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राजस्थान में संघी कर रहे ‘जय जोहार’ का विरोध, रच रहे आदिवासी चेतना को कुचल देने की साज़िश

राजस्थान के आदिवासियों द्वारा ‘जय जोहार’ का अभिवादन वहां के संघियों को रास नहीं आ रहा है। इसके संबंध में वे भारतीय ट्राइबल पार्टी के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की मांग कर रहे हैं। यह वही पार्टी है जिसका गठन 2007 में गुजरात के आदिवासी विधायक छोटूभाई वासवा ने की और अब यह पार्टी राजस्थान के आदिवासियों में गहरे पैठ बनाने में कामयाब हुई है। बता रहे हैं भंवर मेघवंशी

राजस्थान के पूर्व गृह मंत्री सह नेता प्रतिपक्ष गुलाब चन्द कटारिया जो कि आरएसएस के खांटी स्वयंसेवक हैं। उन्होंने राजस्थान के पुलिस महानिदेशक भूपेंद्र यादव को पत्र लिख कर डूंगरपुर बांसवाडा क्षेत्र में कार्यरत राजनीतिक दल भारतीय ट्राइबल पार्टी (बीटीपी) के कार्यकर्ताओं पर धार्मिक और सामाजिक वैमनस्य फ़ैलाने का आरोप लगाते हुए उनके खिलाफ कानूनी कार्यवाही की मांग की है।

कटारिया की इस मांग से पहले उनकी पार्टी के युवा संगठन भारतीय जनता युवा मोर्चा (भाजयुमो) ने बांसवाडा में जिलास्तरीय एक मीटिंग करके बीटीपी पर झारखंडी अभिवादन ‘जय जोहार’ स्थानीय आदिवासियों पर जबरन लादने का आरोप लगाया और कहा कि बीटीपी के लोग जबरदस्ती स्थानीय लोगों को ‘जय गुरु’, ’राम राम’, ‘जय मालिक’ और ‘सीता राम’ के बजाय ‘जय जोहार’ कहलवाना चाहते हैं, जो कि बाहरी शब्द है। यह झारखंड और छत्तीसगढ़ से आया है, इसके ज़रिए इलाके में अशांति फैलाई जा रही है।

इसके बाद एक और मुद्दा प्रमुखता से उछाला गया है कि सलुम्बर की सोनार माता जी मंदिर की धार्मिक ध्वजा को हटा कर मंदिर पर भारतीय ट्राइबल पार्टी (बीटीपी) का झंडा लगा कर आदिवासियों व अन्य आम आस्थावान लोगों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाई गई है।

स्थानीय मीडिया ने इन आरोपों को प्रमुखता से जगह दी है और इस प्रकार मीडिया खुद भी इस प्रचार तंत्र का हिस्सा बन गया है। इस कारण ‘जय जोहार’ को बाहरी अभिवादन साबित करने तथा मंदिर का धार्मिक झंडा बदलने के मुद्दे को लेकर अब भाजपा और संघ से जुड़े हुए विभिन्न संगठन जगह जगह ज्ञापन दे रहे हैं, जिन्हें आदिवासी विरोधी सवर्ण मीडिया का पूरा समर्थन मिल रहा है, जिसके चलते आदिवासियों की एकमात्र पार्टी बीटीपी के खिलाफ लोगों में घृणा भरी जा रही हैं।

छोटूभाई वासवा, भारतीय ट्राइबल पार्टी के संस्थापक

जैसा कि संघी दुष्प्रचार की अपनी कार्यशैली है, वो सीधे किसी को निशाना नहीं बनाती है, सबसे लक्षित समुदायों, संस्थाओं अथवा व्यक्तियों का चरित्र हनन किया जाता है, उनके विरुद्ध झूठी जानकारियां फैला कर लोगों में नफरत भरी जाती है। मीडिया में उनके खिलाफ एकतरफा अभियान चलाया जाता है और अंततः सरकारी तंत्र के ज़रिए दमन किया जाता है। राजस्थान में भी इसकी शुरुआत कर दी गई है। यह आदिवासी समुदाय में निर्मित हो रही स्वतंत्र चेतना को कुचल देने की निर्मम साजिश है, जिसे वक्त रहते पहचानने की जरुरत है।

छोटू भाई वासवा की पार्टी है भारतीय ट्राइबल पार्टी

राजस्थान में बीटीपी के उभार से भाजपा और कांग्रेस दोनों ही राजनीतिक दल असहज हुए हैं। वर्ष 2017 में गुजरात के आदिवासी नेता छोटूभाई वसावा द्वारा स्थापित इस पार्टी ने महज तीन साल में ही दक्षिणी राजस्थान में अपना प्रभाव स्थापित किया है। इसने 2019 के विधानसभा चुनाव में 12 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे, जिनमें से दो जगह पार्टी के विधायक चुने गए। आश्चर्यजनक सफलता यह थी कि डूंगरपुर जिले की चार में से दो सीटें बीटीपी ने जीत ली। जबकि स्थापित राजनीतिक दल भाजपा और कांग्रेस को महज एक-एक सीट पर ही संतोष करना पड़ा।

हालांकि इस सफलता को अनायास मिल गई सफलता कहना उचित नहीं होगा, क्योंकि इससे पहले बीटीपी के छात्र संगठन भील प्रदेश विद्यार्थी मोर्चा ने डूंगरपुर जिले की पांच महाविद्यालयों के छात्रसंघ चुनाव में कार्यकारिणी के सभी पदों पर कब्ज़ा करके अपनी उपस्थिति का जबरदस्त अहसास करवा दिया था।

लोग छात्र राजनीति और आम राजनीति में भारतीय ट्राइबल पार्टी के इस धमाकेदार प्रवेश से सकते में आ गए। लेकिन शायद वे नहीं जानते हैं कि यह उस आदिवासी चेतना का परिणाम है जो वर्ष 2015 से आदिवासी जन जागरण के रूप में शुरू किए गए चिंतन शिविरों में तैयार युवा कैडर ने कर दिखाया है। राजनीतिक व सामाजिक विश्लेषक मानते हैं कि अंग्रेजों के खिलाफ हुए मानगढ़ आदिवासी विद्रोह के स्मृति स्थल से शुरू हुए ये चिन्तन शिविर सैंकड़ों जगह लग चुके हैं, जिनमें व्यवस्थित रूप से आदिवासी विचारधारा और शोषणकारी ताकतों के बारे में बताया जाता है। इसके बाद से आदिवासी समाज अपनी पार्टी और सभ्यता, संस्कृति व विचारधारा को लेकर बेहद मुखर हुआ है। अब वह किसी भी कीमत पर गैर आदिवासी नेताओं के वर्चस्व को स्वीकारने को तैयार नहीं है।

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राजस्थान की राजनीति में अबतक परंपरागत रूप से यह होता आया है कि उदयपुर में बैठे ब्राहमण और बनिया समुदाय के राजनेता अपने पिछलग्गू आदिवासी नेताओं के ज़रिए मेवाड़ वागड़ की 17 विधानसभा सीटों का फैसला करते आए हैं। लेकिन आज़ादी के बाद से यह पहला मौका है जब आदिवासी समुदाय अपना निर्णय खुद कर रहा है। उसने सवर्ण वर्चस्व को सबसे मजबूत चुनौती पेश कर दी है। इसलिए दोनों ही पार्टियां और उसके कब्जाधारी नेता आदिवासी चेतना के उभार और उनकी अपनी राजनीतिक पार्टी के प्रति हमलावर हैं।

बीटीपी से क्यों नाराज हैं सवर्ण?

सवाल यह है कि आखिर भारतीय ट्राइबल पार्टी है क्या? इसकी मांगें क्या है और वे कौन-से आकर्षण हैं जो आदिवासी समुदाय के लोग इनकी तरफ खींचते जा रहे हैं? इसको लेकर कोई बड़े शोध की जरुरत नहीं है। जैसा कि ऐतिहासिक सत्य है कि आदिवासी समुदाय जल, जंगल, जमीन का पहरेदार और स्वाभाविक दावेदार रहा है। उसके हक़-अधिकार पर बार-बार प्रहार होता रहा है और वह सदैव लड़ाका समुदाय भी रहा है। उसका अपनी धरती, रीति-रिवाज और नदी, वन तथा वन्यजीवों को बचाने का संघर्ष भी पृथ्वी जितना ही पुराना है। वे वास्तविक मूल निवासी हैं। लेकिन, बाहरी लोग उनके हक़ हुकुक पर सदैव डाका डालते आए हैं। इसलिए लड़ाई भी होती ही रही है और आज भी जारी है।

बीटीपी के उभार के बीज भी इसी ऐतिहासिक अन्याय के गर्भ में छिपे हैं और उनकी सफलता का राज भी इसी में हैं। अब चूंकि आदिवासी समुदाय की नौजवान पीढ़ी पढ़-लिखकर शहरी, अभिजात्य, इलीट, सवर्ण वर्चस्व को समझ गई है तो वह इस साजिश का पर्दाफाश करने लगी है। साथ ही, उन्हें अपनी सभ्यता व संस्कृति के बचाव की भी चिंता है। इसलिए वे कड़ी चुनौती दे रहे हैं।

बीटीपी ने पेसा कानून, वन मान्यता अधिकार कानून और भील प्रदेश की मांग को आक्रामक तरीके से उठाया है। अब वे हाथ जोड़कर दोहरे झुकते हुये अभिवादन करने के बजाय मुट्ठी तानकर “जय जोहार” जैसा क्रान्तिकारी अभिवादन करने लगे हैं। यह शोषकों को बर्दाश्त नहीं हो रहा है कि कैसे उनके सामने नतमस्तक रहने वाले लोग अब आंख में आंख डालकर अपने हक-हुकूक की बात कर रहे हैं। अब सीधे सीधे तो शोषक सवर्ण यह नहीं कह सकते हैं कि आदिवासियों का यह स्वायत, स्वतंत्र, स्वाभिमानी और आत्मनिर्भर स्वरुप हमें स्वीकार नहीं है। इसलिए शब्दजाल की चतुराई से यह कहा जा रहा है कि बीटीपी क्षेत्र की सामाजिक समरसता और धार्मिक भाईचारे में जहर घोल रही है। वैमनस्य फैला रही है। मंदिरों से झंडे हटा रही है। इसलिए इनको कानूनन रोका जाय। इस तरह का कुतर्क व वितंडा आदिवासी विरोधी विचार के लोग फ़ैलाने में लगे है। इस दुष्प्रचार का कुल जमा यही सार है।

जय जोहार का नारा 

संघ व भाजपा से प्रेरित संगठन व लोग बीटीपी पर प्रमुखता से दो आरोप लगाते है। वैसे छिटपुट आरोप पहले भी लगते रहे हैं। परंतु, जबसे बीटीपी के दो विधायकों ने राजस्थान में सत्ता हथियाने के भाजपाई षड्यंत्र में शामिल होने के बजाय कांग्रेस की अशोक गहलोत सरकार को बचाने में अहम् भूमिका अदा की है, भाजपा का रुख हमलावर हो गया है। अब वह बीटीपी को उसके घर में ही उसी समुदाय के संघी लोगों के ज़रिए घेरने की कोशिश में है और इसी योजना को सफल बनाने के लिये जान-बूझकर ऐसे मुद्दे रचे जा रहे हैं जो कि मुद्दे ही नहीं है। ऐसा ही एक मुद्दा है “जय जोहार” अभिवादन का विरोध, जिसे एक तरह से विदेशी अभिवादन साबित करने की कोशिश की जा रही है। मानो झारखंड भारत में न हो कर चीन अथवा पाकिस्तान में हो। आदिवासी तो छोटानागपुर का हो अथवा संथाल का अथवा छत्तीसगढ़ का या फिर डूंगरपुर बांसवाडा का, सभी आदिवासी एक ही हैं। फिर क्यों “जय जोहार” को नफरती अभिवादन बनाने की साजिश हो रही है?

आदिवासी युवा सुनील कटारा कहते हैं कि –“जय जोहार तो सबका कल्याण करने वाली प्रकृति का जयकारा है। यह सदियों से हमारी परंपरा का हिस्सा है। यह कहीं बाहर से नहीं आया है।” 

उनका मानना है कि आदिवासी युवा भटके नहीं हैं। वे जाग रहे हैं तथा गलत और सही का फर्क करना जान गये हैं। उन्हें इस संबोधन में किसी तरह का अलगाव नहीं लगता है। वे कहते हैं कि हम किसी भी अन्य अभिवादन का विरोध नहीं कर रहे हैं। हम तो अपना खुद का अभिवादन दोहरा रहे है जो हमारी संस्कृति है।

बीटीपी के सलुम्बर विधानसभा प्रभारी जीतेश कटारा कहते हैं कि- “हम धरती का मूल बीज है। जब से सिन्धु घाटी की सभ्यता बनी, अरावली का पहाड़ बना, हम आदिवासी यहां मौजूद हैं। जब से इस पृथ्वी का निर्माण हुआ है आदिवासी समुदाय जय जोहार कहता रहा है। हमारा ‘जय श्री राम’, ‘जय जिनेन्द्र’, ‘जय श्री कृष्णा’ आदि अभिवादनों से कोई विरोध नहीं है। जिसकी जैसी मर्जी हो वह बोले। परंतु, हमारा मूल अभिवादन ‘जय जोहार’ है। हम किसी पर थोप नहीं रहे हैं। हमारी अपनी बोली, अपना पहनावा, अपनी संस्कृति है। हम न तो आस्तिक हैं और न ही नास्तिक। हम तो वास्तविक है। जो हमारा विरोध करेगा वह प्रकृति का विरोधी है। वह धरती का विरोधी है। जोहार हमारा अपना अभिवादन है और रहेगा।”

सोनार मताई मंदिर का झंडा 

सलुम्बर में स्थित सोनार माता के मंदिर पर स्थित धार्मिक झंडे को हटाकर वहां पर बीटीपी का राजनीतिक झंडा लगा देने का मुद्दा इन दिनों खूब तूल पकड़ रहा है। संघ व भाजपा के नेता आरोप लगा रहे है कि भारतीय ट्राइबल पार्टी आदिवासियों की धार्मिक भावनाओं को आघात पंहुचा रही है। इसके खिलाफ ज्ञापन भी दिये जा रहे हैं तथा वीडियो वायरल किये गये हैं। 

बीटीपी के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. वेला राम घोगरा बताते हैं कि “सारा मुद्दा बनाया गया है। मीडिया में मंदिर पर बीटीपी का झंडा चढाने की बात की जा रही है, जो कि पूरी तरह से गलत है। हम क्यों पार्टी का झंडा देवी को चढ़ाएंगे? सोनार मताई आदिवासी समुदाय के दायमा गोत्र की कुलदेवी हैं। वहां सदियों से लाल झंडा चढ़ता रहा है, जिसमें सूरज, चांद व तारा होता है। वही लोग अपनी कुल देवी पर चढ़ा रहे थे। किसी पार्टी का कोई झंडा नहीं चढ़ाया जा रहा था। यह बीटीपी के निरंतर बढ़ते प्रभाव को रोकने की साजिश है।”

डूंगरपुर जिले की चोरासी विधानसभा से बीटीपी के युवा विधायक राजकुमार रोत कहते हैं कि “सोनार मताई सलुम्बर के भील राजा सोनार की धर्मपत्नी थीं। वे दामा (दायमा) गोत्र के थे, इसलिए आज भी दायमा आदिवासी अपनी कुलदेवी सोनार मताई को मानते हैं और हर साल नेजा बदलते हैं। हम आदिवासी गांव खेड़े की माताओं पर नेजा चढाते हैं। न कि ध्वजा या झंडा। झंडे के नाम पर आरएसएस और बीजेपी ने यह विवाद खड़ा किया है। इस साजिश में एक संघी पत्रकार भी शामिल हैं, जो भाजपा के एजेंट हैं। संघी लोग लाल नेजे की जगह भगवा झंडा चढ़ाना चाहते थे, इसलिये उसे बदला गया होगा। पर यह काम भी हमारे किसी कार्यकर्ता ने नहीं किया। आदिवासी समाज के कईं लोग मसलन कोटवाल और भगत आरएसएस के एजेंट बन चुके हैं। आरएसएस हमारे लोगों को मानसिक गुलाम बना रहा है। हम उनके इस एजेंडे के खिलाफ हैं। वे आदिवासी इलाके में हिन्दुत्व के नाम पर जहर घोल रहे हैं। हम उनके इस एजेंडे का भंडाफोड़ कर रहे हैं। हम धर्म पूर्व के समुदाय के लोग हैं। हमें जबरदस्ती हिन्दू या ईसाई बनाया जा रहा है। हम इसके खिलाफ हैं। दरअसल, बीटीपी एक बहुत बड़ी ताकत बन कर उभर रही है। ये लोग इसे रोकना चाहते हैं। इसलिए ‘जय जोहार’ का विरोध और सोनार मताई मंदिर पर झंडा बदलने जैसे आरोप लगा कर दुष्प्रचार करने में लगे हैं।”

कांग्रेस में भी खलबली

वैसे देखा जाय तो बीटीपी के जबरदस्त उभार से न केवल भाजपा बल्कि कांग्रेस भी बौखलाई हुई लग रही है। हाल ही में राजस्थान प्रदेश यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष बनाए गये डूंगरपुर विधायक गणेश घोगरा ने भी बीटीपी और आदिवासी विचारधारा के खिलाफ सार्वजनिक रूप से बोला है। गोविन्द गुरु जनजाति विश्वविधालय बांसवाडा में भारतीय ट्राइबल पार्टी पर शोध कर रहे रिसर्च स्कोलर कैलाश चन्द्र रोत अपने एक लेख में लिखते हैं कि – “कांग्रेस और भाजपा लगातार इस क्षेत्र में बीटीपी पर हमलावर होती रही है कि यह आदिवासी युवाओं को भ्रमित कर रहे हैं।” वे कहते हैं कि –“‘जय जोहार’ और सोनार माता मंदिर झंडा प्रकरण विवाद आदिवासी समाज में आ रही चेतना को दबाने की साजिश है। इसमें आरएसएस बीजेपी और कांग्रेस भी शामिल है।”

बहरहाल, वर्तमान विवाद के दौरान आ रहे बयानों पर गौर करें तो लगता है कि दोनों स्थापित राजनीतिक दलों ने आदिवासियों को आदिवासियों के खिलाफ खड़ा करने की संघी साजिश को क्रियान्वित करने में स्वय को लगा दिया है। नेता प्रतिपक्ष गुलाब चन्द कटारिया इसकी कमान संभाल रहे हैं, जबकि धरातल पर भाजपा के पूर्व विधायक सुशील कटारा और भाजयुमों के प्रदेश मंत्री मुकेश रावत आदि लोग माहौल बनाने में लगे हुए हैं। जबकि एकदम नीचे संघ का सेवा विभाग और उसके आनुसांगिक संगठन सेवा भारती, विद्या भारती, वनवासी कल्याण आश्रम, राजस्थान भील परिषद्, विश्व हिन्दू परिषद और उनके सैंकड़ो एकल विद्यालय, सत्संग मंडलियाँ आदि भी साजिश में लगे हैं। इन सबका एक ही उद्देश्य है कि आदिवासी समुदाय में कोई स्वतंत्र चेतना विकसित न हो और अगर बीटीपी जैसे दल आदिवासी चेतना को जागृत कर पाने में सफल हो जाय तो उन्हें मंदिर आदि के बनावटी धार्मिक मुद्दे खड़े करके कुचल दिया जाय। ठीक वैसे ही जैसे सदियों से इस देश का सक्षम सवर्ण, अधिकार सम्पन्न, ताकतवर तबका आदिवासियों को कुचलता आ रहा है। उनकी इस साजिश को समझना और इसका पर्दाफाश करना बेहद जरुरी है।

(संपादन : नवल)


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भंवर मेघवंशी

भंवर मेघवंशी लेखक, पत्रकार और सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता हैं। उन्होंने आरएसएस के स्वयंसेवक के रूप में अपना सार्वजनिक जीवन शुरू किया था। आगे चलकर, उनकी आत्मकथा ‘मैं एक कारसेवक था’ सुर्ख़ियों में रही है। इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद हाल में ‘आई कुड नॉट बी हिन्दू’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। संप्रति मेघवंशी ‘शून्यकाल डॉट कॉम’ के संपादक हैं।

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