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वाल्मीकि नहीं, आंबेडकर को पढ़े और अनुसरण करे वाल्मीकि समाज

हाथरस में वाल्मीकि समाज की बलात्कार पीड़िता की मौत के बाद देश भर में आक्रोश को देखते हुए उत्तर प्रदेश सरकार अपने स्तर पर वाल्मीकि जयंती मना रही है। इस मौके पर वह वाल्मीकि समाज की बस्तियों में रामायण का पाठ भी करवा रही है। इसके पीछे सरकार की मंशा क्या है, बता रहे हैं कँवल भारती

सरकार रच रही वाल्मीकि जयंती के बहाने स्वच्छकार समाज को गुलाम बनाए रखने का षडयंत्र

उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने हाथरस कांड से हुए राजनीतिक नुकसान की भरपाई के लिए को प्रत्येक जिले में वाल्मीकि-जयंती (31 अक्टूबर) सरकारी स्तर पर मनाने का निर्णय लिया है। राज्य सरकार के मुख्य सचिव आर. के. तिवारी ने मंडल आयुक्तों और जिला अधिकारियों को जो आदेश जारी किया है, उसमें कहा गया है कि महर्षि वाल्मीकि से सम्बन्धित स्थलों व मंदिरों आदि पर अन्य कार्यक्रमों के साथ-साथ दीप प्रज्वलन, दीप-दान और अनवरत आठ, बारह या चौबीस घंटे का वाल्मीकि-रामायण का पाठ तथा भजन आदि का कार्यक्रम भी कराया जाए। 

निश्चित रूप से यह वाल्मीकियों को लुभाने की ऐसी शातिर चाल है, जो एक तीर से दो निशाने साधती है। पहला निशाना यह कि जिस आदिकवि वाल्मीकि को सफाई कर्मचारी या मेहतर समुदाय अपना भगवान मानकर पूजता है (हालाँकि इसे भी आरएसएस द्वारा ही उन पर थोपा गया है) वह योगी सरकार के इस निर्णय से खुश हो जाएगा कि सरकार उनके भगवान को इतना मान दे रही है, जबकि इस सरकार ने वाल्मीकि-जयंती की छुट्टी तक खत्म कर दी। दूसरा निशाना यह है कि इस आयोजन के द्वारा सफाई कर्मचारियों को आरएसएस के हिंदुत्व से जोड़ने का काम किया जाएगा। रामायण के पाठ का मतलब है राम और रावण की कथा का पाठ, अर्थात, यह बताना कि स्वयं विष्णु ने राम के रूप में जन्म लेकर धर्म-विरोधी रावण और अन्य राक्षसों का वध किया था। फिर उन्हें बताया जाएगा कि स्वच्छकार समुदाय धर्म का रक्षक है, समाज का रक्षक है और राष्ट्र का रक्षक है। उन्हें यह नहीं बताया जायगा कि स्वच्छकार समुदाय को भी डॉक्टर, इंजीनियर और प्रोफ़ेसर बनकर विकास की मुख्यधारा में आना चाहिए, और इसके लिए उन्हें सफाई का गंदा पेशा छोड़कर सुशिक्षित होने की जरूरत है।

डॉ. भीमराव आंबेडकर (14 अप्रैल, 1891 – 6 दिसंबर, 1956)

योगी जी को भलीभांति मालूम है कि वाल्मीकि समुदाय की शिक्षा में क्या स्थिति है? वे यह भी जानते हैं कि सरकारी नौकरी के नाम पर सिर्फ नगरपालिकाओं में सफाई कर्मचारी का पद ही उनके लिए है.। झाड़ू ही उनकी नियति बना दी गई है। क्या वे इसी नियति के लिए बने हैं? क्या उन्हें उच्च शिक्षित होने का हक नहीं है? भाजपा ने उनके लिए पृथक आरक्षण का प्राविधान तो कर दिया, क्योंकि ऐसा करके उसने सफाई कर्मचारियों को बड़ी चतुराई से उन दलितों से अलग कर दिया, जो आंबेडकरवादी हैं, ताकि वे भी आंबेडकरवादी न बन जाएँ। लेकिन उनकी शिक्षा के विकास की दिशा में भाजपा सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया। आखिर क्यों? जब उनके पास शिक्षा ही नहीं होगी, तो क्या पृथक आरक्षण का प्रावधान उन्हें बेवकूफ बनाना नहीं है? 

रामायण का अखंड पाठ और भजन-कार्यक्रम क्या हैं? इनका क्या मतलब है? क्या यह उसी तरह का ‘लटका’ नहीं है, जैसे आज़ादी के बाद के दशकों में ब्राह्मणों ने अपने धर्म की जड़ें मजबूत करने के लिए ‘कीर्तन’ नाम का एक नए ड्रामे की शुरूआत की थी। मुझे याद है, हमारी बस्ती में भी यह कीर्तन होता था। तब मेरी उमर दस-बारह साल की थी। अशिक्षित बस्ती थी, इसलिए मुझे भी कीर्तन अच्छा लगता था।। कल जगदीश के घर में, आज हमारे घर में, तो परसों रामलाल के घर में यह कीर्तन का ड्रामा होता था। यह क्यों होता था? इसका निहितार्थ जानने की वह मेरी उमर नहीं थी। पर जब मैंने 1975 में चंद्रिकाप्रसाद जिज्ञासु की किताब ‘ईश्वर और उसके गुड्डे’ पढ़ी, तो मैं समझा कि ब्राह्मणों ने यह कीर्तन के ड्रामे की शुरूआत क्यों की थी? अगर दलित वर्गों के एक भी घटक में ब्राह्मणवाद के विरुद्ध क्रांति होती है, तो ब्राह्मणवाद बेचैन हो जाता है और उसका दमन करने के लिए तुरन्त प्रतिक्रांति आरम्भ कर देता है। उस समय ब्राह्मणों को डर था कि कहीं दलित-पिछड़ी जातियों में डॉ. आंबेडकर की क्रांति पैदा न हो जाए, इसलिए उन्होंने कीर्तन के ड्रामे के जरिए दलित वर्गों को हिन्दू बनाने का उपक्रम शुरू कर दिया। जिज्ञासु ने लिखा था—‘सारे देश में कीर्तन की धूम है। देश के एक छोर से दूसरे छोर तक नगर-नगर, ग्राम-ग्राम, मुहल्ले-मुहल्ले कीर्तन-मंडलियां कायम हैं। घर-घर कीर्तन और अखंड कीर्तन का रिवाज चल पड़ा है। यहाँ तक कि सरकारी रेडियो द्वारा भी कीर्तन सुनाया जाता है. ….और हरे रामा हरे कृष्णा की रट लगवाकर भोलीभाली जनता को ब्राह्मणों के गुड्डे ईश्वरों का अंध-भक्त बनाकर ब्राह्मणशाही धार्मिक साम्राज्य की हिलती हुईं जड़ें मजबूत की जाती हैं।’  

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हालाँकि, वाल्मीकि समुदाय को हिंदुत्व से जोड़े रखने के लिए आरएसएस के कई संगठन, जैसे भारतीय वाल्मीकि धर्म समाज (भावाधस) और आदि धर्म समाज (आधस) उनके बीच बराबर काम कर रहे हैं, जो आरएसएस की भावना के अनुरूप काम कर रहा है, लेकिन उनके बीच कुछ आंबेडकरवादी संगठन भी काम कर रहे हैं, जो उन्हें सफाई का गंदा पेशा छोड़ने, बच्चों को पढ़ाने और डॉ. आंबेडकर की विचारधारा से जुड़ने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। वे उन्हें यह भी शिक्षा देते हैं कि महर्षि वाल्मीकि ब्राह्मण थे, जो सामंती कवि थे, उनका मेहतर समाज के साथ कोई भी संबंध नहीं है। वे उन्हें समझाते हैं कि जब तक तुम वाल्मीकि को अपना भगवान मानते रहोगे, तुम्हारा कोई उत्थान नहीं होगा, अत: तुम्हें जितनी जल्दी हो, वाल्मीकि को त्यागकर आंबेडकरवादी बनो। वाल्मीकि तुम्हें शिक्षित होने को नहीं कहते, वे तुम्हें सिर्फ ब्राह्मणों की रक्षा करने वाले श्रीराम के पदचिन्हों पर चलने को कहते हैं। लेकिन डॉ. आंबेडकर तुम्हें अपने अधिकारों के लिए शिक्षित होने, संगठित होने और संघर्ष करने को कहते हैं। इसके परिणामस्वरूप मेहतर समुदाय में वाल्मीकि के नाम पर चलाए जा रहे तथाकथित धर्म के विरोध में एक क्रांति की धारा भी समानांतर चल रही है। 

हाथरस-कांड के बाद इस आंबेडकरवादी धारा ने भारतीय जनता पार्टी के विरुद्ध मेहतर समुदाय में जबर्दस्त ध्रुवीकरण किया, जिसने आरएसएस को चौकन्ना कर दिया, और वह तभी से सफाईकर्मी समुदाय को हिन्दूवाद से जोड़े रखने का उपक्रम करने में सक्रिय हो गया। 31 अक्टूबर को मेहतर बस्तियों में सरकारी खर्चे पर वाल्मीकि-जयंती मनाना और रामायण का अखंड पाठ करना उसी उपक्रम के अंतर्गत है। 

इसे मानने में कोई आपत्ति नहीं है कि वाल्मीकि-जयंती पर वाल्मीकि के ग्रन्थ का पाठ होना चाहिए। पर आपत्ति इस बात पर है कि मेहतर बस्तियों में ही रामायण का पाठ क्यों होना चाहिए? यह पाठ उच्च जातियों की हिन्दू बस्तियों में क्यों नहीं हो रहा है? क्या रामायण पाठ की आवश्यकता केवल मेहतर समुदाय को ही है? दलितों में तो और भी बहुत सी जातियां हैं, पर क्या कारण है कि आरएसएस और भाजपा का दलित प्रेम सफाई-कर्मचारियों पर ही प्रकट हो रहा है? क्या इसलिए कि अन्य दलित जातियां वाल्मीकि को भगवान नहीं मानतीं? या इसलिए कि वे सफाई का कार्य नहीं करतीं? जाहिर है कि सवर्ण हिंदुओं को मेहतरों की जरूरत है, शौचालय साफ़ कराने के लिए, सड़कें साफ़ करने के लिए, और नाले और गटर साफ़ कराने के लिए? दुनिया में भारत अकेला देश है, जहां गटर की सफाई के लिए सफाई कर्मचारियों से कराई जाती है, जिस तरह वे उनमें घुसकर सफाई करते हैं, वह जान-लेवा है और अब तक कई सौ लोग गटर में घुसकर मर चुके हैं। अन्य देशों में गटर की सफाई मशीनों से होती है, पर भारत में सफाई कर्मियों से इसलिए यह काम कराया जाता है कि मशीन महंगी पड़ती है, जबकि सफाई कर्मी बहुत ही सस्ता मजदूर है, जिसकी मौत की जिम्मेदारी भी सरकार की नहीं होती है। इसलिए उच्च हिंदुओं के लिए बहुत जरूरी है मेहतर समुदाय का अशिक्षित और गरीब बने रहना, क्योंकि शिक्षित होकर वे हिन्दू फोल्ड से बाहर निकल सकते हैं। 

हमारे वाल्मीकि समुदाय के लोगों को, खासतौर से शिक्षित लोगों के लिए यह आत्ममंथन करने का समय है। क्या रामायण का पाठ उनकी जरूरत है? क्या रामायण का पाठ सुनने से उनकी सामाजिक और आर्थिक समस्याएं हल हो जाएँगी? वे कब तक अपनी समस्याओं को नजरंदाज करते रहेंगे? क्या वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी सफाई मजदूर बनकर रहना चाहते हैं? अगर नहीं तो आत्मचिंतन करें कि उन्हें अपने बेहतर भविष्य के लिए क्या चाहिए—झाड़ू या शिक्षा? अगर वे अपना और अपनी भावी पीढ़ियों का बेहतर भविष्य बनाना चाहते हैं, तो झाड़ू का त्याग करें, और शिक्षा को अपनाएं। हर स्थिति में अपने बच्चों को पढ़ाएं, उन्हें गंदे पेशे में न डालें।

यह भी ध्यान में रखना जरूरी है कि आरएसएस मुख्य रूप से दलित-विरोधी संगठन भी है। यह दलितों की शिक्षा, उनके आरक्षण और उनके आर्थिक उत्थान का घोर विरोधी है। वाल्मीकि समाज जब तक आरएसएस के जाल से मुक्त नहीं होगा, तब तक वह अपना स्वतंत्र विकास नहीं कर सकता। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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