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सवर्ण समुदायों को समाज सुधार की जरूरत

पहले यह समझना जरूरी है कि आखिर क्‍यो सवर्ण समाज में समाज सुधार की ज्‍यादा जरूरत है। डॉ. आंबेडकर कहते हैं कि समस्‍या सवर्ण समाज में है। अत: सुधार वहां होना चाहिए। लेकिन ये लोग वंचितों को सुधारने में लगे रहते है। और सवर्ण समाज को शोषण करने की खुली छूट देते रहते है। संजीव खुदशाह का विश्लेषण

लेख श्रृंखला : जाति का दंश और मुक्ति की परियोजना

एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में भारत में जाति सिर्फ अपना रूप बदल रही है। निर्जात (बिना जाति का) होने की कोई प्रक्रिया कहीं चलती नहीं दिखती। आप किसी के बारे में कह सकते हैं कि वह आधुनिक है, उत्तर आधुनिक है- लेकिन यह नहीं कह सकते कि उसकी कोई जाति नहीं है! यह एक भयावह त्रासदी है। अक्सर लोग यह मानते हैं कि जातिवाद के शिकार दलित-बहुजन जातियां हैं और उनके कारण ही जातिवाद भी है। ऐसी टिप्पणियां आए दिन प्रगतिशील तबका करता रहता है। जबकि वास्तविकता यह है कि जाति की जड़ता सबसे अधिक उनके अंदर ही है। क्या हो जाति से मुक्ति की परियोजना? एक लेखक, एक समाजकर्मी कैसे करे जाति से संघर्ष? इन्हीं सवालों पर केन्द्रित हैं फारवर्ड प्रेस की लेख श्रृंखला “जाति का दंश और मुक्ति की परियोजना”। इसमें आज पढें संजीव खुदशाह को

जाति के खोल से बाहर निकलें भारत के सवर्ण

  • संजीव खुदशाह

देश के सवर्ण जड़ता छोड़ समतामूलक समाज के निर्माण में आगे बढ़ें, इस दिशा में सुधार का काम कम ही हुआ है। हालांकि ऐसी बात भी नही है कि सवर्ण समाज से कोई समाज सेवक नहीं हुए हैं। लेकिन वे सारे अपने समाज को छोड़कर दूसरे समाज को सुधारने में लगे रहे। जबकि सवर्ण समाज में समाज सुधार की बेहद जरूरत है। चंद सवर्ण समाज सुधारकों में एक राजा राममोहन राय अग्रणी हैं जिन्‍होंने अपने सवर्ण समाज को सुधारने का बीड़ा उठाया था। हालांकि उन्‍हें अपने समाज का ही विरोध झेलना पड़ा। फिर अंग्रेजों ने उनकी मदद की। 

अनेक सवर्ण समाज सुधारको ने शोषित समुदाय (दलित, आदिवासी व पिछड़ा वर्ग) के बीच जाकर कार्य किया। इन्हें तीन विचारधाराओं को माननेवालों में विभाजित किया जा सकता है। पहले गांधीवादी, दूसरे कम्‍युनिस्ट और तीसरे खिचड़ी यानी गांधीवादी और कम्‍युनिस्ट दोनों। इनमें ज्‍यादातर लोग अपनी-अपनी विचारधारा के आधार पर लोगों को संगठित करने, शिक्षित करने की कोशिश करते रहे है। कुछ लोगो ने इसे व्‍यवसाय के रूप में भी अपनाया। दलित आदिवासियों के नाम पर एनजीओ खोला, खूब नाम और पैसा कमाया। 

इसी प्रकार अंधश्रद्धा निर्मूलन का काम अनेक सवर्णो ने किया और उनका भी कार्य क्षेत्र दलितों, आदिवासियों और पिछड़ा वर्ग के बीच ही रहा। यानी शोषित तबका। डायन प्रथा, झाड़-फूंक, गंडा-ताबीज, टोना-टोटका पर उन्‍होंने अंधविश्‍वास की मुहर लगा दी। कुछेक सवर्णों ने विरोध भी किया और वे विरोध करने गांव-गांव गए। लेकिन वे अपने खुद के समाज में फैले अंधविश्‍वासाें पर खामोश रहे और विभिन्न कर्मकांडों को मौन समर्थन दे दिया। यहां तक कि एक प्रकार से अंधविश्वासों को विज्ञान का दर्जा दे दिया। 

सवर्ण समाज में समाज सुधार की जरूरत क्यों है?

पहले यह समझना जरूरी है कि आखिर क्‍यो सवर्ण समाज में समाज सुधर की ज्‍यादा जरूरत है। डॉ. आम्बेडकर कहते हैं कि समस्‍या सवर्ण समाज में है। अत: सुधार वहां होना चाहिए। लेकिन ये लोग वंचितों को सुधारने में लगे रहते है। और सवर्ण समाज को शोषण करने की खुली छूट देते रहते है। उन्होंने अपनी कृति ‘’जाति का विनाश’’ के दूसरे संस्करण की भूमिका में गांधी के सवालों का जवाब देते हुए लिखा था कि “दुनिया को उन विद्रोहियों का शुक्रगुजार होना चाहिए जिन्होंने धर्म गुरुओं के सामने खड़े होकर तर्क-वितर्क किया और उन्हें बताया कि आप गलत भी हो सकते हैं। मुझे नहीं मालूम कि किसी प्रगतिशील समाज में जो श्रेय विद्रोहियों को मिलता है, वैसा श्रेय मुझे मिलेगा या नहीं। मैं अगर हिंदुओं (यानी सवर्णों) को यह समझा पाया कि वह भारत के बीमार लोग हैं और उनकी बीमारी की वजह से देश के बाकी लोगों की सेहत को खतरा है, तो मैं समझूंगा कि मैंने अपना काम कर दिया।” 

डॉ. आंबेडकर ने भी किया था आह्वान : सवर्णों को समाज सुधार की जरूरत

 प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु कुमार 30 अप्रैल, 2020 को फेसबुक पर अपने पोस्ट में लिखते हैं कि “मेरा जन्म एक सवर्ण हिंदू परिवार में पुरुष के रूप में हुआ है। इसीलिए मेरा दायित्व है कि मैं सवर्ण हिंदुओं और पुरुषों की समस्या पर सबसे पहले ध्यान दूं। जातिवाद सवर्णों की समस्या है,दलितों की नहीं।” 

यानी शोषित को सुधार की जरूरत नहीं बल्कि शोषणकर्ता को सुधारने की जरूरत ज्यादा है। आइए, जानने की कोशिश करते हैं कि सवर्ण समाज के समाज सुधार में किन-किन बिंदुओं को लिया जाना चाहिए।

(1) जातिवाद : सवर्ण समाज का जातिवादी होना, अपनी जाति पर गर्व करना, दूसरी जातियों का अपमान करना, जाति आधारित फायदे लेना आम है। जातिगत अहंकार की  ज़रा सी आलोचना भी उन्हें विचलित कर देती है। इसे ‘पद्मावती’ फिल्म के विवाद को देखकर समझा जा सकता है। बेशक यह एक बुराई है लेकिन सवर्णों के लिहाज से बेहद महत्त्वपूर्ण। चूकिं सवर्ण जाति व्यवस्था से लाभान्वित होते हैं, उन्हें श्रम नहीं करना पड़ता, इसलिए वे किसी ना किसी तरीके से उसे बनाए रखना चाहते हैं। इसके लिए वे संस्कृति का उपयोग करते हैं, प्राचीनता की दुहाई देते हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि जातिगत अहम से बड़े-बड़े सामाजिक कार्यकर्ता भी नहीं बच पाते है। वे लोग जो समानता की बात करते हैं, जातिविहीन समाज की वकालत करते हैं, भी इससे अछूते नहीं हैं। किसी ना किसी प्रकार से अपनी जातिगत श्रेष्ठता का प्रदर्शन करते रहते हैं।

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शासन-प्रशासन में अधिक भागीदारी होने के कारण ऐसे लोग पैसा, मान सम्मान से लेकर सरकारी, गैर सरकारी पुरस्कार भी हासिल कर जाते हैं। कोर्ट से लेकर मीडिया, प्रशासन तक सवर्ण समाज का कब्जा है। अपनी बिरादरी को येन-केन-प्रकारेण फायदा पहुंचाना इनके लिए आम बात है। 

कहना न होगा कि आज तक सुई से लेकर हवाईजहाज तक कोई भी अविष्कार भारत में नहीं हुआ। क्योंकि यहां के द्विज अपने जातीय अहम से गौरवान्वित होते रहना चाहते रहे हैं। उनमें यह समस्या इतनी विकराल है कि इसने भारत के विकास को बाधित कर रखा है और इसकी छवि पूरे विश्व में धूमिल है कि इतनी बड़ी आबादी (करीब 135 करोड़) वाले देश के पास कहने को अपना कुछ भी नहीं है। यहां तक कि भारत के जिन प्रांतों में यह समाज गया, अपनीबुराइयों को साथ ले गया। भारत तकनीकी में, समानता में, भाईचारे में, पिछड़ा हुआ है। सवर्ण समाज के भीतर जाति प्रथा का उन्मूलन अब तक किसी ने भी नहीं किया और न ही इसपर कोई काम हुआ है। अब तक सवर्ण जाति के जो लोग स्वयं को जाति उन्मूलन कार्यकर्ता बताते हैं, वे सिर्फ दलित आदिवासी और पिछड़ा वर्ग के बीच ही अपनी राजनीति चमकाने में लगे रहते हैं। अपने समाज की बुराइयों से आंखें मूंद लेते हैं।

(2) अंधविश्वास : भारत में जाति प्रथा का ग्राफ देखें तो ज्ञात होता है कि जाति की उच्चता के साथ-साथ अंधविश्वास का ग्राफ भी बढ़ता जाता है। यानी छोटी जाति थोड़ा अंधविश्वास और ऊंची जाति ज्यादा अंधविश्वास। हम देखते हैं कि इस प्रवृत्ति से न केवल अंधविश्वास बढ़ता है, बल्कि उसे मानने-मनवाने की मजबूत प्रवृत्ति भी दिखाई पड़ती है। निम्न जाति के व्यक्ति को यदि आप समझाएंगे तो वह डायन प्रथा, टोना टोटका को अंधविश्वास मानने लगेगा। ऐसा वह अशिक्षा के कारण करता है। लेकिन ऊंची जातियों के पढ़े-लिखे व्यक्ति भी जनेऊ और ज्योतिष में विज्ञान ही देखते हैं।। इसे अंधविश्‍वास के तौर पर उद्धृत किया जाय तो बाजदफा वे बेकाबू भी हो जाते हैं। 

आश्चर्य की बात है कि अंधश्रद्धा के खात्मे को लेकर काम करने वाले ज्यादातर लोग ब्राह्मण हैं या सवर्ण जातियों के हैं। आप महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्‍तर प्रदेश का उदाहरण देखें लें। ये अंधश्रद्धा निर्मूलन को लेकर काम करनेवाले तर्कशील कार्यकर्ता ग्रामीण क्षेत्रों में दलित आदिवासी और पिछड़ा वर्ग के बीच अंधश्रद्धा निर्मूलन का कार्य करते देखे जाते हैं। लेकिन ये सवर्ण कार्यकर्ता कभी ब्राह्मण ठाकुर की बस्तियों में जनेऊ, ज्योतिष, वेदों के बारे में जागरूकता फैलाते नहीं देखे जाते,  जहां अंधश्रद्धा से मुक्ति की ज्यादा जरूरत है। वे यह समझकर अपनी आंखें मूंदे रहते हैं मानो सवर्ण समाज का अंधविश्वास, अंधविश्वास नहीं, विज्ञान है। दरअसल छोटी जातियों के लोग इन्हीं से देखकर अंधविश्वास सीखते हैं। लेकिन बड़े-बड़े अंधविश्वास निर्मूलन संगठनों की अगुवाई करने वाले अपनी प्रतिभा दिखाने के लिए गरीब क्षेत्रों में दलित, आदिवासी और पिछड़ा वर्ग को ही चुनते हैं। और अपने समाज, परिवार के अंधविश्वास पर वैज्ञानिकता का मुहर लगा देते हैं। जबकि सवर्ण समाज को अपने ही समाज में अंधश्रद्धा निर्मूलन का आंदोलन चलाना चाहिए जिसकी वहां ज्यादा जरूरत है।

(3) शोषणकारी प्रवृत्ति : सवर्ण समाज की मनोवृति में मनुस्मृति बसी हुई है। दलित, आदिवासी और पिछड़ा वर्ग का शोषण करना उसे एक आम बात लगती है। बेगारी करवाना, नीचा दिखाना, बेइज्जत करना, कोई अपराध नहीं माना जाता। एक सवर्ण न्यायाधीश के तौर पर, एक अफसर के तौर पर, एक नेता के तौर पर जातिगत भेदभाव करता है। एक सवर्ण न्यायाधीश सवर्ण आरक्षण की छूट देता है तो वहीं पिछड़ा वर्ग के आरक्षण पर रोक लगाता है। ऐसी तमाम घटनाएं देशभर में हो रही हैं, जो इस बात की पुष्टि करती हैं कि हर स्तर पर सवर्ण समाज, भेदभाव करता है। मीडिया के क्षेत्र में भी दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के सवालों पर बात करने वाला सवर्ण ही होता है। यानी दलित, आदिवासी, पिछड़ा वर्ग व मुसलमान सभी की अगुवाई सवर्ण करता है। वंचित तबके को अपनी बात रखने, अगुवाई करने से वंचित रखता है। एक आम सवर्ण दलितों को घोड़ी पर चढ़ने नहीं देता, जूते में मूत्र पिलाता है, गोबर खिलाता है। मॉब लिंचिंग एक आम बात हो गई है। आखिर इनके बीच जाकर समाज सुधार कौन करेगा? क्यों इनकी बीच समाज सुधार का बीड़ा नहीं उठाया जाता है। यह एक बहुत बड़ा प्रश्न है।

(4) यथास्थितिवादी : ज्यादातर सवर्ण यथास्थितिवादी होते हैं। समाज में कोई भी बदलाव उन्हें स्वीकार नहीं है। अपने आप को प्रगतिशील कहने वाले लोग भी अपने जातिगत लाभ के लिए सामाजिक परिवर्तन के प्रति चेतना शून्य हो जाते हैं। वह कहते हैं कि छुआछूत व् जाति प्रथा खत्म हो गई है। हम साथ उठ-बैठ रहे हैं। पहले कहां होता था यह सब। कई कुरीतियों पर प्रश्न किए जाने पर कहते हैं कि यह तो सनातन काल से होता रहा है। वेद झूठ बोलेंगे क्या?

(5) आरक्षण विरोधी रवैया : सवर्णों का आरक्षण विरोधी होना एक प्रकार से मूल अधिकार रहा है। जबकि खुद मनु द्वारा दिये आरक्षण का लाभ सदियों से ले रहे है। आरक्षण के नाम पर दलित आदिवासियों पिछड़ा वर्ग के बारे में नफरत के बीज बोए जाते हैं। सवर्णों को चाहिए कि वे आरक्षण को समझें, उसकी जरूरत को महसूस करें। सैकड़ों सालों से उनके पूर्वजों द्वारा शोषित किए गए लोगों को प्रतिनिधित्व का अवसर दें। इस संबंध में सवर्णों के बीच जाकर काम करने की बेहद जरूरत है। इसके लिए उन्हीं के बीच के विचारको को आगे आना होगा। आरक्षित वर्ग के लिए उनके द्वारा ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है जिसे यहां लिखा जाना संभव नहीं। जैसे- सरकारी दामाद, आरक्षणखोर, हराम की खाने वाले। सात दशकों से आरक्षण के संवैधानिक प्रावधान होने के बावजूद आज भी वंचितों को उनका हिस्सा नहीं मिल पाया है। आज भी सवर्ण 15 प्रतिशत होने के बावजूद 85 फीसदी संस्थानों में कब्जा जमाए हुए हैं। 

बहरहाल, ये वे चंद बातें हैं, जिनपर सवर्णों के बीच काम करने की जरूरत है। इनमें कई और बातें जोड़ी जा सकती हैं। जाहिर तौर पर यह काम कोई दलित, आदिवासी या पिछड़ा वर्ग का व्यक्ति नहीं कर सकता। इसके लिए सवर्ण समाज के बीच से ही किसी को तोलोस्तोय बनना होगा। 

(संपादन : नवल/अमरीश)

लेखक के बारे में

संजीव खुदशाह

संजीव खुदशाह दलित लेखकों में शुमार किए जाते हैं। इनकी रचनाओं में "सफाई कामगार समुदाय", "आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग" एवं "दलित चेतना और कुछ जरुरी सवाल" चर्चित हैं

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