h n

मनीषा कांड से सबक ले दलित समाज और आवाज उठाए

मेरा मत है कि दलित युवतियों के साथ होने वाले अन्याय को रोकने के लिए न्याय और क़ानूनी कार्यवाही कि मांग करने के साथ साथ हमें कुछ अन्य महत्वपूर्ण मांगें भी करनी चाहिए, जिनसे दलित समाज और दलित महिलाएं आत्मनिर्भर बन सकें। बता रही हैं पूनम तुषामड़

उत्तर प्रदेश के हाथरस जिले में दलित युवती मनीषा वाल्मीकि के साथ हुई सामूहिक बलात्कार की घटना ने एक बार फिर मानवता को शर्मसार किया है। इस जघन्य घटना ने एक बार फिर योगी सरकार और उत्तर प्रदेश पुलिस की दलित-विरोधी सोच और असंवेदनशीलता को बेनकाब किया है, जिसके चलते 14 सितंबर से मौत की जंग लड़ते हुए आखिरकार 29 सितम्बर को मनीषा हार गई। मनीषा की मृत्यु के उपरांत देश के अलग-अलग हिस्सों में तमाम सामाजिक संगठन, संस्थाएं और समाज का जागरूक बुद्धिजीवी वर्ग मनीषा को न्याय दिलाने की गुहार लगा रहा है। धरने, प्रदर्शन और कैंडिल मार्च हो रहे हैं। लोग अपराधियों को जल्द से जल्द कठोर से कठोर दंड देने की मांग के साथ ही मृतका के माता-पिता को आर्थिक मदद और मुआवजे के रूप में एक बड़ी धनराशि दिए जाने की मांग भी कर रहे हैं। 

यहां प्रश्न यह उठता है कि क्या किसी स्त्री के आत्मसम्मान और उसके जीवन की कीमत लगाई जा सकती है? क्या उस क्षति को केवल कुछ लाख रूपए के मुआवजे से पूरा किया जा सकता है? क्या किसी  दलित बच्ची के साथ बलात्कार की यह पहली घटना है? क्या आगरा में जिन्दा जला दी गई मासूम संजलि को हम भूल गए? क्या उससे पहले झज्जर, खैरलांजी दुलींना, महोबा, मुज़फ़्फरनगर और कौशम्बी में हुए सामूहिक बलात्कार की घटनाओं की किसी भी पीड़िता को पूर्ण न्याय मिल पाया? क्या तमाम विरोध प्रदर्शनों के बाद भी जातिवादी मानसिकता से प्रभावित अपराधों में कमी आई? इन सभी सवालों का जवाब है – नहीं।

मनीषा वाल्मीकि को इंसाफ देने की मांग को लेकर प्रदर्शन करते लोग

प्रश्न और भी बहुत हो सकते हैं, किन्तु आज हमें इन्ही प्रश्नों के आलोक में हल खोजने की ओर गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है। केवल उत्तर प्रदेश ही नहीं, देश के अलग-अलग राज्यों में होने वाली जातिगत हिंसा और बलात्कार के आंकड़े यदि आप उठा कर देखें तो दलितों के प्रति समाज में फैली मनुवादी सोच तथा जातिवादी हिंसा चलते दलित युवतियों पर होने वाली शारीरिक हिंसा और बलात्कार के दिल दहला देने वाले आंकड़े आप के सामने आ जाएंगे, जिनमें अधिकांश मामलों में तो पीड़ित पक्ष को इंसाफ नहीं मिला।

रााष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े बताते हैं कि उत्तर प्रदेश महिलाओं के लिए असुरक्षित राज्य है। एनसीआरबी द्वारा जारी ‘क्राइम इन इंडिया’, 2019 रिपोर्ट के मुताबिक, देश भर में महिलाओं के खिलाफ 4,05,861 मामले दर्ज किए गए। इनमें 59,853 मामलों के साथ सबसे उपर उत्तर प्रदेश रहा। 

इस आंकड़े से अलग एक बड़ा सवाल यह है कि दलित, सामंती तबके के जुल्म का शिकार क्यों बनते हैं। इसके लिए जमीनी आकलन आवश्यक है। भारत में जमीन  ऊंची जातियों के पास हैं,जिस पर खेती करने के लिए उन्हें सस्ते श्रमिक चाहिए जो उन्हें वहां रह रहे दलितों के रूप में मिल जाते हैं। महिलाओं को तो और भी कम मजदूरी पर रख लिया जाता है। आर्थिक तंगी और मजबूरी के कारण दलित परिवारों की स्त्रियां ऊंची जातियों के घरों और खेतों में काम करती हैं; जिसके परिणामस्वरुप  इन दबंगों द्वारा इस प्रकार की जघन्य घटनाओं को अंजाम दिया जाना बेहद आसान हो जाता है। शासन-प्रशासन में वर्चस्व के चलते अपराधी पुलिस के साथ मिलकर ऐसी आपराधिक घटनाओं को दबा देते हैं। कभी-कभी दलितों को डरा-धमकाकर अपने पैसे और शक्ति के बल पर मामले को रफा-दफा कर देते हैं। यह  भी नहीं हो पाता है तो सबूतों के साथ छेड़छाड़ कर आरोपों से बरी हो जाते है और पीड़ित पक्ष को न्याय नहीं मिल पाता।

यह भी पढ़ें : हाथरस का मनीषा कांड : जातिवाद का तांडव

इसलिए इस प्रकार के मामलों पर केवल भावुकता से विचार करने की बजाय इसकी जड़ में बैठी सामाजिक आर्थिक असमानता के विभिन्न पहलुओं पर भी समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से सोचने-विचारने की जरुरत है। सबसे ज़रूरी है दलितों का आर्थिक-सामाजिक रूप से सशक्त होना। उसमें भी दलित महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने और सशक्त बनाने की दिशा में कार्य करना।

मेरा मत है कि दलित युवतियों के साथ होने वाले अन्याय को रोकने के लिए भावनात्मक स्तर पर न्यायिक और क़ानूनी कार्यवाही की मांग करने के साथ साथ हमें कुछ अन्य महत्वपूर्ण मांगें भी करनी चाहिए, जिनसे दलित समाज और दलित महिलाएं आत्मनिर्भर बन सकें।

  • सरकार द्वारा हर प्रदेश में दलितों को सस्ती दर पर जमीन आवंटित की जाय। उसमें भी दलित महिलाओं को जमीन का स्वामित्व देने को प्रमुखता दी जाय, जिससे महिलाओं को मालिकाना हक़ हांसिल हो और वे किसी पर आश्रित न रहें। किसी भी प्रकार की विपरीत परिस्थितियों में अपना व अपने परिवार का भरण-पोषण कर सकें।
  • दलित महिलाओं को ज़मीन आवंटन की प्रक्रिया बेहद सरल व पारदर्शी हो। सरकार सीलिंग से फाजिल जमीन का वितरण भी दलित भूमिहीनों के बीच करे।
  • यदि कोई दलित महिला अपनी ज़मीन पर खेती करना चाहती है तो उसे सरकार द्वारा सस्ती दरों पर बीज, खाद व अन्य आवश्यक वस्तुएं प्रदान किऐ जाएं।
  • दलित महिलाओं के लिए सरकार कुछ संस्थाओं,निकायों तथा बैंकों द्वारा कम ब्याज पर लोन की सुविधा उपलब्ध कराए जिस से महिलाएं लोन का लाभ उठा कर अपनी ज़मीन खरीद सकें, खेती कर सकें और उन्हें किसी दूसरे के खेतों पर जाकर अपनी मजदूरी के साथ साथ अपना आत्मसम्मान भी न गंवाना पड़े।
  • महिलाओं को उनकी पैतृक संपत्ति के साथ साथ पति की संपत्ति में भी समान मालिकाना हक़ प्राप्त हो, तांकि पति के न रहने पर उन्हें संपत्ति विहीन होकर अपने निर्वाह के लिए दूसरों पर निर्भर न होना पड़े।
  • गांवों में दलित महिलाओं को प्रशिक्षित करने के लिए औद्योगिक प्रशिक्षण केंद्र खोलने चाहिए, जिसमें प्रशिक्षक और कर्मचारी सभी महिलाएं रखी जाएं।
  • हर गांव में शिक्षित जागरूक और पढ़ी-लिखी दलित महिलाओ की एक ‘दलित महिला अपराध निरीक्षण समिति’ बनाई जाए जिसमें एक कानूनी मुद्दों की जानकर महिला अधिकारी को रखा जाए। यह समिति महिलाओं के खिलाफ होने वाले किसी भी आपराधिक घटना पर तुरंत निष्पक्ष जांच करे और पीड़ित पक्ष की मदद करे। 

दरअसल अब तक महिलाओं के ‘सशक्तिकरण’ का मुद्दा तो बार- बार उठता रहा है, किन्तु हम ‘दलित महिला सशक्तिकरण’ के मुद्दे को कभी प्राथमिकता से नहीं उठाते। इसका ख़ामियाज़ा दलित महिलाएं आर्थिक और सामाजिक स्तर पर सबसे अधिक भुगतती रही हैं और इसी प्रकार की राजनीतिक, सामाजिक असमानताओं और कोताहियों का परिणाम दलित समाज की बेटियों को ऐसे जघन्य अपराधों की शिकार होकर भुगतना पड़ता है ।

जब तक महिलाएं सशक्त और आत्मनिर्भर नहीं बनेंगी तब तक दलित महिलाओं के साथ होने वाले इन जघन्य अपराधों में कमी नहीं आएगी। अतः दलित महिलाओं के साथ होने वाली जातिगत हिंसा अथवा बलात्कार जैसी घटनाओं में न्यायिक मांग के साथ साथ उनके आत्मसम्मान की रक्षा के लिए आत्मनिर्भरता और सशक्तिकरण के इन मुद्दों पर भी प्रमुखता से उठाए जाने करने की ज़रूरत है।

(संपादन : नवल/अमरीश)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें 

मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

पूनम तूषामड़

दिल्ली में एक दलित परिवार में जन्मीं डॉ. पूनम तूषामड़ ने जामिया मिल्लिया से पीएचडी की उपाधि हासिल की। इनकी प्रकाशित रचनाओं में "मेले में लड़की (कहानी संग्रह, सम्यक प्रकाशन) एवं दो कविता संग्रह 'माँ मुझे मत दो'(हिंदी अकादमी दिल्ली) व मदारी (कदम प्रकाशन, दिल्ली) शामिल हैं। संप्रति आप आंबेडकर कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में अतिथि अध्यापिका हैं।

संबंधित आलेख

‘अमर सिंह चमकीला’ फिल्म का दलित-बहुजन पक्ष
यह फिल्म बिहार के लोकप्रिय लोक-कलाकार रहे भिखारी ठाकुर की याद दिलाती है, जिनकी भले ही हत्या नहीं की गई, लेकिन उनके द्वारा इजाद...
‘आत्मपॅम्फ्लेट’ : दलित-बहुजन विमर्श की एक अलहदा फिल्म
मराठी फिल्म ‘आत्मपॅम्फलेट’ उन चुनिंदा फिल्मों में से एक है, जो बच्चों के नजरिए से भारतीय समाज पर एक दिलचस्प टिप्पणी करती है। यह...
‘मैं धंधेवाली की बेटी हूं, धंधेवाली नहीं’
‘कोई महिला नहीं चाहती कि उसकी आने वाली पीढ़ी इस पेशे में रहे। सेक्स वर्कर्स भी नहीं चाहतीं। लेकिन जो समाज में बैठे ट्रैफिकर...
रेडलाइट एरिया के हम वाशिंदों की पहली जीत
‘बिहार में ज़्यादातर रेडलाइट ब्रोथल एरिया है। इसका मतलब लोग वहीं रहते हैं, वहीं खाते-पीते हैं, वहीं पर उनका पूरा जीवन चलता है और...
फुले, पेरियार और आंबेडकर की राह पर सहजीवन का प्रारंभोत्सव
राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के सुदूर सिडियास गांव में हुए इस आयोजन में न तो धन का प्रदर्शन किया गया और न ही धन...