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गांधी और आंबेडकर : राष्ट्र निर्माण की दो पृथक विश्वदृष्टियों का संघर्ष

डॉ. आंबेडकर और महात्मा गांधी दो भिन्न-भिन्न विचारधाराओं के प्रतिनिधि हैं। वैश्विक संदर्भ में आंबेडकर पाश्चात्य दर्शन (तर्क) के पक्ष में खड़े हैं तो गांधी गैर पाश्चात्य दर्शन (आस्था) के पक्ष में खड़े हैं। भारतीय संदर्भ में डा. आंबेडकर बौद्ध दर्शन का प्रतिनिधित्व करते हैं तो गांधी वैदिक दर्शन का। अलख निरंजन का विश्लेषण

महात्मा गांधी और डॉ. आंबेडकर बीसवीं सदी की प्रभुत्वशाली व महान विभूतियों में गिने जाते हैं। दोनों की उम्र में एक पीढ़ी का अंतर था। गांधी 2 अक्टूबर, 1869 को पैदा हुए थे और आंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल, 1891 को हुआ था। गांधी के ज्येष्ठ पुत्र हीरालाल गांधी का जन्म 23 अगस्त, 1888 में हुआ था। इस प्रकार आंबेडकर, गांधी से उम्र में 22 वर्ष छोटे थे और उनके ज्येष्ठ पुत्र हीरालाल से 3 वर्ष छोटे थे। लेकिन भारत की राजनीति में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप दोनों विभूतियों ने एक ही समय किया। जनवरी, 1915 में गांधी दक्षिण अफ्रीका से बच्चों की पढ़ाई और अपनी वकालत बंबई में शुरू करने के लिए भारत लौटे। फरवरी, 1916 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी के समारोह में सार्वजनिक तौर पर भारत के राष्ट्रवादियों एवं रजवाड़ों के समक्ष गांधी ने अपना विचार व्यक्त किया। इस भाषण में गांधी ने भारत की राजनीति में सक्रिय होने के स्पष्ट संकेत दिए। वहीं डॉ. आंबेडकर ने 9 मई, 1916 को अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय में मानव विज्ञान के सेमिनार में एक शोधपत्र पढ़ा। किसी भी सार्वजनिक मंच पर डॉ. आंबेडकर द्वारा दिया गया यह पहला भाषण था। इस भाषण की विषय-वस्तु और आंबेडकर के तेवर से स्पष्ट था कि वे भारतीय राजनीति में सक्रिय हस्तक्षेप की उद्घोषणा कर रहे हैं।

दोनों महापुरुषों के भाषण से श्रोता आश्चर्यचकित थे। गांधी ने अपने भाषण में स्वराज के लिए चल रहे आंदोलन की कड़ी आलोचनात्मक समीक्षा प्रस्तुत की तो आंबेडकर ने भारत में जाति की कड़वी एवं वीभत्स सच्चाई से विश्व के महानतम बुद्धिजीवियों को अवगत कराया। इसके बाद का इतिहास गांधी और आंबेडकर विचारों के बीच संघर्ष का इतिहास है। भारत के नवनिर्माण की दृष्टि से दोनों भिन्न-भिन्न विश्व दृष्टियों के प्रतिनिधि हैं। दोनों विश्वदृष्टियां एक दूसरे की विरोधी हैं। गांधी की दृष्टि में भारत के नवनिर्माण का अर्थ था भारत में वैदिक संस्कृति के मूल्यों की स्थापना और डॉ. आंबेडकर पाश्चात्य आधुनिक मूल्यों के आधार पर भारत का नवनिर्माण करना चाहते थे और इन मूल्यों को बौद्ध सभ्यता के मूल्यों से जोड़ते थे। भारतीय राजनीति आज भी इन्हीं दोनों दृष्टिकोणों के बीच संघर्ष की राजनीति है। दोनों महापुरुषों की मंजिलें अलग हैं, इसलिए रास्ते भी अलग हैं और साधन भी अलग हैं।

महात्मा गांधी और डॉ. आंबेडकर

गांधी ने अपने जीवन में तीन पुस्तकें लिखीं। 1908 में ‘हिंद स्वराज’, 1929 में ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग या मेरी आत्मकथा’ और तीसरी 1948 में ‘की आफ हेल्थ’। ‘हिंद स्वराज’ गांधी की राजनैतिक विचारों की पुस्तक है। इसके अतिरिक्त उन्होंने अपने भाषणों एवं पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर अपने विचारों को व्यक्त किया। हालांकि गांधी ने मात्र तीन पुस्तकें लिखी, लेकिन उनके ऊपर आज की तारीख तक हजारों पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं और अभी भी लिखी जा रही हैं। एक हजार से अधिक जीवनियां तो मात्र अंग्रेजी भाषा में लिखी गई हैं। हिंदी, गुजराती, मराठी, फ्रेंच जैसी तमाम देशी और विदेशी भाषाओं में भी अनगिनत जीवनियां लिखी गई हैं। गांधी के भाषण, लेखों और पत्रों के संकलन का 100 खंड प्रकाशित किया जा चुका है। गांधी के जीवन और विचार प्राथमिक शिक्षा के पाठ्यक्रमों से लेकर उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रमों में प्रमुखता से शामिल किए गए हैं। इसके विपरीत डॉ. आंबेडकर ने अर्थशास्त्र, राजनीति, समाज, धर्म आदि विविध विषयों पर लगभग 20 पुस्तकें लिखीं और प्रकाशित कराया। लेकिन डॉ. आंबेडकर पर सभी भाषाओं में लिखी पुस्तकों की संख्या अभी सैकड़ों में ही होगी। उनकी जीवनियों की संख्या भी शायद ही दहाई पार कर पाए। आंबेडकर के लेखन, भाषण और पत्रों के संग्रह के नाम पर उनके द्वारा लिखित और प्रकाशित पुस्तकों का ही संग्रह प्रकाशित है जो अंग्रेजी में 17 खंडों में है। इसी का अनुवाद हिंदी सहित अन्य भाषाओं में भी प्रकाशित है। पत्र-पत्रिकाओं में लिखे लेखों, भाषणों, पत्रों एवं साक्षात्कारों आदि का प्रकाशन अभी भी नहीं हुआ है। प्राथमिक से लेकर विश्वविद्यालय स्तर के पाठ्यक्रमों से आंबेडकर एवं उनका साहित्य बाहर है। 

दरअसल, गांधी को महामानव के रूप में भारतीय शासक जातियों द्वारा स्थापित करना एवं आंबेडकर को तिरस्कृत करना कोई सामान्य घटना नहीं है। इसे भारत की शासक जातियों के वास्तविक चरित्र का पता चलता है। कुछ वर्षों पहले एक निजी समाचार चैनल ने ‘गांधी के बाद महान भारतीय’ की खोज के लिए एक सर्वेक्षण कराया जिसमें डॉ. आंबेडकर को गांधी के बाद महान भारतीय का खिताब दिया गया। प्रश्न यह उठता है कि गांधी को इस सर्वेक्षण से बाहर रखकर चैनल ने स्वयं उनको महान घोषित कर दिया। चैनल को यह डर था कि गांधी को सर्वेक्षण में शामिल किया गया तो कहीं आंबेडकर गांधी से भी ज्यादा अंक न प्राप्त कर लें। चैनल का डर वास्तविक था। आज आंबेडकर, गांधी से आगे निकल गए हैं। इस समय जितने भी आंदोलन लोकतांत्रिक मूल्यों को बचाने के लिए चल रहे हैं, उन सभी में डॉ. आंबेडकर की तस्वीर प्रमुखता से दिखाई देती है। वे आज लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए संघर्ष के प्रतीक बन गए हैं। विश्वविख्यात गांधीवादी इतिहासकार रामचंद्र गुहा भी डॉ. आंबेडकर की तस्वीर के साथ प्रदर्शन करते हैं, जिन्होंने गांधी को स्थापित करने के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया, बड़े-बड़े भारी-भरकम ग्रन्थों की रचना कर डाली, लेकिन डॉ. आंबेडकर के ऊपर दस पृष्ठ भी नहीं लिखा। यही भारत के बुद्धिजीवी वर्ग का वास्तविक चरित्र है। सवर्ण जातियों के बुद्धिजीवियों ने जितना परिश्रम गांधी को देश और विदेश में स्थापित करने हेतु किया, उसका दस प्रतिशत परिश्रम भी डॉ. आंबेडकर को स्थापित करने के लिए किया होता तो रामचंद्र गुहा जैसे इतिहासकारों को आज डॉ. आंबेडकर का चित्र लेकर सड़क पर प्रदर्शन नहीं करना पड़ता। जिन लोकतांत्रिक अधिकारों और संस्थाओं को बचाने हेतु रामचंद्र गुहा जैसे हजारों सवर्ण बुद्धिजीवी संघर्ष कर रहे हैं उनके पक्ष में गांधी कभी भी नहीं थे। गांधी उन्हें पश्चिमी संस्था मानते थे तथा लोकतंत्र, स्वतंत्रता, समानता, न्याय व बंधुत्व को पश्चिमी सभ्यता का मूल्य मानते थे। इसीलिए इन मूल्यों और इन मूल्यों को पुष्पित, पल्लवित व संरक्षित करने हेतु निर्मित संस्थाओं को बचाने के लिए डॉ. आंबेडकर की आवश्यकता पड़ रही है। 

अपनी पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ में गांधी अंग्रेजों से स्पष्ट कहते हैं कि “हम मानते हैं कि आपके कायम किए हुए स्कूल और अदालतें हमारे काम की नहीं हैं। हम चाहते हैं कि उनके बदले हमारी पुरानी पाठशालाएं और पंचायती अदालतें फिर स्थापित हो जाए।” 

एक जनसभा को संबोधित करते गांधी (साभार : द हिन्दू)

गांधी के दर्शन को भारतीय बुद्धिजीवियों ने ‘गांधीवाद के रूप में’ देश और विदेश में प्रचारित किया। गांधीवाद को एक नया दर्शन कहा गया। जबकि वास्तविकता यह है कि गांधी वैदिक संस्कृति के मूल्यों को ही नवीन शब्दों में प्रस्तुत कर रहे थे। इन मूल्यों को गांधी भारतीय सभ्यता का मूल्य कह रहे थे जबकि ये सभी मूल्य वैदिक संस्कृति के मूल्य थे। भारतीय इतिहास में दो सभ्यताओं का प्रमाण मिलता है। एक है सिंधुघाटी सभ्यता तथा दूसरी है बौद्ध सभ्यता। रामराज्य जैसी अवधारणा इन दोनों सभ्यताओं में नहीं है। रामराज्य वैदिक संस्कृति की अवधारणा है। गांधी के अनुसार ‘रामराज्य’ ईश्वर का राज्य है। ‘ईश्वर का राज्य’ बौद्ध सभ्यता की अवधारणा नहीं है। यह वैदिक संस्कृति की अवधारणा है। अहिंसा और सत्याग्रह, अपने विचारों को जनता और सरकार के समक्ष प्रस्तुत करने की विधि है। इसे स्वतंत्र दार्शनिक मूल्य के रूप में गांधी के मौलिक दर्शन के रूप में प्रचारित किया गया। वास्तव में अहिंसा और सत्याग्रह लोकतांत्रिक आंदोलन की विधि है जो गांधी के समय के बहुत पहले से ही प्रयोग में लाई जा रही थी। भारत में जोतीराव फुले इसी विधि को अपनाते थे। लोकतांत्रिक आंदोलन को अहिंसा और सत्याग्रह कहने के पीछे गांधी की क्या मंशा थी। वे चाहते तो अपने आंदोलन को लोकतांत्रिक आंदोलन भी कह सकते थे। कारण स्पष्ट है। गांधी बहुत ही प्रतिभाशाली एवं महत्वाकांक्षी व्यक्ति थे। उनकी घोर आस्था वैदिक संस्कृति के मूल्यों में थी। लेकिन जिस समय गांधी वैदिक संस्कृति के मूल्यों को भारत में स्थापित करना चाहते थे उस समय इन मूल्यों को पुनस्र्थापित करने की परिस्थितियां नहीं थी। अंग्रेज शासन कर रहे थे, जिनकी सभ्यता वैदिक मूल्यों के विरोध में थी। ईसाई धर्म में शुद्धता-अशुद्धता का मूल्य नहीं है। इसलिए वे गाय और सूअर दोनों खाते थे। मुसलमानों द्वारा गाय का मांस खाना वैदिक संस्कृति के सामने बहुत बड़ी चुनौती थी, अछूतों और आदिवासियों में भी वैदिक मूल्यों के प्रति कोई आसक्ति नहीं थी। इसलिए गांधी ने वैदिक मूल्यों को अपना मौलिक दर्शन कहकर प्रस्तुत किया। गांधी स्वयं कहते हैं कि रामराज्य का अर्थ हिंदू राज नहीं है, ईश्वर का राज्य है। तो गांधी रामराज्य क्यों कहते हैं सीधे ईश्वर का राज्य क्यों नहीं कहते हैं। इसी प्रकार स्वराज्य का उस समय सामान्य और प्रचलित अर्थ का ब्रिटिश राजसत्ता से भारत की आजादी। लेकिन गांधी कहते हैं कि स्वराज्य का अर्थ है- अपने मन पर राज्य करना। यह एक नैतिक अवधारणा है। गांधी सत्य की खोज करते हैं और कहते हैं कि ईश्वर ही सत्य है। तो फिर गांधी यह क्यों नहीं कहते कि मैं ईश्वर की खोज कर रहा हूं। गांधी ने अपने मौलिक दर्शन के नाम पर जिन शब्दों को गढ़ा, उन सभी के प्रचलित अर्थ के विपरीत एक नया अर्थ दिया। यह दार्शनिक का कार्य नहीं है यह राजनीतिज्ञ का कार्य है। इसलिए गांधी दार्शनिक नहीं हैं। गांधी मूलतः वैदिक संस्कृति की रक्षा करना चाहते थे चूंकि परिस्थितियां विपरीत थी इसलिए अपने विचारों को अस्पष्टता के साथ प्रस्तुत करते थे। जिससे समय अनुकूल होने पर रामराज्य को हिंदू राज, अहिंसा को हिंसा, सत्याग्रह को दुराग्रह, स्वराज्य को ‘अंग्रेजों को भारत से निकालने’ जैसे शब्दयुग्मों से आसानी से प्रतिस्थापित किया जा सके। 

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वैदिक धर्म और संस्कृति के रक्षक के रूप में गांधी का चेहरा उस समय सामने आता है जब वे वर्ण-व्यवस्था और जाति-व्यवस्था के पक्ष में खड़े हो जाते हैं। वे कहते हैं कि ‘जाति प्रथा एक सामाजिक विधान है। भारत में उसे धार्मिक जामा पहना दिया गया है। अन्य देशों में जहां जाति व्यवस्था की उपयोगिता नहीं समझी गयी, वहां यह ढीले-ढाले रूप में मौजूद रही और इसी वजह से वे लोग इस व्यवस्था से उतना लाभान्वित नहीं हो सके जितना भारत हुआ।’ जाति प्रथा से भारत में कौन लाभान्वित हुआ? जवाब यही कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जातियों के लोग जाति प्रथा से लाभान्वित हुए। आज भी भारत के संसाधनों पर इन्हीं का कब्जा है। आज भारत में जितने भी अरबपति हैं, सभी बनिया या वैश्य हैं। न्यायपालिका, प्रशासकीय सेवा और विश्वविद्यालयों में ब्राह्मणों, कायस्थों और क्षत्रियों का कब्जा है। 85 प्रतिशत जनसंख्या जाति प्रथा के कारण ही नारकीय व पशुवत जीवन जीने को मजबूर है। आज भी 90 प्रतिशत दलित भूमिहीन हैं। 80 करोड़ लोग 20 रुपए प्रतिदिन से कम पर गुजारा करते हैं। क्या यह 85 प्रतिशत दलित-बहुजन जनता गांधी के ‘भारत’ का हिस्सा नहीं है, जिसे जाति प्रथा से कोई लाभ नहीं हुआ है। दुर्भाग्य से यही सच्चाई है। जिस तरह से गांधी वैदिक संस्कृति को भारत की सभ्यता मानते हैं उसी प्रकार ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य अर्थात् द्विज वर्णों को ही भारत के संसाधनों के उपयोग और उपभोग का अधिकारी मानते हैं। शूद्र, महिलाएं एवं दलित तीनों उच्च वर्णों की सेवा के लिए हैं। लेकिन गांधी की सच्चाई को सवर्ण बुद्धिजीवियों द्वारा उजागर नहीं होने दिया गया। गांधी अपने जीवन के उत्तरार्ध में जाति प्रथा पर थोड़ा नरम रूख अपनाते हैं, लेकिन वर्ण व्यवस्था का समर्थन जीवनपर्यंत करते रहते हैं। गांधी कहते हैं कि ‘मैं विश्वास करता हूं कि वर्णों का विभाजन जन्म पर आधारित है। वर्ण-व्यवस्था में ऐसी कोई बात नहीं है, जो शूद्रों को विद्याध्ययन अथवा आक्रमण या प्रत्याक्रमण करने वाली सैनिक युद्ध कला सीखने से वंचित करती हो। इसके विपरीत भी, क्षत्रिय के लिए सेवा अथवा नौकरी करने का विकल्प भी खुला है। वर्ण-व्यवस्था द्वारा उस पर भी कोई रोक नहीं है। वर्ण-व्यवस्था इस बात की रोक लगाती है कि शूद्र विद्याध्ययन को अपनी आजीविका नहीं बनाएगा, न ही क्षत्रिय सेवा कार्य को अपनी आजीविका बनाएगा। इसी प्रकार ब्राह्मण युद्ध कला या वाणिज्य सीख सकता है, परंतु उसे अपनी आजीविका नहीं बनाएगा। वैश्य भी विद्या प्राप्त कर सकता है अथवा युद्ध कला सीख सकता है, परंतु उसे अपनी आजीविका नहीं बना सकता। वर्ण व्यवस्था जीविकोपार्जन से संबद्ध है। इसमें कोई हानि नहीं, यदि किसी एक वर्ण का व्यक्ति दूसरे वर्ण की विशेषता वाला ज्ञान या विज्ञान और कला अर्जित कर लेता है। परंतु जहां तक आजीविका का संबंध है, उसके लिए उसे अपने ही वर्ण का पेशा, यानी अपने पूर्वजों का वंशानुगत पेशा ही अपनाना होगा। वर्ण का अर्थ है, मनुष्य के जन्म लेने से पहले ही उसके पेशे का निर्धारण। वर्ण व्यवस्था में किसी मनुष्य को अपनी पसंद का पेशा चुनने की स्वतंत्रता नहीं होती। उसका पेशा उसकी वंश परंपरा से ही निर्धारित रहता है।’ ऐसे विचारों के प्रणेता गांधी को सवर्ण विद्वान आधुनिक भारत का महानतम भारतीय घोषित कर चुके हैं। वर्ण व्यवस्था, वैदिक धर्म की रीढ़ है। रीढ़ को बचाकर गांधी वैदिक धर्म की ही रक्षा कर रहे हैं। क्या वर्ण व्यवस्था के आधार पर भारत का नव निर्माण संभव है। इस प्रश्न पर गांधीवादी विद्वानों को अवश्य विचार करना चाहिए। क्या कोई शूद्र जिसने एमबीबीएस, एम.डी. की पढ़ाई कर ली है उसे अपने वर्ण धर्म का पालन करना चाहिए या अपनी शैक्षणिक योग्यता के अनुसार चिकित्सक का पेशा चुनना चाहिए। गांधी का स्पष्ट मत है कि उसे शूद्र वर्ण के लिए निर्धारित सेवा का कार्य ही करना चाहिए।

राजनीतिक और सामाजिक विचारों की तरह ही गांधी का आर्थिक विचार तो और विचित्र और विरोधाभासी हैं। डाॅ. आंबेडकर ट्रस्टीशिप के सिद्धांत पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं कि ‘ट्रस्टीशिप सबसे ज्यादा हास्यास्पद है, जिसे गांधीवाद सभी विकारों का दूर करने का रामबाण नुस्खे के तौर पर पेश करता है और जिसके द्वारा धनी वर्गों के लोग अपनी संपत्ति को गरीबों के न्यास की संपत्ति मानेंगे और स्वयं को उसका मालिक की बजाय न्यासी मानेंगे। इस विषय में यही कहा जा सकता है कि यदि किसी अन्य ने इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया होता तो लेखक उसे मूर्ख अज्ञानी समझ कर हंस देता कि उस सिद्धांतकार को जीवन की कठोर वास्तविकता का कुछ अता-पता नहीं है और दास वर्गों को यह कहकर धोखा दे रहा है कि नैतिकता एवं सदाचार के उपदेश मात्र से संपत्ति के मालिक, जो अपनी असीम तृष्णा की तृप्ति के लिए सदा से मेहनतकशों की दुनिया को आंसुओं की सौगात देते हैं, उपदेश द्वारा स्वेच्छा से वर्गीय व्यवस्था से मिली हुई अपनी बेहिसाब ताकत का दास-वर्गों पर इस्तेमाल की लालसा छोड़ देंगे और परोपकारी और त्यागी बन जाएंगे।’ वास्तव में मजदूरों का शोषण और पूंजी से अधिक से अधिक मुनाफा कमाना पूंजीवाद का मौलिक सिद्धांत है। पूंजीपति चाहकर भी उदार और परोपकारी नहीं बन सकते हैं, यह उनके वश में नहीं है। पूंजीवादी समाज में पूंजीपतियों में प्रतियोगिता होती ही है और इस प्रतियोगिता में बने रहना है तो मजदूरों का शोषण करना ही पड़ेगा। मजदूरों का शोषण केवल एक शर्त पर नहीं हो सकता है जब राज्य अर्थव्यवस्था पर अपना नियंत्रण स्थापित कर ले, तो फिर पूंजीपति नहीं रह जाएंगे। इसलिए गांधी का ट्रस्टीशिप का सिद्धांत पूर्णतः धोखा है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि दुनिया के किसी भी देश की अर्थव्यवस्था में कोई भी पूंजीपति अपने आप को ट्रस्टी नहीं मानता है। अब प्रश्न उठता है कि गांधी ने इस तरह के भ्रामक सिद्धांत क्यों गढ़ा। डा. आंबेडकर उत्तर देते हैं कि ‘गांधीवाद का प्रथम खास लक्षण है कि इसका दर्शन संपन्न लोगों की इस मामले में सहायता करता है कि जो कुछ उनके पास है वह उनके पास बना रहे और जो वंचित लोग हैं, जो कुछ पाना उनका हक है, उन्हें वह हक हासिल करने से रोका जाए।’

साइमन कमीशन के सदस्यों के साथ डॉ. आंबेडकर

गांधी के विपरीत डॉ. आंबेडकर पाश्चात्य दार्शनिक मूल्यों के आधार पर भारत का नवनिर्माण करना चाहते थे। पाश्चात्य दर्शन का अर्थ भौगोलिक नहीं है। पाश्चात्य दर्शन का अर्थ है तर्क आधारित दर्शन जबकि गैर पाश्चात्य दर्शन को आस्था आधारित दर्शन कहा जाता है। भारत में दर्शन की दोनों परंपराएं रही हैं। चार्वाक और बौद्ध दर्शन तर्क पर आधारित है जबकि वैदिक दर्शन आस्था पर आधारित है। गांधी सहित सभी सवर्ण लेखक, बुद्धिजीवी दर्शन की वैदिक परंपरा को ही भारतीय परंपरा घोषित कर चुके हैं, जबकि यह सत्य नहीं है। आर्यों के विदेशी आगमन के सिद्धांत को यदि माने तो चार्वाक और बौद्ध दर्शन ही भारतीय दर्शन है और वैदिक दर्शन गैर भारतीय दर्शन घोषित हो जाएगा। 

हम मूल विषय पर आते हैं। डॉ. आंबेडकर आधुनिक मूल्यों जिसके केंद्र में ईश्वर के स्थान पर मनुष्य है, आस्था के स्थान पर तर्क है, धर्म के स्थान पर विज्ञान है, और लोक-कल्याण है, के आधार पर भारत का नवनिर्माण करना चाहते थे। इसलिए गांधी के विपरीत डॉ. आंबेडकर अपनी बात तार्किक ढंग और स्पष्ट तरीके से कहते हैं। गांधी वर्ण-व्यवस्था के आधार पर हिंदू समाज का नवनिर्माण करना चाहते थे। जबकि डॉ. आंबेडकर के विचार से वर्ण व्यवस्था के आधार पर समाज का नवनिर्माण नहीं हो सकता है। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘जाति का विनाश’ में अपने विचारों को रखा है। आंबेडकर का मत है कि जाति ने हिंदुओं को बर्बाद कर दिया है। चातुर्वर्ण के आधार पर हिंदू समाज का पुनर्गठन असंभव है, क्योंकि वर्ण व्यवस्था एक ऐसे बर्तन की तरह है, जिसमें छेद है या ऐसे आदमी की तरह नाक बह रही है। यह सिर्फ अपने गुण के आधार पर अपने को बनाए नहीं रख सकती और इसके जाति व्यवस्था के रूप में पतित होने की अंतर्जात क्षमता है, जब तक इसके साथ कानूनी शक्ति न जोड़ी जाए, जिसे वर्ण का नियम तोड़ने वाले हर आदमी पर लागू किया जा सकता हो। वर्ण-व्यवस्था के आधार पर हिंदू समाज का पुनर्गठन नुकसानदेह है, क्योंकि वर्ण व्यवस्था का परिणाम होता है, जनसाधारण को शिक्षा के अवसरों से वंचित कर उसका निम्नीकरण करना और शस्त्र धारण करने के अधिकार से वंचित कर उसे कायर बनाना। हिंदू समाज का पुनर्गठन ऐसे धार्मिक आधार पर होना चाहिए, जिसमें स्वतंत्रता, समानता और भातृत्व के सिद्धांतों की स्वीकृति हो। इस उद्देश्य को पाने के लिए जाति और वर्ण को जो धार्मिक मान्यता मिली हुई है, उसे नष्ट करना होगा।’ वर्ण व्यवस्था के मूल में असमानता है और यह असमानता धर्मशास्त्रों एवं ईश्वर द्वारा समर्थित है। 

विश्व की सभी सामाजिक विकास के विभिन्न चरणों में असमानताओं ने जन्म लिया लेकिन किसी भी सभ्यता में किसी भी तरह की असमानता को धर्म और ईश्वर का समर्थन नहीं मिला। वैदिक धर्म ही ऐसा धर्म है जिसके धर्मशास्त्र जाति के आधार पर असमानता का समर्थन देते हैं। काले-गोरे के भेद को बाइबिल और ईश्वर का समर्थन नहीं हासिल है। इसलिए डॉ. आंबेडकर वर्ण व्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए हिंदू धर्मशास्त्रों को भी डाइनामाइट लगाकर उड़ाने की आवश्यकता को रेखांकित करते हैं। 1927 में उन्होंने स्वयं मनुस्मृति जलाई थी। डॉ. आंबेडकर अपने आदर्श समाज के विषय में कहते हैं कि ‘मेरा आदर्श एक ऐसा समाज होगा, जो स्वतंत्रता, समता और भ्रातृत्व पर आधारित हो।’ इसकी विस्तृत व्याख्या भी वे करते हैं। यहां यह ध्यान देना भी उचित होगा कि डॉ. आंबेडकर जब भी बात करते हैं तो वे भारतीय समाज के पुनर्गठन की बात करते हैं, जिसमें हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, अस्पृश्य एवं आदिवासी सभी सामाजिक तबके शामिल हैं। गांधी जब भी बात करते हैं तो केवल हिंदू समाज के पुनर्गठन की बात करते हैं।

भारतीय अर्थव्यवस्था के पुनर्गठन के संबंध में भी डॉ. आंबेडकर का विचार स्पष्ट हैं। वे अर्थव्यवस्था का पुनर्गठन राजकीय समाजवाद के सिद्धांतों पर करना चाहते हैं, जिसमें औद्योगीकरण एक मुख्य तत्व है। वे खेती के भी औद्योगीकरण का प्रस्ताव रखते हैं, बैंक, बीमा, सहित सभी मूलभूत उद्योगों एवं सभी बड़े उद्योगों को डॉ. आंबेडकर सरकारी नियंत्रण में रखने का प्रस्ताव रखते हैं। अपनी पुस्तक ‘राज्य और अल्पसंख्यक’ में डा. आंबेडकर ने भारतीय अर्थव्यवस्था के पुनर्गठन संबंधी विचारों के व्यक्त किया है जिसके मुख्य बिंदू निम्नवत् है-

  1. वे उद्योग, जो प्रमुख उद्योग हैं अथवा जिन्हें प्रमुख उद्योग घोषित किया जाए, राज्य के स्वामित्व में रहेंगे और राज्य द्वारा चलाए जाएंगे। 
  2. वे उद्योग, जो प्रमुख उद्योग नहीं है, किंतु बुनियादी उद्योग हैं, राज्य के स्वामित्वाधीन रहेंगे और राज्य द्वारा या राज्य द्वारा स्थापित निगमों द्वारा चलाए जाएंगे। 
  3. बीमा राज्य के एकाधिकार में रहेगा और राज्य हर वयस्क नागरिक को विवश करेगा कि वह अपनी आय के अनुरुप ऐसी जीवन बीमा पालिसी ले, जो विधानमंडल द्वारा विहित की जाए।
  4. कृषि राज्य का उद्योग होगा।

सामाजिक विचारों की तरह डा. आंबेडकर के आर्थिक विचार भी स्पष्ट एवं पारदर्शी हैं। वे भारत की राजनीतिक प्रणाली लोकतंत्र के सिद्धांतों के आधार पर चलाना चाहते थे। लोकतंत्र को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा कि ‘लोकतंत्र, सरकार का रूप और शासन पद्धति है, जिसके द्वारा लोगों के आर्थिक और सामाजिक जीवन में बिना रक्तपात के क्रांतिकारी परिवर्तन किए जाते हैं।’ आगे वे कहते हैं कि लोकतंत्र, सरकार का एक स्वरूप मात्र नहीं है। यह वस्तुतः साहचर्य की स्थिति में रहने का एक तरीका है, जिसमें सार्वजनिक अनुभव का समवेत रूप से संप्रेषण होता है। लोकतंत्र का मूल है, अपने साथियों के प्रति आदर और सम्मान की भावना। डॉ. आंबेडकर का मत है कि लोकतंत्र चार स्तंभों पर निर्भर हैं-

  1. व्यक्ति अपने आप में एक सिद्धि है।
  2. व्यक्ति के कुछ अहरणीय अधिकार होते हैं, जिनकी गारंटी उसे संविधान द्वारा दी जाए।
  3. कोई विशेषाधिकार प्राप्त करने की पूर्व शर्त के रूप में किसी व्यक्ति से यह अपेक्षा न की जाए कि वह अपने संवैधानिक अधिकारों में से किसी अधिकार का परित्याग करे।
  4. राज्य दूसरों पर शासन करने के लिए गैर सरकारी लोगों को शक्तियां प्रत्यारोपित न करे। 

डा. आंबेडकर पाश्चात्य दर्शन की लोकतंत्र की अवधारणा के आधार पर भारत की राजनीतिक सत्ता का पुनर्गठन चाहते हैं। जिसमें स्वतंत्रता, समानता, न्याय, बंधुत्व व व्यक्ति की गरिमा जैसे मूल्यों को मान्यता दी गई है। वे शासन की शक्तियों को व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में विभाजित करना चाहते हैं। जबकि गांधी रामराज्य के रूप में एकात्मक शासन स्थापित करने का प्रस्ताव करते हैं जो पूर्णतः जन विरोधी अवधारणा प्रमाणित हो चुकी है। 

इस प्रकार डॉ. आंबेडकर और महात्मा गांधी दो भिन्न-भिन्न विचारधाराओं के प्रतिनिधि हैं। वैश्विक संदर्भ में आंबेडकर पाश्चात्य दर्शन (तर्क) के पक्ष में खड़े हैं तो गांधी गैर पाश्चात्य दर्शन (आस्था) के पक्ष में खड़े हैं। भारतीय संदर्भ में डा. आंबेडकर बौद्ध दर्शन का प्रतिनिधित्व करते हैं तो गांधी वैदिक दर्शन का। भारत के सवर्ण बुद्धिजीवी गांधी और आंबेडकर के विषय में भ्रामक प्रचार करते हैं कि दोनों की मंजिल एक है लेकिन रास्ते अलग-अलग। वास्तव में दोनों की मंजिलें भी अलग-अलग हैं और रास्ते भी अलग हैं। डा. आंबेडकर आधुनिकता के वाहक हैं तो गांधी वैदिक धर्म का पुनरुत्थान चाहते हैं। दोनों के विचारों का संघर्ष ही आज की राजनैतिक, सामाजिक और आर्थिक संघर्षों के मूल में है। इस विचार को सवर्ण बुद्धिजीवी जितना जल्दी स्वीकार कर लेंगे, भारत का भला उतनी ही जल्दी होगा।

(संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

अलख निरंजन

अलख निरंजन दलित विमर्शकार हैं और नियमित तौर पर विविध पत्र-पत्रिकाओं में लिखते हैं। इनकी एक महत्वपूर्ण किताब ‘नई राह की खोज में : दलित चिन्तक’ पेंग्विन प्रकाशन से प्रकाशित है।

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