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बहस-तलब : कबीर-फुले की तरह जड़ता छोड़ गतिमान बनें बहुजन

पिछले अनेक वर्षों से यह देखा जा रहा है कि बहुजन विमर्श का दायरा लगातार सिमट रहा है और वह छोटी राजनीतिक आकांक्षाओं तक सिकुड़ गया है। जिस विचार को माना जाता था कि वह भारतीय समाज को बदल देगा, वह आज लगभग अप्रासंगिकता के उस कगार पर खड़ा है, जहां एक ओर विलोप की गहरी खाई है, जिसमें गिरना उसकी नियति है। ऐसा क्यों है? रामजी यादव का विश्लेषण

सन् 1883 में महात्मा जोतीराव फुले की दूसरी महत्वपूर्ण पुस्तक ‘शेतकर यांचा असूड’ छपी, जिसका हिन्दी में ‘किसान का कोड़ा’ नाम से अनुवाद किया गया। इस किताब को वे कई वर्षों से लिख रहे थे, लेकिन इस बीच में वे अनेक मोर्चों पर मैदान में लड़ रहे थे। उनका संघर्ष इतना विविध था कि आश्चर्य होता है कि एक ही व्यक्ति शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति कर रहा है और स्त्रियों के लिए प्रसूतिगृह का निर्माण कर रहा है। इसमें उसकी पत्नी कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है। लेकिन बहुत से ऐसे आयाम हैं जो उत्तर भारतीय बहुजनों को नहीं पता कि महात्मा फुले ने 63 वर्ष के जीवन में लगभग पचास साल बेहद संघर्षपूर्ण माहौल में बिताए। वे जहां तक विस्तृत थे, वहां तक उनका जीवन लगातार रस्साकसी के साथ बीता। आमतौर पर माना जाता है कि ब्रिटिश सरकार से उनके सहज संबंध रहे, जबकि वास्तविकता यह है कि सरकार से उनका सतत संघर्ष चलता रहा। उन्होंने पुणे के संस्कृत विद्यालयों को दिये जाने वाले अनुदान का विरोध करते हुए विलियम हंटर कमीशन के सामने सभी साधारण प्राथमिक विद्यालयों को मुफ्त में चलाए जाने की जोरदार वकालत की और तब तक इस मुद्दे को उठाते रहे जबतक कि हंटर कमीशन ने इसे माना नहीं। वे जहां शिक्षा को लेकर इतने प्रतिबद्ध थे, वहीं मजदूरों और किसानों को लेकर भी गहरे उद्वेलित थे। 

सन् 1875 में उन्होंने किसानों के शोषण के विरुद्ध एक आंदोलन शुरू किया। इस आंदोलन का एक महत्वपूर्ण पक्ष अहमदनगर जिले में इसी वर्ष खेती बंदी का कार्यक्रम था, जिसके तहत किसानों ने खेती करने से मना कर दिया। इसके दो साल पहले उनकी पहली और क्रांतिकारी पुस्तक ‘गुलामगिरी’ छपकर आ चुकी थी। इस किताब को आधुनिक भारत का घोषणापत्र होना था। वे इसके आगे अपनी एक सुदृढ़ वैचारिकी बना रहे थे और कालांतर में ‘सत्यशोधक सत्य धर्म’ और ‘सत्सार क्रमांक’ नामक उनकी दो और महत्वपूर्ण किताबें छपीं। गौर करने की बात यह है कि उन्होंने न सिर्फ गद्य में बल्कि पद्य में भी लगातार लिखा। उन्हें लगता था कि हर जगह जहां भी शूद्र-अतिशूद्रों को दबाया गया है, उसकी पूरी सच्चाई को उखाड़ दिया जाय, और उसकी गहरी छानबीन के साथ उसके केंद्रीय चरित्र को फिर से स्थापित किया जाय। महात्मा फुले ने ‘गुलामगिरी’ में भारत की पराजित क़ौमों और छल से हराए गए नायकों को जितनी शिद्दत से प्रतिष्ठित किया, वह इतिहास की सबसे दुर्लभ और महानतम घटनाओं में से एक है। उनके सारे नायक आज धीरे-धीरे फिर से कद्दावर हो गए हैं और असल में यही वह बिंदु है जहां से बहुजन विमर्श अपने पांव के बल खड़ा होता है। कबीर अगर ब्राह्मणवाद के नकार के सबसे बड़े विचारक और नेता हैं तो महात्मा फुले वृहत्तर भारतीय समाज के महानतम भविष्यद्रष्टा हैं।

कबीर व जोतीराव फुले की तस्वीर

बहुजनों की सबसे बड़ी ताकत यह है कि इस देश में सच्चाई का जितना विस्तार है, सब उनका है। उन्होंने अत्यंत कठिनाई से जीवन जिया है, लेकिन झूठ बोलने का कारख़ाना नहीं खोला। सच ही इतना अधिक था कि उसे बार-बार परे धकेल दिया जाता था। यहां झूठ की जरूरत ही क्या थी। यह फर्क होता है उत्पादन करके खाने वालों और हराम की खाने वालों में। उत्पादकों के गीत परिश्रम और शौर्य से लबरेज होते हैं और हराम की खाने वालों के पास गीत ही नहीं होते। उत्पादकों के पास संघर्ष की वास्तविक कहानियां होती हैं और हराम की खाने वालों के पास झूठे और गढ़े गए चमत्कारिक किस्से होते हैं। यह फर्क इतिहास में बहुत पीछे से चला आ रहा है। इसकी एक दुर्धर्ष यात्रा है। और यह केवल एकांगी नहीं है, बल्कि इसके अनेक आयाम हैं। इसकी अनेक परतें हैं। इसकी जटिल बनावट है। जैसे कभी-कभी बरगद के पेड़ पर कई पेड़ों का जमना और उसी का हिस्सा हो जाना। जैसे जीवाश्मीय चट्टानों की संरचना में बेहिसाब परतों का होना। इतिहास की अनेक टेढ़ी-मेढ़ी यात्राओं में मनुष्य ने चाहे जितने भी धक्के खाये हों, लेकिन उसने अपने चरित्र नहीं बदले। जो सर्जक और उत्पादक थे, उन्होंने अपनी ईमानदारी नहीं छोड़ी। लेकिन जिन्होंने बिना कुछ रचे और बिना कुछ उत्पादित किए खाया, उनमें कभी ईमानदारी नहीं रही। 

लेकिन यह देखा जा सकता है कि इधर-उधर की चीजों के घालमेल की कोशिशें इधर बीच लगातार बढ़ रही हैं। यह अकस्मात नहीं है कि जो सबसे अधिक शोषित रहे हैं, वे सबसे अधिक शोषकों के झाँसे में आए। उन्होंने अपनी पीठ के घाव पर कुर्ता डाल लिया और अपने उत्पीड़कों की जय-जयकार करने लगे। समय का जो पहिया आगे जाना चाहिए वह सूचना क्रांति के दौर में पीछे की ओर चला जा रहा है। आखिर इसके पीछे क्या वजूहात हैं?मुझे लगता है जब किसी समाज के बुद्धिजीवी – चाहे जितने भी हों – जब अपने विचारों में मिलावट करने लगते हैं तब ऐसे झांसेदारों की सत्ता आती है कि उनके उत्पीड़ित उन्हीं की भाषा बोलते हैं। 

इतिहास यही बताता है कि संघर्षों के दौरान जिन चीजों को बहुत सुरक्षा की जरूरत होती है, वे किसी काम की नहीं होतीं। हद से हद कुछ लोग या खास वर्ग उनका फायदा उठाते रहते हैं। ठीक उसी तरह जिन बातों को अधिक सहानुभूति की जरूरत होती है, उनमें ऐसी कोई आग नहीं होती, जिससे दुनिया के कूड़े-कबाड़े को जलाया जा सके। वे अपने आप में खुद कूड़ा होती हैं। चाहे साहित्य हो या चाहे राजनीति, उसमें अपने इतिहास, वर्तमान और भविष्य को लेकर एक निर्ममता का होना बहुत जरूरी है ताकि उनके सहयोग से निर्मित होने वाले मस्तिष्कों में रचनात्मक ऊर्जा भर सके। दुर्भाग्य से हाशिये के अथवा बहुजन साहित्य को ऐसी जड़ता बनाते हुए हम लगातार देख रहे हैं। फिर भी इसके खिलाफ धावा बोलने की बजाय सहानुभूति का मुलम्मा ही चढ़ाया जा रहा है। अपने आपको पीड़ित बनाने का यह शौक अंततः बहुजन विमर्श को एक आत्महंता आस्था का शिकार बना देता है। आज सवाल यह उठता है कि क्या सब कुछ महज सत्ता से अपने लिए कुछ हासिल कर लेने का एक उपक्रम भर था या फिर इसका कोई दूरगामी लक्ष्य था? वह लक्ष्य क्या था और उसकी प्राप्ति कहां तक संभव हुई?

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पिछले अनेक वर्षों से यह देखा जा रहा है कि बहुजन विमर्श का दायरा लगातार सिमट रहा है और वह छोटी राजनीतिक आकांक्षाओं तक सिकुड़ गया है। जिस विचार को माना जाता था कि वह भारतीय समाज को बदल देगा, वह आज लगभग अप्रासंगिकता के उस कगार पर खड़ा है, जहां एक ओर विलोप की गहरी खाई है, जिसमें गिरना उसकी नियति है। ऐसा क्यों है? 

मुझे लगता है कि जिस त्वरा के साथ उसने बाहरी लड़ाइयां लड़ीं, बनी-बनाई अवधारणाओं को न सिर्फ चुनौती दी, बल्कि उन्हें तोड़ा भी। ठीक उसी तरह उसने भीतर के सवालों को शिद्दत से नहीं महसूस किया। उसी शिद्दत से उसने भीतर संघर्ष नहीं किया और अंततः वह भीतर खाली और खोखला बना रहा। इसका परिणाम अंततः सत्ता विमर्श में जाकर खो जाना था। जिस सामाजिक दायरे में देश की अधिसंख्य आबादी और उसका दुख, अभाव, परिश्रम, संघर्ष और प्रतिरोध आता है। जिसमें हार जाने के अनंत सिलसिले हैं। जिसके इतिहास में उसके ऊपर इतने हमले हैं कि एक समृद्ध जीवन को पूरी तरह से धराशायी कर दिया गया। जिसे पैरों तले इतना कुचला गया कि वह अपमान का बोध ही भूल गया। जिसे परिभाषाओं, मुहावरों और व्यवहारों में हर जगह मारा गया, आज उसकी कुल हैसियत क्या है? वह आज भी अपने घावों से बेजार है। उसके पास आज भी कोई शैली नहीं है, जिसमें वह बेधक अभिव्यक्तियां कर सकें। जिन समाजों में बड़े कहानीकार नहीं जन्मते, उन समाजों में आत्मकथाएं बिकाऊ माल बना दी जाती हैं। जिस समाज में लड़ने की वास्तविक चेतना नहीं आती वह अपनी पंगुता को एक दर्शनीय वस्तु बना लेता है और उसी का खाता रहता है। वह बहुत बेरहमी से अपनी ही खाल उधेड़ता रहता है ताकि उसके घाव और भी दिखाई पड़े। उनके ही हक-हिस्से पर कुंडली मारे लोग और वर्ग उनसे गहरी सहानुभूति रखें। वह अपनी ही देह पर कोड़े लगाता रहता है, जिससे वह अधिक लहूलुहान हो सके और अपने ही शोषकों-उत्पीड़कों के सामने जब हाथ फैलाये तो दया दिखाकर वे उसकी हथेली में कुछ रख दें। वह हज़ार तरह की लोमहर्षक बाजीगरी करता है ताकि उसका पेट भर सके। उसकी आंखों में आंसू तो भरते हैं, लेकिन लहू नहीं आता। उसमें आग नहीं दिखती। दिखती तो क्या होता? शायद मॉब लिंचिंग नहीं होती। 

(संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

रामजी यादव

रामजी यादव एक राजनितिक कार्यकर्ता के रूप में विभिन्न संगठनों में सक्रिय रहे हैं। उन्होंने कानपुर के मिल मज़दूरों और रेलवे कर्मचारियों को संगठित करने में भी भूमिका निभाई। उन्होंने 100 से अधिक वृत्तचित्रों का निर्माण और निर्देशन भी किया है। उनके प्रमुख वृत्तचित्र हैं 'गाँव का आदमी', 'पैर अभी थके नहीं', 'एक औरत की अपनी कसम', 'यादें', 'समय की शिला पर', 'कालनदी को पार करते हुए', 'विकल्प की खोज', 'वह समाज जो जनता का है', 'जलसत्ता', 'द कास्ट मैटर्स', और 'इस शहर में एक नदी थी' आदि। उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं, 'अम्बेडकर होटल', 'खेलने के दिन', 'भारतीय लोकतंत्र' और 'दलित सवाल', 'भारतेंदु', 'ज्योतिबा फुले', 'गिजुभाई', 'रामचंद्र शुक्ल', 'आंबेडकर संचयन'। इन दिनों वे ‘गांव के लोग’ त्रैमासिक का संपादक कर रहे हैं।

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