जोतीराव फुले (11 अप्रैल, 1827 – 28 नवंबर, 1890) ने अपनी कालजयी रचना गुलामगिरी को “गुलाम प्रथा के उन्मूलन के लिए संघर्षरत संयुक्त राज्य के अच्छे लोगों” को समर्पित किया था। इसके लगभग 150 साल बाद, अनेक अफ़्रीकी अमरीकी और दलित बुद्धिजीवियों ने समवेत स्वर में अपने-अपने समुदायों के विरुद्ध नस्लीय और जातिगत हिंसा की निंदा की है।
जॉर्ज फ्लॉयड, श्वेत पुलिसकर्मी के हाथों मारे जाने वाला पहला अफ्रीकी-अमरीकी नहीं था और ना ही मनीषा वाल्मीकि, ऊंची जातियों के पुरुषों के हाथों बलात्कार या जानलेवा हिंसा का शिकार होने वाली पहली दलित महिला थी। इसी साल, 25 मई को अमरीका के मिनियापोलिस (मिनेसोटा) शहर के एक फुटपाथ पर एक श्वेत पुलिसवाले ने जॉर्ज के गले को अपने घुटने से लगभग 10 मिनट तक दबाए रखा, जिससे उसकी मौत हो गयी। वहीं सितम्बर में उत्तर प्रदेश के हाथरस में पारंपरिक रूप से हाथ से मैला साफ़ करने वाली एक दलित जाति की मनीषा वाल्मीकि के साथ एक ऊंची जाति (ठाकुर) के चार पुरुषों ने सामूहिक बलात्कार किया, उसे गंभीर चोटें पहुंचाईं और उसे मरने के लिए छोड़ दिया।
यदि जॉर्ज और मनीषा की हत्या की कठोर निंदा और व्यापक विरोध हुआ तो उसका कारण था दुनिया के ‘सबसे बड़े’ और ‘सबसे पुराने’ लोकतंत्रों की सरकारों की इन घटनाओं पर निष्ठुर प्रतिक्रिया। जॉर्ज के मामले में तो एक तरह से सरकार स्वयं अपराध में शामिल थी, क्योंकि हत्यारा सरकारी तंत्र का हिस्सा था। मनीषा के मामले में सरकार ने आरोपियों को बचाने का हरसंभव प्रयास किया। जॉर्ज चिल्लाता रहा कि वो सांस नहीं ले पा रहा है परन्तु उसकी मदद के लिए कोई आगे नहीं आया। मनीषा को उपयुक्त चिकित्सकीय सहायता उपलब्ध करवाने में बहुत देर की गयी और उसकी मौत के बाद, उत्तर प्रदेश पुलिस ने उसके शव को रात के अंधेरे में बिना उसके परिवार की सहमति के जला दिया …
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