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बहस-तलब : उत्पीड़कों की पहचान और विरोध बने बहुजन साहित्य की कसौटी

यह विचारने की जरूरत है कि आजीवक, बौद्ध और जैन धर्म से संबंधित विचारों को ब्राह्मणों ने किस तरह तोड़ा-मरोड़ा है कि हमारे उत्पीड़क ही हमारे भाग्यविधाता नजर आते हैं। जबतक हम यह नहीं करेंगे तबतक बहुजनों का साहित्य आधारहीन बना रहेगा। पढ़ें रामजी यादव का यह विश्लेषण

इस देश में सबसे साधारण बात है उत्पीड़न और यह उत्पीड़न बहुजन समाजों के वंचित मनुष्य लगातार झेलते आ रहे हैं, लेकिन इसके खिलाफ उनके मन में कोई गुस्सा नहीं आता, बल्कि वे सहज ही उसको सहते जाते हैं। दुर्भाग्य यह है कि धीरे-धीरे उन्होंने इसको नियति मान लिया। इसके बाद उत्पीड़न उनके जीवन में विभिन्न दिशाओं से शामिल होता गया और वे इससे गाफिल होते गए। उनके ऊपर मनसा, वाचा, कर्मणा यानि सम्पन्न लोगों द्वारा जलन और ईर्ष्या के वशीभूत होकर द्वेषभाव से देखने और अपशब्दों और गालियों से अपमानित करने और शारीरिक हमले करने, आगजनी और हत्याओं के रूप उत्पीड़न होते रहते हैं। उत्पीड़न का एक रूप वंचितों के नामकरण के रूप में भी रहा है, जिसके माध्यम से उन्हें लगातार अपमान का बोध कराया जाता रहा है। इसे भी उन लोगों ने स्वीकार लिया। पूर्वांचल में पिछड़ी जातियों के जातकों के राशि के नाम प्रायः ऊटपटांग रखे जाते रहे हैं। मसलन दुक्खी, चमरू, बोंड़र, सोंड़र, ढकेलू, खंझाटी, पताई, मुसई, लेढ़ू आदि। माना जाता है कि सभी लोगों की राशि के नाम ऐसे ही होते हैं और बाद में एक असली नाम रख लिया जाता है। लेकिन ऐसा सब जगह और हर बार नहीं होता। राशि के अपमानबोधक नाम ही अंततः स्वीकार कर लिए जाते हैं। इस तरह से संज्ञात्मक रूप अपमानबोधक नाम रखकर सतत उत्पीड़न का एक जीता-जागता रूप बहुजन-वंचितों के ऊपर थोप दिया जाता है। यह इस देश की एक ऐसी सच्चाई है जिसके प्रति एक गहरी उदासीनता रही है। ऐसे लोग जब अपने हक के संघर्ष को लेकर किसी के सामने जाएंगे तो उनका क्या रवैया होगा। 

नाम बिगाड़ने के हजारों उदाहरण प्राचीन ग्रन्थों, नाटकों, काव्यों और आधुनिक उपन्यासों, कहानियों में और दीगर साहित्यिक रूपों में पाए जाते हैं और हजारों वर्षों से पाए जाते हैं। बहुजन इतिहास की लगभग सारी उपलब्धियां और उनके सारे महान लोग, नायक और नेता इसकी भेंट चढ़ गए हैं। प्रायः उनके शुद्ध नाम अब नहीं मिलते। उन्हें अनेक स्रोतों से पता करना पड़ता है। एक तो उनकी भाषा विलुप्त हो गई अथवा विकसित होकर हिन्दी, भोजपुरी, बांग्ला, उड़िया, मुंडारी, खोरखों, कुड़ुख, संथाली, छत्तीसगढ़ी, मालवी, गोंडी और मराठी में इतनी गहराई से जा मिली हैं कि उनका वास्तविक रूप खोजने के लिए भाषा विज्ञान का सहारा लिया जाता है। इतिहास और किस्सों के बीच यात्रा करनी पड़ती है। लोकोक्तियों और मुहावरों की चौहद्दियां पार करनी पड़ती हैं। बीज शब्द और धातु रूप खोजने की कोशिश करनी पड़ती है। उपसर्गों, प्रत्ययों और क्रियापदों की स्थिति देखनी पड़ती है। गरज यह कि वे भाषाएं हमारी दिनचर्या में पानी की तरह रची-बसी हैं, लेकिन हमको मालूम नहीं है कि ठोस रूप में वे कहां हैं? किसी ने ‘भासा बहता नीर’ कहा है। इसका मतलब है कि तमाम भाषाओं की स्वाभाविक गति एक दूसरे में इस तरह मिल जाना थी जहां उनकी स्वतंत्र पहचान मिट जाती थी। यानी जैसे नदियां भरी हुई रहती हैं तो जीवन भी समृद्ध रहता है। नदियां बहती हैं तो पानी भी निर्मल रहता है। इसी तरह भाषा जब बहती है तो वह भी निर्मल रहती है। अच्छा और साफ पानी जीवनदायी होता है। उसी तरह प्रवाहमान भाषा जीवन की शान को कई गुना तेज करती है। इसके बरक्स संस्कृत को कूप जल कहा गया है। एक तो कुआं संपन्नों के स्वामित्व में रहता है। दूसरे अगर हर साल-दो साल में ओगारा नहीं जाएगा तो उसका स्रोत बंद हो जाएगा और पानी सड़ने लगेगा। संस्कृत इसी गति को प्राप्त है। पहले संस्कृत वालों ने किसी को पढ़ने न दिया और आज संस्कृत को पढ़ने वाला ही कोई नहीं है। 

बुद्ध अपने शिष्यों के साथ

लेकिन संस्कृत इसलिए बची हुई है क्योंकि उसमें साहित्य का एक भंडार है। बेशक वह साहित्य बहुजनों का नहीं है, बल्कि बहुजन विरोधी है लेकिन उसकी प्रविधि कमाल की है। उनमें नाम को अपमानबोधक रूप से भरपूर इस्तेमाल किया गया है। उसमें बहुजनों का साहित्यिक उत्पीड़न ही किया गया है और बहुजनों के जितने भी नायक हैं सब के सब खलनायक हैं। केवल वे ही नायक हैं जिनको ब्राह्मणों ने अपने अनुकूल और हिसाब से ढाल लिया है। ब्राह्मणों ने राम और कृष्ण को ही नहीं, बुद्ध और महावीर पर भी अपना कब्जा बनाए रखा और उन्हें अपने हिसाब से ढाला। आज क्यों सारे के सारे लोग हिन्दुत्व का घंटा बजा रहे हैं और अपने संघर्षों को भूल गए हैं? क्योंकि दरअसल उनका साहित्य संदिग्ध होकर यहां-वहां बिखर गया। उनके प्रतिरोध, संघर्ष और उपलब्धियों के दस्तावेज़ नहीं हैं। उनके परिश्रम की निशानी और उसकी दावेदारी करने वाली कवितायें और गीत और नाटक नहीं हैं, इसलिए आज वे हतप्रभ होकर भटक रहे हैं। कैसे बताएंगे कि इस भौतिक दुनिया का निर्माण उन्होंने किया है? इसलिए भागीदारी के लिए घंटा बजा रहे हैं लेकिन मिल कुछ नहीं रहा है। मिलेगा तो जूठन ही मिलेगा। 

डॉ धर्मवीर लिखते हैं – “यह कहने में कोई वज़न नहीं है कि बुद्ध ने बौद्ध धर्म की स्थापना की। सच यह है कि बौद्ध धर्म को ब्राह्मणों ने चलाया। एक बुद्ध क्षत्रिय हो गए पर बाकी सारे बौद्ध दार्शनिक ब्राह्मण थे। बुद्ध के धर्म सेनापति सारिपुत्र का जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था। बौद्ध धर्म के दूसरे बृहस्पति महा मौद्गल्यायन का जन्म भी ब्राह्मण परिवार में हुआ था। जिन अन्य बौद्ध दार्शनिकों और धर्म पुरुषों का जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था उनके नाम गिनाए जा सकते हैं – महकाश्यप, मोगग्लिपुत्र तिशया, नागसेन, अश्वघोष, नागार्जुन, आर्यदेव, बुद्धयश, बुद्धघोष, असंग, वसुबंधु, दिंन्नाग, परमार्थ, धर्मकीरती, शांतिरक्षित। ये ब्राह्मण न हो गए, बौद्ध धर्म में ब्राह्मणों की फौज खड़ी हो गई जिन्होंने बौद्ध धर्म पर भीतर से कब्जा कर रखा है। 

ऐसे ही महावीर एक क्षत्रिय हो गए – और उनके बाकी सारे शिष्य कौन थे? उनके ग्यारह शिष्य थे। उन्हें गणधर कहा जाता है। आश्चर्य है कि वे सारे के सारे ब्राह्मण थे। उनके नाम इस प्रकार हैं – इंद्रभूति गौतम, अग्निभूति, वायुभूति, शुचिदत्त, सुधर्म, मांडव्य, मौर्यपुत्र, अकंपन, अचल, मेदार्य अंतिम प्रभास। एक क्षत्रिय और ग्यारह ब्राह्मणों का घेरा – कैसे निकला जाय? जो पूर्व और अंग के रूप में साहित्य तैयार किया गया है, वह महावीर ने तैयार नहीं किया, बल्कि ब्राह्मणों ने तैयार किया है।” (महान आजीवक : कबीर, रैदास और गोसाल, डॉ. धर्मवीर, 2017, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली)

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डॉ. धर्मवीर इससे एक निष्कर्ष यह निकालते हैं कि बुद्ध ने वर्णव्यवस्था को चुनौती नहीं दी। बल्कि वर्णव्यवस्था में मूल संघर्ष ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच पदानुक्रम को लेकर रहा है, इसलिए बुद्ध वर्णक्रम को क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र कर देते हैं। दोनों ऊपरी क्रम बदल गए। क्रांति हो गई। वे आगे लिखते हैं – “ब्राह्मण धर्म में ब्राह्मणों की भरमार होने से ब्राह्मण की स्थिति समझ में आती है। वहां वह वर्चस्ववां, पूजनीय, भूदेव और अदंडनीय है। लेकिन पता चलता है कि ‘त्रिपिटक’ और ‘आगम साहित्य’ पर भी उसी का कब्जा जमा हुआ है। यहां ब्राह्मणों की ‘गीता’, बौद्धों के ‘धम्मपद’ और जैनियों के ‘उत्तराध्ययन सूत्र’ की तुलना की जा सकती है। ब्राह्मण धर्म की ‘गीता’ में ब्राह्मण पुण्ययोनि है और सर्वोपरि है। बौद्ध धर्म के ‘धम्मपद’ में ब्राह्मण प्रशंसनीय और वंदनीय है। पता चलता है कि ‘धम्मपद’ का आखिरी 26वां वग्ग ‘बाम्मणवग्गो’ है जबकि आखिरी वग्ग ‘भिक्खुवग्गो’ या ‘बुद्धवाग्गो’ होना चाहिए था। इतना ही नहीं, ‘बाम्मणवग्गो’ सब से बड़ा वग्ग भी है। ‘धम्मपद’ के कुल 423 पदों में से ‘बाम्मणवग्गो’ में 41 पद हैं जबकि ‘भिक्खुवग्गो’ में कुल 23 पद हैं। ‘उत्तराध्ययन सूत्र’ में ब्राह्मण को लेकर क्या स्थिति है? इसके पच्चीसवें अध्ययन के 19 वें से लेकर 35 वें तक के 17 सूत्र ब्राह्मण को पूजनीय बनाए हुये हैं। यूं ‘गीता’ में, ‘धम्मपद’ में और ‘उत्तराध्ययन सूत्र’ में ब्राह्मण वंदनीय, पूजनीय और सर्वोपरि बना हुआ है। बात यह भी है कि ब्राह्मण को बुद्ध और महावीर के क्षत्रिय होने से आपत्ति नहीं है क्योंकि अपने धर्म में भी उसने राम और कृष्ण नाम के दो क्षत्रियों को भगवान बनाकर पेश कर रखा है। दो के बजाय चार क्षत्रिय हो जाएं, कुछ ज्यादा नुकसान नहीं है – राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर। दो को भीतर से और दो को बाहर से – अर्थात इन चारों क्षत्रियों को उसने अपने कब्जे में कर रखा है। यूं समझें कि भारत में पोप और किंग के बीच हुई लड़ाई इस रूप में समझौते पर आई कि ब्राह्मणों ने चार क्षत्रियों को भगवान बनाकर अपने वश में किया है। बुद्ध को ले कर ‘त्रिपिटक’ ब्राह्मणों ने लिखा, महावीर को लेकर ‘आगम ग्रंथ’ ब्राह्मणों ने लिखे, राम को लेकर ‘रामायण’ ब्राह्मणों ने लिखी और कृष्ण को लेकर ‘महाभारत’ ब्राह्मणों ने लिखी। इन चारों लिखतों में स्वयं क्षत्रियों का कोई योगदान नहीं है।”

उपरोक्त उद्धरण को देने का तात्पर्य यह है कि ब्राह्मणों ने ब्राह्मण अथवा हिन्दू धर्म में अपने को श्रेष्ठ बनाया और अपने समानान्तर शेष को अश्रेष्ठ और नीच बनाया। सबका नाम बिगाड़ा। जबकि बुद्ध ने सारे संघर्ष के बावजूद क्षत्रिय वर्ण को पहले नंबर पर स्थापित किया लेकिन उनके धर्म का संचालन ब्राह्मणों ने किया। महावीर ने भी क्षत्रिय वर्ण को पहला स्थान दिया और उसके बाद वैश्य, शूद्र और सबसे नीचे ब्राह्मण। लगता है यह क्रांतिकारी काम हुआ, लेकिन वास्तविकता क्या है? यही कि उनके सारे के सारे शिष्य ब्राह्मण थे। न क्षत्रिय, न वैश्य और शूद्र का तो सवाल ही नहीं। नतीजा क्या हुआ? बुद्ध के आंख मूंदते ही ब्राह्मणों ने बौद्ध धम्म का दो फाड़ किया और लगभग सारे के सारे धर्म को तहस-नहस कर दिया। प्राचीन संस्कृत नाटकों में बौद्धों के नाम बिगाड़कर जितने अपमानजनक ढंग से उन्हें चित्रित किया है वह विश्व साहित्य में घृणा का सबसे दुर्लभ प्रमाण है। महावीर का धर्म भी कहां बचा? जनजीवन में उसकी उपस्थिति बहुत सिमट गई है। हिन्दी भाषा में एक शब्द है ‘लुच्चा’। यह जैनियों के लुंचन से विकसित हुआ है और घोर अपमानसूचक बनकर रह गया है। इसका मतलब यह हुआ कि दुकान का नाम आप अपने नाम पर रखेंगे और मैनेजर कर्मचारी सब ब्राह्मण रखेंगे तो होगा यह कि एक दिन वे आपको तहस-नहस कर देंगे और आप कुछ न कर सकेंगे। 

नाम को बिगाड़कर अपमानजक ढंग से कहने का काम इसी उर्वरकाल में सर्वाधिक हुआ है। बुद्ध के बारे में कहा जाता है कि जब वे अपने घर से निकले तो कुछ-कुछ दिनों तक अजित केशकंबली, आलार कलाम और मक्खलि गोसाल के यहां शिष्य के रूप में रहे। चूंकि अपनी जीवनी में बुद्ध ही सबसे महान दर्शाये गए, इसलिए इन लोगों ने बाद में उनसे हाथ जोड़कर कहा कि जितना मेरे पास था सब ज्ञान आपको दे दिया। अब आप आगे बढ़ें। इस प्रकार बुद्ध गया पहुंचे। लेकिन असली बात कुछ और प्रतीत होती है। मक्खलि गोसाल वर्णव्यवस्था और अध्यात्म की किसी ऐसी परंपरा को नहीं मानते थे जिसमें गृहस्थ और संन्यासी दो अलग जीवन हो। वे वर्णव्यवस्था के विरोधी थे। और साधारण जीवन ही इतना उच्च था कि संन्यास आदि एक ढोंग से अधिक कुछ नहीं थे। डॉ. धर्मवीर उनको आजीवक कहते हैं जिनकी परंपरा कबीर और रैदास तक चली आती है। आजीवक यानि परिश्रम करनेवाला। खटकर खाने वाला समाज। वह समाज किसी संन्यासी या परजीवी को दान क्यों दे। अपनी मेहनत से उसे क्यों जिलाए?

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बड़ी दिलचस्प बात है कि ब्राह्मण धर्म में ब्राह्मण सर्वोपरि है यानि वह धर्म ध्वजा उठाए हुए है इसलिए कोई काम नहीं करता। वह दान का अधिकारी है और कोई भी अपराध करने के बावजूद अदंडनीय है। बुद्ध के यहां संन्यास है। भिक्खु हैं और संघ है। अनेक राजाओं, सामंतों, नगरवधुओं के सहयोग से निर्मित वर्षावास केंद्र हैं। विहार हैं। आरामगाह हैं। दान की गौरवशाली परंपरा है। आज भी वही सब है। लेकिन आज जब हम बहुजन समाजों को धर्म और ब्राह्मणवाद के चंगुल से मुक्ति की परियोजना पर विचार करते हैं तो सबसे पहला मामला यह आता है कि जब तक ब्राह्मणों को दान देना बंद नहीं किया जाएगा तब तक धर्म ऐसे ही लोगों को अपने चंगुल में दबोचे रहेगा। यह बात बुद्ध की ओर तो कतई नहीं जाती। यह बात मक्खलि गोसाल की ओर जाती है। यानी हिंदू धर्म, ब्राह्मणवाद, वर्णव्यवस्था, जातिवाद, शोषण और उत्पीड़न से मुक्ति का मार्ग उस आजीवक विचारधारा की ओर जाता है जिसने वर्ण को नकार दिया। जिसमें कोई संन्यासी और गृहस्थ का विभाजन नहीं है। जिसमें विचार की वह ऊंचाई है कि आदमी आज़ादी की सांस ले सकता है। हिंदू धर्म में हजारों देवी-देवताओं के मोहपाश में फंसे लोग सांस्कृतिक रूप से इतने विपन्न हैं कि वे डरते हैं कि इसे छोड़ देंगे तो कहां जाएंगे। बड़े-बड़े बौद्धिक लोग भी इसी संकट और ऊहापोह में ताउम्र फंसे रहते हैं। वे नहीं जानते कि कबीर और रैदास का वैचारिक वैभव क्या है। और वे उधर इस डर से नहीं जाते कि कबीर-रैदास के प्रभाव से कहीं उनका हिंदू मन कमजोर न हो जाए। उनकी शंका सच है लेकिन ऐसे कमजोर और सांस्कृतिक रूप से विपन्न लोग इधर आएंगे नहीं। हमेशा इतने गुलाम रहेंगे कि बार-बार अपने गले में गुलामी का फंदा डालकर मगन रहेंगे। ऐसे लोग बिगड़े नामों वाले पूर्वजों की वे संतान हैं जो आज नाम तो बदल सकते हैं लेकिन प्रवृत्ति कभी न बदलेंगे। 

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बुद्ध और महावीर और मक्खलि गोसाल के बीच मौलिक विवाद है। और इतिहास बताता है कि मक्खलि गोसाल ने बुद्ध और महावीर को मीलों पीछे छोड़ दिया था। इसका परिणाम यह हुआ कि दोनों के ब्राह्मण शिष्यों ने मक्खलि गोसाल का नाम ही नहीं विचार भी बिगाड़ा। ब्राह्मणों को उनसे क्या दिक्कत हुई होगी? डॉ. धर्मवीर ने भगवती सूत्र के हिन्दी अनुवाद के हवाले से बताया है – “उस युग में भी जब स्वयं तीर्थंकर विद्यमान थे, गोशालक जैसा पाखंडी व्यक्ति अधिक लोकप्रिय बन गया था। भगवान महावीर के अनुयाइयों की संख्या केवल एक लाख उनसठ हज़ार थी जबकि गोशालक के अनुयायी ग्यारह लाख इकसठ हज़ार थे।”  

कहा जाता है कि मक्खलि गोसाल नंद वंश के धर्मगुरु थे। उनको लेकर तरह तरह की कथाएं गढ़ी गई हैं। बौद्ध कथाओं में भी उनके प्रति घृणा दिखती है। जैन आगम में मक्खलि गोसाल को महावीर का चेला बताया गया है और 57 कथनों को डॉ. धर्मवीर ने उद्धृत किया है। लेकिन वे दरअसल इन कथाओं और कथनों की गहन छानबीन के माध्यम से इस निष्कर्ष तक पहुंचते हैं कि अजीवकों का संघर्ष ब्राह्मणों, बौद्धों और जैन तीनों से रहा है। ठीक इसी तरह ब्राह्मणों का संघर्ष आजीवकों, बौद्धों और जैनों से रहा है। ब्राह्मणों ने तीनों को नष्ट किया। बुद्ध और महावीर ने तो उन्हें सीधे अपना शिष्य बनाकर ही यह अधिकार दिया, जबकि आजीवक उनकी बनाई वर्णव्यवस्था, पुनर्जन्म और संन्यास आदि को खारिज करता था। इस प्रकार हम देखते हैं कि आजीवकों और ब्राह्मणों का संघर्ष ही मुख्य था और बौद्ध एवं जैन धर्म उसके बीच में थे। लेकिन जिस प्रकार मक्खलि गोसाल पर ब्राह्मणों ने हमले किए उसी प्रकार बौद्धों और जैनियों ने भी किए। इस तरह नाम बिगाड़ने, क्षेपकों, किस्सों और अफवाहों के जरिए उत्पीड़न का यह रूप शुरू हुआ। इसमें से एकाध फल जैन-बौद्ध जरूर पा गए होंगे लेकिन बाजी ब्राह्मणों के ही हाथ रही। 

तो हमें जिस प्रकार का देश और समाज मिला है, उसमें यह एक बड़ा यथार्थ है कि निहित स्वार्थ अपने विरोधियों को दबाने और ठिकाने लगाने के लिए अपमानबोधक नाम रखने से लेकर, उसके कृतित्व को नष्ट-भ्रष्ट करने, उसके चरित्र हनन के लिए अनेक किस्से और अफवाहें गढ़ने का काम करते रहे हैं। इस बात के खिलाफ जब तक लोग सचेत नहीं होंगे तब तक वैचारिक और नैतिक उत्थान असंभव है। सबसे पहले तो इस बात की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए कि उत्पीड़न क्यों बर्दाश्त किया जाय और यह भी कि उत्पीड़न हो किस रूप में रहा है। 

इधर के दशकों में लोगों में इस बात से काफी जागृति आई है। कोई भी उनको सामाजिक रूप से अपमानित नहीं कर सकता। दलितों ने इसके विरुद्ध बड़ा काम किया। पिछड़ों ने एक ताकत पैदा की। लगने लगा है कि दुनिया तेजी से बदलेगी। लेकिन यह तेजी और तुर्शी तब भूलुंठित हो जाती है जब लोग उन किताबों का सामूहिक पाठ करवाते हैं, जिनमें उन्हें अपमानित किया गया है। उन देवताओं और भगवानों को पागलों की तरह पूजते हैं जिनके हाथों में इनके ही पूर्वजों का खून लगा हुआ है। वे उन्हीं की जय बोलते हुये गला फाड़ देते हैं जिन्होंने उन्हें हराया होता है। पहलवान से पहलवान आदमी उत्पीड़न के इस रूप को समझ नहीं पाता। सच मायने में जब तक खोपड़े में एक उर्वर दिमाग काम नहीं करेगा तब तक सारी पहलवानी मिट्टी ढोने के ही काम आएगी। 

उत्पीड़क का विरोध ही सड़ी-गली व्यवस्था के प्रति हमारे मन में विद्रोह भरेगा और उत्पीड़न को खत्म करके ही नई दुनिया बनाई जा सकती है। अपने वास्तविक उत्पीड़कों और उनके तौर तरीकों की पहचान ही जनता के सच्चे साहित्य को जन्म देता है!

(संपादन : नवल)


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रामजी यादव एक राजनितिक कार्यकर्ता के रूप में विभिन्न संगठनों में सक्रिय रहे हैं। उन्होंने कानपुर के मिल मज़दूरों और रेलवे कर्मचारियों को संगठित करने में भी भूमिका निभाई। उन्होंने 100 से अधिक वृत्तचित्रों का निर्माण और निर्देशन भी किया है। उनके प्रमुख वृत्तचित्र हैं 'गाँव का आदमी', 'पैर अभी थके नहीं', 'एक औरत की अपनी कसम', 'यादें', 'समय की शिला पर', 'कालनदी को पार करते हुए', 'विकल्प की खोज', 'वह समाज जो जनता का है', 'जलसत्ता', 'द कास्ट मैटर्स', और 'इस शहर में एक नदी थी' आदि। उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं, 'अम्बेडकर होटल', 'खेलने के दिन', 'भारतीय लोकतंत्र' और 'दलित सवाल', 'भारतेंदु', 'ज्योतिबा फुले', 'गिजुभाई', 'रामचंद्र शुक्ल', 'आंबेडकर संचयन'। इन दिनों वे ‘गांव के लोग’ त्रैमासिक का संपादक कर रहे हैं।

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