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दलित कविताएं वेदना को परिवर्तनकारी स्वर में बदलने का साहित्य

दलित कविताओं के मूल में सामाजिक भेदभाव जनित पीड़ा और हर प्रकार की वंचनाएं हैं। लेकिन वे केवल इस तक सीमित नहीं हैं। दलित कविताओं में शोषण-उत्पीड़न से मुक्ति के स्वर भी हैं। द्विजवादी काव्य के बरक्स दलित कविताओं के विषय, शिल्प और निहितार्थ बता रहे हैं कालीचरण ‘स्नेही’

दलित साहित्य, डॉ. आंबेडकर से प्रभावित और प्रेरित है। सदियों से पीड़ित-शोषित दलितजनों की व्यथा-कथा, दलित साहित्य में संजीदगी के साथ अभिव्यक्त हुई है। दलितों ने अपनी अनुभूतियों को साहित्य में बहुत ही ईमानदारी के साथ बुना है। यही कारण है कि दलित साहित्य को आज व्यापक स्तर पर स्वीकृति प्राप्त हुई है।

“दलित साहित्य, आनंद और मनोरंजन का साहित्य नहीं है बल्कि हिन्दू सभ्यता एवं संस्कृति से दलितों को जो यातना और वेदना मिली है, उसे परिवर्तनकामी स्वर में बदलने का साहित्य है, सम्पूर्ण जनमानस को संवेदनशील बनाने का साहित्य है।”[1]

दलित साहित्य में, अनुमान, कल्पना तथा ईश्वरोपासना नहीं मिलेगी। दलित रचनाकार का स्वयं का दुःख-दर्द, पीड़ा, आक्रोश और दलित समाज का खांटी सच, कविता-कहानी और उपन्यास के रूप में व्यापक स्तर पर सृजित हो रहा है। दलित रचनाकार साहित्य की विविध विधाओं में खुद को अभिव्यक्त कर रहा है। मेरी रुचि कविता में सबसे अधिक है, क्योंकि कविता पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करने में सबसे सक्षम है। कविता का हमारे दिल-दिमाग पर स्थायी प्रभाव पड़ता है।

हिन्दी दलित साहित्य में कविता को सर्वाधिक सशक्त विधा माना जाता है। हिन्दी दलित कवियों की कविताओं ने समाज में परिवर्तन का माहौल पैदा किया है।

कविता के महत्त्व को रेखांकित करते हुए मराठी दलित साहित्य के प्रख्यात कवि नामदेव ढसाल ने कहा है कि “कविता मुझे आकृष्ट नहीं करती तो मैं बड़ा गैंगस्टर होता या फिर चकलाघर का मालिक”। कविता कवि को बदलने के साथ ही सामाजिक बदलाव में भी अहम भूमिका अदा करती आई है। यही कारण है कि कवियों को युगदृष्टा कहा जाता है। कविता, आदमी को मनुष्य बनाने में मददगार है।

दलित कविताओं में दर्ज होती हैं सामाजिक वेदना और वंचना

“समता स्वतंत्रता और बंधुत्व की स्थापना दलित कविताओं का मूल स्वर है, जो फुले-आंबेडकरवादी चिंतन एवं विचारधारा पर आधारित है। एक अर्थ में दलित कविता, अतीत और वर्तमान की सामाजिक एवं सांस्कृतिक आलोचना भी है। वर्चस्वशाली सभ्यता एवं संस्कृति के हजारों वर्ष के इतिहास को प्रश्नांकित कर दलित कविता ने साहित्य की अवधारणा और सौंदर्यबोध के मानदंडों को अर्थांतरित कर नवीन स्वरूप दिया है। आंबेडकरवादी दर्शन एवं विचारधारा से दलित चेतना का जन्म हुआ है।”[2]

सामाजिक बदलाव के लिए कविता एक हथियार की तरह है। ऐसा हथियार, जो पढ़ने वाले को लहूलुहान किए बिना ही घायल कर देता है। “दलित कविता मनुष्यों और समाजों के बीच की खाईयों एवं दूरियों को पाटने का काम करती है। इसका मुख्य ध्येय समता कायम करना है। मनुष्य और प्रकृति के बीच नैसर्गिक रिश्तों के स्थायित्व की ये कविताएं हैं। इन कविताओं में अभिव्यक्त स्वाभिमान, सामुदायिक अनुभव का बोध कराता है। ये कविताएं, अधिकारहीन श्रमशील दलितों के वजूद की कविताएं हैं, साथ ही जुल्म के खिलाफ उनकी आवाज़ की कविताएं हैं। दलित चेतना से लबरेज ये कविताएं, हिन्दू धर्म के ‘गौरवमयी’ तिलिस्म को भेदने की कविताएं हैं, धर्म जाल से मुक्ति की कविताएं हैं, जो हिन्दू व्यवस्था पर इतराने वालों को आत्मचिन्तन करने के लिए बाध्य करती हैं।’’[3]

दलित कवि डाॅ. एन. सिंह ने कहा है कि “कविता लड़ने पर उतारू, बेजुबान आदमी की आवाज है।” कविता की मारक क्षमता अद्भुत है। ओमप्रकाश वाल्मीकि, डाॅ. एस. पी. ‘सुमनाक्षर’, कँवल भारती, असंगघोष, डाॅ. श्यौराज सिंह बेचैन, डाॅ. रजतरानी मीनू, डाॅ. रजनी अनुरागी, डाॅ. नीलम और डॉ. एन. सिंह जैसे दर्जन भर बड़े कवि, अपनी कविताओं के माध्यम से आंबेडकरवादी आन्दोलन को लगातार धार दे रहे हैं। इस समय बहुजनों में जो सामाजिक एवं राजनीतिक चेतना दिखाई दे रही है उसमें डॉ. आंबेडकर एवं कांशीराम के साथ ही दलित साहित्य का, और उसमें भी दलित कविता का, व्यापक योगदान है।

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दलित कविता क्या है? इसका उत्तर है, दलित कविता, दलित समाज की व्यथा-वेदना, खीझ, इच्छा-आकांक्षा और छटपटाहट का रचनात्मक दस्तावेज है। दलितों पर हो रहे अमानुषिक अत्याचार तथा सवर्णी बर्बरता को दलित कवि पूरी शिद्दत के साथ समाज के सामने प्रस्तुत करता है। गांवों में दलितों के प्रति पोंगापंथी पंडितों का पुरातन रवैया बदला नहीं है, वे आज भी दलितों से वैसी ही नफरत और सामाजिक दूरी बनाए रखते हैं जैसी कि उनके पुरखों ने बना रखी थी। गांव के ठाकुरों की सामंती सोच आज भी बरकरार है। वे दलितों को अपना स्थायी गुलाम मानकर व्यवहार करते है। उनकी दृष्टि में दलितों के जीवन का कोई मूल्य नहीं है, उनके स्वभाव में शताब्दियों पुरानी जड़ता और दबंगई आज भी मौजूद है। दलित कविता में इनकी अत्याचारी प्रवृत्ति को बखूबी उकेरा गया है। भारत के गांवों को इन मनुवादियों ने दलितों के लिए यातना शिविरों मेें तब्दील कर रखा है। दलित स्त्रियों की इज्जत आबरू को सवर्णों ने अपने पैरों तले रौंद रखा है। यही कारण है कि दलित कवियों ने अपनी कविताओं में इन बर्बर प्रकृति के अत्याचारियों के विरुद्ध तीव्र आक्रोश व्यक्त किया है। दलित कवि मलखान सिंह की कविता ‘सुनो ब्राह्मण’, तथा ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता ‘ठाकुर का कुआँ’ इसी तरह की रचनाएं हैं।

“अब दलित भी धीरे-धीरे विद्रोही हो रहे हैं, जिसके संकेत कुछ दलित रचनाकारों की कविताओं में मिलने भी लगे हैं। वे इस सम्पूर्ण दुरावस्था का जिम्मेदार व्यवस्था को मानते हैं क्योंकि सामन्ती युग में तो दलित शोषण और अत्याचार के शिकार थे ही, लेकिन आज भी उन पर अत्याचारों में कमी नहीं आई है। उनके मामले में कानून अंधा हो जाता है और पुलिस तंत्र नाकारा। नेता दूसरे राजनीतिक दल को बदनाम करने के लिये इस स्थिति को एक राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करते हैं।  इन सभी के लिए दलित व्यक्ति नहीं, ‘वोट’ होकर रह गया है।”[4]

इसके अलावा, सत्ता की शतरंजी चालें और दलितों के प्रति सरकार का असली दृष्टिकोण किस तरह का है, इसकी अनुगूँज भी दलित कविताओं में सुनी जा सकती है। आरक्षण के प्रति सवर्णों का गुस्सा किस कदर है इसका भी लेखा-जोखा दलित कविता में दर्ज किया जा रहा है। भारत का लोकतंत्र किस ओर जा रहा है? राजनीति में दलितों की क्या औकात है? संसदीय प्रणाली में दलितों को क्या और कितना हिस्सा मिल रहा है? यह सब भी दलित कविताओं में दर्ज हो चुका है। सारांश में भारत में दलितों की दशा और दुर्दशा को ईमानदारी के साथ दलित कवियों ने दलित साहित्य में समाविष्ट कर लिया है।

“साहित्य का काम लोरी सुनाकर जनता को सुलाना नहीं है। साहित्य वह है जो उसकी रोजमर्रा की जिन्दगी में घट रही घटनाओं को उसके सम्मुख रखे, उन पर अपनी राय बनाने में उसकी मदद करे और उनके कारणों की खोज कर उन्हें बेनकाब भी करे। जिससे जनता लामबन्द होकर संघर्ष करने को तत्पर हो सके। कुल मिलाकर वह साहित्य ही है जो आम आदमी के जीवन में परिवर्तन लाने की प्रेरणा दे सकता है, उसके सुख-दुःख में उसके साथ खड़ा रहता है।”[5]

मुझे लगता है कि हिन्दी की समकालीन दलित कविता इस समुदाय के दर्द भरे अतीत को आज के समय संदर्भों में रखकर विश्लेषित कर रही है, जो भविष्य की राह को दमदार करने का प्रयास ही है। अब दलित जनता और कवि यह जानने लगे हैं कि हमारी स्थिति को केवल हमारी राजनीतिक शक्ति ही बदल सकती है। जैसा कि डाॅ. आंबेडकर ने कहा भी था कि- “हम अनुभव करते हैं कि कोई दूसरा हमारे दुःख दर्द दूर नहीं कर सकता और जब तक हमारे हाथों में राजनीतिक शक्ति नहीं आ जाती, हमारे दुःख दर्द भी दूर नहीं हो सकते।” लेकिन दलित वर्ग अभी तक भी अपनी शक्ति को पहचान नहीं पाया है। इसे जगजीवन राम ने भी माना था। वे लिखते हैं, “ये निरीह अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग स्वयं अपनी शक्ति से परिचित नहीं हैं, और यह शक्ति है, इनकी अपार जनसंख्या।” इस अपार जनसंख्या को संगठित करके अपने हक के लिये संघर्ष की प्रेरणा देना ही दलित कविता का उद्देश है। डाॅ. चन्द्रकुमार वरठे ने अपनी पुस्तक की भूमिका में लिखा भी है कि “मुझे लगता है कि भारतीय समाज के सदियों से घुन खाए जख्मी जिस्म का अगर कविता के द्वारा कुछ भी इलाज करने की कवि की इच्छा हो, तो उसे कार्ल मार्क्स और डाॅ. आंबेडकर के बताए रास्ते से जन-जन को परिचित करवाना होगा, सच्ची कविता चाहे जन की हो या मन की हो, उसके लिए सही रास्ता यही है। इसलिए मुझे बार-बार लगता है कि ये दलित कवि, आज जो ‘दर्द के दस्तावेज’ लिख रहे हैं, वे निश्चय ही इस वर्ग के लोगों के लिए एक दिन मशाल बनेंगे, जिसकी रोशनी में ये लोग अपना लक्ष्य स्पष्ट होता देख सकेंगे और उसे प्राप्त करने के लिए संघर्षशील हो सकेंगे, दलित कविता इसके लिए ही पूर्व भूमिका तैयार करने का प्रयास कर रही है।”[6]

दलित साहित्यकारों को हिन्दी के मनुवादी साहित्यकार पसन्द नहीं करते हैं, क्योंकि दलित साहित्यकारों ने इनके सवर्ण पुरखों के लिखे भेदभाव मूलक साहित्य और शास्त्रों को नकार दिया है। इनके तथाकथित ईश्वर को पूरी तरह अस्वीकार कर दिया गया है, जिससे हिन्दुत्ववादी साहित्यकार बेहद गम और गुस्से में हैं। यही कारण है कि वे प्रिंट तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में दलित साहित्यकारों को कभी स्थान नहीं देते। वे अपने साहित्यिक मंचों-संस्थानों एवं साहित्य अकादमी आदि में दलित साहित्यकारों को जाने से हर संभव रोकते रहते हैं।

इसी कारण मनुवादी साहित्यकार, दलित साहित्य को सिरे से खारिज करने पर उतारू हैं लेकिन उनकी हर कोशिश अब नाकाम होती जा रही है।

दलित कविता, सभी भारतीय भाषाओं में लिखी जा रही है। मराठी, गुजराती, कन्नड, तेलुगु आदि में लिखी जा रही, दलित कविताओं ने सामाजिक परिवर्तन के लिए उर्वर भूमि तैयार की है। हिन्दी के दलित कवियों ने अपने पूर्ववर्ती संत कवियों की काव्य परम्परा से तेज और ओज हासिल कर हिन्दी की काव्यधारा को ही बदल दिया है। अब हिन्दी कविता का इतिहास, दलित कविता के बिना नहीं लिखा जा सकता है। हिन्दी की प्रगतिशील काव्य परम्परा को यथार्थ की जमीन से जोड़कर दलित कवियों ने अत्यधिक सशक्त शास्त्र और जीवंत बनाया है। हिन्दी कवियों की लेखनी से सृजित दलित कविता अब विश्व फलक पर दस्तक दे चुकी है। मानवतावाद का परचम, दलित कवियों के काव्य में शान से फहरा रहा है।

संदर्भ :

[1] डाॅ. रामचन्द्र (2014). ‘दलित कविताओं का स्वर परिवर्तनकामी है’, दलित चेतना की कविताएँ, सं. रामचन्द्र, प्रवीण कुमार. नई दिल्ली: स्वराज प्रकाशन. पृ.सं. 7

[2] वही, पृ.सं. 8

[3] वही, पृ.सं. 9

[4] डाॅ. एन. सिंह (1992). ‘हिन्दी काव्य में दलित चेतना’, दर्द के दस्तावेज. सं. डाॅ. एन. सिंह. अलीगढ़: आनंद साहित्य सदन. पृ.सं. 14

[5] डाॅ.एन. सिंह. ‘मेरी ओर से’, प्रतिनिधि कविताएँ. नई दिल्ली: ईशाज्ञानदीप. पृ.सं. 25

[6] डाॅ. एन. सिंह (1992). ‘हिन्दी काव्य में दलित चेतना’, दर्द के दस्तावेज. सं. डाॅ. एन. सिंह. अलीगढ़: आनंद साहित्य सदन. पृ.सं. 15-16

(संपादन : नवल/अनिल/अमरीश)

लेखक के बारे में

कालीचरण 'स्नेही'

वर्ष 2008 में अंतरराष्ट्रीय हिन्दी समिति न्यूयार्क व वर्ष 2001 में भारतीय दलित साहित्य अकादमी, लंदन द्वारा सम्मानित डॉ. कालीचरण 'स्नेही' (20 मार्च 1957 को मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ जिले के कठऊपहाड़ी गांव के दलित परिवार में जन्म) की पहचान हिन्दी साहित्य में दलित साहित्य के हस्ताक्षर के रूप में है। इनकी प्रकाशित कृतियों में 'आरक्षण अपना-अपना' (2007), 'आधुनिक बुंदेली काव्य' (2007), 'जय भारत-जय भीम' (2007), 'दलित विमर्श और हिन्दी दलित काव्य' (2008), 'सुनो कामरेड' (2009) और 'सोनचिरिया बुंदेली दलित काव्य' (2012) के अलावा दलित कहानी संकलन 'दलित-दुनिया' (2009) शामिल हैं। संप्रति लखनऊ विश्वविद्यालय, उत्तर प्रदेश में हिन्दी भाषा व साहित्य के प्रोफेसर हैं।

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