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प्रो. सनल मोहन : शेष भारत की तरह केरल भी नस्ल और जातिवादी है

इतिहासविद् पी. सनल मोहन कहते हैं कि आज भी केरल में जाति महत्वपूर्ण बनी हुई है। जीवन के कई मौकों पर, जिनमें वैवाहिक संबंध स्थापित करना शामिल है, से हमें यह अहसास होता है कि जाति अब भी जिंदा है

एक दलित इतिहासविद् की निगाहों से केरल का अतीत एवं वर्तमान   

फारवर्ड प्रेस के साथ अपने साक्षात्कार के इस अंतिम भाग में, महात्मा गांधी विश्वविद्यालय, कोट्टयम, केरल में इतिहास के प्राध्यापक और बहुचर्चित पुस्तक ‘मॉडर्निटी ऑफ़ स्लेवरी: स्ट्रगल्स अगेंस्ट कास्ट इनइक्वलिटी इन कोलोनियल केरला’ के लेखक पी. सनल मोहन कहते हैं कि केरल के समाज में नस्लवाद और जातिवाद की अंतर्धारा मौजूद है। वे केरल में दलित-बहुजनों को एक करने वाले सामाजिक आंदोलनों के अभाव पर भी चर्चा करते हैं। 

व्यापक सामाजिक उथल-पुथल के बाद भी जातिवाद और नस्लवाद केरल में आज भी एक यथार्थ बना हुआ है?

मुझे तो ऐसा ही लगता है। लोग कहते हैं कि मैं केरल की बहुत आलोचना करता हूं। मैंने देखा है कि केरल इस अर्थ में निश्चित रूप से भारत का हिस्सा है कि यहां भी नस्लवाद है और लोग अपनी जातिगत पहचान के प्रति बहुत सचेत हैं। हां, यह ज़रूर है कि केरल में जाति का चेहरा शायद उतना क्रूर और कठोर नहीं है। एक प्रसिद्ध पुस्तक है, ‘थर्टीन वेज़ ऑफ़ लुकिंग एट ए ब्लैक मैन’ (एक काले व्यक्ति को देखने के तेरह तरीके)। सच तो यह है कि एक काले व्यक्ति को देखने के सैकड़ों तरीके हो सकते हैं। हमारे समाज में काला होना एक बड़ी मुसीबत है। नस्लवाद हमारी मानसिकता में गहरे तक धंसा हुआ है। यह बात हमें थोड़ा सोच-समझकर कहनी चाहिए क्योंकि कोई यह कह सकता है कि अन्य जातियों और समुदायों में भी काले रंग के लोग हो सकते हैं। परन्तु यदि हम केरल के इतिहास, मानवशास्त्र और नृवंश विज्ञान संबंधित पुस्तकें पढ़ें तो हमें समझ में आएगा कि यहां कुछ विशिष्ट सामाजिक समूहों को त्वचा के काले रंग से जोड़ा जाता रहा है। यह एक तथ्य है और यह भी तथ्य है कि ऐसे समूहों में से अधिकांश दलित हैं। इस पर शोध हुए हैं परन्तु बहुत नहीं। मैंने केरल के एक अध्येता की पुस्तक पढ़ी है जो ईसाई समुदाय की प्रथाओं के बारे में है और जिसमें काले रंग का होने से उपजी समस्यायों की चर्चा है। जो मैं कहना चाहता हूं वह यह है कि केरल के समाज में त्वचा के रंग को नस्ल से और जाति से जोड़ा जाता रहा है। 

इस तरह, जातिवाद को हम जिस रूप में समझते हैं उसका यह एक और आयाम है। आपके इस प्रश्न के संदर्भ में मुझे भारत में समाजशास्त्र बल्कि कहें कि सभी समाज विज्ञानों पर मुख्यधारा के लेखन पर भी बात करती चाहिए। कोई यह स्वीकार ही नहीं करना चाहता कि भारत में आपकी त्वचा का रंग का कोई महत्व है। और इसी आधार पर वे इस निष्कर्ष पर पहुंच जाते हैं कि यहां नस्लवाद है ही नहीं। परन्तु मैं कहता हूं कि भारत दुनिया के सबसे नस्लवादी देशों में से एक है। दिल्ली में लॉकडाउन के दौरान एक घटना हुई। युगांडा की एक युवा महिला अपने पिता के साथ इलाज़ करवाने अस्पताल जा रही थी। उस पर हमला हुआ। उसके कपडे फाड़ दिए गए और उसे खुली सड़क पर नंगा कर दिया गया। एक युवा भारतीय महिला ने स्वयं को खतरे में डाल कर उसे बचाया, उसे कपडे दिए। मैं देश के अलग-अलग हिस्सों में इसी तरह की दुखद घटनाओं पर नज़र रखता हूं।.  ऐसा सब जगह होता है। बुरुंडी का एक नागरिक पंजाब में उच्च शिक्षा ग्रहण कर रहा था। उसकी जबरदस्त पिटाई कर दी गयी। उसके पिता आए और उसे अपने साथ वापस ले गए। वो गहरे सदमे में चला गया, एकदम अपाहिज हो गया। और अंततः उसकी मौत हो गयी। बैंगलुरु में ऐसी कई घटनाएं हो चुकी हैं। भारत में नस्लवाद की जडें काफी गहरी हैं। भारत दुनिया के सबसे नस्लवादी देशों में से एक है। मैं अपनी बात करूं। मैं पक्के तौर पर कह सकता हूं कि काले होने के कारण मुझे अपमानित किये जाने की जितनी संभावना केरल में या भारत के किसी अन्य हिस्से में है, उतनी लन्दन में नहीं है। मैं यह नहीं कहता कि पश्चिम में नस्लवाद नहीं है परन्तु वहां मेरा अपमान होने की संभावना कम है। मैं कई अंग्रेजी-भाषी देशों में रहा हूँ और जर्मनी में भी, ज्यादा नहीं थोड़े समय के लिए। वहां मैं ऐसे इलाकों में भी रहा हूं जहां के सभी रहवासी श्वेत थे। सौभाग्यवश मुझे कभी वहां अपने रंग के कारण किसी समस्या का सामना नहीं करना पड़ा। मैं यह नहीं कहूंगा कि वहां रंगभेद नहीं है। वह है और यह हम सब जानते हैं। परन्तु मेरा कभी उससे साबका नहीं पड़ा। मगर यहाँ केरल में मेरे घर के ठीक बाहर मुझे अपमानित किया जा सकता है। मुद्दा यह है कि हम अपने व्यक्तिगत अनुभव के बाद भी यह नहीं समझ पाते कि जो लोग हमसे अलग दिखते हैं वे भी हमारे जैसे ही होते हैं। यह सोच अब तक लोगों की नहीं बन पाई है। भारत में कुछ लोग गेंहूँए रंग के हो सकते हैं, कुछ लोग थोड़े गोरे हो सकते हैं परन्तु वे यूरोप और अमरीका की श्वेत नस्लों के नहीं हैं।. भारत के जो लोग यूरोप और अमरीका में रहते हैं वे भी शायद अपने-आप को कालों की अपेक्षा गोरों के अधिक नज़दीक समझते हैं। केरलवासियों सहित भारतीयों ने पिछले दस वर्षों में ठोकर खाकर यह सीखा है कि श्वेत उन्हें अपना नहीं मानते। उन्हें कई देशों में नस्लवादी हमलों का सामना करना पड़ा है। भारत में सदियों ने जातिगत अत्याचार और दमन होता रहा है परन्तु हमें इसके पीड़ितों ने कोई अपनापन महसूस नहीं होता। हमारे देश में ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ जैसे आन्दोलन नहीं खड़े होते. जब यह आन्दोलन चल रहा था तब भी दलित संगठन इस मसले पर चुप्पी साधे रहे। कुछ ऑनलाइन समूहों में ज़रूर कुछ हलचल हुई. इनमें मुख्यतः बुद्धिजीवी थे जिन्होंने एकता की ज़रुरत पर जोर दिया। देश में बहुत से दलित संगठन हैं, केरल में भी हैं और अधिकांश दलित काले होते हैं परन्तु उनमें से किसी को नहीं लगा कि उन्हें अश्वेतों के समर्थन में खड़ा होना चाहिए। जाति-विरोधी आंदोलनों के बाद भी हमारे देश में यह स्थिति नहीं बन सकी है – न तो बौद्धिक स्तर पर और ना ही रोज़मर्रा के जीवन में, व्यावहारिक जीवन में – कि लोग जाति विरोधी और नस्लवाद-विरोधी बन सकें। मुझे डर है कि हमने नस्लवाद और जातिवाद को सामान्य मान लिया है, स्वीकार कर लिया है।

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सन 2018 में केरल में बाढ़ आई थी। उस दौरान लोगों के अनुभवों पर हमनें शोध किया। लोगों ने हमें बताया कि बाढ़ पीड़ितों के लिए जो राहत शिविर बनाने गए थे उनमें ऊंची जातियों के हिन्दू और ईसाई, काले लोगों के साथ रहने में असहज महसूस कर रहे थे। ये काले लोग दलित हो सकते थे या दलित ईसाई। मुझे याद है कि अमरीका में मेरे एक मित्र के घर में मैंने बच्चों की कुछ किताबें देखी थीं। इनमें अमरीका के दक्षिणी भाग (जहां गुलाम प्रथा और नस्लवाद का लम्बा इतिहास था) के बारे में ढेर सारी कहानियां थीं। इनमें से एक कहानी, जो मैंने पढ़ी थी, वो मुझे अब तक याद है। होता यूं है कि एक अश्वेत परिवार यात्रा पर निकलता हैं जिसके दौरान उसकी मुलाकात श्वेत परिवारों से होती हैं। बच्चों का एक-दूसरे से परिचय होता है। इस कहानी में नस्ल और नस्लीय अंतरों के बारे में बच्चों को संवेदनशील बनाने की जिस तरह कोशिश की गयी थी वह अद्भुत थी। वह कहानी बच्चों को मानवता का पाठ पढ़ाती थी। वहां लोगों को बचपन से इन मसलों के बारे में बताया जाता है। इसके बाद भी वहां हिंसा होती है – जॉर्ज फ्लॉयड की तरह की, अन्य तरह की। इसके बाद भी वहां भयावह घटनाएं होतीं हैं जैसे एक काले आदमी को अटलांटा में मार डाला गया। परन्तु वहां एक संस्थागत प्रणाली है, एक व्यवस्था है, जो बच्चों को यह सिखाती है कि नस्लवाद मनुष्यों की निर्मिती है और सबसे ज़रूरी है मानवता। वे यह बात कोशिश करके अपने बच्चों को उनके साहित्य के माध्यम से समझाते हैं। परन्तु मुझे विश्वास है कि आप मुझसे सहमत होंगे कि हमारे यहां, केरल में या भारत के दूसरे हिस्सों में, ऐसा बाल साहित्य नहीं है जो हमारे बच्चों को यह बताए कि दूसरे मनुष्यों के साथ ऐसा व्यवहार करना ठीक नहीं है। जब मैं छोटा था तब मैं देखता था कि मेरी उम्र के ऊंची जातियों के बच्चे मेरे पिता और अन्य बड़ी आयु के दलितों को उनका नाम लेकर बुलाते थे। केरल में समझदार, प्रगतिशील और वामपंथी लोग भी अपने बच्चों को यह नहीं सिखाते कि उन्हें दमित वर्गों के बुजुर्गो का, अपने से बड़ों का, सम्मान करना चाहिए। मैंने यह देखा है। इसलिए केंद्रीय प्रश्न यह है कि मानवीय गरिमा के मुद्दे पर हम क्या करें। मानवीय गरिमा पर केवल तब ही चोट नहीं लगती जब कोई पुलिस वाला किसी की गर्दन पर अपने घुटना रखता है। असंख्य अवसरों पर मानवीय गरिमा को चोट पहुंचती है, उस पर हमला होते है। तो हमें संघर्ष करना होगा मानवीय गरिमा को स्थापित करने के लिए, हमें मानवीय गरिमा को महत्व देना होगा। जाति-विरोधी आंदोलनों ने यह किया है और जातिवाद और नस्लवाद के विरुद्ध संघर्ष जारी है। परन्तु ज़रूरी यह है कि अपने बच्चों को बताएं कि उन्हें हर मनुष्य की गरिमा का सम्मान करना है। अफ़सोस कि ऐसा नहीं हो रहा है – केरल में भी नहीं और शेष भारत में भी नहीं। तो केरल की स्थिति का यह मेरा आंकलन है।

पी. सनल मोहन

आपने कहा कि जिस समय नारायण गुरु इजावाओं के आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे हैं उस समय इजावाओं ने पुलायाओं को साथ लेने के मना कर दिया था। क्या आज भी वही स्थिति बनी हुई है? क्या दलित-बहुजनों में आज भी एकता नहीं है? 

देश के अन्य इलाकों के विपरीत, केरल में 19वीं सदी के मध्य में ओबीसी इतनी तेजी से आगे बढ़े कि दलित-बहुजनों के एक मंच पर आने की संभावना ही ख़त्म हो गयी। अगर आप देखें कि केरल में आधुनिक सामाजिक वर्गों का विकास कैसे हुआ तो आप पाएंगे कि यहां के मध्यम वर्ग में शामिल हैं समृद्ध होते ओबीसी, ऊंची जातियों के हिन्दू, सीरियन ईसाई और मुसलमान। इस कारण और इसलिए भी क्योंकि केरल में ऐसे सामाजिक संगठन मौजूद हैं जो 20वीं सदी के आंदोलनों से प्रेरित हैं, दलित-बहुजनों का गोलबंद होना यहां संभव नहीं हो सका। दलित-बहुजनों के मिलेजुले कुछ संगठन हैं परन्तु ज़मीनी स्तर पर उस तरह की राजनैतिक और सामाजिक गोलबंदी नहीं हो रही है। जब अब्दुल नाजेर महदनी ने पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) बनाई तो उन्हें कुछ हद तक इजावाओं और दलितों, विशेषकर दक्षिण केरल में, का समर्थन मिला. परन्तु उनकी संख्या बहुत कम थी। इसलिए दलित-बहुजनों की उस तरह की गोलबंदी नहीं हो पा रही है जैसी होनी चाहिए। एक अन्य कारण यह भी हो सकता है कि वामपंथी पार्टियों की दलित-बहुजन समुदाय में अच्छी पैठ है. यद्यपि भारतीय जनता पार्टी अब उनके एक हिस्से को अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास कर रही है। इसलिए दलित-बहुजनों का संयुक्त संगठन बनाना अब भी एक चुनौती बनी हुई है। संभावनाएं तो हैं परन्तु समस्याएं भीं हैं। दलित और आदिवासी दोनों भूमिहीन हैं और यह उनके बीच एकता का आधार बन सकता है परन्तु इस मुद्दे पर ओबीसी उनका साथ नहीं देंगे। जातिगत पूर्वाग्रह अब भी बहुत मजबूत हैं। इस कारण एक संयुक्त सामाजिक आन्दोलन की संभावना बहुत नहीं दिखती। केरल का सामाजिक जीवन में देश के अन्य हिस्सों की तुलना में अधिक प्रजातान्त्रिक है। यहां देश के कई अन्य हिस्सों की तुलना जातिगत हिंसा और हत्याएं आदि कम होती हैं। परन्तु एक सामाजिक आन्दोलन से सबका जुड़ाव अभी तक संभव नहीं हो सका है। 

केरल में ओणम मनाये जाने का एक दृश्य

क्या वामपंथी दलों का वर्चस्व, दलित-बहुजनों के साथ आने में बाधक है?

बिलकुल. वामपंथी दल, विशेषकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, जाति के आधार पर लोगों के साथ आने के खिलाफ है। वे वर्गीय विभाजन की अजीब से अवधारणा से पीड़ित हैं। परन्तु सामाजिक जीवन में अनुभव बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। और अनुभव यही बताता है कि जाति अब भी महत्वपूर्ण बनी हुई है। वामपंथी कहते हैं कि उनके बीच कोई जातिभेद नहीं है, जाति नहीं है। परन्तु रोज़मर्रा के जीवन में जाति मौजूद है। जीवन के कई मोड़ों पर, जिनमें वैवाहिक संबंध स्थापित करना शामिल है, हमें यह अहसास होता है कि जाति अब भी जिंदा है। हमारे यह कहने से कि जाति नहीं है, जाति गायब नहीं हो जाती। इसलिए हमें इस मुद्दे पर काम करना होगा और उदारवादी राजनीति में दलित-बहुजनों के एक साथ लाने की कोशिश करनी होगी। वर्तमान में केंद्र सरकार में भाजपा है। आरएसएस और भाजपा वर्षों से विभिन्न जातियों के अपने से जोड़ने से प्रयास करते रहे हैं। अतः यह ज़रूरी है कि प्रजातान्त्रिक ताकतें एक साथ आएं इसलिए इन प्रश्नों पर विचार करना ज़रूरी है। परन्तु हमें दलित-बहुजनों के प्रगतिशील तबके, उनके भीतर की प्रगतिशील ताकतों को गोलबंद करना होगा। प्रजातंत्र की रक्षा के लिए एक व्यापक प्रजातान्त्रिक गठबंधन बनाना ज़रूरी है। यह आज की एक चुनौती है। जब तक हम जाति के मुद्दे पर विचार नहीं करेंगे हमारे लिए क्रांतिकारी सामाजिक आंदोलन का निर्माण करना संभव नहीं होगा। 

दलितों और आदिवासियों के सन्दर्भ में विभिन्न दलों की विचारधाराएं कितनी प्रासंगिक या अप्रासंगिक हैं?

हर पार्टी चाहेगी कि दलित-बहुजन, विशेषकर दलित, उसके साथ जुडें। मैंने तथाकथित क्षेत्रीय दलों का भी अध्ययन किया है जो केरल के इस भाग में, जहां मैं रहता हूं, कोट्टयम में, बहुत लोकप्रिय हैं। केरल कांग्रेस है जिसमें ईसाईयों का बोलबाला है। मुख्यतः कैथोलिकों का। कुछ नायर और इजावा भी उनके साथ हैं। परन्तु इसमें बहुतायत कैथोलिक सीरियन ईसाईयों की है। उनके अपने दलित संगठन भी हैं। मैं नहीं जानता कि दलित उनके साथ साथ क्यों जुड़े हुए हैं। उनके कई संगठन हैं, जो उनके समर्थकों, उनके सदस्यों की संख्या बढ़ाने के लिए काम करते हैं। वे सब दलित शब्द का इस्तेमाल करते हैं। मैं नहीं जानता क्यों और किसलिए। हो सकता है कि वे कुछ पद इन लोगों को दे देते हों। मैं दलितों के वहां होने के खिलाफ नहीं हूं सभी को यह अधिकार है कि किसी भी राजनैतिक दल या संगठन से जुडें। मैं कहना यह चाहता हूँ कि ये सभी पार्टियाँ, मुस्लिम पार्टियां भी, चाहतीं हैं कि दलित उनके साथ हों। हिन्दुत्ववादी ताकतें भी यही चाहतीं हैं। तो दलित समुदाय, दलित आंदोलनों और स्वतंत्र दलित संगठनों के सामने विचारधारा का सवाल है। इन हालातों में वे अपना राजनैतिक वजूद कैसे बनाएं। पिछले दस सालों से, या शायद उससे भी कुछ कम समय से, कोट्टयम में सीएसडीएस (चेरमा संभव डेवलपमेंट सोसाइटी) नाम का संगठन काम कर रहा है। उसके सदस्य हजारों में हैं। ये पुलाया और पुराया लोगों का संगठन है, जिन्हें सुधारवादी आंदोलनों के क्रमशः चेरमा और संभव नाम दिए थे। यह संगठन पिछले एक दशक से काम कर रहा है और उसकी केरल में महत्वपूर्ण उपस्थिति है, विशेषकर दक्षिण में जहां हमेशा से पुलाया और पराया लोगों की खासी आबादी रही है। वे राजनैतिक दलों से सौदेबाजी करने की स्थिति में हैं। यह दिलचस्प है कि इतने सारे स्वतंत्र दलित दल और सीएसडीएस जैसी संस्थाएं हैं। वे सब राजनीति के मैदान में एक-दूसरे के साथ मुकाबला करते हैं। निश्चित रूप से वे एक तरह से समाज के प्रजातांत्रिकरण में मददगार हैं परन्तु यह कहना मुश्किल है कि उनकी उपस्थिति का अंतिम नतीजा क्या होया। एक बात पक्की है। लोग यह अच्छी तरह से जानते हैं कि किस तरह कि राजनीति आज हो रही है। वे नवउदारवादी विकास के बारे में जानते हैं, जिसे वे 1990 से होता देख रहे हैं। हम जिस दौर में रह रहे हैं उसमें राजनीति के क्षेत्र में कई दिलचस्प चीज़ें हो रहीं हैं।   

चेरमा संभव डेवलपमेंट सोसाइटी का एक पोस्टर

आदिवासी अब भी हाशिये पर हैं. नहीं क्या?

आप ठीक कह रहे हैं। सन् 1990 के दशक के अंत से दलित और आदिवासी नज़दीक आए हैं, विशेषकर ज़मीन के मुद्दे पर. काफी गोलबंदी भी हुई है। सन 2000 के दशक से शुरू होकर अब तक केरल में ज़मीन के मुद्दे को लेकर बहुत गोलबंदी हुई है और यह दलितों और आदिवासियों के नेतृत्व में हो रहा है। आदिवासी भी इस संघर्ष के अगुआ हैं। बड़ी संख्या में व्यक्ति और समूह अब मुखर हो गए हैं। अतः स्थिति अब वह नहीं रही जो 1990 के दशक में थी। अगर आप 1990 के दशक और 2000 के दशक की तुलना करें तो आदिवासी, ज़मीन, शिक्षा और बहुत से दूसरे मुद्दे महत्वपूर्ण बन गए हैं। अब आदिवासियों में भी एक पढ़ा-लिखा युवा तबका है जो राजनीति में काफी सक्रिय है। मैं वायनाड और अन्य जगहों पर ऐसे कई लोगों को जानता हूं। उन्होंने केरल और राज्य की बाहर से भी पीएचडी और एमफिल जैसे उपाधियां हासिल की हुईं हैं। वे कई छोटे-छोटे समूहों का हिस्सा हैं और वे बौद्धिक स्तर पर बहुत दिलचस्प काम कर रहे हैं। इससे हालात 1990 के दशक और उससे पहले की तुलना में काफी बदल गए हैं। काश वे सब एक मंच पर आ जाएं। यह अभी तो एक दिवास्वप्न की तरह लगता है. परन्तु ऐसा होना असंभव नहीं है। ऐसा हो सकता है.     

(अनुवाद: अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

अनिल वर्गीज

अनिल वर्गीज फारवर्ड प्रेस के प्रधान संपादक हैं

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