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कबतक अशराफ मुसलमानों का जूठन खाते और उतरन ओढ़ते रहेंगे पसमांदा?

राही मासूम रज़ा का उपन्यास ‘ओस की बूंद’ इस बात की तसदीक करता है कि पसमांदा मुसलमानों को जो राजनीतिक विरासत मिली, वह दरअसल उनकी ज़मीन से नहीं पैदा हुई। बल्कि वह मुस्लिम लीग की ही जारज संतान की तरह पैदा हुई और पसमांदा नेतृत्व उसे बड़े शौक से पालता-पोसता रहा। रामजी यादव का विश्लेषण

बहस-तलब

भारत में बहुजन शब्द एक समुच्चय है, जिसमें आदिवासी, दलित, ओबीसी, पसमांदा मुसलमान और महिलाएं शामिल हैं। प्रस्तुत लेख में रामजी यादव यह प्रस्ताव कर रहे हैं कि पसमांदा मुसलमानों के सवालों को पृथक रूप में जाना-समझा जाय। उनके सवालों और संस्कृतियों को विमर्श के केंद्र में लाया जाय। जबतक उनका साहित्य नहीं होगा, वे अनचिन्ह बने रहेंगे। इसी पर केंद्रित है रामजी यादव का यह विश्लेषण।आज पढ़ें इसकी दूसरी कड़ी

दर्द के दरिया से वही पार हुआ जिसने सहा नहीं कहा 

  • रामजी यादव

गालिब कहते हैं कि ‘दिल ही तो है न संग-ओ-खिश्त दर्द से भर न आए क्यूँ / रोएँगे हम हज़ार बार, कोई हमें सताए क्यूॅं।’ अगर कोई सताएगा तो हम तो रोएंगे ही। रोना भी चाहिए लेकिन वे और भी महत्वपूर्ण बात पहले ही कह रहे हैं कि मेरा दिल आखिर एक मुलायम सी चीज है कि इस पर तनिक भी कड़ी बात से या किसी भेदभाव से ही ठेस लग जाती है। यह कोई ईंट-पत्थर तो है नहीं। इसलिए दिल में दर्द होता है। और दर्द होता है इसलिए मैं रोता हूं। अगर ऐसा होगा तो मैं हज़ार बार रोऊंगा। रोता ही रहूंगा। बार-बार रोऊंगा। क्योंकि मैं इस दुनिया की तकलीफ़ें, गरीबी और अभाव क्यों बर्दाश्त करूं। मैं खुदा की खुदाई के भरोसे अपने आँसू क्यों पीऊं। गालिब की ताकत यह है कि वे अपने दर्द को कहते हैं। यही उनकी गालिबियत है क्योंकि असल में जो उनके बारे में कहा जाता है कि वे टूटे हुये सामंती सामिराज के वारिस थे, वही उनकी ताकतवर अभिव्यक्ति का सबब है। क्योंकि उन्होंने आनेवाले हालात को जस का तस स्वीकार नहीं लिया। उनमें विक्षोभ था। उनमें दुख महसूस करने की ताकत थी। यह ताकत अगर भारत के बहुजनों के पास हो जाती तो वे पूंजीवाद के पैरों में नाल ठोंक देते और मुंह में लगाम डालकर उसकी सवारी करते। लेकिन दृश्य यह बन गया है कि सवार घोड़े पर नहीं उल्टे घोड़ा ही सवार पर चढ़कर उसे हांक रहा है। कबीर जब कहते हैं कि कंबल बरस रहा है तब वे वैसे ही दृश्य को बताते हैं। वे कह रहे हैं कि पानी में कमलिनी सूखी जा रही है तब भी ऐसे ही दृश्य हैं। वे जब कहते हैं कि शेर गाय चरा रहा है तब भी वैसा ही दृश्य उपस्थित होता है। और यह सब उल्टी बात है। उलटबांसी है। इसका अर्थ शब्दों में नहीं है। व्यवस्था में है। इसलिए गालिब जब रोने की बात कर रहे हैं तो दरअसल कंबल का बरसना और पानी का भींगना उन्हें बर्दाश्त नहीं हो रहा है। वे गाय चराते हुये सिंह को भगा देना चाहते हैं। वे कमलिनी के लिए विषैले हो चुके पानी में ब्लीचिंग पाउडर डाल देना चाहते हैं। 

गालिब लोगों के हृदय पर इसलिए राज कर रहे हैं क्योंकि वे रोये। बहुत रोये और हर मौके पर रोये। एक जगह तो वे और भी गजब कह रहे हैं –‘रोने से और इश्क़ में बेबाक हो गए /धोये गए हम इतने कि बस पाक हो गए।’ अब सोचिए कि कह रहे हैं कि ऐसा रोये कि धड़का ही खुल गया। सारा डर जाता रहा। अब कोई भी मौका हो बस मैं रो दूँगा। इस रुलाई से जो आंसू बहे उसमें नहाकर तो हम एकदम पवित्र हो गए। अब यह दुनिया मुझे नापाक लगती है। गालिब कबीर के सबसे सच्चे वारिस हैं। कबीर अति की चुप को बुरा मानते हैं तो गालिब चुप रहने को ही खतरनाक मानते हैं। इस खतरनाक शय से वे जीवनभर लड़ते रहे। अगर बहुजन समाज इस खतरे से लड़ जाय तो दुनिया कितने दिनों तक ऐसी ही जड़ बनी रहेगी। लेकिन मुझे लगता है बहुजन समाज फिराक साहब को ज्यादा मानता है। उनकी इस बात से उसका इत्तेफाक ज्यादा है कि ‘शिव का विषपान तो सुना होगा / मैं भी ऐ दोस्त पी गया आंसू’। कितना फर्क है गालिब और फ़िराक में। एक आंसू से नहाकर पवित्र हो रहा है और दूसरा आंसू पीकर खामोश हो रहा है। एक दुख को बर्दाश्त न करके रो रहा है। दूसरा आंसू पीकर चुप हो रहा है। सबकुछ बर्दाश्त कर के उसे अपनी नियति मान लिया है। गालिब विद्रोही हैं तो फ़िराक सहनशील हो गए हैं। इसीलिए गालिब आधुनिक मनुष्यता के मेटाफर रचते हैं और फिराक दर्शन की जटिलता में उलझ जाते हैं। गालिब हर समय जेहन में नाचते रहते हैं तो फिराक कभी-कभार याद आते हैं। बहुजनों के लिए गालिब की राह का राही होना एक मेयार है, लेकिन उन्होंने फिराक की तरह नियति चुनी है। 

जो भी व्यक्ति या समाज सहनशील हो जाएगा गुलामी उसकी विशेषता ही नहीं, बल्कि उसकी त्रासदी भी होती जाएगी। जो सहेगा और चुप रहेगा वह धीरे-धीरे इतना मर जाएगा कि फिर कभी उठ नहीं पाएगा। अभी तक यही हुआ है। कोई कितना भी धूर्त और चालाक हो वह किसी भी ज़िंदा समाज को धोखा नहीं दे सकता। कोई भी ज़िंदा समाज चाहे कितने भी संकटों में घिर जाए, लेकिन वह समर्पण नहीं करता। वह घुटने के बल नहीं हो सकता। वह खत्म हो सकता है, लेकिन ऐसे कभी खत्म न होगा कि किसी ने उसे घेरकर वध दिया। वह लड़ते हुए मारा जाएगा। लड़ते हुए मारे जानेवालों की भी हजारों कहानियां हैं। लेकिन जो लोग नैतिक रूप से पतित हो जाते हैं, वे गुलामी ओढ़ लेते हैं। उन्हें आज़ादी की कोई आवाज नहीं सुनाई देती। उनको ही धूर्त और चालाक लोग झांसा देते हैं। वे झांसा देते हैं और ये झांसे को सच मानकर उसी को ओढ़ते चले जाते हैं। सबसे अधिक वे लोग झांसे का शिकार होते हैं जो खाते गेहूं हैं, लेकिन मसीहा पत्थरों को मानते हैं। लेकिन गालिब हर तरह की मसीहाई को ठोकर मारते चलते हैं क्योंकि उन्हें गेहूं भी चाहिए और गुलाब भी और शराब भी। और गालिब हमको कई तरह से अपनी इच्छाओं को प्रकट करने की अपील करते हैं। वे बहुजनों के शायर हैं। 

पसमांदा मुसलमानों की बात शुरू हुई है और यहां तक पहुंची है कि न उनका कोई साहित्य है और न ही उनके मुद्दे उठे हैं। उनकी लड़ाई दूसरे के लिए है। आज जबकि अशराफ़ मुसलमानों की जमीन गायब हो गई है तब भी पसमांदा मुसलमान अपनी नहीं, उन्हीं की लड़ाई लड़ रहा है गोया मुसलमानियत अशराफ़ का निवेश है और वे कहीं भी रहें उनको ब्याज मिलता रहेगा। ठीक उसी तरह जैसे हिन्दुत्व सवर्णों का निवेश है। सत्ता किसी की हो वे अपने लिए अनुकूल बना लेंगे और वे हिन्दुत्व का ब्याज खाते रहेंगे। और जिस तरह से आजकल राजनीति में उन्हें महंगा तौला जा रहा है, उस तरह तो वे पता नहीं कब तक ब्याज खाते रहेंगे। पिछड़े ‘सवा सेर गेहूं’ लेकर कुंतलों चुकाने के बावजूद पीढ़ियों तक गुलामी करते रहेंगे। न जाने कब तक ‘सुजान भगत’ अपनी मेहनत को गट्ठर में बांधकर भिखमंगे के घर पहुंचाता रहेगा। 

हाशिए पर पसमांदा मुसलमानों को रचना होगा अपना साहित्य

इसी तरह एक सच भी है कि पसमांदा मुसलमानों और पिछड़ों ने जब अपना मुद्दा नहीं उठाया तब भी उनका स्पेस घिरा रहा। वे स्वयं रोए नहीं, इसलिए किसी और की रुलाई लोगों के कान में पड़ती रही। उन जगहों पर, जहां कि अपने साहित्य और सवाल के आधार पर वे राज करते वहां अगड़े ही जमे रहे। उनके ही दुख आम मुसलमान के दुख बन गए। उनके ही सवाल प्रमुख बने रहे। उनका ही सौन्दर्यबोध दुहराया जाता रहा। उन्हीं के कष्ट साहित्य के कष्ट बने रहे और यहां तक कि उसी को मुस्लिम जीवन की तर्जुमानी मान लिया गया। अशराफ़ ही पसमांदा का भी चेहरा बने रहे। इसलिए हाथ में आई बेज़मीन राजनीति और सारे के सारे सवाल आज भी मुंह उठाए हल होने की राह देख रहे हैं। खेती में हिस्सा, रिहाइश, पढ़ाई-लिखाई, रोजगार, हवादार पर्यावरण, खेल के मैदान, पौष्टिक भोजन, चिकित्सा सुविधाएं और मानवाधिकार का मुद्दा ही नहीं उठा। पिछड़ों को बीच की कड़ी मान लिया गया और इस पर कभी गौर नहीं किया गया कि उनकी कितनी तादाद भूमिहीन और घरहीन है। सदियों से उसके घर में शिक्षा का चिराग नहीं जला। उनका कितना दमन किया जाता रहा है। चाहे सामाजिक स्तर पर हो चाहे पुलिसिया स्तर पर। उनके उत्पीड़न का कोई डाटा उपलब्ध नहीं है। सरकारी योजनाओं में वे सिर्फ अवधारणा हैं या इंसान के रूप में भी उनका कोई वजूद है? ठीक यहीं यह सवाल रास्ते में सोए अजगर की तरह दिखाई पड़ने लगता है कि आखिर इतने लंबे समय तक यह साहित्यिक रूप से अभिव्यक्त क्यों नहीं हुईं। उलझनें और भी हैं। और वे लगातार बढ़ती ही जाती हैं। 

राही मासूम रज़ा का उपन्यास ‘ओस की बूंद’ इस बात की तसदीक करता है कि पसमांदा मुसलमानों को जो राजनीतिक विरासत मिली वह दरअसल उनकी ज़मीन से नहीं पैदा हुई, बल्कि वह मुस्लिम लीग की ही जारज संतान की तरह पैदा हुई और पसमांदा नेतृत्व उसे बड़े शौक से पालता-पोसता रहा। उसका अपना मुद्दा क्या था और है यह बड़ा सवाल आज भी अनुत्तरित है। यह उपन्यास जैसा कि राही साहब ने डिस्क्लेमर दिया है कि ‘मैं ब-कैदे-होशो-हवास यह बयान दे रहा हूं कि जहां तक मुझे याद आता है सन 32 के बाद से गाज़ीपुर में कोई बलवा नहीं हुआ है।’ (राही मासूम रज़ा : ओस की बूंद, 1970) 

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फिर भी उन्होंने जो कहानी उठाई है वह गाज़ीपुर शहर में घटित हुई और उसमें दो दंगे दिखाये गए। गाजीपुर चूंकि राही साहब की अपनी जन्मभूमि है, इसलिए वे वहां की भाषा और लब-ओ-लहज़े में रवां हैं। वहां के गली-कूंचों से वाकिफ हैं और वहां के लोगों से भी अच्छी तरह परिचित हैं। इसलिए पूरे देश में बढ़ते जा रहे हिन्दू-मुस्लिम सांप्रदायिकता को चित्रित करने के लिए उन्होंने गाज़ीपुर को कथाभूमि बनाया। चूंकि यह एक फ़िक्शन है, इसलिए वे कहते हैं ‘परंतु हर वह शहर और क़स्बा और गांव गाज़ीपुर है, जहां बलवा हो। मैं हिंदुस्तान और पाकिस्तान के हर शहर का बेटा हूं। जो घर जलता है, वह मेरा घर है। जिस औरत के साथ ज़िना किया जाता है, वह मेरी मां, मेरी बहन और मेरी बेटी है।’ यह उपन्यास कई बातों की तरफ इशारा करता है जो वास्तव में भारतीय मुसलमानों के मनोविज्ञान को तो हमारे सामने रखता ही है, पसमांदा मुस्लिमों के राजनीतिक भविष्य पर भी बहुत गहरा संकेत करता है। 

वैसे तो इसकी केंद्रीय कहानी वज़ीर हसन खाँ के परिवार की त्रासदी पर आधारित है, जिसमें मुस्लिम लीग की लीडरी करनेवाले वज़ीर हसन पाकिस्तान बनाना चाहते हैं और उनका बेटा अली बाकर कांग्रेस का समर्थक है तथा पाकिस्तान बनाने के खिलाफ है। लेकिन सन् 1947 में होता इसके ठीक उल्टा है। अली बाकर अपने भरे-पूरे परिवार को छोडकर पाकिस्तान चला गया और वज़ीर हसन भारत में रह गए। उदास आंखों के साथ उनकी बहुत और धीरे-धीरे मानसिक संतुलन खोती उनकी बीवी और वहशत अंसारी के प्रेम में पड़ी उनकी पोती ही घर में बाकी रह गए हैं। सारी कहानी इन सबके ही इर्द-गिर्द आने वाले चरित्रों के बहाने घटित होती है। पहला दृश्य यह है कि आज़ादी मिल गई और पाकिस्तान बन गया। अब नाम बदले जाने की बारी है। हयतुल्लाह अंसारी परेशान हैं। उन्हें वजीर हसन पर गुस्सा आ रहा है क्योंकि पाकिस्तान बहुत दूर बना है और उन्हें गांधी और नेहरू के हिन्दुस्तान में रहना है। उनके बयानों की स्क्रेप बुक उन्हें डराने लगी है क्योंकि उसमें बहैसियत नायब सदर मुस्लिम लीग जिला गाज़ीपुर उन्होंने गांधी-नेहरू को बहुत गालियां दी हैं। और यह सब करामात वज़ीर हसन की है जो उनके बयान लिखा करते थे। राही साहब ने वर्णन किया है – ‘और इसीलिए पाकिस्तान बन जाने के बाद उन्हें वज़ीर हसन से नफरत हो गई। और एक दिन उन्होंने अपनी क़राक़ुली जिन्ना टोपी अपने नौकर को दे दी। यह टोपी उन्होंने बड़े चाव से खरीदी थी। परंतु उन्हें नंगे सिर रहने की आदत नहीं थी। तो एक दिन वह श्री गांधी आश्रम से एक गांधी टोपी खरीद लाए और दो-चार दिन के बाद बनारस के एक समाचार पत्र में उनका एक बयान छपा था कि भारत के मुसलमानों को कांग्रेस में चला जाना चाहिए। पाकिस्तान एक गलती है …

‘खादी के कपड़े पहनने में उन्हें बड़ी तकलीफ़ होती थी। परंतु चारा ही क्या था? वज़ीर हसन के लिखे हुए बयानों पर दस्तख़त करने की सज़ा तो भुगतनी ही पड़ेगी ना!

‘उन दिनों कांग्रेसवाले भी कुछ जल्दी में थे। उन्हें पता था कि चुनाव में उन्हें मुसलमान वोटों की जरूरत पड़ेगी। इसलिए उन्होंने धड़ाधड़ पुराने मुस्लिम लीगियों को शहर कमेटी, जिला कमेटी, अल्लम कमेटी, गल्लम कमेटी में भर्ना शुरू कर दिया। और इसी झटके में श्री हयातुल्लाह अंसारी के घर का बोर्ड उतर गया और एक नया बोर्ड बनाया गया, जिस पर ‘मौलवी’ की जगह ‘श्री’ लिखा गया। ‘नायब सदर ज़िला मुस्लिम लीग’ की जगह ‘नायबसादर ज़िला कांग्रेस कमेटी’ लिखा गया। ‘अलीग’ मिटाया तो नहीं गया, परंतु अक्षर बहुत छोटे कर दिए गए।’ 

इस प्रकार चीजें और लोग नए चेहरे धारण करते जा रहे थे, यहां दो बातें गौर करनेवाली हैं। एक तो पढ़ा लिखा और संपन्न पसमांदा मुसलमान भी अशराफ़ मुसलमानों की राजनीति के ही सहभागी था। उसका मुख्य मुद्दा किसी सामाजिक आर्थिक संरचना से ताल्लुक नहीं रखता था बल्कि वह सांस्कृतिक था। दूसरी बात यह कि मौका आने पर पसमांदा भी अपना चेहरा बदलता है, लेकिन फिर भी हम देखते हैं कि वह धार्मिक दायरे में ही सिमटा हुआ है। वर्तमान जीवन की किसी चुनौती से उसका कोई लेना-देना नहीं है। अपनी टोपी को नौकर को दे देने का प्रतीक भी बहुत मार्मिक है गोया वे खुद तो मौके से चेहरा बदल रहे हैं, लेकिन अपनी लीगी कट्टरता नौकर को दिये जाते हैं। क्या यह पसमांदा मुसलमानों की राजनीतिक त्रासदी का रूपक है कि उन्होंने अपनी लड़ाइयां असल में लड़ी ही नहीं। अपने मुद्दों को नहीं पहचाना, बल्कि थोपी हुई कट्टरता को अपना सत्य मान लिया? इस बात की जांच-पड़ताल की जानी चाहिए कि क्या प्रारंभिक हिन्दू महासभा की तरह प्रारम्भिक मुस्लिम लीग में शेखों-पठानों-शियाओं के अलावा क्या पसमांदा मुसलमानों की उपस्थिति थी? और थी तो वह कितने फीसदी थी।

बात वहीं आती है कि अशराफ़ अपने वर्चस्व को कमजोर पड़ते देखकर ठीक वैसे ही धार्मिक राजनीति को हथियार बनाकर सक्रिय हुए जैसे हिन्दू महासभा बनानेवाले सवर्ण। उसमें पिछड़ों की क्या हैसियत थी और वे कितने प्रतिशत थे, इसकी छानबीन करना जरूरी है। एक जगह राही साहब ने वर्णन किया है –“दीनदयाल मुसलमानों से झल्लाए हुए थे। वज़ीर हसन हिंदुओं से डरे हुए थे। झल्लाहट का रंग गेरुआ हो गया और डर का रंग सब्ज़। परंतु दोनों मिलते तो अपने डर या अपनी झल्लाहट की बातें नहीं करते।

“दीनदयाल बोले, ‘अली बाकर से कहके दरखास्त दिलवाय दियो। हम पंथ जी से कह देंगे।’

वज़ीर हसन कहते, ‘तू खुद काहेन न कहत्यो अली बाकर से कि दरखसिया दे दें। हम कउन होते हैं कहे वाले। ऊ ठहरे अल्ला रक्खे नेशनलिस्ट मुसलमान। मुस्लिम लीगी बाप की बात भला माने को हैं!

‘हे वज़ीर’, दीनदयाल बोले, ‘तूँ हम्मे चराए की कोशिश मत करो। तू मुहम्मद अली जिन्ना ना हो कि हम तुहें जनबे ना करते। तूँ मुस्लिम लीगी न हो सकत्यो।”

यूं यह संवाद तो बहुत भावप्रवण लगता है और अगर थोड़ा सेक्युलरिज़्म का द्रव्य ले लिया जाय तो दिल बाग-बाग हुआ जाता है कि अरे वाह, कितने अच्छे दोस्त हैं। धर्म की दीवार फांद रहे हैं। लेकिन वास्तविकता कुछ और है जो धार्मिक राजनीति की पोल-पट्टी कुछ अलग तरीके से खोलती है। गौरतलब है कि वज़ीर हसन और दीनदयाल दोनों अपने-अपने धार्मिक समाजों में अगड़े और अमीर हैं। दोनों का बचपन साथ गुजरा और दोनों ने कुंजड़ों के बगीचे से अमरूद चुराया और गालियां खाईं। दोनों के दुख-सुख एक थे, लेकिन बदलते राजनीतिक परिवेश में दोनों सांप्रदायिक राजनीति का प्रतिनिधित्व करते हैं। दोनों के दिल की दूरियां बढ़ रही हैं। यह और बात है कि उनमें कहीं प्यार का सूखता हुआ सोता भी है। लेकिन दोनों अपनी सम्पत्तियों, विशेषाधिकारों और वर्चस्व को छीजते देखकर इतने दूर हो गए हैं कि एक दूसरे की गर्दन काटनेवाली राजनीति में शामिल हैं। इसलिए कि वे अपने धार्मिक समाजों का समर्थन प्राप्त कर लेंगे। और इस समर्थन के लिए वे तमाम ताने-बाने को नोच देना चाहते हैं। सीधे शब्दों में दोनों ही समाज में जहर बोनेवालों की नुमाइंदगी कर रहे हैं। लेकिन वे जिस तरह की राजनीति कर रहे हैं, उसे पिछड़े हिन्दू और पसमांदा मुसलमान अपना सच मानते जा रहे हैं, यह गौर करने की बात है। दीनदयाल और वज़ीर हसन बड़े-बड़े घरों में रहते हैं। उनके पास खोने के लिए बहुत कुछ है, इसलिए वे प्रतिगामी राजनीति कर रहे हैं, लेकिन जिनके पास ठीक से सांस लेने भर की जगह नहीं है और जो सड़क पर हैं वे भी उसी में हिस्सेदार हो रहे हैं, यह भयानक बात है।

आगे हम देखते हैं कि म्युंसिपैलिटी के चुनाव की तैयारी चल रही है। दीनदयाल चेयरमैन बनना चाहते हैं, लेकिन उन्हें कांग्रेस से टिकट नहीं मिला बल्कि हयातुल्लाह अंसारी को मिला। दीनदयाल जनसंघ के उम्मीदवार बने। जनसंघ पहली बार चुनाव में उतरा। अब जीतने की एक ही सूरत है कि पाकिस्तान बनाने का ठीकरा हयातुल्लाह अंसारी के सिर फोड़ दिया जाय। शहर का माहौल खराब किया जाने लगा। हवाओं में जहर घोला जाने लगा है। एक जगह वज़ीर हसन दीनदयाल के बीच का संवाद ध्यान देने योग्य है – “‘तूँ शहर के सारे मुसलमान को कटवाय पर लगे हो का?’ वज़ीर हसन ने पूछा।

“‘तोरा मतलब का ई है कि मुसलमान के मारे हम एलक्शन ना लडें!’

“‘एलक्शन जाए..।’ वज़ीर हसन बिगड़ गए, ‘तै ई बता कि हम ओटर ना हैं। तै हमसे काहे न मांग रहा ओट?’

“‘हम्मे मालूम है कि तूँ केको वोट दिहो वज़ीर हसन!’

“‘अल्लाह पाक की कसम दीनू, हम हयातुल्ला चूतिये वाले ना रहे। बाकी आज से हम उन्हीं का कम करेंगे।’”

दोस्ती और प्रेम के बीच अविश्वास और भय की ऐसी तस्वीर कितनी डरावनी है कि वह आज हर चीज से ज्यादा चमक रही है। जो फसल कुछ लोगों ने अपने स्वार्थ के लिए बोई थी वह आज बहुत अधिक बढ़ गई है और पसमांदाओं के हक की लड़ाई उसी में खो गई। 

तो अंततः यह बात निकलती है कि पसमांदा मुसलमानों ने अशराफ़ की छोड़ी हुई राजनीति को ओढ़ लिया लेकिन अपने मुद्दे नहीं उठाए। जब अपने मुद्दे नहीं उठाए तो उनके सामने धार्मिक कट्टरता और असुरक्षा ही सबसे बड़ा और केन्द्रित मुद्दा बनता गया। पसमांदा की कोई पुख्ता पहचान नहीं बनी। उसके बीच के धनाढ्य अशराफ की छोड़ी हुई जूठन पर राजनीति करते रहे जो आज तक चल रही है। मिल्लत, भाईचारा, सांप्रदायिक सद्भाव ही पसमांदाओं की त्रासदी बनती गई। राजनीति मुखापेक्षी और अपंग थी तो विचार भी वैसे ही पैदा हुए। अब ऐसे में उनका साहित्य क्या होगा, कैसा होगा यह एक डरावना प्रश्न है। 

उनकी जगह अशराफ़ घेरे हुए हैं और वे किराए की रूदाली बने हुए हैं। लेकिन सवाल तो उठता ही रहेगा कि यह सब चलेगा कब तक?

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

रामजी यादव

रामजी यादव एक राजनितिक कार्यकर्ता के रूप में विभिन्न संगठनों में सक्रिय रहे हैं। उन्होंने कानपुर के मिल मज़दूरों और रेलवे कर्मचारियों को संगठित करने में भी भूमिका निभाई। उन्होंने 100 से अधिक वृत्तचित्रों का निर्माण और निर्देशन भी किया है। उनके प्रमुख वृत्तचित्र हैं 'गाँव का आदमी', 'पैर अभी थके नहीं', 'एक औरत की अपनी कसम', 'यादें', 'समय की शिला पर', 'कालनदी को पार करते हुए', 'विकल्प की खोज', 'वह समाज जो जनता का है', 'जलसत्ता', 'द कास्ट मैटर्स', और 'इस शहर में एक नदी थी' आदि। उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं, 'अम्बेडकर होटल', 'खेलने के दिन', 'भारतीय लोकतंत्र' और 'दलित सवाल', 'भारतेंदु', 'ज्योतिबा फुले', 'गिजुभाई', 'रामचंद्र शुक्ल', 'आंबेडकर संचयन'। इन दिनों वे ‘गांव के लोग’ त्रैमासिक का संपादक कर रहे हैं।

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