एक दलित इतिहासविद् की निगाहों से केरल का अतीत एवं वर्तमान
फारवर्ड प्रेस के साथ अपने साक्षात्कार के इस दूसरे भाग में पी. सनल मोहन बता रहे हैं कि सन् 1920 और 1930 के दशकों के मंदिर प्रवेश आंदोलन के पहले तक इजावा समेत सभी ऐसी जातियों, जो आज ओबीसी या एससी कहलाती हैं, को हिन्दू ही नहीं माना जाता था। कोट्टयम स्थित महात्मा गांधी विश्वविद्यालय में इतिहास के प्राध्यापक और बहुप्रशंसित पुस्तक ‘मार्डनटी ऑफ स्लेवरीः स्ट्रग्लस अगेन्स्ट क्लास इनइक्वलिटी इन केरेला’ के लेखक, सनल मोहन का कहना है कि इस तथ्य के बावजूद कि आज के ओबीसी और एससी को नारायण गुरू के काल में हिन्दू ही नहीं माना जाता था, संघ परिवार गुरू पर कब्जा जमाने का प्रयास कर रहा है। यद्यपि नारायण गुरू एक इजावा परिवार में जन्मे थे तथापि वे लोगों को जाति और धर्म से ऊपर उठने की शिक्षा देते थे और उनकी कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं था।
उन्नीसवीं सदी के केरल के सामाजिक-आर्थिक ढ़ांचे में इझावा समुदाय की क्या स्थिति थी?
नौवीं सदी के ऐतिहासिक दस्तावेजों में इजावा को गुलाम समुदाय बताया गया है, परंतु आगे चलकर इस समुदाय ने गुलामी से मुक्ति पा ली। सन् 1817 में त्रावणकोर की रानी ने एक राजाज्ञा जारी कर सभी गुलाम जातियों को स्वतंत्र घोषित कर दिया। इसका एकमात्र अपवाद वे जातियां थीं, जो कृषि अर्थव्यवस्था का हिस्सा थीं और खेतिहर मजदूर के रूप में काम करती थीं। इस प्रकार हम पाते हैं कि 19वीं सदी में इजावा कृषि श्रमिक के रूप में काम करते थे और अन्य आर्थिक गतिविधियों में भी संलग्न थे परंतु वे गुलाम नहीं थे अर्थात उन्हें जमीन के साथ खरीदा-बेचा नहीं जा सकता था और ना ही किराए पर दिया जा सकता था। वे मुख्यतः कृषि श्रमिक थे जो ऊंची जातियों के जमींदारों से जमीन किराए पर लेकर खेती करते थे। उन्नीसवीं सदी के अंत तक उनमें से कई संपन्न किसान भी बन गए थे …