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बहस तलब : दलितों में भी दलित मुसहरों को आप कितना जानते हैं?

बिहार में महादलित और उत्तर प्रदेश में दलित जातियों में शामिल मुसहर जाति की अपनी पीड़ा गाथा है। वे भूमिहीन हैं और सामाजिक रूप से बहिष्कृत भी। आए दिन वे राज्य सत्ता के निशाने पर रहते हैं। लेकिन उनकी पीड़ा का दस्तावेजीकरण नहीं किया गया है। यहां तक कि दलित साहित्य में भी वे हाशिए पर हैं। रामजी यादव का विश्लेषण

संसार के सभी देशों की पुलिस को महज़ सुरक्षाकर्मी नहीं समझा जा सकता, बल्कि अपने चाल-चरित्र से वह दमन का एक ऐसा राजनीतिक हथियार है, जिससे अनेकानेक प्रकार के काम लिए जाते रहे हैं। शासन के लिए शांति बनाये रखने की प्रक्रिया में शासन के लिए खतरा होने के संदेह में किसी का भी दमन करना अथवा उसे कारागार में डाल देना, सताना और फर्जी मुठभेड़ में मार गिराना पुलिस का सबसे बड़ा काम है। हम जिस शांति-व्यवस्था में पुलिस के योगदान को महत्वपूर्ण मानते हैं वह शांति-व्यवस्था वस्तुतः सत्ता के लिए राजस्व इकठ्ठा करने के कतिपय साधनों मसलन मेले-ठेले और उत्सवों जैसे सार्वजनिक आयोजनों में जमा भीड़ को नियंत्रित रखने का नाम है। हालांकि इस नियंत्रण की सच्चाई यह है कि ऐसे माहौल में लोग पुलिस के भय से नहीं बल्कि एक स्वतःस्फूर्त अन्तःप्रेरणा से ही संचालित होते हैं और जब तक कोई जानबूझकर किसी किस्म का उपद्रव न करे तो चीजें और दिनचर्या सहज ढंग से ही चलती है। 

कहा जाता है कि मध्यकालीन भारत के महान शासक शेरशाह सूरी ने जब अटक से ढाका तक ग्रैंड ट्रक (जीटी) रोड का निर्माण कराया तो उसके विशाल शासन क्षेत्र में अनेक स्थानीय लुटेरे राज्य की संपत्ति को लूटते थे, जिनसे बचने के लिए उसने ढेरों लुटेरों को ही राज्य की सुरक्षा में दारोगा नियुक्त किया। इस प्रकार न केवल लूट की घटनाएं कम हुईं बल्कि दारोगाओं को भी एक विशिष्ट और सम्मानित दर्जा मिल गया। इससे राज्य के राजस्व में तो वृद्धि हुई ही राजकीय संपत्तियों पर बाहरी खतरे भी कम हो गए। कालांतर में अंग्रेजों ने जब अपनी पुलिस बनाई तो उन्होंने भी ऐसे लोगों को नियुक्त किया जो जनता में भय का संचार करें और राज्य की संपत्ति की सुरक्षा करें। चूंकि तत्कालीन भारत में खुली औपनिवेशिक लूट थी, इसलिए अंग्रेज शासकों ने ऐसे पुलिस अधिकारियों और कर्मचारियों को प्रोत्साहन और संरक्षण दिया जो उनके तमतमे को बनाए रखें और लूट में मददगार हों। आज भी जो पुलिस अधिकारी अपने उच्चाधिकारी के हितों की रक्षा करता है और हिस्सा पहुंचाता है वह सबसे अधिक प्रिय होता है।

यूपी और बिहार में हाशिए पर भी नहीं हैं मुसहर जाति के लोग

दुर्भाग्य से भारतीय लोकतंत्र की पूर्व संध्या ही रक्तरंजित हो गई और 1857 के बाद से जो समाज अपनी सामासिक अस्मिता और समझदारी से अपनी आज़ादी की चाहत के साथ एकजुट थे, वे 1947 तक सांप्रदायिक रूप से बंटकर एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गए। इस प्रकार देश में आंतरिक शांति स्थापित करने के लिए पुलिस की भूमिका अपरिहार्य हो गई। इन सारी स्थितियों को देखते हुए हम एकबारगी सोच सकते हैं कि एक नए लोकतांत्रिक देश के लिए संवेदनशील पुलिस का निर्माण एक शेष कार्यभार बनकर रह गया। ऐसे में भारतीय पुलिस के चरित्र को दो कोणों से समझना बहुत जरूरी है – एक तो धार्मिक और दूसरे जातीय कोण से। इन दोनों ही आधारों पर पुलिस का व्यवहार अपने सही अंदाज में दीखता है। वरिष्ठ पुलिस अधिकारी और उपन्यासकार विभूति नारायण राय ने हैदराबाद पुलिस अकादमी की एक शोध परियोजना के तहत व्यापक शोध से एक पुस्तक लिखी ‘भारतीय पुलिस और सांप्रदायिक दंगे’। यह पुस्तक अनेक दिल दहलाने वाले अनुभवों को साझा करते हुए भारतीय पुलिस के सांप्रदायिक चरित्र का खुलासा करती है। दंगे के समय पुलिस का रवैया हिन्दुओं के प्रति जितना सॉफ्ट रहता है मुसलमानों के प्रति उतना ही कड़वाहट और हिकारत से भरा होता है। लेकिन हिन्दुओं के लिए दंगों के दिनों में सॉफ्ट कोना रखने वाली यही पुलिस आम दिनों में हिन्दुओं के बहुत बड़े हिस्से को जाति के नज़रिए से देखती और व्यवहार करती है।

उदाहरण के रूप में मुसहरों की स्थिति देखी जा सकती है जो उत्तर प्रदेश में दलित और बिहार में महादलित कहे जाते हैं। आज़ादी के तिहत्तर वर्षों बाद भी वे लोकतंत्र में सबसे निचले पायदान पर हैं। वे भूमिहीन हैं और आजीविका के रूप में पूरी तरह मज़दूरी और जंगल पर निर्भर हैं। गांव के एक किनारे बसे मुसहर प्रायः आबादी की जमीन पर रहते हैं और कालांतर में जब जमीनों की कीमतें बढ़ने लगी तो गांव के दबंग उन्हें वहां से हटाकर दूसरी जगहों पर बसने के लिए मजबूर करते रहे हैं जो दूर और निछद्दम हों। इसका एक उदहारण उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के मुंगरा बादशाहपुर इलाके के गरियाव गांव में भी देखने को मिला। मुसहर बस्ती जो कभी गांव के किनारे थी बाद में वहां से एक सडक गुजरने लगी जिससे कि जमीन महंगी हो गई। सौ-डेढ़ सौ साल से बसे मुसहरों को वहां से हटाने की उस गांव के ठाकुर बाभन दबंगों ने कई बार की। गाली-गलौज और मारपीट के अलावा अनेक प्रकार की साजिशों के तहत उन्होंने उनको हटाने के प्रयत्न किये। उसी गांव का रहने वाला तूफानी सामंती दमन और दरिंदगी की एक मिसाल है। कहा जाता है कि दबंगों ने दूसरी दलित दलित जातियों को भी उनको उनके खिलाफ इस्तेमाल किया। तूफानी को मारने और उसकी जीभ काटने के मुख्य आरोपी संतोष शुक्ला के साथ पासी जाति के दो लोग भी थे। यहां तक कि जब गांव में पुलिस गई तो दलितों ने भी उन्हें वही गवाही दी, जो वहां के दबंग चाहते थे। 

उत्तर प्रदेश में मुसहर आमतौर पर लकड़ी काटने, दोना-पत्तल बनाकर बेचने के अलावा खेतों में मज़दूरी करते हैं। जंगल और प्रकृति से जुड़े होने के कारण उन्हें बनवासी और कहीं-कहीं तो विडम्बनापूर्ण ढंग से उन्हें वन का राजा भी कह दिया जाता है। संभवतः पेड़ों की कटाई की उनकी दक्षता के कारण ऐसा कहा जाता है और इस बहाने बड़ी कुशलता से उनकी गरीबी और लाचारी का मज़ाक उड़ाया जाता है। लोक में प्रचलित धारणा के अनुसार मुसहर नाम चूहा मारने के कारण पड़ा है। लेकिन सामाजिक इतिहास की गहरी छानबीन करने पर पता चलता है कि यह उनका जातिनाम नहीं है क्योंकि मुसहर आदिवासियों के व्यापक समुदाय के ही एक घटक हैं और माना जाता है कि आर्यों के आक्रमणकाल में जिन लोगों और समुदायों ने जंगलों में शरण ली, वे भी उनमें से एक हैं। रंग-रूप से वे द्रविड़ नस्ल की विशाल आबादी के हिस्से हैं। सामाजिक स्थैतिकी के नज़रिए से देखते हुए माना जा सकता है कि मुसहर भारत के मूलनिवासी हैं जिनका अपना विशिष्ट जीवन दर्शन है। इस जीवन दर्शन में प्रकृति के साथ उनका रिश्ता अत्यंत पवित्र है। प्रकृति के ऊपर उनकी निर्भरता ने उन्हें जिन्दगी का एक ऐसा शऊर दिया है कि वे बिना उसे नुकसान पहुंचाए अपना जीविकोपार्जन कर सकें। जैसे-जैसे गांव बसते गए, वैसे-वैसे लोग आदिवासियों के भूगोल पर काबिज होते गए और एक समय ऐसा आया कि मुसहर तथा अन्य आदिवासी सिमटते गए। चूंकि पुराने काल में वन-सम्पदा पर किसी की बपौती नहीं थी और इसलिए मुसहरों और आदिवासियों ने भी उनपर हकदारी नहीं जमाई और बाद में जब भारत में भू-बंदोबस्ती के दौर शुरू हुए तो जमीनों पर बाकी लोगों ने कब्ज़ा जमाया अथवा पाया। लेकिन मुसहरों और आदिवासियों ने अपनी सहज समझ के कारण अपना क्षेत्र लगातार गंवाया। लिहाज़ा उनका पिछड़ना अपरिहार्य था। वे भूमिहीन और नए चलन के रोजगारों से दूर ही रहे जिस कारण शिक्षा और व्यवसायिक कौशल उनमें बहुत ही सीमित परिमाण में आ सका। लिहाज़ा उनके लिए मजदूरी ही रोजगार का एकमात्र साधन बनती गई। ज़ाहिर है जहां कौशल नहीं होता वहां मज़दूर सर्वाधिक शोषण का शिकार होता है। जिन दिनों उनके पास कोई काम नहीं रहता वे खेतों से चूहे मारकर अपना पेट भरते हैं। हिंदी के वरिष्ठ कथाकार प्रेमकुमार मणि की कहानी ‘जुगाड़’ में ऐसा ही एक परिवार चित्रित है। बिहार में मुसहरों को कई बार जनसंहार झेलना पड़ा, क्योंकि वे सबसे सहज उपलब्ध खेतिहर मजदूर हैं और खेती की सारी निर्भरता उन्हीं पर है। सामाजिक और आर्थिक रूप से सबसे कमज़ोर होने के कारण वे खेती में काम करने के लिए अनिवार्य रूप से बाध्य हैं। हालात ये हैं कि वे काम करने से इंकार नहीं कर सकते। उन्हें भोर से लेकर रात तक गांव के किसी न किसी काश्तकार और कुलक के यहां काम करना पड़ता है। जब भी उन्होंने उचित मजदूरी की मांग की या कोई संघर्ष शुरू किया तब उन्हें उत्पीड़न और दमन झेलना पड़ा। 

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बिहार के पूर्णिया जिले के रूपसपुर चंदवा में 1971 में हुए नरसंहार में 14 आदिवासी मारे गए थे। आगे चलकर वामपंथी संगठनों ने उन जगहों पर अपना आधारक्षेत्र बनाया जहां भूमिहीन मजदूरों के रूप में मुसहर अथवा अन्य दलित जातियां खेती के कामों में लगी थीं। क्रिया और प्रतिक्रिया में होने वाले जनसंहारों में मुसहर लगातार शिकार होते रहे। यही नहीं उन्होंने जब भी अपने जायज़ हक़ के लिए काम करने से इंकार किया उन्हें साजिशन फर्ज़ी मुकदमों में फंसाया गया। बिहार के ही हिंदी एक अन्य महान कथाकार मधुकर सिंह ने अपनी प्रसिद्ध कहानी ‘हरिजन सेवक’ में इस स्थिति को वास्तविक और बेधक रूप में चित्रित किया है।

उत्तर प्रदेश में मुसहर हालांकि इन हालात के शिकार नहीं हुए, फिर भी वे शोषण और दमन से कभी मुक्त नहीं रहे हैं। नरसंहारों से बचे रहने के पीछे एक बड़ा कारण इनकी विच्छिन्न बस्तियां और कुलक-किसानों की तुलना में उत्तर प्रदेश के छोटे और मंझोले किसानों की मौजूदगी है। इसके बरक्स बिहार में मुसहरों की संख्या अधिक है और वे लगभग हर गांव में अच्छी-खासी संख्या में मौजूद हैं। इस कारण वे अपने अधिकारों को लेकर अधिक जागरूक रहे हैं और वामपंथी राजनीति के भी एक बुनियादी घटक रहे हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश में ठीक ऐसा नहीं है। एक और विशेषता दोनों को अलग करती दिखाई पड़ती है कि बिहार में वे लम्बे समय तक नकद मजदूरी की जगह लेहना या हिस्सा लेने को मजबूर थे जबकि उत्तर प्रदेश के मुसहर नकद मज़दूरी पा सकते थे। दोना-पत्तल बनाने और लकड़ी काटने का काम करने के अतिरिक्त ईंट पाथना अथवा भट्ठा बोझना आदि उनके लिए नकदी के स्रोत रहे हैं। इसके बावजूद उत्तर प्रदेश के मुसहर बिहार के मुसहरों की तरह संगठित नहीं हो सके।

इसलिए उनका शोषण और उत्पीड़न अधिक होने के बावजूद उनके पक्ष में बहुत ऊंची आवाज नहीं उठाई जा सकी है। वे राजनीतिक रूप से कमजोर हैं और नेतृत्व की इसी कमी ने उनकी बातों को बड़ा सवाल बनने में बहुत बड़ी बाधा खड़ी की है। इसलिए उत्तर प्रदेश में मुसहरों पर फर्जी मुकदमे लादे जाते रहने और अनेक बार झूठी मुठभेड़ों के नाम पर पुलिस द्वारा हत्या कर दिए जाने के बावजूद शासन-प्रशासन में एक सतत चुप्पी देखने को मिलती है। तूफानी के मामले में तो एफआईआर दर्ज कराने के लिए भी जनमित्र न्यास को एड़ी का पसीना चोटी पर चढ़ाना पड़ा। 

सौभाग्य से लोकतांत्रिक राजनीति के उदय ने बहुत सी चीजों को बदल और उलटकर रख दिया है। इसके बावजूद कि उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति का फायदा कुछ ही जातियों ने उठाया है, लेकिन कानून और मानवाधिकार आयोग ने पीछे रह गई दलित जातियों के ऊपर होने वाले अत्याचारों का भी संज्ञान लिया है। हालांकि यह संज्ञान भी आसान मामला नहीं है। इसके लिए अनुशासित कार्रवाइयों और सुनियोजित प्रयासों का एक लम्बा सिलसिला आवश्यक शर्त है। सामाजिक कार्यकर्ता लेनिन और श्रुति के डेढ़-पौने दो दशक के प्रयासों के फलस्वरूप आज बनारस में मुसहरों के जीवन में बदलाव की एक रौशनी दिखती है। पिंडरा के पास सराय और कई दूसरे गांवों में जनमित्र न्यास ने मुसहरों के लिए एक बेहतर सामुदायिक जीवन, शिक्षा और चिकित्सा के साथ ही सुरक्षा को एक जरूरी उपादान बना दिया है। सबसे बड़ी बात तो यह देखने को मिली कि अब मुसहर दब्बू नहीं रहे, बल्कि उनमें अपने अधिकारों, बराबरी और सम्मान को लेकर एक गहरी संजीदगी दिखाई पड़ रही है। बनारस के सैकड़ों मुसहरों पर पुलिस द्वारा लादे गए फर्जी मामलों को संज्ञान में लिया गया। दर्जनों बंधुआ मजदूरों को छुड़ाया गया और उन्हें न्याय दिलाया गया। इसके बावजूद कि अभी भी समाज में बहुत अंधेरा है और अपनी गरीबी के कारण मुसहर दबंगों और पुलिस के सबसे आसान शिकार हैं। इस परिदृश्य ने आने वाले दिनों की एक सकारात्मक छवि को संभव बनाया है।

(संपादन : नवल)

लेखक के बारे में

रामजी यादव

रामजी यादव एक राजनितिक कार्यकर्ता के रूप में विभिन्न संगठनों में सक्रिय रहे हैं। उन्होंने कानपुर के मिल मज़दूरों और रेलवे कर्मचारियों को संगठित करने में भी भूमिका निभाई। उन्होंने 100 से अधिक वृत्तचित्रों का निर्माण और निर्देशन भी किया है। उनके प्रमुख वृत्तचित्र हैं 'गाँव का आदमी', 'पैर अभी थके नहीं', 'एक औरत की अपनी कसम', 'यादें', 'समय की शिला पर', 'कालनदी को पार करते हुए', 'विकल्प की खोज', 'वह समाज जो जनता का है', 'जलसत्ता', 'द कास्ट मैटर्स', और 'इस शहर में एक नदी थी' आदि। उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं, 'अम्बेडकर होटल', 'खेलने के दिन', 'भारतीय लोकतंत्र' और 'दलित सवाल', 'भारतेंदु', 'ज्योतिबा फुले', 'गिजुभाई', 'रामचंद्र शुक्ल', 'आंबेडकर संचयन'। इन दिनों वे ‘गांव के लोग’ त्रैमासिक का संपादक कर रहे हैं।

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