोषित, अछूत तबके को गरिमापूर्ण जीवन उपलब्ध करवाने की जद्दोजहद के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया था। वे एक ऐसा समाज देखना चाहते थे जिसमें समानता हो। वे मानते थे कि जब तक हर स्तर पर समानता नहीं होगी, तब तक सम्मान व गरिमा के साथ जीवन संभव नहीं है। डॉ. आंबेडकर ने जितने भी उपक्रम किए, उनके केंद्र में यही विमर्श था। उनके इस आंदोलन ने वाल्मीकि समाज को भी जागरूक बनाया और इस समुदाय के लोगों ने डॉ. आंबेडकर के आंदोलन को आगे बढ़ाया। 

दास प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘डॉ. आंबेडकर और वाल्मीकि समाज’ प्रख्यात समाजशास्त्री प्रो. श्याम लाल द्वारा लिखी गई है। प्रो. श्याम लाल ,पटना विश्वविद्यालय, पटना व जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर के पूर्व कुलपति तथा राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर के पूर्व कार्यकारी कुलपति हैं। उनके द्वारा 2018 में अंग्रेजी में लिखी गई ‘आंबेडकर एन्ड दी भंगीज: एफर्ट्स फॉर देयर अपलिफ्टमेंट’ शीर्षक किताब का हिन्दी अनुवाद कंवल भारती ने किया है।

इस किताब के केंद्र में भंगी (वाल्मीकि) समाज है। यह वह समाज है जो आज भी सफाई करने के अपने पारंपरिक पेशे की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है। इस किताब में इस मुद्दे पर भी चर्चा की गयी है कि दलित समाज का नायक किसे कहा अथवा माना जाय। हालांकि यह बहस नई नहीं है। समय समय पर विभिन्न राजनैतिक दलों द्वारा इसे उठाया जाता रहा है। अनेक दलित और गैर-दलित समाजशास्त्रियों, इतिहासकारों और साहित्यिक चिंतकों व विद्वानों ने भी इस विषय पर अपने विचार और मत प्रस्तुत किये हैं। परंतु, यह भी सच है कि उनमें मतैक्य नहीं रहा है। दलितों और उसमें भी ‘भंगी’ जाति के उद्धारक के रूप में किसे देखा जाए या वाल्मीकि और भंगी कही जाने वाली यह जाति किसे अपना नायक माने, यह सवाल आज भी प्रासंगिक हैं। वे क्या और कौन से कारण रहे जिनसे दलितों में भी दलित कही जाने वाली जातियों में शामिल भंगी जाति के लोग डॉ. आंबेडकर को आज भी अपना नायक मानने से झिझकते हैं। जबकि गांधी के प्रति उनके दिल में सम्मान का भाव है (ऐसे अनेक सवालों के जवाब इस पुस्तक में बेहद तार्किक और तथ्यात्मक रूप से प्रस्तुत किए गए हैं।) यह बहस केवल आंबेडकर या गाँधी को दलितों का मसीहा मानने तक सीमित नहीं है। इसके और भी अनेक राजनीतिक और सामाजिक पहलू हैं, जिन पर विचार किया जाना बेहद ज़रूरी है। समय-समय पर उठने वाली ऐसी चर्चाएं राजनीतिक सत्ता समीकरण में अहम भूमिका अदा करती हैं। खासकर ऐसी स्थिति में जब एक वृहद समुदाय का विश्वास मौजूदा सत्ता से उठने लगा हो या फिर उसके प्रति उदासीनता का वातावरण हो।

डॉ. आंबेडकर की तस्वीरों को हाथ में लेकर एक जुलूस में शामिल नौनिहाल

प्रो. श्याम लाल द्वारा की पुस्तक एक शोधपरक विश्लेषण है, जिसमें उन्होंने डॉ. आंबेडकर का साथ देने वाले व्यक्तियों, विद्वानों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और राजनेताओं के कथनों और विचारों का उल्लेख विभिन्न ऐतिहासिक, साहित्यिक, सामाजिक शोधपत्रों के हवाले से किया है।

लेखक ने इस पुस्तक में एडवोकेट भगवान् दास के विभिन्न लेखों और संस्मरणों का भी उल्लेख प्रमुखता से किया है, जिनमें वे डॉ. आंबेडकर के साथ हुई अपनी चर्चा और जीवनानुभवों को विस्तार से बताते हैं। भगवान् दास स्वयं वाल्मीकि अथवा भंगी कहे जाने वाले समुदाय से आते थे किन्तु अपनी विद्वत्ता और वैज्ञानिक सोच के फलस्वरूप वे बहुत कम समय में किस प्रकार डॉ. आंबेडकर के विश्वसनीय बन गए, यह इस पुस्तक में वर्णित उनके लेखों से जाना जा सकता है। 

पुस्तक का दूसरा अध्याय डॉ. आंबेडकर और वाल्मीकि समाज के संबंधों पर आधारित है। एक लम्बे समय तक दलितों में भी पेशे के आधार पर सबसे निचले पायदान पर धकेले गए भंगी अथवा वाल्मीकि जाति के लोगों के बीच ये विचार तेजी से प्रचारित किया गया कि डॉ. आंबेडकर केवल एक जाति विशेष के लिए संघर्ष कर रहे हैं और केवल उसी जाति के हक़ और अधिकार के लिए आवाज उठाते रहें हैं। इस विचार ने भंगी अथवा वाल्मीकि  जाति में एक धारणा का रूप ले लिया। जिसका परिणाम यह हुआ कि समाज में सबसे ज्यादा भेदभाव, छुआछूत और पेशागत घृणा के शिकार इन जातियों ने शिक्षा और ज्ञान के अभाव में डॉ. आंबेडकर को अपना नायक न मानकर गाँधी को अपना नायक तथा उद्धारक माना। यह पुस्तक  इस सन्दर्भ में बेहद साफगोई से अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों पर से पर्दा उठाती है।

समीक्षित पुस्तक ‘डॉ. आंबेडकर और वाल्मीकि समाज’ का कवर पृष्ठ

इस पुस्तक को पढ़ते हुए लेखक का इस पुस्तक को लिखने का उद्देश्य भी स्पष्ट दृष्टिगोचर हो जाता है। लेखक इस पुस्तक के माध्यम से न केवल वाल्मीकि अथवा भंगी कही जाने वाली जाति को डॉ. आंबेडकर के विचारों से अवगत कराना चाहता है बल्कि वह इस जाति से डॉ. आंबेडकर के भावनात्मक सबंधों को भी रेखांकित करना चाहता है ताकि वाल्मीकि समाज उन्हें अपने नेता, नायक, प्रेरणास्त्रोत व पथप्रदर्शक के रूप में स्वीकार करे। 

किताब में बताया गया है कि एक बार आंबेडकर जब उत्तरप्रदेश के दौरे थे तो कानपुर रेलवे स्टेशन पर बड़ी संख्या में भंगी नेताओं ने उनका विरोध किया। उनके खिलाफ नारे लगाए। डॉ. आंबेडकर ने महसूस किया कि यह रणनीति विरोधी पार्टियों की बनाई हुई है। उन्होंने तुरंत ही संदेश भेजकर भंगी जाति के कुछ नेताओं को बुलाकर उनसे भंगी समाज से संबधित मुद्दों पर बातचीत की। आंदोलनकारियों ने गरिमापूर्ण शांति बनाए रखी।

आंबेडकर आंदोलनकारियों को सच्चाई दिखाना चाहते थ। अतः उन्होंने नेताओं से कहा कि वे ट्रेन में उनके केबिन में जाएं और उनके साथ काम कर रहे कर्मचारियों के नाम तथा उनकी जाति लिखकर लाएं। उस सूची से उन्हें स्पष्ट हो गया कि वहां काम कर रहे कर्मचारियों में से 18 भंगी थे, एक ईसाई और एक अन्य जाति का था। इस प्रकार डॉ. आंबेडकर ने दिखाया कि उनके कार्यालय में काम करने वाले 20 कर्मचारियों में से 18 केवल भंगी जाति से थे। उन वाल्मीकि जाति के नेताओं को, जो उनका विरोध कर रहे थे, को उचित जवाब मिल गया। 

किताब में वाल्मीकि समाज के संबंध में गांधी के विचारों को भी रखा गया है। मसलन, महात्मा गांधी ने कहा था – “सामाजिक रूप से वे (भंगी) कुष्ठ रोगी हैं और आर्थिक रूप से वे गुलामों से भी बदतर हैं। धार्मिक रूप से उन्हें उन स्थानों पर प्रवेश भी करने से भी रोका जाता है, जिन्हें हम भगवान का घर कहते हैं।” एक अन्य स्थान पर गांधी कहते हैं कि “हमने उन्हें जानवरों के स्तर तक पहुंचा दिया है। वे कुछ तांबे के सिक्के भी अपनी मानवीय गरिमा को गवां कर कमाते हैं। उनके निरंतर उत्त्पीडन ने उन्हें कुचल दिया है। उन्हें शौचालय की दीवार की छाया में खाना खाते हुए देखना किसी के भी हृदय को द्रवित कर सकता है।” (पृष्ठ स. 92 )

बकौल लेखक “गांधी वास्तव में भंगियों के उस भयानक रहन-सहन और उसके सामाजिक पतन को देखकर, जिन्हें वे हिन्दू समाज में रहकर भोगते हैं, द्रवित हुए थे। उन्ही दिनों उन्होंने भंगी मुक्ति का अभियान भी प्रारम्भ किया था। इस समस्या के प्रति उनका दृष्टिकोण न केवल मानवतावादी बल्कि सामाजिक और क्रांतिकारी भी था … यह वही भावना थी, जिसने कई समाजसुधारकों को प्रेरित किया कि वे उनके प्रति हो रहे अमानवीय व्यवहार के प्रति आवाज उठाएं।” (पृष्ठ स. 92)

इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह पुस्तक समाज के सबसे निचले पायदान पर धकेल दिए गए इस समुदाय के लिए बेहद महत्वपूर्ण सिद्ध होगी और डॉ. आंबेडकर को लेकर भंगी अथवा वाल्मीकि समाज के युवाओं के मन में पल रही बहुत सी शंकाओं और भ्रांतियों को दूर करने में काफी मददगार साबित होगी। 

समीक्षित पुस्तक : डॉ. आंबेडकर और वाल्मीकि समाज
लेखक : प्रो. श्याम लाल
अनुवादक : कंवल भारती
प्रकाशक : दास प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य : 250 रुपए

(संपादन : नवल/अमरीश)


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लेखक के बारे में

पूनम तूषामड़

दिल्ली में एक दलित परिवार में जन्मीं डॉ. पूनम तूषामड़ ने जामिया मिल्लिया से पीएचडी की उपाधि हासिल की। इनकी प्रकाशित रचनाओं में "मेले में लड़की (कहानी संग्रह, सम्यक प्रकाशन) एवं दो कविता संग्रह 'माँ मुझे मत दो'(हिंदी अकादमी दिल्ली) व मदारी (कदम प्रकाशन, दिल्ली) शामिल हैं। संप्रति आप आंबेडकर कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में अतिथि अध्यापिका हैं।

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