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कौन हैं और कहां जाते हैं मजदूर, जिनका अब कोई नाम भी नहीं लेता?

बिहार और यूपी से आने वाली एक्सप्रेस रेलगाड़ियों में जनरल क्लास की बोगियां सबसे पहले और सबसे आखिर में क्यों जोड़ी जाती हैं? इसकी एक वजह यह भी है कि यदि किसी ट्रेन की टक्कर हो तो वे लोग बचे रहें जो बीच में हैं और मजदूर नहीं हैं। क्या भारत के मजदूर इस बात को समझते हैं? रामजी यादव का विश्लेषण

बहस-तलब : औद्योगिक सर्वहारा बनाम वंचित बहुजन यानी विमर्श-बहिष्कृत 

हाल के वर्षों में मैंने किसी से ऐसी चर्चा नहीं सुनी जिसमें भागीदारों की चिंता मजदूर अथवा मजदूर वर्ग को लेकर हो। मिला-जुलाकर बातें मध्यवर्गीय संकटों तक घूमती रही हैं। महंगाई, सोशल मीडिया, बदलता भारत, उज्ज्वला योजना के लाभार्थियों द्वारा फिर से गैस न भरवा पाने की बात पर सहानुभूति दिखाते हुये महंगी होती गैस को लेकर गुस्सा, अपने बच्चों की बेरोजगारी पर बात करते-करते बढ़ती हुई बेरोजगारी दर, कालाधन और ऑनलाइन लेन-देन, मोदी का जादू और नेहरू की गलतियां और उनके बारे में व्हाट्सएप पर तेजी से फैलाई गई कहानी, गांधी के हत्यारे गोडसे का ‘नाथूरामजी’ जैसा जायज बनाया जाता हुआ चरित्र और बीजेपी द्वारा राम मंदिर बनवाने की प्रतिबद्धता पर सुप्रीम कोर्ट का ढुलमुल रवैया जैसी सैकड़ों बातों पर चर्चा टहलती रहीं, जिनमें से कई का तो केवल भावनात्मक आधार ही था। किसी भी मुद्दे की दिशा मजदूरों की ओर नहीं मुड़ी। पहले तो जब न्यायोचित बातें होती थीं तो प्रायः लोग क्रांति की बात करते ही थे और जब क्रांति की बात छिड़ती तो मजदूर आप से आप अपनी जगह बना लेते। लेकिन अब कहां क्रांति और कहां मजदूर। लगता है मजदूर हमारी दुनिया से पलायन कर गए हैं या हम लोग ही ऐसे मध्यवर्गीय हो गए हैं कि मजदूरों से हमारा कोई सीधा राब्ता ही नहीं रहा। इधर फेसबुकिया कहानीकारों-कवियों की खेप बढ़ी है और किताबी लेखक भी बहुत प्रतिष्ठित हुए हैं, लेकिन मजदूरों पर कहानियां लिखना लोगों ने बंद कर दिया है।

जो भी हो, दोनों हालात कोई अच्छे संकेत नहीं देते क्योंकि दोनों ही हालात हमारे चारों ओर एक ऐसी सामाजिक-सांस्कृतिक बर्बरता के पसरते जाने की शिनाख्त कराते हैं जिसकी गिरफ्त में हम बहुत तेजी से होते गए हैं। यह सब एक घातक भविष्य का संकेत है। यह संकेत साधारण मानवीय संवेदना के मरते जाने का है। हम यह आसानी से देखते हैं कि किसी घटना-दुर्घटना या मॉब लिंचिंग को लोग जिस लगन, तत्परता और उत्साह से अपने कैमरे में कैद करके वायरल कर देना चाहते हैं। उनके दिमाग से यह बात लगभग निकलती जा रही है कि विपत्ति में पड़े हुये मनुष्य की मदद या रक्षा करनी चाहिए। नहीं, वे तो उसे मरते हुए अपने कैमरे में उतारना और फेसबुक-व्हाट्सएप पर शेयर करके अधिक से अधिक लाइक और कमेंट्स बटोर लेना चाहते हैं। यह एक ऐसा अतीव आनंद है जिसकी तुलना किसी और आनंद से नहीं की जा सकती। और यह आनंद लोग बरसों से प्राप्त कर रहे हैं फिर भी नहीं अघा रहे हैं। सोशल मीडिया के बाज़ार का अपना विस्तार है जिसमें बिना किसी लागत और जद्दोजहद के एक सफल खिलाड़ी बना जा सकता है। कभी-कभी मैं सोचता हूं कि पिछले वर्षों में लाखों लोगों ने फोटो खींचे और वीडियो बनाए जिन्हें करोड़ों लोगों ने देखे। फिर भी हृदय-विदारक घटनाओं, दलित उत्पीड़न, मॉब लिंचिंग, स्त्रियों की बेइज्जती और फासिस्ट-निर्मित विभीषिकाओं में कमी नहीं आई। ऐसी घटनाएं रोज कहीं न कहीं घट रही हैं। बल्कि बढ़ ही रही हैं और इसका फायदा भी राजनीतिक आदमखोर उठा रहे हैं। लेकिन घटनाओं के समय लोग पीड़ितों के बचाव में खड़े हो जाते या हिम्मत करके आतताइयों से भिड़ जाते तो क्या होता? पता नहीं ऐसा सोचना कितना प्रासंगिक है लेकिन मुझे लगता है शायद भारत में ऐसी घटनाएं जरूर एक दिन बंद हो जातीं। अपनी गुंडई को शेयर करने की उम्मीद बांधें गुंडों की हिम्मत टूट जाती। उनकी सारी बर्बरता उनके पेट में चली जाती क्योंकि प्रतिरोध के सामने टिकने की उनकी हैसियत नहीं है। वे निष्क्रिय जनता के शिकारी हैं। सक्रिय और सचेत जनता के सामने वे भींगी बिल्ली हो जाएंगे। क्या आप फ्रांस, इंग्लैंड या किसी अन्य यूरोपीय देश में जनता के ऊपर हावी ऐसे लंपटों को देख सकते हैं? लेकिन भारत, पाकिस्तान या किसी भी पिछड़े पूंजीवादी देश में यह एक आम चलन है और इसी के बल पर सत्ताएं चल रही हैं। यह सारी कहानी मानवीय संवेदना के मरते जाने की पृष्ठभूमि है। लगता है साधारण मानवीय संवेदना के मरते जाने की बात अब कुछ कविताओं और उपेक्षा के शिकार तथा अपठ रह गए कवियों-कहानीकारों की जुगाली भर रह गयी है। 

कोरोना के खौफ के बीच शहरों को वापस लौटते मजदूर

ऐसे में किसी के लिए यह सोचना जरा भी अजीब नहीं लग सकता है कि मजदूर हमारे जीवन और बातचीत से गायब हो गए हैं। लेकिन मैं चिंतित हूं कि आखिर वे चर्चा से बाहर होकर कहां गए होंगे? मैं लगातार औद्योगिक नगरों और स्पेशल इकनॉमिक जोनों को देखता हूं। देश भर में स्थापित किए गए हजारों इकाइयों को देखता हूं तो लगता है मजदूरों का वहां से भी पलायन हो गया है अथवा जो रह गए हैं उनके रूपाकार बदल गए हैं। वे या तो बहुत सुखी और सम्पन्न हो चुके हैं या फिर बहुत अधिक दबा दिए गए हैं कि उनकी आवाज ही नहीं निकल रही हो! दमन इतना अधिक बढ़ गया है कि आवाज सुनाई ही नहीं पड़ रही है। कैसे समझा जाय? मजदूरों के सुख को समझने की कोशिश करता हूं देश के इस कोने से उस कोने तक चलने वाली दर्जनों जनसाधारण और अंत्योदय एक्सप्रेस गाड़ियों, मेल, एक्सप्रेस और सुपरफास्ट गाड़ी के आगे-पीछे लगे आधा दर्जन दीनदयालु कोचों में बेरहमी से एक-दूसरे को ठेलकर जगह बनाते और ठुंसकर यात्रा पूरी करते उनकी तस्वीरें कलेजे को हिला देती हैं। 

एक बार रेलवे के एक जानकार ने बताया कि आगे-पीछे लगाए जाने वाले जनरल कोचों का सिद्धान्त यह है कि यदि आमने-सामने या पीछे से ट्रेनों के टकराने की नौबत आए तो जनरल कोच ही क्षतिग्रस्त हों और दूसरी बोगियों को कम से कम नुकसान हो। जनरल कोच ऊपर से नीचे तक मनुष्यों से भरे होने के बावजूद किसी की कोई लिखित पहचान नहीं होती, लिहाजा दुर्घटना होने पर उनकी संख्या सत्ता की इच्छानुसार तय की जा सकती है। ऐसे में मुआवजा कम देना होगा और बदनामी भी कम ही होगी। क्या मजदूर यह सिद्धान्त जानते होंगे? शायद नहीं? किंचित हां? फिर भी वे जान पर खेलकर न केवल इस देश को चला रहे हैं बल्कि बिना कोई सुविधा लिए अपनी न्यूनतम राशियों के विशाल अंबार से रेलवे को भी सम्पन्न बना रहे हैं। उनके घरों को देखता हूं। नालों और कूड़ादानों के किनारे, शहरों की गंदगी से पटे पड़े इलाकों में बने दड़बों में सिमटे उनके सुखी और सम्पन्न जीवन की कैसे व्याख्या हो सकती है? आठ-दस घंटे की साधारण शिफ्ट और ओवरटाइम की उम्मीद और परिवार के लिए कुछ अतिरिक्त जुटा लेने की लालसा में चार-पांच घंटे की आधा शिफ्ट और निपटाते हुये थककर चूर हो लेने के बाद इन दड़बों की असुविधाएं और नारकीय जीवनचर्या न भोक्ता को खराब लगती है और न मरी हुई समवेदनाओं वाले भारतीय समाजिकों को। 

भारत में खेती-किसानी की जो स्थिति है वह किसी से छिपी नहीं है। गरीबी और अभाव का यह आलम है कि प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि के तहत जब बहुत से किसानों के खातों में दो हज़ार की पहली किश्त आई तो किसान भाव-विह्वल हो गए। उनकी आंखें खुशी से भर आईं और उनको लगा गोया कोई बहुत बड़ी चीज मिल गई हो। सही भी है कि जहां मुंशी, पटवारी, बाभन-बनिया, सिपाही-लेखपाल सब किसानों से केवल वसूलने के चक्कर में पड़े हों वहां दो हज़ार भी कितना सुकूनदायक हो सकते हैं, इसे सामान्य आदमी नहीं जान सकता और न ही बड़े-बड़े विद्वान जान सकते हैं। इसे केवल किसान जान सकता है। रिपोर्टों से पता लगा कि पांच-पांच दस-दस बीघे के काश्तकार, जिनकी फसलें रपटों के फुटेज में लहलहाती दिख रही हैं, वे भी नकदी के अभाव से किस तरह जूझ रहे होते हैं, इसे उन्होने रिपोर्टरों को बताया। उन्होने बताया कि खेत की भराई करने के लिए चिंता में थे कि कैसे होगा तभी बैंक में दो हज़ार रुपये आ गए। तुरंत चिंता मिट गई। किसी को खाद की जरूरत थी किसी को बीज की। लेकिन यह दो हज़ार की रकम संकट मोचन बनकर आ गई। जहां खेत होने का कोई नकदी महत्व नहीं प्रतीत होता वहां दो हज़ार रुपए की नकदी बड़ी चीज है। क्या ऐसे घरों से नकदी की उम्मीद में जवान मजदूर शहरों की ओर न गया होगा? और अगर न गया होगा तो क्या अपने बाप की तरह कहीं से नकदी टपक पड़ने की उम्मीद में न होगा और मिल जाने पर भाव-विगलित होकर दाता के लिए क्या न करने लगेगा?

और उन उज्ज्वला-पुत्रों को भी देखता हूं जिनको सिलेन्डर तो मिल गया लेकिन दूसरी बार भरवाया नहीं जा सका। क्या वे अपनी मां और पत्नी को आजीवन लकड़ी या गोइठे के धुएं में धुआंने के लिए छोड़ देंगे? महंगी गैस खरीदने की हैसियत पाने के लिए वे अपने घर से निकल न गए होंगे? उन्होने भी किसी शहर के लिए रेल न पकड़ी होगी? जिसके घर में उज्ज्वला का सिलेन्डर भरवाने की कूव्वत न होगी क्या वह अंत्योदय या जनसाधारण एक्सप्रेस या दूसरी गाड़ियों के दीनदयालु कोचों को छोडकर किसी और डिब्बे में बैठकर गया होगा? और ऐसे लोग कहां जाते होंगे? कहां रहते होंगे क्या करते होंगे? उनको किस तरह का काम मिलता होगा और क्या वे सर उठाकर काम कर पाते होंगे?

बनारस, भदोही, मीरजापुर, टांडा, मुबारकपुर के उजड़ गए बुनकर किधर गए होंगे? कई लेखकों, पत्रकारों और शोधकों ने लिखा था कि बनारस के बुनकर अस्पतालों में अपना खून बेचते पाए गए। उसके बाद वे कहां गए इसका कुछ पता नहीं चला। क्या पता वे भी किसी जनसाधारण और अंत्योदय एक्सप्रेस में चढ़कर कहीं निकल गए होंगे और अपनी विशाल बिरादरी के किसी हिस्से में रहे होंगे? अभी तीन साल पहले ही हम टांडा गए थे। सौ से अधिक बुनकर फर्जी मुकदमें में फंसाए गए थे और उनके परिवार दाने-दाने को मुहताज थे। पैंतालीस डिग्री तापमान के बीच बिजली का पता नहीं और किसी किसी घर में तो पंखा तक नहीं। बेलिबास और कुपोषित बच्चे। जमानत पर छूटे उनके बापों के चेहरे पर पुलिस का खौफ था और सैकड़ों बरस से जिस गांव में वे रहते आए थे वहां किसी अजनबी की तरह मुकीम रहने को अभिशप्त थे। बनारस में कहीं कहीं पावरलूम की खटर-पटर जरूर सुनाई पड़ती है लेकिन ढरकी-नरी खो गई है। एक शायर सलीम शिवालवी अपनी कविता में पूछते हैं – मशीनों के साये में कारीगरी है / कहां खो गई आज ढरकी नरी है। और जवाब किसी के पास नहीं है। 

भारत में सिकुड़ते वामपंथ के आधार पर देखता हूं तो लगता है कि किसी समय एक दूसरे से नाभिनालबद्ध विचार और समूह ने एक दूसरे को इतना अकेला और दूर छोड़ दिया है कि आपस में उनकी संवेदनाएं एक दूसरे के लिए सूख गई हैं। लगता है मजदूरों ने अपने दमन के खिलाफ लड़ने और मौके के अनुसार समझौता करने की अपनी विशेषताएं ईजाद कर ली हो और वामपंथ ने अपने बौद्धिक कौशल को सभागारों की कुर्सियों पर उठंगे चिर-परिचित सिपाहियों-समर्थकों के मनोरंजन तक समेट दिया हो। क्या यह सच है कि दक्षिणपंथियों की तरह वामपंथी भी अब आधारभूत संघर्षों की जगह चेहरों की अवसरानुकूल और लोकप्रिय राजनीति करने लगे हैं? और देखते ही देखते फर्जी मुकदमों और गढ़ी गई कहानियों के आधार पर जेलों में ठूंस दिये गए अपने बिरादराना साथियों के लिए उनकी संवेदनाएं मर चुकी हैं? हालिया घटनाओं से लगता है कि प्रतिवामपंथ की चुनौतियों से घबराया हुआ वामपंथ का बड़ा हिस्सा अब अपने इस तात्कालिक शत्रु को हराने के लिए धुर दक्षिणपंथियों तक की मदद करने लगा है। ऐसा मालूम देता है कि लंबे समय तक वातानुकूलित कक्षों में रहने की स्थिति के कारण कड़ी धूप में उनके लिए किसी संघर्ष में टिककर खड़ा हो पाना ही असंभव होता जा रहा है । 

इन हालात के चलते पूंजीवादी निरंकुशता और शोषण की मात्रा लगातार बढ़ी है और इसके खिलाफ कोई विद्रोह न होने पाए इसकी एक सुनियोजित कोशिश लगातार चलती रही। एक तरफ केंद्र और राज्य सरकारों ने मजदूरों के ऊपर और भी शिकंजे कसने वाले कानून पास किए हैं तो दूसरी ओर मालिकों ने अपने खूनी जबड़े और नाखून और तेज किए हैं। जब से केंद्र सरकार ने तीन सौ से कम मजदूरों की छंटनी और बेदखली के लिए नोटिस की अनिवार्यता खत्म कर दी है तब से मजदूरों को काम से निकाल बाहर करना और भी आसान हो गया है। वर्षों से नियोक्ताओं ने ठेका मजदूरों के विकल्प को अपने लिए फायदेमंद मानते हुये नियमित कर्मचारियों के झंझट से छुट्टी ले ली है। पूंजी और प्रशासन के गंठजोड़ ने श्रमिकों को इतना पंगु बना दिया है कि वे धीरे-धीरे अपने हर अधिकार से वंचित होते गए हैं। शायद आपको पता हो कि विगत वर्षों में अपने अधिकारों को लेकर हड़ताल पर उतरे मजदूरों की एकता को तोड़ने के लिए लगातार उन्हें फर्जी मुकदमों में फंसाया गया है। देश भर के हजारों की संख्या में मजदूरों को जेलों में ठूंस दिया गया है। अनेक लोगों को लंबे समय तक के लिए कारावास की सजा दी गई है। जो अभी भी लड़ रहे हैं उन्हें सबसे ज्यादा बेदखली से जूझना पड़ रहा है। उनके बकाया पारिश्रमिक को हड़प लिया गया, उनके ऊपर किराए के गुंडों ने हमले किए गए और उनके परिवार के सदस्यों को धमकियां दी गईं। साथियों के बीच दरार डालने के लिए तरह-तरह के षड्यंत्र किए गए। मानेसर और नोएडा की सैकड़ों इकाइयों में मजदूरों के साथ पिछले वर्षों में जो घटनाएं हुई हैं वे हमारी सोच में किस जगह पर हैं? 

आप सोच सकते हैं कि मजदूरों के साथ ऐसी लोमहर्षक घटनाएं होने के बावजूद आखिर इस देश में इतने उद्योग-धंधे कैसे चल रहे हैं? इसलिए कि भारत में श्रमशक्ति की कोई कमी नहीं है। यहां बेरोजगारी की दर इतनी ज्यादा है कि एक की जगह लेनेवाले सौ गरदन झुकाए काम पाने के इंतज़ार में हैं। सार्वजनिक उपक्रमों में श्रमिकों के प्रति जवाबदेही और हड़ताल करने के उनके अधिकार निजी क्षेत्र में नहीं लागू है। इससे अधिकतम शोषण तथा मुनाफा और न्यूनतम जवाबदेही की स्थितियां मजबूत हुई हैं। आज पूंजीवाद क्या चाहता है? वह अपने लिए एक निरंकुश व्यवस्था चाहता है जिसमें किसी हद तक जाकर वह अधिक से अधिक मुनाफा कमा सके। ऐसा निजी क्षेत्र में ही संभव है। सार्वजनिक उपक्रम की निश्चित जवाबदेही है लेकिन निजी क्षेत्र उससे अधिकतम मुक्त है। तमाम सार्वजनिक उपक्रमों को निजी क्षेत्र के हवाले करके अब सरकारें भी उस जवाबदेही से मुक्त होना चाहती हैं। अधिकांश सार्वजनिक उपक्रम धड़ाधड़ बीमार, सुस्त और मृत होने लगे और इसी के साथ उनके निजीकरण की प्रक्रिया भी तेज होती गई है और एक दिन ऐसा आएगा जब सार्वजनिक क्षेत्र में कुछ भी नहीं रह जाएगा। इसमें किसका सबसे अधिक गुनाह है? निश्चित रूप से इसका सबसे बड़ा गुनाहगार भारत का शीर्ष नेतृत्व है जिसकी अयोग्यता, षड्यंत्रकारी कार्यपद्धति और भ्रष्ट मनोवृत्ति ने देश के सक्रिय और समृद्ध उपक्रमों को तबाह कर दिया। अब उससे भी बड़ा अपराध उन सबको निजी क्षेत्र को बेचकर किया जा रहा है जिसकी कोई जवाबदेही ही तय नहीं है। लेकिन जहां मुनाफा अनियंत्रित है। यह सब देश की विशाल कार्यशील आबादी को आजीविका और अस्तित्व के संकट के मुहाने पर ले जाकर खड़ा करने के षड्यंत्र के अलावा कुछ नहीं है। 

एक तरफ गरीबी का निम्न से निम्नतर चित्र और नरक से नारकीयतर जीवन और दूसरी ओर संपन्न से संपन्नतम जीवन जहां नकदी और मुनाफे का अपरंपार भंडार है। एक तरफ हज़ार-पांच सौ में अपने भविष्य को अपने वर्ग-शत्रुओं के हवाले कर देने की विवशता में जीने वाले समाज और दूसरी तरफ बिना हाथ-पांव हिलाए दूसरों की मेहनत और शेयर मार्केट के सहारे अकूत संपत्ति बटोरता वर्ग जिसके लिए सारे कानून और नियम सहायक की भूमिका में हैं। एक तरफ आयुष्मान योजना का कार्ड बनवाने के लिए तमाम हिकमतें लगाते लोग तो दूसरी ओर पूरे देश को हड़प लेने के लिए लगा हुआ अंबानी और अडाणी घराना। और सारे नैरेटिव ही जहां इसी मुनाफे के जस्टीफ़िकेशन में बदल रहे हों उस देश में मजदूरों की चर्चा! लगता है बिल्कुल उलट और अप्रासंगिक बात है। 

आप इस परिदृश्य को कैसे देखेंगे? वस्तुतः यह किसका संकट है? निश्चित रूप से उस पूंजीवाद का संकट है जो अपनी चमक-दमक से आंखों को चौंधिया रहा है, लेकिन अपने खिलाफ बनते हुये सारे नैरेटिव को न सिर्फ फूहड़ मज़ाक में बदल रहा है बल्कि उसके अस्तित्व को कुचलने के लिए अपने षड्यंत्रकारी हथियारों का भी उपयोग कर रहा है। हम आसानी से देख सकते हैं कि भारतीय पूंजीवाद ने सामंती उत्पादन-व्यवस्था को बेरहमी से तहस-नहस कर डालने के लिए किसी क्रांतिकारी उत्पादन व्यवस्था को विकसित नहीं किया और न ही बाज़ारों पर कब्ज़ेदारी का उसका कोई मर्मांतक संघर्ष ही इतिहास में दर्ज है। शायद भारतीय पूंजीवाद की परियोजना का कोई मौलिक आधार था ही नहीं। इसीलिए इस देश में एक अधकचरे पूंजीवाद का विकास हुआ। इसीलिए पूंजी और राजनीति के गठजोड़ ने सम्मिलित योजना बनाकर न सिर्फ सारी प्राकृतिक संपदाओं को हड़प लिया है बल्कि मजदूरों को अधिक से अधिक लाचार और निरीह बनाकर उन्हें अपने मुनाफे के यंत्रों में भी बदल दिया है। आज चालीस हज़ार के पार पहुंचा शेयर मार्केट, चमकते मॉल, सिनेमाघर, एक्सप्रेस-वे, मेट्रो, विभिन्न प्रकार के फोन, सैकड़ों प्रकार की गाडियां और अय्याशी की दूसरी चीजें इस बात का ठोस सबूत हैं कि देश के कॉर्पोरेट और मध्यवर्ग के पास बहुत बड़ी मात्रा में मुनाफा सुरक्षित है। सरकार अपनी मजबूती के लिए देश के एक बड़े हिस्से को अर्धसैनिक बलों के साये में जीने को मजबूर किए हुए है। गरीबों, वंचितों और मजदूरों के हक में बोलने वालों की हत्यायें और जेलों में डालने का मतलब ही है कि मुनाफाखोरों का सिंडिकेट इतना मजबूत है कि सरकारें, संसद और लोकतंत्र की सारी संस्थाएं उनके कब्जे में हैं। उन्होने सिर्फ मजदूरों की श्रमशक्ति को ही नहीं लूटा है बल्कि उनको विनाश के कगार पर भी ला खड़ा किया है लेकिन अब कहानी दूसरी दिशा में मुड़ रही है। 

अपनी सारी कलाबाजियों, चालबाजियों, आवारागर्दियों और षड्यंत्रों के बावजूद अब अनियंत्रित मुनाफाखोर कॉर्पोरेट इस बात से बुरी तरह डरे हुये हैं कि उन्होने भारत की तीन चौथाई आबादी के जीवन को पूरी तरह नरक बना दिया है। वे जानते हैं कि इस नरक का अंत उनके विनाश की कीमत पर होगा। वे बिलकुल वैसे ही डरे हुए हैं जैसे एक जमाने में मुंबई के मजदूरों की एकता और संघर्षों से वहाँ के औद्योगिक घराने डरे हुए थे और इससे मुक्ति के लिए उन्होने बाल ठाकरे का आविष्कार किया। ठीक उसी तरह विगत दशकों में उन्होने हिन्दुत्व के सेनापतियों और सिपाहियों का आविष्कार किया है। उन्होने जातियों के नेताओं की संसदीय राजनीति को खाद-पानी दिया है। उन्होने मुसलमानों के नेतृत्व के लिए मुस्लिम नेताओं के महत्व को रेखांकित किया है। उन्होने धर्म और जाति के आधार पर मजदूरों को आसानी से विभाजित और कमजोर करने के लिए बाज़ार की सारी ताकत झोंक दी है। मीडिया ऐसे ऐसे आदमखोरों को महानायक बनाकर पेश कर रहा है जिनके अपराधों की सजा तय होने की जगह उनकी ताजपोशी हो रही है। लेकिन क्या आप देख पा रहे हैं कि हिन्दुत्व के सेनापतियों और सिपाहियों ने अपने धर्म के श्रमिकों के न्यूनतम वेतन के सवालों को किस प्रकार उठाया है? उन्होने अपने ही धर्म के शोषकों के खिलाफ शोषितों की आवाज को कितना उठाया? मुसलमान नेताओं ने अपने धर्म बंधुओं की आवाज को कितना बुलंद किया? जातियों के नेताओं ने अपनी जाति के बेरोजगारों की कितनी परवाह की है? वास्तव में तस्वीरें इसके ठीक उलट हैं। हिन्दुत्व के सेनापतियों और सिपाहियों ने मजदूरों को उनके शोषकों की जगह मुसलमान और पाकिस्तान का चेहरा थमा दिया है। उन्हें राष्ट्रवाद, गाय, गोबर, देशभक्ति, जय श्रीराम, मॉब लिंचिंग, लव जेहाद, घर वापसी और आतंकवाद का मुद्दा दे दिया है और जाहिर है कि इन सबके नायक वे स्वयं बन बैठे हैं। मजदूरों के संकट जितनी तेजी से बढ़े हैं उतनी ही तीखी आवाज में मंदिरों और मस्जिदों के लाउडस्पीकरों की आवाज फिजां में गूंजने लगी है। बेरोजगारी जितनी ही बढ़ी है, युवाओं के हाथ में उतनी ही ज्यादा संख्या में कांवर थमा दिया गया है। विक्षोभ जितना बढ़ा है उससे भी अधिक तेजी से गांव-गांव तक शराब की दुकानें खुल गई हैं। और उससे भी बढ़कर निम्नमध्यवर्गीय और निम्न वर्गीय समाजों में खैरात का चलन तेज कर दिया गया है। हर तरह से वे उपाय कर दिये गए हैं कि पूरा देश एक मरी हुई सभ्यता में तब्दील हो जाय। 

खैरात की उम्मीद में शराब और गांजे के आदी बना दिए गए लोगों को कांवर थमाना बहुत आसान है और इसलिए अमीरी की अश्लीलता के समानान्तर लंगर और भोज के बहाने अपने अपराधबोध से छुटकारा पाने का कारगर उपाय भी लंगड़े पूंजीवाद ने ढूंढा है, लेकिन उसकी सफलता की तमाम सारी गढ़ी गई कहानियों के बीच उसे अहसास है कि पूंजीवादी लोकतन्त्र की कसौटी पर भी वह एक असफल वर्ग है। इस असफल वर्ग ने देश की तीन चौथाई से अधिक आबादी को बरबादी के कगार पर ला खड़ा किया है। अब उसके सामने मुक्ति का नहीं विनाश का रास्ता है लेकिन अपने कब्जे की सारी संपदा को वह उस कंजूस की तरह गले में बांधकर गंगा में डूबना चाहता है जिसे नाविक पर इतना भी भरोसा नहीं था कि दो पैसे का मेहनताना लेने के बाद वह उसे डुबा भी देगा या पैसा लेकर धोखा दे देगा। इसी अविश्वास और अंधेरे में भटकता भारतीय कॉर्पोरेट अब सिर्फ धर्मोन्मादी और फासिस्ट राजनीति के सहारे टीका हुआ है। इसीलिए उसके सारे माध्यम पतनशील मूल्यों, अंधराष्ट्रवाद और पतनशील राजनीति की अपराजेयता का नंगा प्रचार कर रहे हैं। इसीलिए मध्यवर्ग और निम्न-मध्यवर्ग की संवेदना और चेतना से रचनात्मकता सूखती गई है और इसीलिए मजदूर विमर्श से बहिष्कृत होते गए हैं और उनकी जगह गोरक्षा और गोबर ने ले ली है। आगे पंचगव्य तैयार है । 

लेकिन मुझे लगता है यह एक ऐसी विध्वंसक बाढ़ है जिससे आप आंख भले मूंद लें। बच नहीं सकते!

(संपादन : नवल)

लेखक के बारे में

रामजी यादव

रामजी यादव एक राजनितिक कार्यकर्ता के रूप में विभिन्न संगठनों में सक्रिय रहे हैं। उन्होंने कानपुर के मिल मज़दूरों और रेलवे कर्मचारियों को संगठित करने में भी भूमिका निभाई। उन्होंने 100 से अधिक वृत्तचित्रों का निर्माण और निर्देशन भी किया है। उनके प्रमुख वृत्तचित्र हैं 'गाँव का आदमी', 'पैर अभी थके नहीं', 'एक औरत की अपनी कसम', 'यादें', 'समय की शिला पर', 'कालनदी को पार करते हुए', 'विकल्प की खोज', 'वह समाज जो जनता का है', 'जलसत्ता', 'द कास्ट मैटर्स', और 'इस शहर में एक नदी थी' आदि। उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं, 'अम्बेडकर होटल', 'खेलने के दिन', 'भारतीय लोकतंत्र' और 'दलित सवाल', 'भारतेंदु', 'ज्योतिबा फुले', 'गिजुभाई', 'रामचंद्र शुक्ल', 'आंबेडकर संचयन'। इन दिनों वे ‘गांव के लोग’ त्रैमासिक का संपादक कर रहे हैं।

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