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बिहार चुनाव : पसमांदा मुसलमान कब तक बने रहेंगे केवल वोटर?

वर्ष 2011 की जनगणना रिपोर्ट बताती है कि बिहार में 16.9 प्रतिशत मुसलमान हैं और अनुमान के मुताबिक इनमें 80 फीसदी पसमांदा मुसलमान हैं । लेकिन इन बहुसंख्यकों की समुचित हिस्सेदारी न तो शासन-प्रशासन में, न रोजी-रोजगार और ना ही राजनीति में है। क्या लालू प्रसाद और नीतीश कुमार इन सच्चाईयों से अंजान हैं? गुलजार हुसैन की रिपोर्ट

वर्ष 2006 में जब सच्चर कमीशन ने अपनी रिपोर्ट भारत सरकार को सौपीं तब यह बात सामने आयी थी कि बिहार उन राज्यों में अग्रणी है जहां मुसलमान सबसे अधिक बदहाली के शिकार हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार और पश्चिम बंगाल में 1000 से अधिक मुसलमान बहुल गांवों में प्राथमिक विद्यालय भी नहीं हैं। बिहार के तीन हजार मुसलमान बहुल गांवों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं हैं। मुसलमानों के बुनियादी सुविधाओं से युक्त रहवास के मामले में बिहार, झारखंड व आसाम के साथ उन राज्यों में अग्रणी है जहां पेयजल, गांव को जोड़ने वाली पक्की सड़क, पक्का आवास आदि का घोर अभाव है। इसके अलावा बिहार के शहरी इलाकों में गरीबी रेखा से नीचे जीने वाले मुसलमानों की हिस्सेदारी 36-40 फीसदी है। 

भले ही उपरोक्त रिपोर्ट को सामने आए 14 वर्षों की अवधि बीत चुकी है, बिहार में हालात यथावत हैं। एक बार फिर बिहार में विधानसभा चुनाव हैं। लेकिन निर्णायक संख्या के बावजूद पसमांदा मुस्लिम सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तीनों मामले में हाशिए पर हैं। यहां तक कि इस बार भी उनसे जुड़े मुद्दे गौण हैं। जबकि वर्ष 2011 में हुई जनगणना के मुताबिक बिहार में मुसलमानों की आबादी 16.9 फीसदी (1 करोड़ 75 लाख 57 हजार 809) है। इसमें 80 प्रतिशत आबादी पसमांदा मुस्लिमों की है। इनमें जुलाहे (अंसारी), धुनिया (मंसूरी), कुंजड़े (राईन), दर्जी (इदरीसी) कसाई (कुरैशी), फकीर (अलवी), हज्जाम (सलमानी), मेहतर (हलालखोर), ग्वाला (घोसी), धोबी (हवारी), लोहार-बढ़ई (सैफ़ी), मनिहार (सिद्दीकी) आदि जातियों के लोग हैं। लेकिन सबसे अधिक समस्याओं से वही जूझ रहे हैं। पसमांदा मुसलमानों की नई पीढ़ी के सामने नई चुनौतियां भी हैं, जिनका सामना करने के लिए उन्हें जूझना पड़ रहा है। पसमांदा युवा के सामने स्तरीय शिक्षा, नौकरी, चिकित्सा सहित कई ऐसे सवाल खड़े हैं, जिनका हल होता नहीं दिखाई दे रहा है।

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बिहार में पसमांदा मुस्लिमों से जुड़ी समस्याओं को जानने के लिए बिहार के ग्रामीण परिवेश पर नजर डालने की जरूरत है। किशनगंज, कटिहार, अररिया, पूूर्णिया, मुजफ्फरपुर, वैशाली, समस्तीपुर, दरभंगा और भागलपुर सहित अन्य कई क्षेत्रों के गांवों-कस्बों की पसमांदा आबादी के रहन-सहन और उनके काम धंधे को ठीक से समझने की जरूरत है। मुजफ्फरपुर और इसके आसपास के ग्रामीण क्षेत्र की पसमांदा आबादी ज्यादातर कोलकाता, दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में मेहनत-मजदूरी करती रही है। वहीं, गुवाहाटी और सिलिगुड़ी जैसे शहरों में भी बिहार के पसमांदा युवक जाकर छोटी-मोटी नौकरी और धंधे करती रही है। इनमें बड़ी संख्या में युवक टायर पंचर बनाने और पुराने-नए टायर बेचने का धंधा भी करते रहे हैं।

पसमांदा मुसलमानों के सवालों को पार्टियाें के घोषणापत्रों में भी जगह नहीं

गौरतलब है कि लॉकडाउन के दौरान मुंबई-दिल्ली से पलायन करने वाले मजदूरों में बड़ी संख्या बिहार के दलित-पिछड़ी जातियों की थी। इनमें पसमांदा मजदूर भी अच्छी खासी संख्या में थे। इन मजदूरों को हुई अत्यधिक परेशानी को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि इस बार के बिहार चुनाव में बहुजन-पसमांदा मजदूरों को गुस्सा फूट सकता है। कोरोना संकट में केंद्र की भाजपा सरकार की लापरवाही का खामियाजा बिहार भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टी जदयू को भुगतना पड़ सकता है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि बिहार में पसमांदा और अन्य दलित, पिछड़ी जातियों की गोलबंदी हो सकती है और वे अपने अन्य मुद्दों को भुलाकर कोरोना संकट के दौरान हुई तकलीफ को आक्रोश में बदल सकते हैं।

दरसअल, बिहार की राजनीतिक पार्टियां इस स्थिति के लिए पूरी तरह दोषी हैं। राजद हो या जदयू, लोजपा हो या भाजपा, सभी ने वोट के लिए मुसलमानों का इस्तेमाल किया है। किसी पार्टी ने पसमांदा मुसलमानों की सुरक्षा और अधिकार देने के बहाने वोट लिए, तो किसी ने एंटी-मुस्लिम एजेंडे को बढ़ावा देकर ध्रुवीकरण किया और वोट पाया।

सरकार के तमाम दावों के विपरीत बिहार के गांवों-कस्बों में बने मदरसों में पढ़ाई लिखाई की व्यवस्था ऐसी होती है कि उनमें पढ़ने वाले पसमांदा बच्चों का भविष्य अंधकारमय हो जाता है। ऐसे मदरसों में अधिकतर पसमांदा बच्चे ही पढ़ने जाते हैं, अगड़ी जातियों के मुस्लिम बच्चे यहां नहीं दिखाई देते। हालांकि यह भी सच है कि गांवों के मदरसों में पढ़ने वाले बच्चे सरकारी स्कूल भी जाते हैं। लेकिन मदरसों के भरोसे ही रह जाने वाले पसमांदा लड़के- लड़कियों के करियर की चिंता कौन करेगा। यहां से पढ़ी लड़कियां जल्द ही ब्याह दी जाती हैं और लड़के किसी मोहल्ले के मौलवी बनकर जिंदगी गुजार देते हैं। युवकों को मौलवी बनने के बाद 1 हजार से 3 हजार तक के वेतन पर मोहल्लों में सड़ा दिया जाता है। अब यह सवाल उठना लाजिमी है कि कोई राजनीतिक पार्टी आखिर इस मुद्दे पर ध्यान क्यों नहीं देती?

अली अनवर, पूर्व सांसद

बेहद गरीब पसमांदा युवकों को स्तरीय शिक्षा उपलब्ध करवाने को लेकर भी कोई राजनीतिक पहल होती नजर नहीं आ रही है। आखिर पसमांदा के बेटे ही कम तनख्वाह में गांवों में मिलाद (मजहबी कार्य) करने का जिम्मा क्यों लें? पसमांदा बच्चे ही टायर पंचर बनाने वाले या अन्य तरह के मेहनकश कार्य करने वाले क्यों बनें? क्या उन्हें डॉक्टर, इंजीनियर या अन्य बड़े पदों पर काम करने लायक नहीं बनाया जा सकता? मोहल्लों के मदरसों की शिक्षा को पूरी तरह मुख्यधारा की शिक्षा से जोड़कर आखिर क्यों नहीं बड़ी नौकरियों के अवसर पैदा किए जा रहे हैं? बहरहाल, इस बार के बिहार चुनाव से ये मुद्दे एक सिरे से गायब हैं और यह बिहार के पसमांदा मुस्लिमों के लिए चिंता का विषय है।

पूर्व राज्यसभा सांसद व ऑल इंडिया पसमांदा महाज के अध्यक्ष अली अनवर कहते हैं कि चुनावों में टिकट देने में मुस्लिम नुमाइंदगी घट रही है और विशेष तौर पर पसमांदा मुस्लिम की नुमाइंदगी नगण्य है। उन्होंने पिछले लोकसभा चुनाव का उदाहरण देते हुए कहा कि पसमांदा के लिए लड़ने वाले किसी भी नेता को न तो बिहार और न ही झारखंड से उम्मीदवारी दी गई, अब इससे समझा जा सकता है कि स्थिति कैसी बनाई जा रही है।

उन्होंने कहा कि देश की राजनीति में मुस्लिमों की हिस्सेदारी की बात तो छोड़िए, उनका जिक्र तक नहीं हो रहा है। उन्होंने कहा कि जब वे बिहार में मुस्लिम की बात करते हैं, तो उसमें पसमांदा की बात भी निहित होती है, क्योंकि मुस्लिम की 80 प्रतिशत आबादी पसमांदा ही है। उन्होंने यह बात भी साफ तौर पर कही कि कई दूसरी वंचित जातियों के लोग भाजपा के साथ चले जाते हैं, लेकिन मुस्लिम और पसमांदा मुस्लिम कभी भी समझौता नहीं करते और वे सेक्युलर पार्टियों के साथ रहते हैं।

अली अनवर आगे कहते हैं कि सांप्रदायिक राजनीति का दवाब ऐसा है कि मुस्लिमों को प्रतिष्ठा देने, साथ बैठाने या टिकट देने की बात छोड़िए, अब तो पार्टियां मुस्लिमों का नाम लेते घबराती हैं। उन्हें डर लगता है कि भाजपा ध्रुवीकरण कर लेगी। उन्होंने कहा कि कुछ पार्टियों को यह भी लगता है कि मुस्लिमों के लिए कुछ भी करने की जरूरत नहीं है क्योंकि उनका वोट तो हर हाल में मिलना ही है।

अली अनवर ने सच्चर कमेटी और रंगनाथ मिश्र कमीशन का हवाला देते हुए कहा कि सेक्युलर पार्टियां इस्लाम को लेकर बात तो करती हैं लेकिन पसमांदा (जिसमें दलित मुस्लिम भी आते हैं) के मुद्दे को टाल देती हैं। यूपीए के वक्त भी सच्चर कमेटी और मिश्रा कमीशन की रिपोर्ट को नजरअंदाज किया गया। सच्चर कमेटी और मिश्रा कमीशन की रिपोर्टों में कहा गया था कि मुस्लिमों में भी दलित हैं उन्हें दलित का दर्जा मिलना चाहिए। 

बहरहाल, चुनाव को लेकर बिहार की गरमाई राजनीति में हर पार्टी कमर कस चुकी है। कोई पार्टी एजेंडे पर चल रही है, तो कोई अपने हिडन एजेंडे को सुलगाती दिखाई दे रही है। अब देखना यह है कि कौन-सी पार्टी वंचित जनता, दलितों’ और पसमांदा के मुद्दे को ठोस तरीके से उठाती है।

(संपादन : नवल/अमरीश)


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लेखक के बारे में

गुलजार हुसैन

कवि व कहानीकार गुलजार हुसैन पेशे से पत्रकार हैं तथा मुंबई में रहकर राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों पर निरंतर लेखन करते हैं। मुंबई से प्रकाशित समाचार-पत्र 'हमारा महानगर' में लंबे समय तक चला 'प्रतिध्वनि’ नामक उनका कॉलम खासा चर्चित रहा था

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