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बहस-तलब : महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे द्विज साहित्यकारों की करतूत समझें बहुजन

ऐसा प्रतीत होता है कि हीरा डोम नामक कोई कवि कभी था ही नहीं। उसके नाम से “अछूत की शिकायत” कविता किसी और ने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए लिखी है। और मुझे यकीन है कि यह काम आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के अलावा कोई दूसरा नहीं कर सकता। बता रहे हैं रामजी यादव

आज मैं जाति पर बात करना चाहता हूं। लेकिन वास्तव में यह जाति पर नहीं बल्कि बहिष्कृत समाजों पर बात होगी कि किस प्रकार उन्हें लगातार हाशिए पर रखा जा रहा है और उनकी विशाल संख्या होने के बावजूद वे अभी भी सामान्य मानवीय जीवन भी नहीं जी पा रहे हैं। उनके पास नेतृत्व नहीं है और उनके मांगपत्र लगातार सत्ता द्वारा फाड़कर कचरे के डब्बे में फेंक दिए जाते हैं। उनकी रुदाद किसी के कान में नहीं पड़ रही है। उनमें आत्माभिव्यक्ति की भूख नहीं पैदा हो रही है और उनका साहित्य नहीं बन पा रहा है। उनका साहित्य न बनना किसी जन विरोधी व्यक्ति के लिए उनकी अयोग्यता हो सकती है, लेकिन मुझे लगता है कि अयोग्यता कोई चीज नहीं होती। बस मुहाना फूटने की देर है फिर तो दर्द शब्दों में अंटना मुश्किल होगा। और यह मुहाना किसी समाज में तब फूटता है जब उसके भीतर से लोगों के बाहर आने की बेचैनी और छटपटाहट पैदा होती है और मुझे नहीं लगता कि अब ज्यादा देर लगने वाली है।

लेकिन कबीर मुझे कभी-कभी बहुत डरा देते हैं। वे इन बहिष्कृत जातियों की अति चुप्पी पर नाराज हो चुके हैं। लेकिन इनकी गति वही की वही रही। इन्होंने न अपने आप को बदला न विद्रोह किया। इसी काशी में कबीर ने कविता कह-कहकर पूरी जवानी गुजार दी और इसी काशी में एक परिवार ऐसा रहा है जिसे अपने डोम राजा होने पर गर्व रहा। कोई गुस्सा नहीं। कोई क्षोभ नहीं। अपने हालात को लेकर कोई असंतोष नहीं। मिथक में ऐसे जीते जाना कि स्वर्ग का दरवाजा उनकी बेची हुई आग से ऊपर उठते धुएं से खुलता है। तो क्या सारी दुनिया के लोग नर्क में जाते हैं? अपने जीवन को सार्थक बताने के लिए वही ब्राह्मणों की गढ़ी फर्जी कहानियां दुहराते रहते हैं, लेकिन कभी इस बात पर आत्ममंथन नहीं करते कि उनका जो यह पेशा है, क्या वह वाकई में गर्व करने योग्य है, जैसा कि वे करते चले जा रहे हैं। बच्चे पढ-लिखकर प्रोफेसर बनें, लेखक बनें, डीएम-एसपी बनें, चित्रकार बनें या नेता बनें। नहीं कुछ नहीं। डोमराजा हैं। ठाठ से खा रहे हैं। इतना ही बहुत है कि दूर-दूर से मुर्दे लाने वाले लोग विनम्र होकर आग मांग रहे हैं। बदले में पैसा दे रहे हैं। कहने को तो एक आदमी ने मुझे बताया कि सत्यवादी हरीशचंद्र के समय से ही यह सब चल रहा है। और दर्जनों पीढ़ियों के लिए पैसा इकट्ठा कर रहे हैं लेकिन मनुष्य के रूप में इज्जत कितनी है। क्या कोई डोम बनारस में होटल खोलकर या मिठाई की दुकान खोलकर चला सकता है अगर वह डोमराजा होटल या मिष्ठान्न भंडार के नाम से हो। 

पूरे देश में कहीं भी डोम जाति के लोगों की कोई इज्जत नहीं है। पूर्वांचल के सीमावर्ती जिलों में उन्हें कोई कुएं पर नहीं चढ़ने देता। जहां उनकी संख्या ज्यादा है, वहां सूअर चरा कर और खेतों में खटकर वे पूरी जिंदगी गुजार देते हैं, लेकिन हालात नहीं बदलते। कहानीकार सुभाषचन्द्र कुशवाहा की अनेक कहानियों में वे पात्र हैं और हर जगह बुरे हालात, भयावह गरीबी, भुखमरी, शोषण और उत्पीड़न के शिकार हैं। हर जगह वे दुत्कारे जाते हैं और किसी सरकारी योजना, मनरेगा की मजदूरी अथवा वोट देने का मौका आने पर बरगलाए जाते हैं, लेकिन उनमें विद्रोह नहीं फूटता। असंतोष की आग में वे नहीं जलते। ऐसा मौका तभी आ पाता है जब उनके घर का कोई बच्चा बाहर कमाने जाता है और गांव आने पर अपमानित होता है। लेकिन इसका भी कोई सार्थक फल नहीं दिखता। लगता है इनके दिमाग में गुलामी की नसें बांध दी गई हों। मार खाना या बेइज्जत होना उन्होंने स्वाभाविक मान लिया है। उनकी गरीबी का आलम तो क्या ही कहा जाय। 

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की तस्वीर

कई बार मुझे लगता है कि अगर कबीर ने अपने जीवनकाल में अपना कविता संग्रह छपवाया होता तो निश्चित ही वे अब तक संसार से विलुप्त हो चुके होते। कौन उनके संग्रह का लोकार्पण करता और कौन उस पर समीक्षा लिखता? क्या किसी को कबीर की कविता पचती? मुझे लगता है कि साहित्य के क्रूर पुरोहित कबीर को चुप्पी से मार डालते जैसा कि वे हमेशा अपनी जाति से बाहर के रचनाकारों को मार डालते हैं। वह तो भला हो कि कबीर अपनी कविता चिल्लाकर जनता से कहते थे और बाद में उनके उत्तराधिकारियों ने उसे इकट्ठा कर लिया। गाकर और चिल्लाकर कहने से कविता लोगों के कान तक जा पहुंची और लोग कबीर की लय पर साधो और पंचो की भाषा सीख गए लेकिन फिर भी वे अपने इस कवि के मर्म को नहीं समझ पाए। इसी काशी जनपद और शहर में कबीर चिल्लाते रहे लेकिन लोग अपने कानों में ठेपी लगाए रहे। सुने नहीं, बदले नहीं। जो एकन्नी-दुअन्नी भर सुन सके बस वही उनका हासिल था। बिना लिखे चिल्लाने का यह नतीजा निकला। अगर कबीर ने संकलन छपवा लिया होता तो वे उसे अपने घर में रखे रहते और दीमक अपना काम कर डालते। क्योंकि होता यही आ रहा है। 

लेकिन अपने लिए मौका देखकर हिन्दी साहित्य के ब्राह्मणों ने अनेक बार बड़ा घिनौना मज़ाक किया था। उन्होंने नकली कविताएं ही नहीं लिखी, बल्कि नकली लेखक भी पैदा किए और उन्हें इस कदर स्थापित किया कि वह एक खास तरह का संदर्भ बन गया। इनमें से एक हीरा डोम और उनकी एकमात्र कविता ‘अछूत की शिकायत’ है। यह कवि कहां का था और कैसा था और कौन आदमी उसकी कविता ‘सरस्वती’ पत्रिका तक ले आया इसका आज तक कुछ पता नहीं चला। शोध आदि भी कुछ नहीं हुआ। भारत में डोम जाति की आबादी कोई बहुत ज्यादा नहीं है और कोई भी परिश्रम करे तो साल दो साल में सारा डाटा इकट्ठा कर सकता है। और पता लगाने वाला यह भी पता लगा सकता है कि हीरा डोम कहां के थे। बक़ौल माताप्रसाद, वे वाराणसी के निवासी थे जबकि रमणिका गुप्ता उन्हें पटना का निवासी बताती थीं। जो भी हो लेकिन किसी का एक छोटी सी कविता लिखकर फिर गायब हो जाना संदिग्ध लगता है। पटना में अस्सी हजार के आसपास डोम बताए जाते हैं और 2011 की जनसंख्या के अनुसार उत्तर प्रदेश में डोम जाति की कुल आबादी 1 लाख 353 है। खोजनेवाले चाहते तो घर-घर जाकर पता लगा लेते कि हीरा डोम कहां रहते थे। लेकिन सच तो यह है कि हिन्दी साहित्य के ब्राह्मण फर्जीवाड़े में यकीन करते हैं और असलियत उन्हें डराती है। 

ऐसा प्रतीत होता है कि हीरा डोम नामक कोई कवि कभी था ही नहीं। उसके नाम से कविता किसी और ने निहित स्वार्थों की पूर्ति के लिए लिखी है। और मुझे यकीन है कि यह काम आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के अलावा कोई दूसरा नहीं कर सकता। उन्होंने हीरा डोम नामक एक कवि के नाम से अपनी स्वरचित कविता ‘अछूत की शिकायत’ छापी थी। यह कविता महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा संपादित ‘सरस्वती’ (सितंबर 1914, भाग 15, खंड 2, पृष्ठ संख्या 512-513) में प्रकाशित हुई थी। यह कविता दलित साहित्य की कविताओं में एक मुकाम रखती है। हीरा डोम एक तरह से प्रारंभिक दलित कवि माने गए हैं और उपलब्ध साक्ष्यों के रूप में वरिष्ठ दलित साहित्यकार माताप्रसाद, आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा, रमणिका गुप्ता और मदन कश्यप के बयानों से लगता है कि हीरा डोम बहुत महत्वपूर्ण कवि हैं,  लेकिन इस एक कविता के अलावा उनकी बाकी कविताओं का कोई अता-पता नहीं है कि उन्होंने और क्या लिखा है। यह कविता महावीर प्रसाद द्विवेदी तक कैसे आई? क्या किसी और ने उन्हें लाकर दी। इसका कोई ठोस साक्ष्य या विवरण कहीं नहीं है। इसका तात्पर्य क्या है? 

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निश्चित रूप से इसका बहुत संगीन तात्पर्य है। वह यह कि यह कविता स्वयं महावीर प्रसाद द्विवेदी ने लिखी, लेकिन बाभन तो अछूत की शिकायत कर नहीं सकता, लिहाज़ा उन्होंने एक काल्पनिक कवि बनाया और यह कविता छाप दी। आचार्य द्विवेदी ने 1907 में ‘कान्यकुब्ज-अबला-विलाप’ नामक कविता लिखी थी। अब इस कविता को वे किसी अबला के नाम से तो छाप नहीं सकते थे और चूंकि इसमें द्रष्टा की मसीहाई भी शामिल है तो दूसरे को श्रेय क्यों मिले। यह बहुत जाना-पहचाना सत्य है कि हर सम्पन्न और संपत्तिशाली व्यक्ति अपने दिमाग के किसी कोने में गरीबों और मज़लूमों के लिए सहानुभूति बचाए रखता है और जब तक गरीब और मजलूम रोता है तब तक उसके दिमाग से सहानुभूति अमृतधारा की तरह बहती रहती है लेकिन जैसे ही गरीब-मजलूम गुस्से में आता है और अपने हक की मांग करता है वैसे ही उसके दिमाग से मवाद और घृणा के रूप में जहर छूने लगता है। इसके एक नहीं अनेक उदाहरण हैं। ताज़ातरीन उदाहरण मंडल आयोग की सिफ़ारिशें लागू होने के बाद के समय को लिया जा सकता है, जब उदार से उदार, सम्पन्न और संपत्तिशाली व्यक्ति की नफरत वातावरण को दूषित करने में लगी रही। इसलिए आचार्य द्विवेदी के दिमाग में अछूत के लिए सहानुभूति रही होगी, यह स्वाभाविक है, लेकिन वे अपने नाम से अछूत की शिकायत करेंगे तो कौन भरोसा करेगा। और कोई गुल-गपाड़ा करेंगे तो पकड़े जाएंगे। इसलिए उन्होंने एक ऐसा कविनाम गढ़ा जिसका आदि और अंत नहीं था। कोई नहीं जानता कि वह कहां से आया और कहां चला गया। बस उसका मध्य बच गया। द्विवेदीजी की रचनावली देखने से पता चलता है कि वे सरस्वती में छपनेवाले हर लेखक की कॉपी एडिटिंग करते थे। उस समय के सारे बड़े लेखकों को उन्होंने कलम से रगड़ा है। चाहे प्रेमचंद रहे हों या चाहे सुदर्शन। वे कभी-कभी तो कहानियों को रिराइट कर देते थे। ऐसे संपादक के लिए एक छोटी सी कविता लिख देना कौन सी बड़ी बात थी। और कविता, जिसे बक़ौल मदन कश्यप “पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है कि यह रात-दिन दुख भोगने वाले जन की करुणा नहीं, ताकत की अभिव्यक्ति है और इसका शीर्षक ‘अछूत की शिकायत’ निश्चित रूप से संपादक अथवा किसी अन्य व्यक्ति का दिया हुआ है। अन्यथा इसका शीर्षक ‘अछूत की हुंकार’ होना चाहिए था” (कविता के सौ बरस, संपादक- लीलाधर मंडलोई, शिल्पायन, शाहदरा (दिल्ली), संस्करण-2013, पृष्ठ-44-45)। 

डॉ. रामविलास शर्मा तो खैर मदन जी से भी वरिष्ठ हैं। उन्होंने इस कविता पर जान लुटा दी है –‘गांव के सर्वहारा-समुदाय की वर्ग-चेतना यहां पहली बार साफ-साफ प्रतिबिम्बित हुई है।… हीरा डोम की उक्त रचना में जो प्रतिरोध का स्वर है, शोषण-चक्र के भीतरी तंत्र की जो पहचान है, श्रम करने वालों के महत्व का जो ज्ञान है, करुणा और व्यंग्य के साथ आत्मसम्मान की जो भावना है, वह सब हिन्दी कविता में अभी दूसरी जगह व्यक्त नहीं हुआ।’ (महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण, डॉ. रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-2008, पृष्ठ-359)

लेकिन सवाल उठता है कि क्या इस कविता में वास्तव में कोई दम है या वैसे ही आंखों में धूल झोंकी जा रही है? अब जरा कविता की ओर थोड़ा ध्यान दिया जाय। कवि कहता है कि हम लोग रात-दिन दुख सह रहे हैं और साहब से प्रार्थना करना चाहता हूं। हमारा दुख भगवान भी नहीं देख रहा है और हम क्लेश सह रहे हैं। लेकिन हम पादरी साहब की कचहरी में जाएंगे तो बेधर्म होकर अंगरेज बन जाएंगे। हे राम, हमसे धरम नहीं छोड़ा जाता। अगर धर्म छोड़ देंगे तो मुंह कैसे दिखाएंगे। दूसरे पद में कवि कह रहा है कि खंभा फाड़कर प्रह्लाद को बचाया, ग्राह को मारकर गज को बचाया। साड़ी खींचते दुशासन को थकाने के लिए द्रौपदी को साड़ियों से लादकर उसका सम्मान बचाया। रावण को मारकर विभीषण को पाला और कानी अंगुली पर पहाड़ ही उठा लिया। और अब कहां सो रहे हो। हम लोगों को डोम जानकर छूने से बच रहे हो। आगे कवि कहता है कि दो रुपए महीने पर दिन-रात खट रहे हैं। सामंत सुख की नींद सो रहा है और हम खटकर उसको खिला रहे हैं। सरकार हाकिम की फौज आई हुई है तो हम बेगारी में पकड़े जाएंगे। हम मुंह बंद करके नौकरी कर रहे हैं। लेकिन यह सब खबर सरकार को सुनाना चाहते हैं। 

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आगे कवि कह रहा है कि हम बाभन की तरह भीख नहीं मांगेंगे। ठाकुर की तरह लठैती नहीं करेंगे। साहू की तरह डंडी नहीं मारेंगे और अहीर की तरह गाय नहीं चुराएंगे। चापलूस भाट की तरह कविता न करेंगे। पगड़ी बांध कर कचहरी न जाएंगे। मेहनत से पैसा कमाएंगे और बांट-चूंट कर खाएंगे। अंतिम पद में कवि कह रहा है कि हमारी हाड़-मांस की देह है और बाभन की देह भी वही है लेकिन उसकी घर-घर पूजा हो रही है और उसकी जजमानी चल रही है। हम कुएं पर जाते हैं तो हमको गाली देकर भागा दिया जाता है। हम लोग गंदा पानी पीने को मजबूर हैं। हमको जूते से पीट-पीटकर मारा जाता है। हमारी जिंदगी ऐसी नारकीय हो गई है। 

प्रथमदृष्टया लगता है कि कवि काफी समझदार है, लेकिन एक सवाल उठता है कि वह शिकायत किससे कर रहा है और उसकी शिकायत क्या है? अंतिम पंक्ति में उसकी परेशानी समझ में आती है कि वह पानी की समस्या से परेशान है। लेकिन पानी की समस्या के लिए कानून के सामने नहीं जाना चाहता क्योंकि कचहरी जाकर उसका धर्म भ्रष्ट हो जाएगा। उलझाव यहां यह है कि जिस धर्म को वह बचाना चाह रहा है उस धर्म की असली ताकत ही उस जैसे लाखों-करोड़ों लोगों को गंदा पानी पीने के लिए मजबूर करने में है। क्या छंद में और बहुत सारे मिथकीय उदाहरणों से सुसज्जित कविता रचने की योग्यता रखनेवाले कवि की चेतना इतनी कुंद है? जिस समाज ने उसे जीभर लतियाया उसी समाज को वह अपना कौन सा मुंह दिखाना चाहता है? आखिर डॉ. रामविलास शर्मा उसमें कौन सी वर्ग-चेतना देख रहे हैं? लगे हाथ यह जिज्ञासा ज़ाहिर कर ली जाय कि इसको वर्गीय चेतना मानने वाले डॉ. शर्मा ने क्या भारत में जाति-व्यवस्था को वर्ग-व्यवस्था माना है? क्या उन्होंने चातुर्वण्य विभाजन को वर्ग विभाजन के रूप में देखा है और भारत के सवर्णों को परजीवी माना है? विद्वानों को डॉ. शर्मा के लेखन से इन प्रश्नों का जवाब ढूंढना चाहिए। 

अब जरा आगे आइए। तथाकथित रूप से यह कविता भले ही वर्ग-चेतना वाली कविता बताई जाती रही हो, लेकिन गौर से देखकर बताइए कि इसमें कहां और कैसी वर्ग चेतना है? वह कह रहा है कि मेहनत हम कर रहे हैं। जमींदार सुख से सोया हुआ है और हम खट रहे हैं। हाकिम की फौज निकली है और वह काश कि उसको बेगारी में पकड़ ले। लेकिन हाकिम के सामने तो वह धर्म बचाने के चक्कर में जाना ही नहीं चाहता, क्योंकि उसकी आंखों पर तो इस ज्ञान की पट्टी बांध दी गई है कि पादरी साहब की कचहरी में जाते ही वह बेधरम हो जाएगा। और फिर वह अपने धर्म के सारे मिथक भनभना रहा है। अछूत की शिकायत ‘इक्विलिटी बिफोर लॉं’ को संभव करनेवाले लोगों से नहीं है बल्कि हिन्दू देवताओं से है। क्या भारतीय वर्ग चेतना इतनी दयनीयता से मानव-मुक्ति का सपना देखती है? 

और यह अछूत किस सिद्धान्त के तहत जी रहा है? जाहिर सी बात है हिन्दू जाति-व्यवस्था में आस्था रखते हुये अपने खराब और अभावजन्य पेशे को न छोडने की विवशता के साथ। वह बाभन की तरह भीख मांगने, ठाकुर की तरह लठैती करने, अहीर की तरह गाय चुराने, साहू की तरह घटतौली करने और भांट की तरह कविता नहीं करने के इरादे में नहीं है। वह अर्दली आदि की सरकारी नौकरी भी नहीं करना चाहता। बस वह मजदूरी करना चाहता है और मिल-बांटकर खाना चाहता है। लेकिन मामला तो उलट हो रहा है। उसे लगातार उत्पीड़ित किया जा रहा है और इस जगह वह बाभन से अपनी तुलना करके असंतुष्ट तो दिख रहा है, लेकिन सवाल तो फिर वही खड़ा होता है। न्याय किससे मांग रहे हो? कचहरी जाने से तो इसलिए डर रहे हो कि पादरी साहब ईसाई बना देंगे। मदन कश्यप ने माना है कि ‘अपने गुस्से का इजहार करने के साथ-साथ हीरा डोम ने धर्म-परिवर्तन की चालाकी और निरर्थकता को भी रेखांकित कर दिया है।’ लेकिन सवाल तो यह फिर भी बाकी है कि कौन-सा धर्म? यहां तो धर्म को लेकर प्रतिरोध है ही नहीं। यहां तो डर और कायरता है और जो कचहरी में तुम्हारे अपराधी हो सकते हैं, उनसे तुम्हारा कोई संघर्ष है ही नहीं।

इससे भी भयानक बात तो यह है कि इस दयनीय कविता में न केवल ईश्वरों की तथाकथित फौज को पुकारा गया बल्कि जाति-विद्वेष को इस हद तक फैलाया गया है कि लिखा है कि ‘बमना के लेखे हम भिखिया न मांगब जा, ठकुरे के लेखे न लऊर चलाइब। सहुआ के लेखे हम डंडी न मारब जा, अहिरा के लेखे नाहीं गैया चोराइब।’ बाभन कब भीख मांगता है? वह तो दान लेता है और एक ऐसा तंत्र रचता है, जिसमें वह जन्म से लेकर मौत और उसके बाद तक दान लेता रहे। क्या अहीर की पहचान गाय चोर की है? आज यह जाति भारत की कुल आबादी की सत्रह प्रतिशत के करीब है। उस समय एक दो फीसदी कम रही होगी। सवाल उठता है कि एक पशुपालक जाति उस समय किन लोगों की गाय चुराती थी और क्या सारी आबादी गाय चोर थी? यह नफरत किसके दिमाग की मवाद थी? क्या किसी डोम की उस समय इतनी औकात थी कि एक साहसी, परिश्रमी और कर्मठ जाति को गाय चोर कह दे। कम से कम अपने दो-तीन अनुभवों से मैं यह समझ पाया हूं कि यह डोम जाति अभी मुख्यधारा से कितनी पीछे है। कुछ साल पहले मैं कुशीनगर के जोगिया गांव में सुभाषचंद्र कुशवाहा के आयोजन ‘लोकरंग’ में गया। वहां पहुंचते ही चार डोम तुरही बजाकर लोगों का स्वागत करते हैं। यह परंपरा है। सुभाष के आंगन में सामूहिक भोज की भी परंपरा है और यह एक अद्भुत दृश्य है। लेकिन मैंने जब उन तुरही वादकों को देखा कि वे अपने से लेकर नहीं खा रहे हैं, बल्कि उन्हें किसी और ने खाना परोसा तो मुझे ताज्जुब हुआ। दो दिन मैं रहा और दोनों दिन लगातार यही दृश्य दिखा। इसका तात्पर्य यह निकलता है कि उनके भीतर अस्पृश्यता का घाव इतना गहरा है कि किसी को भी छूने से वे डरते हैं। दूसरा दृश्य देवरिया शहर का है। सपा से जुड़े मेरे मित्र व्यास यादव ने पिछले वर्ष जगदेव प्रसाद की जयंती के मौके पर एक सर्वजातीय भोज का आयोजन किया था। कार्यक्रम के बाद की स्थिति भयावह थी। सलेमपुर के पूर्व सांसद आस मोहम्मद ने मंच से ही घोषणा की कि वे किसी डोम भाई के साथ एक ही पत्तल में खाना खाएंगे। व्यासजी ने पांच हज़ार लोगों के भोजन की व्यवस्था की थी लेकिन बमुश्किल हज़ार-बारह सौ लोग ही खाने आए। पता लगा कि स्थानीय डोम जाति के लोगों के आने से मेहतर, वाल्मीकि और दूसरी अन्य दलित जातियों के लोग शामिल ही नहीं हुए। ज़्यादातर अहीर और डोम जाति के लोग शामिल हुए। क्योंकि आयोजक सपा के लोग थे, इसलिए अहीरों को भी निकाल दीजिये तो महज डोम जाति ही सर्वजातीय भोज में शामिल थी। उसी आयोजन में देवरिया के बिरहा गायक रमेश बंसफोर से मेरी मुलाक़ात हुई। वे वहां बिरहा गा रहे थे। रमेश रेलवे की नौकरी में हैं और उनकी याददाश्त विलक्षण है। बातचीत आगे बढ़ने पर उन्होंने बनारस के डोम राजा अथवा लाश आदि का काम करने वाले डोमों के प्रति हिकारत जताया कि वे सब कफन खसोट कर मांस-मदिरा में डूबे हुए हैं, लेकिन अपनी संततियों को उससे बाहर नहीं निकाल रहे हैं। अब ऐसे में यह सोचा जाना जरूरी है कि इक्कीसवीं शताब्दी के दो दशक बीत जाने पर भी जब डोम जाति सबकी घृणा का केंद्र बनी हुई है, तब 1910-11 में कैसे किसी डोम में इतनी हिम्मत हो सकती है कि वह जाति-व्यवस्था में सबसे नीचे रहना भी चाहे और कुछ जातियों को अपमानित करने की कविता भी लिखे। खास तौर से जिस कविता में वह कह रहा है कि साफ पानी के लिए कुएं पर जाने के कारण वह जूते से पीटा जा रहा है।

एक बात पर गौर करने की जरूरत है कि हिन्दू समाज व्यवस्था में जो जाति जितनी ही विपन्नता और अपमान में जी रही है, वह उतनी ही ज्यादा हिन्दू और धार्मिक है। इसके पीछे तर्क यह है कि उसके भीतर कहीं कोई गुस्सा नहीं है। उसे अपने उत्पीड़कों और उनके ईश्वरों से घृणा नहीं है बल्कि वह उनके ही गढ़े गए झूठ के साथ अपने जीवन को गौरवपूर्ण ढंग से जी रही है। बनारस में डोम अपने को शिव और हरिश्चंद्र से जोड़ते हैं। मिथक के अनुसार कालू डोम ने विमान का रस्सा पकड़ा और स्वर्ग की राह गया। बाकी यह जाति कैसे अस्तित्व में आई उसके अनुसार एक बार शंकर और गौरा बनारस घूम रहे थे। गौरा का कनफूल कहीं खो गया। जिस आदमी को मिला उसने जाकर शंकर को दे दिया। वे खुश हुए और डमरू बजाते हुए बोले – डोम राजा भव। तब से यह सब चल रहा है। एक दूसरे किस्से के अनुसार जिस व्यक्ति ने गौरा का कनफूल पाया, उसने सोचा कि अपनी पत्नी को दूंगा तो बहुत खुश होगी। बाद में शंकर भगवान को पता लगा तो उन्होंने उसको श्राप दे दिया – लाश जलाओ अनंत काल तक। तब से यह खेल चल रहा है। डोम राजा दोनों कहानियों में खुश। लेकिन सामाजिक विकास की सारी सैद्धांतिकी का गला घोंटने की कोशिश करने वाले यह कभी नहीं बताते कि गौरव और वीभत्सता के घालमेल से बनी उनकी कहानियों के पात्र उनको मानवीय रूप में कितने स्वीकार है। 

कुछ साल पहले बनारस को लेकर एक फिल्म बनी ‘मसान’। इसमें हरिश्चंद्र घाट पर चिता जलाने वाले एक डोम परिवार के पढ़ने-लिखने वाले एक युवा को बनारस के एक सम्पन्न बनिया परिवार की लड़की से प्रेम हो जाता है। बात आगे बढ़ती है। दोनों सपने देखते हैं लेकिन सपना सच नहीं होता। लड़की एक यात्रा के दौरान परिवार सहित मारी जाती है। कहानी खत्म। डोम और बनिया की सामाजिक एकता की सारी संभावना खत्म, क्योंकि फ़िल्मकार में यह साहस नहीं है कि वह प्रेम को उच्चतम कसौटी पर ले जाय। अधिक से अधिक क्या होता? लड़की डोम से शादी करने से मना कर देती। या वह अपने प्रेम के लिए अपने समाज से लड़ जाती, लेकिन जो भी होता एक बड़ा और बेमिसाल उदाहरण होता। क्या यह दिखाने का दम फ़िल्मकार में है? एक दृश्य में लड़का लड़की को खोजने के लिए फेसबुक देखता है। यानी टेक्नोलॉजी में अत्यधिक नयापन लेकिन दिमाग में जातिवाद का गहरा अंधेरा। यहां पर मैं डॉ. धर्मवीर का सहारा लेकर यह तो नहीं कह सकता कि ब्राह्मण स्वयं और अपनी स्त्रियों से जारकर्म तो करवा सकता है लेकिन प्रेम को स्वीकार कर जाति-व्यवस्था को खत्म नहीं कर सकता, लेकिन इसी फिल्म की एक दूसरी कहानी को देखता हूं तो लगता है वे शायद हमारे दौर के सबसे सच्चे विचारक हैं। नाबालिग बच्चे गंगा की तलहटी में उतरकर तीर्थयात्रियों द्वारा फेंके पैसे ढूंढकर ले आते हैं। एक पंडा एक बच्चे से निकाला हुआ पैसा लेता रहता है। यह कितनी बड़ी क्रूरता है? कितना असंवैधानिक काम है? उसी पंडे की युवा पुत्री अपने प्रेमी से मिलने होटल में जाती है। पुलिस के छापे से डरकर प्रेमी आत्महत्या कर लेता है। उसके बाद पुलिसवाला पंडे को ब्लैकमेल करके वसूली करता है। पंडा बेटी को बुरी तरह मारता है। लेकिन वह एक बार भी नहीं कहता कि तुम प्रेम करती थी, तो मुझे बताया क्यों नहीं? उससे शादी क्यों नहीं की? लड़का संभवतः बनिया जाति का है। धमकी से मर गया जो न बाबे नबर्द था । इशके नवर्द पेशा तलबगारे मर्द था। बनिया इश्क खरीदने चला आता था। ब्राह्मणी इश्क बेचे चली जाती है, इसलिए एक मर गया और दूसरी ब्लैकमेल होती रही। अंत में डोम युवक और ब्राह्मण कन्या को इलाहाबाद में मिलाकर फ़िल्मकार अपना काम पूरा कर लेता है कि बनारस में तो सब कुछ मसान हो चुका है। संभावना इलाहाबाद में बची हुई है, क्योंकि सवा सौ किलोमीटर दूर कोई नहीं पूछेगा कि कौन जात है? लोगों को सामाजिक विकास की सैद्धांतिकी का गला घोंटनेवाले मिथकबाजों से पूछना चाहिए डोम लाश जलाकर भी किस प्रकार का गौरवपूर्ण जीवन जी रहा है जबकि श्राद्ध कराकर आजीविका चलानेवाला ब्राह्मण भी घृणा का पात्र है?

इसी तरह का घालमेल दलित कविता के नाम पर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने रचा और विषयवस्तु और अर्थ-ध्वनि के हिसाब से देखें तो यह दलित कविता को कलंकित करनेवाली कविता है। मुझे तो यह भी लगता है कि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने यह खेल इसलिए किया क्योंकि वे हिन्दी क्षेत्र में आ रही स्वामी अछूतानंद की आंधी को रोकने के गुप्त अभियान में थे। स्वामी अछूतानंद का काव्य-सौष्ठव, उनकी भाषा का प्रवाह और उनके काव्य-मूल्य वास्तव में आश्चर्य पैदा करते हैं। उनके भीतर एक कवि का सच्चा साहस और प्रचुर निडरता है जो उनकी कविताओं में दिखाई पड़नेवाली चीज है। और यही बात आचार्य द्विवेदी का ईमान डगमगा रही थी। उन्होंने हीरा डोम को छापा, लेकिन किसी अन्य दलित कवि को नहीं छापा। अछूतानन्द की कविताओं में तर्कशीलता की जो आग है उसका जवाब आज भी कोई वर्णवादी नहीं दे सकता। वे कहते हैं – 

मनुजी, तुमने वर्ण बना दिये चार
जा दिन तुमने वर्ण बनाए, न्यारे रंग बनाए क्यों ना?
गोरे ब्राह्मण लाल क्षत्री पीले वणिक बनाए क्यों ना?”
शूद्र बनाते काले वर्ण के पीछे पैर लगाए क्यों ना?
कैसे ही पहिचान पोप दी दो अक्षर दलवाए क्यों ना?
पांच तत्व तो सबमें दीखे ज्यादा तत्व लगाए क्यों ना?
वह सर्वज्ञ सर्व में व्यापक उससे भी जुदा बनाए क्यों ना?
पांच तत्व गुण सभी बराबर बढ़कर तत्व लगाये क्यों ना?
एक चूक बड़ी भारी पड़ गई न्यारेउ मुल्क बनाए क्यों ना?
लोहे के बर्तन पर पानी कंचन का द्यो दार। मनु जी ….. ।

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इससे यह समझने में आसानी हो जाती है कि स्वामी अछूतानंद क्या सोचते थे और उनके सरोकार क्या थे? एक अन्य कविता में वे कहते हैं कि हम लोग कभी संभ्रांत और सम्पन्न थे, लेकिन अब हम सड़ियल शूद्र हैं। जो बाहर से आए, उन्होने छल-बल से हमारा सब कुछ छीन लिया। ‘हम भी कभी थे अफजल प्राचीन हिन्द वाले। अब हैं गुलाम निर्बल प्राचीन हिन्द वाले॥’ 

एक अन्य कविता में वे लिखते हैं –‘पुरखे हमारे थे बादशाह तुम्हें याद हो कि न याद हो। अब हिन्द में हम हैं तबाह तुम्हें याद हो कि न याद हो॥’ लगता है जैसे हिन्दी में जोतीराव फुले की तर्क परंपरा का विस्फोट हो रहा हो। क्या ऐसे कवि को आचार्य द्विवेदी आसानी से पचा लेते? मजबूरन उन्हें हीरा डोम की रचना करनी पड़ी। 

एक ऐसी जाति का इतना लिजलिजा कवि कैसे हो सकता है जिस जाति के ताकतवर कृषक और सम्पन्न नरेशों का भाषा-वैज्ञानिक सबूत मिलता है। डोम जाति के लोगों के रहवासों और सामानों की भरमार है जो इस बात के गहरे सबूत हैं कि भूतकाल में यह जाति एक समृद्ध और साहसी जाति रही है। डुमरी, डोमिनगढ़, डुमरियागंज, डुमरांव, डोमचक आदि नाम भारत में सैकड़ों स्थानों के हैं। मुक्तिबोध के डोमाजी उस्ताद हालांकि क्रूरता के रूपक बना दिये गए हैं लेकिन डोम्बो, डोमरा, डोंबरा, डोंबरी जैसे आदिकालीन समुदाय पूरे देश में फैले हुए हैं। कुछ सबूत तो इस बात के भी हैं कि जिप्सियों का प्रमुख समुदाय रोमा भी इन्हीं का रक्त है। डमरू, डमडम, दमामा सब इन्हीं की चीजें हैं। भांटू, बाजीगर, हबूरा, सांसी, बंसफोर, बैचरिया और कंजर आदि इन्हीं की अल्ल खाप है। अगर ठीक से जाति-जनगणना हो तो ये लोग भारत की आबादी के एक महत्वपूर्ण हिस्से के रूप में आ जाएंगे और ये अपने संवैधानिक अधिकारों की मांग कर सकते हैं। इसमें तो कोई दो राय है ही नहीं कि ये हजारों साल से दबाये गए हैं। इन्हें इतना बहिष्कृत किया गया है कि जब भी कोई अपने अधिकारों के लिए बोलने को उठता है तो फट से कह दिया जाता है कि ‘मुंह लगी डोमिनी गावे ताल-बेताल’।

बुनियादी बात यह है कि आखिर आज़ादी के इतने दिनों के बाद भी डोम जाति ने अपने साहित्य को क्यों नहीं बनाया? जब उसके कुल खानदान में हीरा डोम नामक एक कवि पहले से हो गुजरे हैं तो वह प्रेरित क्यों नहीं हुई। उसने अपनी तकलीफ़ों को गाया क्यों नहीं? जवाब यही है कि उसके कुल खानदान में कोई हीरा डोम नामक कवि नहीं हुआ। वह अभी भी घृणित मिथकों की माला अपने गले में लटकाए हुए है और उसकी गर्दन अकड़ी हुई है। आंखों से यथार्थ दिख नहीं रहा है। नफरत मर गई है इसलिए गुस्सा भी नहीं है। और अपने साहित्य के लिए असंतोष, घृणा और गुस्से का रचनात्मक उपयोग अनिवार्य है!

(संपादन : नवल/अमरीश)


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लेखक के बारे में

रामजी यादव

रामजी यादव एक राजनितिक कार्यकर्ता के रूप में विभिन्न संगठनों में सक्रिय रहे हैं। उन्होंने कानपुर के मिल मज़दूरों और रेलवे कर्मचारियों को संगठित करने में भी भूमिका निभाई। उन्होंने 100 से अधिक वृत्तचित्रों का निर्माण और निर्देशन भी किया है। उनके प्रमुख वृत्तचित्र हैं 'गाँव का आदमी', 'पैर अभी थके नहीं', 'एक औरत की अपनी कसम', 'यादें', 'समय की शिला पर', 'कालनदी को पार करते हुए', 'विकल्प की खोज', 'वह समाज जो जनता का है', 'जलसत्ता', 'द कास्ट मैटर्स', और 'इस शहर में एक नदी थी' आदि। उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं, 'अम्बेडकर होटल', 'खेलने के दिन', 'भारतीय लोकतंत्र' और 'दलित सवाल', 'भारतेंदु', 'ज्योतिबा फुले', 'गिजुभाई', 'रामचंद्र शुक्ल', 'आंबेडकर संचयन'। इन दिनों वे ‘गांव के लोग’ त्रैमासिक का संपादक कर रहे हैं।

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