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आरक्षण लागू न करने की हठधर्मिता के दर्शन करने हों तो जेएनयू आईये

संविधान संशोधन हो चुके हैं, नए कानून बनाये जा चुके हैं, अदालतें अपने फैसले सुना चुकीं हैं और सरकारें मार्ग-निर्देश जारी कर चुकी हैं। परन्तु इन सब के बाद भी, दिल्ली के जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू) में अध्यापकों के लिए निर्धारित आरक्षण कोटा अब भी केवल कागजों पर है। विश्वविद्यालय प्रशासन एससी, एसटी और ओबीसी उम्मीदवारों को बाहर रखने के लिए बहाने खोजने में अपने सिद्धस्तता का परिचय देता रहा है। बता रहे हैं अनिल वर्गीज

अगर आप यह समझना चाहते हैं कि आरक्षण की व्यवस्था – और प्रतिनिधित्व और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों – को कार्यान्वयन के स्तर पर किस तरह दरकिनार किया जा सकता है तो जेएनयू की भर्ती प्रक्रिया आपके लिए एक बहुत शानदार केस स्टडी हो सकती है। जेएनयू अध्यापक संघ (जेएनयूटीए) ने हाल में केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय (जो पहले मानव संसाधन मंत्रालय हुआ करता था) को दूसरी बार पत्र लिखकर इस मुद्दे की गंभीरता की ओर आला हुक्मरानों का ध्यान खींचने की कोशिश की है। संघ के पहले पत्र का मंत्रालय ने जवाब देना भी जरूरी नहीं समझा है।

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अनिल वर्गीज

अनिल वर्गीज फारवर्ड प्रेस के प्रधान संपादक हैं

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