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नारायण गुरू के पूर्व ही शुरू हो गई थी आधुनिकता की ओर केरल की यात्रा : प्रो. पी. सनल मोहन

पी. सनल मोहन बता रहे हैं कि केरल में 19वीं और 20वीं सदी में हुए परिवर्तनों के संबंध में प्रचलित आख्यान को परिवर्धित व संशोधित किया जाना आवश्यक है। इनमें शामिल हैं जाति व्यवस्था को कमजोर करने के लिए अनाम नायकों द्वारा किए गए प्रयास जिनके बारे में हम बहुत नहीं जानते

एक दलित इतिहासविद् की निगाहों से केरल का अतीत एवं वर्तमान   

फारवर्ड प्रेस के साथ अपने साक्षात्कार के इस दूसरे भाग में पी. सनल मोहन बता रहे हैं कि सन् 1920 और 1930 के दशकों के मंदिर प्रवेश आंदोलन के पहले तक इजावा समेत सभी ऐसी जातियों, जो आज ओबीसी या एससी कहलाती हैं, को हिन्दू ही नहीं माना जाता था। कोट्टयम स्थित महात्मा गांधी विश्वविद्यालय में इतिहास के प्राध्यापक और बहुप्रशंसित पुस्तक ‘मार्डनटी ऑफ स्लेवरीः स्ट्रग्लस अगेन्स्ट क्लास इनइक्वलिटी इन केरेला’ के लेखक, सनल मोहन का कहना है कि इस तथ्य के बावजूद कि आज के ओबीसी और एससी को नारायण गुरू के काल में हिन्दू ही नहीं माना जाता था, संघ परिवार गुरू पर कब्जा जमाने का प्रयास कर रहा है। यद्यपि नारायण गुरू एक इजावा परिवार में जन्मे थे तथापि वे लोगों को जाति और धर्म से ऊपर उठने की शिक्षा देते थे और उनकी कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं था।

उन्नीसवीं सदी के केरल के सामाजिक-आर्थिक ढ़ांचे में इझावा समुदाय की क्या स्थिति थी?

नौवीं सदी के ऐतिहासिक दस्तावेजों में इजावा को गुलाम समुदाय बताया गया है, परंतु आगे चलकर इस समुदाय ने गुलामी से मुक्ति पा ली। सन् 1817 में त्रावणकोर की रानी ने एक राजाज्ञा जारी कर सभी गुलाम जातियों को स्वतंत्र घोषित कर दिया। इसका एकमात्र अपवाद वे जातियां थीं, जो कृषि अर्थव्यवस्था का हिस्सा थीं और खेतिहर मजदूर के रूप में काम करती थीं। इस प्रकार हम पाते हैं कि 19वीं सदी में इजावा कृषि श्रमिक के रूप में काम करते थे और अन्य आर्थिक गतिविधियों में भी संलग्न थे परंतु वे गुलाम नहीं थे अर्थात उन्हें जमीन के साथ खरीदा-बेचा नहीं जा सकता था और ना ही किराए पर दिया जा सकता था। वे मुख्यतः कृषि श्रमिक थे जो ऊंची जातियों के जमींदारों से जमीन किराए पर लेकर खेती करते थे। उन्नीसवीं सदी के अंत तक उनमें से कई संपन्न किसान भी बन गए थे। यही केरल के अधिकांश भागों में हुआ, जिसमें मलाबार भी शामिल है, जहां के थिया (इजावा जैसी एक जाति) लोगों ने भी अपनी सामाजिक-आर्थिक हैसियत बेहतर कर ली थी। इस बात की काफी संभावना है कि 18वीं और 19वीं सदी के मध्य वे उन कई बंधनों से आजाद हो गए थे जो गुलाम जातियों पर लागू थे। परंतु जैसा कि मैंने कहा, इजावाओं में खेतिहर श्रमिकों का एक वर्ग भी था यद्यपि उनकी संख्या पुलाया या पराया जातियों से काफी कम थी। अगर आप केरल की श्रमिक जातियां की बात करें – जो वास्तव में खेतों में काम करती थीं, तो हमें यह अंतर करना ही होगा। उन्नीसवीं सदी में आर्द्र भूमि के धान के खेतों में काम करने वालों में से अधिकांश गुलाम जातियों के थे। गुलाम जातियों से मेरा आशय है कि उनमें से अधिकांश दलित थे। हां, इजावाओं का एक छोटा तबका भी शायद कृषि श्रमिक रहा हो।

 नारायण गुरू इजावा समुदाय से थे। उनके अपने समुदाय और अन्य समुदायों में आए परिवर्तनों में उनकी क्या भूमिका थी?

केरल में जो बदलाव आए उनमें नारायण गुरू की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका थी – केन्द्रीय भूमिका थी। यहां यह भी बताना समीचीन होगा कि इजावा समुदाय के सदस्य विभिन्न सामाजिक और आर्थिक गतिविधियों में संलग्न थे। उनमें से कुछ काफी संपन्न थे और व्यापार-व्यवसाय व खेती करते थे। उन्नीसवीं सदी के अंत में इस समुदाय में एक बुद्धिजीवी वर्ग का उदय शुरू हुआ इस समुदाय में बुद्धिजीवियों की एक परंपरा थी जिसकी चर्चा इस समुदाय का अध्ययन करने वाले विद्वान अध्येताओें ने की है। वे लोग संस्कृत के विद्वान थे और आयुर्वेदिक चिकित्सक भी थे। अगर हम नारायण गुरू के जीवन को देखें तो हम पाएंगे कि उन्होंने जिन शिक्षकों से ज्ञान प्राप्त किया वे उन्हीं के सामाजिक वर्ग के थे। अगर आप इजावा लोगों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर नजर डालें तो आप पाएंगे कि वे कई तरह के पेशों में थे। उनमें शारीरिक श्रम करने वाले थे तो बौद्धिक श्रम करने वाले भी थे। उनमें से कुछ शराब के व्यवसाय में भी थे। इस प्रकार यह विविधताओं से भरा समुदाय था और जब नारायण गुरू ने आंदोलन शुरू किया तब उन्हें इन लोगों का समर्थन प्राप्त था। सन् 1905 में इजावाओं ने केरल की पहली औद्योगिक प्रदर्शनी का आयोजन किया। तो इस प्रकार इजावा समुदाय के अंदर एक बहुत शक्तिशाली सामाजिक समूह पहले से अस्तित्व में था. 

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इस सामाजिक समूह में बहुत विविधता थी और लोग अलग-अलग पेशों में थे। इस जाति में अनेक सामाजिक वर्ग थे। मैं मानता हूं कि नारायण गुरू के आंदोलन के जोर पकड़ने का एक कारण यह था कि ऐसे लोग उपलब्ध थे जो इस आंदोलन की आर्थिक मदद कर सकते थे। यह बात दलितों के सामाजिक आंदोलन के बारे में सही नहीं थी क्योंकि अधिकांश दलित कृषि श्रमिक थे। जहां तक दलितों का सवाल है बीसवीं सदी के पूर्वार्ध तक इस स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। जब मैं कहता हूं कि केरल में आए बदलाव में नारायण गुरू की केन्द्रीय भूमिका थी तो मेरा आशय उन सामाजिक आंदोलनों से है जो उन्होंने शुरू किए और उन कामों से जो विचारधारा व ज्ञान के क्षेत्र में उन्होंने किये। वे अध्येता थे, सामाजिक कार्यकर्ता थे, चिंतक थे और सन्यासी भी थे। वे ये सब थे और इस कारण उनका समाज पर काफी प्रभाव था। हम यह भी कह सकते हैं कि वे उस समय के लिहाज से एक बहुत अलग व्यक्ति थे क्योंकि उनका सामाजिक और आध्यात्मिक दोनों क्षेत्रों में दखल और प्रभाव था। अगर हम 19वीं सदी के मध्य में केरल की स्थिति को देखें – मतलब 20वीं सदी के सुधारों से पहले – तो हम पाएंगे कि क्रिश्चियन मिशनरी सोसायटी (सीएमएस) और लंदन मिशनरी सोसायटी (एलएमएस) के तत्वाधान में प्रोटेस्टेंट मिशनरियां त्रावणकोर की अछूत जातियों के बीच काम कर रहीं थीं। वे केरल के दक्षिणी हिस्से (त्रावणकोर) तक सीमित नहीं थीं। वे पूर्वी केरल (मलाबार) में भी सक्रिय थीं, विशेषकर बासेल मिशन। इस कारण उस क्षेत्र, जिसे हम आज केरल कहते हैं, में 20वीं सदी के कथित समाज सुधार आंदोलनों, जाति सुधार आंदोलनों व जाति विरोधी आंदोलनों के उभार के पहले ही बदलाव शुरू हो गए थे। इसके पीछे कई अनजान व्यक्ति थे जिनमें से अधिकांश दलित समुदायों से थे। इजावाओं का एक हिस्सा प्रोटेस्टेंट मिशनरी चर्चों में शामिल हो गया था। इस तरह वहां एक बहुत दिलचस्प तरह का बदलाव हुआ। यह बदलाव महत्वपूर्ण है क्योंकि वह उस दौरान हुआ जब आधुनिक सामाजिक आंदोलन शुरू नहीं हुए थे और ना ही सामाजिक गोलबंदी की शुरूआत हुई थी। आधुनिक राजनीति के उदय के पहले से ये मिशनरियां जातिगत गुलामी के विरूद्ध लड़ रही थीं और गुलाम जातियों के हजारों लोग इन मिशनरियों में शामिल हो रहे थे। एलएमएस के धर्म सम्मेलन कोल्लम से लेकर दक्षिण त्रावणकोर तक विभिन्न स्थानों पर आयोजित होते थे, जिनमें वे इलाके शामिल हैं जो आज के तमिलनाडु का हिस्सा हैं। सीएमएस, कोल्लम के पूर्व के हिस्से में सक्रिय थी। इन सभी क्षेत्रों से हजारों लोग मिशनों के सदस्य बने। इनमें गुलाम जातियों के लोगों के साथ-साथ इजावा भी शामिल थे। फिर तमिल भाषी क्षेत्रों में नाडर लोग थे। उसी समय अय्सावाजी नामक एक शक्तिशाली सामाजिक आंदोलन भी चल रहा था। यह आंदोलन 19वीं सदी में दक्षिण त्रावणकोर क्षेत्र में नाडर समुदाय में शुरू हुआ था। इस आंदोलन के संस्थापक वेकुंडास्वामी थे जिन्हें मुथ्थुकुटी स्वामी के नाम से भी जाना जाता है। उन्हें नाडरों और दूसरे समुदायों द्वारा भी प्रेम और श्रद्धा से कई नामों से पुकारा जाता था, जिनमें अय्या वेंकुडर भी एक था। वे जाति प्रथा के कड़े आलोचक थे और इसके खिलाफ जीवन भर काम करते रहे। सन् 1851 में उनकी मृत्यु हो गई। वे लगभग उन सभी आंदोलनों के अगुआ थे जिन्हें आज हम जाति विरोधी सामाजिक आंदोलन कहते हैं। परंतु यह तब हुआ जब त्रावणकोर के दोनों हिस्सों – उत्तर व दक्षिण – में प्रोटेस्टेंट मिशनरियां काफी सक्रिय थीं। तो इस प्रकार 20वीं सदी के आंदोलनों के पहले ये मिशनरियां थीं और वेकुंडा स्वामी का आंदोलन भी था। मिशनरियां, वेकुंडा स्वामी की आलोचक थीं और वे मिशनरियों की आलोचना किया करते थे परंतु आप यह देखेंगे कि दोनों उनके आसपास हो रही घटनाओं से प्रभावित भी हुए। बीसवीं सदी या उन्नीसवीं सदी के अंत में जो आंदोलन उभरे – जिस काल में नारायण गुरू बहुत सक्रिय थे और उनके बाद अय्यंकाली सक्रिय हुए – उसके बहुत पहले के ऐसे अनेक दलित नायक थे जो विस्मृत कर दिए गए हैं। उन लोगों को उनके धार्मिक समूहों के बाहर नहीं जाना जाता था, परंतु उन्होंने अपने समुदायों में परिवर्तन लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई क्योंकि उनमें से हजारों मिशनरियों में शामिल हो गए और मिशनरियों से जुड़ने से उनकी क्षमताएं और योग्यता बाहर आईं। यह वन-वे ट्रैफिक नहीं था। ऐसा नहीं था कि केवल मिशनरियां इन समुदायों के पास जा रहीं थीं। वे लोग भी मिशनरियों के पास जा रहे थे और कह रहे थे कि मिशनरियां उनके क्षेत्र में आएं और उन्हें शिक्षित करें। आज के कोट्टयम जिले की माला आर्या आदिवासी समुदाय के मामले में ऐसा बड़े पैमाने पर हुआ। एक एंग्लिकन मिशनरी हैनरी बेकर जूनियर उनके बीच गए और उन्हें शिक्षा प्रदान की परंतु वे वहां उस समुदाय के वरिष्ठ सदस्यों के अनुरोध पर गए थे। इस बारे में कई अच्छे शोध उपलब्ध हैं। जो मैं कहना चाहता हूं वह यह है कि श्री नारायण गुरू का आंदोलन हुआ परंतु उसके बहुत पहले से मिशनरियों ने गुलाम जातियों को गोलबंद करना शुरू कर दिया था। यह मेरा मानना है. हां, कई लोग इससे असहमत हैं। सामान्यतः आधुनिक परिवर्तन को  रेखीय, एकआयामी परिघटना के रूप में देखा जाता है। उदाहरण के लिए, इन परिवर्तनों को, जो इन समुदायों में श्री नारायण गुरू के आंदोलन के नेतृत्व में आए, यदि आप ध्यान से देखेंगे तो आपको यह समझ में आएगा कि नारायण गुरू के बहुत पहले से मिशनरियां अछूत गुलाम जातियों को गोलबंद कर रहीं थीं। ये लोग पहले से सार्वजनिक सड़कों का उपयोग कर रहे थे, सफेद कपड़े पहन रहे थे और यह सब उनके दमन और उनके विरूद्ध हिंसा के बीच हो रहा था। तो इसलिए हमें विद्यमान आख्यान को परिवर्धित और संषोधित करना होगा। इतिहास की पुस्तकों में अक्सर यह बताया जाता है कि केरल में परिवर्तन की शुरूआत श्री नारायण गुरू द्वारा अरूविपुरम में शिव (की मूर्ति) की प्राण प्रतिष्ठा के साथ हुई। परंतु हमें इस प्रक्रिया की शुरूआत को इतिहास में, समय में, और पीछे ले जाना होगा जब कई ऐसी पहलें हुईं, विशेषकर गुलाम जातियों के लोगों द्वारा, जिनके चलते जाति व्यवस्था शनैः-शनैः कमजोर पड़ी। 

वर्तमान में जो आख्यान है, वह वैसा क्यों है जैसा वह है? क्या इसका कारण यह है कि दक्षिणपंथी – आरएसएस और भाजपा नायकों पर कब्जा करना चाहते हैं और प्रतिक्रियास्वरुप दूसरे लोग भी उन पर अपना दावा जताने का प्रयास कर रहे हैं और इस प्रक्रिया में उन नायकों के समकालीन या उनके पहले के नायक नेपथ्य में जा रहे हैं?

इस तरह के प्रयास लंबे समय से चल रहे हैं। परंतु जो आधिकारिक आख्यान है – मुझे नहीं मालूम कि मुझे इस शब्द का प्रयोग करना चाहिए या नहीं – वह आख्यान जो स्कूलों की पाठ्यपुस्तकों में पढाया जाता है – उसकी शुरूआत उस परिघटना से होती है जिसे देश के इस हिस्से में ‘केरल में पुनर्जागरण’ कहा जाता है। यह केरल के आधुनिक बनने की प्रक्रिया का एक एकदम अलग विवरण है जो कथित ‘पुनर्जागरण आंदोलनों’ से शुरू होता है और इन पुनर्जागरण आंदोलनों – यद्यपि मैं इस शब्दावली का इस्तेमाल नहीं करता – इनकी शुरूआत श्री नारायण गुरू द्वारा शिव की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा से मानी जाती है। ब्राह्मणवादी व्यवस्था में केवल कोई ब्राह्मण ही मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा कर सकता है। गुरू एक निम्न जाति से थे जो कुछ हद तक अछूत प्रथा का शिकार थी। परंतु उन्होंने मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा की। इस घटना को सुधार आंदोलनों की शुरूआत या उनके एक बहुत महत्वपूर्ण पड़ाव के रूप में प्रचारित किया जाता है। मेरा कहना है कि यह सही नहीं है। आधिकारिक इतिहासों में इस घटना को बहुत महत्वपूर्ण बताया जाता है और इन सुधारकों और जिन लोगों ने इन सुधार आंदोलनों का नेतृत्व किया उन्हें बहुत महत्व दिया जाता है। और वह इसलिए क्योंकि त्रावणकोर राज्य या भारत सरकार ने आगे चलकर उन्हें हिन्दू माना। जबकि हम सब जानते हैं कि मंदिर प्रवेश आंदोलन (जो 1920 और 1930 के दशक में चला) की शुरुआत तक इनमें से कोई भी हिन्दू नहीं था। इजावाओं को कभी हिन्दू नहीं माना जाता था। अब स्थिति बदल गई है और इन सबको हिन्दू कहा जाता है और इसलिए हिन्दुत्ववादी ताकतें इन आंदोलनों और सुधारकों पर कब्जा जमाने की कोशिश कर रही हैं। चूंकि श्री नारायण गुरू आंदोलन अब भी शक्तिशाली बना हुआ है, इसलिए उस पर कब्जा करना आसान नहीं है। परंतु संघ और भाजपा इसका प्रयास कर तो रहे ही हैं। पिछले चुनाव के दौरान श्री नारायण गुरू धर्म परिपालन योगम (एसएनडीपी) के आधिकारिक नेतृत्व ने भारत धर्म जन सेना (बीडीजेएस) के नाम से एक राजनैतिक दल बनाया था। परंतु ऐसे मामलों में अक्सर जैसा होता है – उन्हें श्री नारायण गुरू के विचारों या उनके आंदोलन के विचारधारात्मक पक्ष से कोई लेना-देना नहीं रह गया। बीजेडीएस को भाजपा और आरएसएस की हिन्दुत्व विचारधारा से जुड़ने में कुछ भी गलत नहीं लगा। जबकि हिन्दुत्व, संघ और भाजपा की विचारधारा का मूल आधार है। अगर आप नारायण गुरू की शिक्षाओं या उनके विचारों में आस्था रखते हैं तो आप संघ या भाजपा की राह पर चल ही नहीं सकते। परंतु राजनैतिक मजबूरियां ऐसी हैं कि उन्हें एक दक्षिणपंथी समूह के साथ जुड़ना पड़ रहा है। इस मुद्दे का एक दूसरा पक्ष यह है कि कन्याकुमारी स्थित भारतीय विचार केन्द्र, जो कि आरएसएस का थिंक टैंक है – मुझे नहीं मालूम कि मुझे थिंक टैंक शब्द का प्रयोग करना चाहिए या नहीं – ने श्री नारायण गुरू पर पुस्तकों का प्रकाशन किया है और वे उन पर कब्जा करने का प्रयास कर रहे हैं। यह काम विशेषकर इस केन्द्र के मुख्य चिंतक दिवंगत पी. परमेश्वरम के कार्यकाल में हुआ। नारायण गुरू अपनी अंतिम सांस तक एक सुधारवादी और एक सन्यासी बने रहे। उन्होंने कई बार सार्वजनिक रूप से यह घोषणा की कि उनका किसी जाति से कोई संबंध नहीं है। यद्यपि उनसे जुड़े हुए कुछ लोग यह मानते थे कि वे इजावा हैं चूंकि उनके माता-पिता इजावा थे। परन्तु नारायण गुरू स्वयं जातिगत पहचान से बहुत दूर थे। इसी कारण वे एक दूसरे स्तर पर, एक ऊँचे स्तर पर काम कर सके। परंतु नारायणगुरु के समुदाय में यह सोच नहीं आ सकी। अधिकांश सुधारवादी इजावा स्वयं को हिन्दू मानने लगे, विशेषकर मंदिर प्रवेश आंदोलन (वायकोम सत्याग्रह, गुरूवयूर सत्याग्रह) के बाद से। बल्कि सच तो यह है कि इस आंदोलन ने उनके बीच एक हिन्दू समुदाय की स्थापना की। क्योंकि वे सभी जातियां, जो आज ओबीसी या दलित कहलाती हैं, उनमें से कोई भी उस समय तक हिन्दू होने का दावा नहीं कर सकती थीं। 

पी. सनल मोहन

परंतु हमें इस तथ्य को भी याद रखना होगा कि 19वीं सदी के मध्य के बाद से प्रोटेस्टेंट ईसाईयों में से अधिकांश इजावा समुदाय से थे। सीएमएस के मवेलीकारा में एक पादरी रहते थे। अब हो सकता है कि वहां डायोसिस हो। सीएमएस मिशनरियों की 19वीं सदी की रपटों से पता चलता है कि उनकी धर्म सभाओं में भाग लेने वालों में से 80 प्रतिशत इझावा हुआ करते थे. यही स्थिति केरल के अन्य भागों में थी विशेषकर पूर्व में, जहां बासेल मिशन सक्रिय थी। चर्च ऑफ साउथ इंडिया के 80 प्रतिशत सदस्य पूर्व थिया थे। तो इस प्रकार जिस समय श्री नारायण गुरू का आंदोलन बहुत मजबूत था और गुरू स्वयं जीवित थे तब भी वे ‘धर्म परिवर्तन’ के मुद्दे पर बहुत चिंतित नहीं थे। लोग यह धमकी दे रहे थे कि अगर उन्हें मंदिरों में प्रवेश करने की इजाजत नहीं दी गई तो वे हिन्दू धर्म त्याग देंगे। परंतु गुरू को इसकी चिंता नहीं थी। वे कहते थे कि आपका धर्म चाहे जो हो, सबसे महत्वपूर्ण है एक अच्छा मनुष्य होना। इस प्रकार मैं सोचता हूं कि केरल के समाज को बदलने में गुरू की महती भूमिका थी। 

परंतु गुरू के कई समकालीन भी थे जैसे अय्यंकाली कई मौकों पर गुरू से विचार-विनिमय किया करते थे परंतु गुरू के आंदोलन के कार्यकर्ता, अय्यंकाली को आंदोलन का भाग नहीं मानते थे। यह एक दिलचस्प स्थिति थी और इसके कई कारण थे। यद्यपि दलितों का एक तबका और आरएसएस, अय्यंकाली पर कब्जा जमाकर बहुत प्रसन्नता का अनुभव करेंगे परंतु सच यह है कि इन तत्वों के लिए उन पर कब्जा जमाना संभव नहीं है। उनके कुछ सार्वजनिक वक्तव्य हिन्दुत्व की ताकतों को बेशक बहुत पसंद आ सकते हैं परंतु यदि आप उनके वक्तव्यों की संदर्भ सहित व्याख्या करेंगे और उनके नेतृत्व में चले आंदोलन के इतिहास का अध्ययन करेंगे तो आपको पता चलेगा कि उसमें ऐसा कुछ भी नहीं था जिससे यह सिद्ध होता हो कि अय्यंकाली के विचार आज के हिन्दुत्ववादियों से मेल खाते थे। जो लोग अय्यंकाली पर कब्जा जमाना चाहते हैं, वे कहते हैं कि अय्यंकाली पुलायाओं के ईसाई बनने के खिलाफ थे। उसका कारण – जैसा कि मै उस समय के इतिहास को पढ़कर समझ सका हूं – वह यह था कि अगर पुलाया ईसाई बन जाएंगे तो इससे उनके द्वारा लोगों को एकजुट कर उनके दमनकर्ताओं के खिलाफ लड़ने की उनकी क्षमता में कमी आएगी। परंतु अगर आप पुलाया लोगों के इतिहास का अध्ययन करें तो आपको पता चलेगा कि अय्यंकाली के खानदान के ही कई लोग ईसाई बन गए थे। वे त्रिवेन्द्रम के एलएमएस चर्च का हिस्सा थे। टीएचपी चैंथारसेरी द्वारा लिखित अय्यंकाली की जीवनी में ऐसे कई व्यक्तियों का जिक्र आता है जो अय्यंकाली के आंदोलन का हिस्सा थे, परंतु वे एलएमएस चर्च के सदस्य भी थे। एलएमएस की गतिविधियों से संबंधित एक पुस्तक में उनके स्कूल के दो वाड्यारों (शिक्षकों) – थामस और हैरिस – की चर्चा  है। वे दोनों पुलाया थे और एलएमएस चर्च का हिस्सा थे परंतु इसके साथ ही अय्यंकाली के आंदोलन में सक्रिय भी थे। सन् 1914-15 में ऊँची जातियों ने पुलायाओं पर हिंसक हमले किए। पुलिस रिकार्ड में इन हमलों को दंगा कहा गया है। इन हमलों में पुलाया ईसाईयों को भी निशाना बनाया गया। ऐसा पता चलता है कि उस दौरान साल्वेशन आर्मी के अय्याओं (तमिल परंपरा में पास्टर) पर भी हमले हुए और साल्वेशन आर्मी के चर्चों को जलाकर खाक कर दिया गया। यह सब वेंगानूर क्षेत्र में हुआ जहां के अय्यंकाली थे और जो त्रिवेन्द्रम से कुछ ही दूर स्थित है। एलएमएस के कोल्लम संबंधी अभिलेखों के अनुसार जब भी नायरों और पुलायाओं के बीच हिंसा होती थी तब नायर, कथित हिन्दुओं और ईसाईयों – अर्थात वे लोग जो मिशन के सदस्य बन गए थे – दोनों पर हमले करते थे। कोल्लम में रहने वाले एक मिशनरी ने लिखा कि उनकी धर्म सभा के सदस्य चर्च में नहीं आ पाए क्योंकि उनके पास पहनने को कपड़े ही नहीं थे। उनकी झोपड़ियों को जलाकर राख कर दिया गया था जिसमें उनके घर का एक भी सामान नहीं बचा था। मिशनरी को उनके लिए कपड़ों का इंतजाम करने के लिए ज़रूरी धन इकठ्ठा करने में छह महीने लग गए। इस मिशनरी ने लन्दन स्थित अपने मिशन के मुख्यालय को यह रिपोर्ट दी कि छह माह तक वे लोग चर्च नहीं आ सके। मैंने राज्य अभिलेखागार में कई ऐसे दस्तावेज देखे हैं जो एक दम अलग कहानी कहते हैं। इन संस्थाओं के रोज़मर्रा के काम के इतिहास से पता चलता है कि अय्यंकाली को निश्चित ही पुलाया ईसाईयों का समर्थन प्राप्त था। परन्तु दुर्भाग्यवश, दलित बुद्धिजीवियों का एक तबका इस बारे में कभी बात ही नहीं करता क्योंकि वे सोचते हैं “अरे, इस मामले में दलित ईसाईयों, मिशनरियों आदि को क्यों लाया जाए।’ परन्तु लिखित सामग्री से पता चलता है कि उनकी सोच एक सी थी, सोच ही नहीं, वे एक साथ आन्दोलन का हिस्सा थे, वे मिलकर जातिगत अत्याचारों, दमन और असमानता के खिलाफ लड़ रहे थे। इस मुद्दे पर जब वे एक साथ आते थे तो उनके बीच के बीच के धार्मिक अंतर बेमानी हो जाते थे। यहां कोट्टयम में एक बहुत जाने-माने दलित नेता थे – पमपादी जॉन जोसफ। वे स्कूल अध्यापक थे परन्तु उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी और आगे चल वे मिशनरीज से जुड़ गए और उन्होंने दलितों को गोलबंद किया। उनकी मान्यता थी कि दलितों को अपने धार्मिक भेद भुलाकर एक साथ आना चाहिए। यह 20वीं सदी की शुरुआत की बात है, 1920 के आसपास की। वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने ब्रिटिश संसद को दलित ईसाईयों की समस्याओं के बारे में लिखा। मेरा सोचना है कि हमें उस दौर की सामाजिक जटिलताओं को समझना चाहिए। परन्तु अधिकांश लोग यह करना ही नहीं चाहते। 

अय्या वैकुंदर; नारायण गुरु; 20वीं सदी की शुरुआत में उत्तर केरल में बासेल मिशन की एक फैक्ट्री में काम करतीं महिलाएं

दलितों में धार्मिक विभेद से ऊपर उठकर एकता थी परन्तु इजावा, दलितों के साथ एकजुट होने के लिए तैयार नहीं थे। यह खाई बनी हुई थी। 

उदाहरण के लिए, हम लगभग पूरी 19वीं सदी के दौरान नायरों और इजावाओं के बीच हुई हिंसा के बारे में जानते हैं। इसी तरह इजावाओं ने पुलायाओं के खिलाफ हिंसा की और नायरों ने भी। यह वह सामाजिक स्थिति थी जिसमें लोग फंसे हुए थे। 

जब हम जातिगत हिंसा के इतिहास को देखते हैं तो हम पाते हैं कि किसी जाति के खिलाफ हिंसा करने वाली जाति अक्सर जातिगत पदक्रम में उसके ठीक ऊपर की जाति होती थी। यहां तक कि पदक्रम के सबसे निचले पायदानों पर भी यही होता था। ऊपर के पायदान की जाति, नीचे के पायदान की जाति पर हमलावर होती थी। इस तरह का टकराव होता था। 20वीं सदी के सामाजिक आंदोलनों इन सामाजिक तनावों, टकरावों को कम कर सकते थे। परन्तु हम पाते हैं कि जबरदस्त हिंसा होती रही – जैसे स्कूलों में प्रवेश के मुद्दे पर और इसी तरह के अन्य मुद्दों पर। हमें पता है कि अय्यंकाली के मामले में ऐसा हुआ था। वे एक लड़की को स्कूल में भर्ती करवाने ले गए। लड़की को भर्ती करना दो दूर रहा, उन्हें स्कूल में घुसने ही नहीं दिया गया। इसके बाद स्कूल को आग के हवाले कर दिया गया। इन सभी समस्याओं पर बात होती रही है। इसी तरह, हम पाते हैं कि कई स्थानों पर इजावाओं और दलितों के बीच भी हिंसा हुई। यह इसलिए हुआ क्योंकि श्री नारायणगुरु के क्रांतिकारी विचार, समाज के बारे में उनकी सोच – वह उनके अनुयायियों को स्वीकार नहीं थे। कारण यह था कि वे जानते थे कि अगर समाज में समानता आई तो उनका सामाजिक वर्चस्व समाप्त हो जाएगा। ऐसा ही कुछ चर्च के अन्दर भी हुआ। प्रोटोस्टेंटों में, विशेषकर सीएमएस में, दलित ईसाईयों के विरुद्ध सीरियन ईसाईयों के गोलबंद होने के कई उदाहरण हैं। तो इस तरह की राजनीति विभिन्न जातियों और ईसाईयों के बीच भी होती थी। यह एक जटिल स्थिति थी। इसके मूल में था सामाजिक समानता का डर। जब गुलाम प्रथा के उन्मूलन के लिए गोलबंदी की जा रही थी – और यह काम मिशनरी कर रही थे – तब ऊंची जातियों के ज़मींदारों, जिनमें नायर और सीरियन ईसाई दोनों शामिल थे – को लगा कि अगर समानता हो गयी तो पुलाया और पराया लोग उनके खेतों में, धान के खेतों में काम करना बंद कर देंगे। उन्होंने सरकार के समक्ष याचिका प्रस्तुत कर कहा कि गुलाम प्रथा समाप्त नहीं की जानी चाहिए। उन्हें लगा कि अगर ये लोग स्वतंत्र हो गए, मुक्त हो गए तो अर्थव्यवस्था तहस-नहस हो जाएगी – आर्थिक ढांचा बिखर जायेगा। सन 1850 से लेकर 1950 तक की 100 वर्षों की अवधि के इतिहास में हमें जातिगत हिंसा के कई आख्यान मिलते हैं। दुर्भाग्यवश, इन पर बहुत शोध उपलब्ध नहीं हैं। जन मैंने उस गांव पर शोध किया जहां में बड़ा हुआ था तब मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि लोग उस हिंसा को याद करते थे जो कोट्टयम जिले के उन गांवों में होती थी जहां वे पहले रहते थे और जहां से वे उस इलाके में आए थे  जिसे आज हम केरल का उत्तरी हिस्सा कहते हैं। लोग 1950 और 1960 के दशक को कम्युनिस्ट आन्दोलन से, सामाजिक आंदोलनों से जोड़ते हैं परन्तु इस काल में भी जातिगत हिंसा आम थी और इस हिंसा में बड़ी संख्या में लोगों की जानें जातीं थी। मुझे सचमुच बहुत आश्चर्य हुआ। यह ज़रूरी है कि हम केरल के सामाजिक इतिहास पर प्रश्न उठाएं, विशेषकर 19वीं और 20वीं सदी के सामाजिक इतिहास पर, जिससे हम परिचित हैं। इस इतिहास में हमें सब कुछ बहुत साफ़-सुथरा नज़र आता है परन्तु ऐसा है नहीं।

(अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल)

लेखक के बारे में

अनिल वर्गीज

अनिल वर्गीज फारवर्ड प्रेस के प्रधान संपादक हैं

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