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रमाशंकर यादव विद्रोही को पहले समझिए, फिर उठाइए सवाल

सुल्तानपुर के अहिरी फिरोजपुर गांव में पैदा हुये विद्रोही की कविताएं तो क्रांतिकारी तिजारत का असबाब बन गईं लेकिन उनके ऊपर पहली किताब बनारस के अहिरान चमांव से छपी और अब जब छप ही गई तो खुशी मनाए जाने की जगह उनको यादव बनाए जाने का दुख मनाया जा रहा है। रामजी यादव का विश्लेषण

बहस-तलब

हाल ही में जब बहुत सारी जगहों पर मैंने सामाजिक न्याय को लेकर अपनी बातें रखी तो बहुत सारे समकालीन सचेत मित्रों ने अपनी टिप्पणियों से मुझे उत्साहित किया लेकिन ढेरों ने हतोत्साहित भी किया और मुझे दोनों ही स्थितियों में यह लगा कि अपनी बात को और शिद्दत से और जोरदार तरीके से रखने की जरूरत है। यही समय है जब बिना लाग-लपेट के अपनी बातों को कहना चाहिए। यही वह समय है जब किसी लोभ और लालच का शिकार हुये बिना अपने को दर्ज किए जाने की जरूरत है। यही समय है जब किसी से डरने की जरूरत नहीं है क्योंकि वास्तव में यही वह समय है जब हम सभी के खिलाफ और भी मजबूत षड्यंत्र बुने जा रहे हैं। हमें यह जान लेने की सख्त जरूरत है कि हम जिन स्थितियों और परिवेश से निकलकर यहां तक पहुंचे हैं कि हम बोल सकते हैं, लिख सकते हैं और व्याख्या कर सकते हैं, उन परिस्थितियों और परिवेश में हमें हराने और धराशायी कर देने वाली कौन सी ताकतें हैं। और हमें क्यों अपनी राहों पर आगे बढ़ते हुये उनकी प्रतिक्रियाओं की परवाह नहीं करनी चाहिए। हमें इस बात को लेकर क्यों चिंतित होना चाहिए कि हमारा काम उन्हें अच्छा लग रहा है या नहीं। आखिर जब उन्होंने हमारे किसी काम में कभी दिलचस्पी ही नहीं ली तो फिर अब उनके किसी राय-मशविरे की क्या दरकार है। 

क्या हम नहीं जानते कि वे हर जगह अपने को शीर्ष पर रखने की जुगत में रहते हैं जिससे हमारे दिमाग के किसी-न-किसी कोने-अंतरे में बने रहें और हम हर जगह उनकी प्रोत्साहन के मुंहताज रहें। हमारा मुंहताज होना ही हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है। दबने या संकुचित होने की बजाय ऐसे लोगों से यह सवाल करना चाहिए कि आपने कौन सी जगह बनाई है जहां मैं सम्मान से बैठ सकूं। क्या कोई ऐसी जगह है जो आपके षडयंत्रों और जातिवादी गलाज़त से बजबजा नहीं रही हो? जीवन भर के संघर्षों और रचनात्मक उपलब्धियों के बावजूद क्या आपने उसके योगदान का सही मूल्यांकन किया? 

ऐसे ही पिछले दिनों एक मित्र ने बताया कि अनेक लोगों का कहना है कि हमलोगों ने रमाशंकर यादव विद्रोही को ‘यादव’ बना डाला जबकि वे वास्तव में क्रांतिकारी थे। वे मित्र बहुत आहत थे। संयोग ही है कि हम लोगों ने विद्रोही के मरणोपरांत उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर एक समृद्ध पुस्तक ‘विद्रोही होगा हमारा कवि’ प्रकाशित किया और किताब ने बहुत से लोगों का ध्यान खींचा। किताब लगभग डेढ़ साल की प्रक्रिया में पूरी हुई और इसके लिए संपादक संतोष अर्श ने अपने जान-पहचान के बहुत से लोगों से लिखने का अनुरोध किया। उनमें से बहुत से लोगों ने लिखा भी लेकिन अफसोस कि उनमें से कोई बाभन या ठाकुर नहीं था। पता नहीं क्यों किसी ने आगे बढ़कर कोई एक लेख-टिप्पणी या संस्मरण देने की सदाशयता नहीं दिखाई। कोई क्रांतिकारी भी सामने नहीं आया? ऐसा क्योंकर हुआ होगा? आखिर विद्रोही तो क्रांतिकारी थे? फिर भी क्यों नहीं? एक साधारण सी बात यही समझ में आती है कि या तो वे विद्रोही से परिचित नहीं थे और उनके बारे में कुछ जानते ही नहीं थे या फिर विद्रोही उनकी नज़र में इतने तुच्छ थे कि वे उनके ऊपर कुछ लिखना अपनी तौहीन समझते हैं या फिर विद्रोही इतने बड़े क्रांतिकारी कवि थे कि तमाम लोगों की छद्म क्रांतिकारिता का मुखौटा उतर जाता। 

जनकवि रमाशंकर यादव विद्रोही

लेकिन ठहरिए। तस्वीर का दूसरा रुख यह है कि किसी दलित लेखक ने भी विद्रोही पर कुछ लिखने की जहमत नहीं उठाई। शायद इसलिए कि विद्रोही का व्यक्तित्व और कृतित्व उनके दालित्य का खोखलापन उजागर करने वाला साबित होता। या शायद इसलिए कि विद्रोही की कविताओं के सामने दलित कविता काफी बौनी साबित हो जाती। विजन, ऐतिहासिक समझ, रचनात्मकता, काव्य सौष्ठव, शब्द चयन, अभिव्यक्ति सामर्थ्य, प्रतीकों, रूपकों, अर्थ गांभीर्य और प्रभाव के मामले में विद्रोही दलित कवियों से मीलों आगे हैं। और संभवतः इसलिए दलित लेखक और आलोचक नहीं चाहते थे कि बड़ी जुगत से बनाया उनका घरौंदा क्षतिग्रस्त हो। इसका तात्पर्य क्या है? यह कि विद्रोही न सिर्फ जीते जी बल्कि मरने के बाद भी बौद्धिक छल के शिकार बने हुये हैं। बेशक वे अब किसी परिचय के मुंहताज नहीं हैं लेकिन समकालीन जनकविता में अपने बेमिसाल और अभूतपूर्व योगदान के लिए उन्हें जातिवादी सोच से बाहर व्यापक रूप से याद करने की जरूरत है जो कि हुआ ही नहीं बल्कि आरोप दूसरे लगाने की निंदनीय कोशिश की जा रही है। 

इसका क्या रूप निकलता है? यही कि सुल्तानपुर के अहिरी फिरोजपुर गांव में पैदा हुये विद्रोही की कविताएं तो क्रांतिकारी तिजारत का असबाब बन गईं लेकिन उनके ऊपर पहली किताब बनारस के अहिरान चमांव से छपी और अब जब छप ही गई तो खुशी मनाए जाने की जगह उनको यादव बनाए जाने का दुख मनाया जा रहा है। कितनी अजीब बात है। विद्रोही खुद अपने अहीर होने की बात पर कहीं शर्मिंदा नहीं हैं बल्कि कहते हैं कि ‘मैं अहीर हूं और यह दुनिया मेरी भैंस है’। और अब जब कि अपने लोगों के बीच यशकायी होकर पसर रहे हैं तब आपको उनके अहीर बनाए जाने पर ही ऐतराज हो रहा है। आखिर वे किस तरह के अहीर हैं? इसे जानने के लिए उनकी अवधी कविताओं की दुनिया की यात्रा कीजिये। वे छोटी काश्त वाले किसान और चरवाहे हैं। उनकी नानी दही बेचती हैं और दादी खेती-गृहस्थी में खपी हैं और कथरी सीती हैं। बुढ़ापे में भी इसलिए सुई में डोरा डाल लेती हैं क्योंकि आंखों में नूर मियां का सुरमा लगाती हैं। विद्रोही ऐसे अहीर हैं जो नूर मियां के पाकिस्तान चले जाने से इसलिए दुखी हैं क्योंकि नूर मियां ने उन्हें अपना नहीं समझा और पाकिस्तान चले गए। असल में विद्रोही उन करोड़ों अहीरों के प्रतिनिधि हैं जो दुर्धर्ष श्रम से अपने जीवन की गाड़ी हांक रहे हैं। जो भूमिहीन किसान, खेतिहर मजदूर, मिस्त्री, अढ़िया ढ़ोने वाले, पल्लेदारी करने वाले, चरवाही करने वाले और बोझ ढोने वाले, वंचित, शोषित और बहिष्कृत हैं। वे उन लाखों अहीरों से कोई वास्ता नहीं रखते जो किसी न किसी प्रकार इस व्यवस्था में जगह बनाकर सेवा कर रहे हैं और कृष्ण की भक्ति और यदुवंश गौरव में लिथड़े हैं। विद्रोही ऐसे क्रांतिकारी हैं कि जो यादव पोंगापथी और सांप्रदायिक होगा उसे पचेंगे नहीं। वे जिनकी तरजुमानी करते हैं वे वंचित और सताये हुये लोग हैं। उनके पाठक यदुवंश गौरव में जीनेवाले हो ही नहीं सकते। असल में ब्राह्मणवाद और जातिवाद के षडयंत्रों के शिकार और आजीवन उपेक्षित और बहिष्कृत विद्रोही इतिहास के ऐसे ही उपेक्षितों और बहिष्कृतों के कवि थे। उनका यादवीकरण कौन कर सकता है? क्या आग को जाति में बांधा जा सकता है? 

असल में विद्रोही वह अहीर हैं जो ‘हैव नाट्स’ है। इसलिए वह देहाती सौन्दर्य का महान गायक हैं और वस्तुतः वह श्रमजीवियों और किसानों की खुशियों और उन खुशियों के छोटे-छोटे माध्यमों के गायक हैं। इसीलिए जब वह गाता है तो खुशी उसके शब्दों से छिटककर बिखरती हुई मालूम देती है और विभोर होकर जब उसके शब्द पकड़िए तब वह आपको यथार्थ के ऐसे बीहड़ में ले जाएगा कि आगे चकित और निरुत्तर होने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं बचता। गोया किसी ने अपनी खुशी कहते-कहते अचानक दुखों की बारिश कर दी हो। खुशी के बीच अवसाद का ऐसा ऊंचा वितान एक ऐसे रचनात्मक स्रोत की ओर इशारा करता हुआ प्रतीत होता है जहां इतनी बातें, इतने दृश्य, इतनी पीड़ा, इतनी तार्किकता, इतना विक्षोभ और इतनी आग है कि कितना भी कहिए न जाने कितना अनकहा रह जाता है। कितना भी लिखिए लेकिन अपरिमित अनलिखा छूट जाता है वह कभी खत्म ही नहीं होता।

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उनकी एक दूसरी अवधी कविता है नापि कय बंटाय लेब । यह कविता विद्रोही की उस मनश्संरचना की ओर इंगित करती है जो जितनी आकर्षक और बेधक है, उससे कहीं जटिल है और वस्तुतः यही जटिलता उनको दो टूक और तल्ख तो बनाती ही है, उन्हें एक ऐसे विज़नरी के रूप में भी विकसित करती है जो अपने समय के साथ ही इतिहास और भविष्य को भी साफ-साफ देख सकता है। कविता शुरू होती है बचपन से। बचपन के आह्लाद से – बिरहा गाते हुये ढेला सधाने की बात है। ढेला सधाना माने निशाना लगाकर ढेला मारना। निशाना लग जाने पर विजयी होने की खुशी में गाने लगना। लेकिन इसमें एक और भी चीज निहित है। किसान प्रायः गीत गाते हुये खेत के काम करता है। तो क्या विद्रोही बिरहा गाते हुये खेत के ढेलों को तोड़कर बुवाई लायक भुरभुरी ज़मीन बनाने की बात कर रहे हैं? हो सकता है। आगे वे कहते हैं कि हमलोग तीर-धनुष और गुलेल खेलेंगे और बारात करेंगे यानी बारात में जाएंगे और दूल्हे के मां-बाप द्वारा लुटाये गए पैसों को लूटेंगे और भेड़े तथा भैंसे को घेरकर लड़ाएंगे। जिन लोगों ने भेंड़े और भैंसे को लड़ते देखा होगा वे ही उस रोमांच को जान सकते हैं। अन्य लोगों के लिए यह अनबूझा खेल होगा। 

ज़ाहिर है ये दृश्य और इनकी खुशियां अनमोल हैं। उनमें जो रोमांच है वह दुर्लभ है। उनमें जो मज़ा है वह कहीं नहीं है। लेकिन यह रोमांच चार ही पंक्तियों में है। उसके बाद दृश्य बदल रहा है। उसके बाद खुशी का रोमांच हार-जीत के फैसले में रूपांतरित होने जा रहा है और बचपन के उस वैभव और उसके माल-असबाब के बंटवारे का समय आ रहा है। उसके बाद पैना-पैना यानी भैंसों और गायों को हांकने वाले डंडे से और रस्सी से सबकुछ नाप लिया जाएगा। गाय-भैंस, बाग-बगीचा, घर-दुआर, फटी कथरी-दरी-गलीचा और पांव की पनही तक बांट लिया जाएगा। यहां तक कि बाप की खोपड़ी के बालों को भी बांट लिया जाएगा। बाप भी बंटेगा और मां भी बंटेगी। दीया और माचिस के अलावा सुई में डाला गया धागा और गांठ का धागा भी बंटेगा। यहां तक कि फूटा हुआ दीया और घूरे में पड़ा हुआ लत्ता, भूमि-भूमिहार, धोबी-धरकार, पटवारी, नाई, कहार, बढ़ई-लुहार, कुम्हार, फूटी हुई चिलम, गुरु-पुरोहित, माता-भवानी देवी-देवता और देवताओं की जो घरिया माने खिलौने जैसा घड़ा सब कुछ बंटेगा। अगर नहीं बंटा तो मूसल से मारकर सबकुछ नापूंगा और बंटवा लूंगा। यह कविता कैसे पढ़ी जाय? वास्तव में यह कविता विद्रोही की चेतना का प्रस्थान बिंदु है। वे खेल में हैं लेकिन खेल भी उनके लिए कोई मज़ाक का या अगंभीर माध्यम नहीं है। वे वहां भी निर्णायक मुद्रा में हैं और निर्णायक भी बहुत तल्ख हैं। और यह तल्खी एक खुशी से शुरू होती हुई जब अपने चरम पर पहुंचती है तब एक भीषण सच की ओर संकेत बन जाती है। अब एक बार फिर से उस कविता कि ओर चलिये जिसकी तीन पंक्तियां छूट गई थीं। वह कविता एक बालक की खुशी से शुरू होती है और क्रमशः एक तंत्र की व्याख्या बन जाती है। और वह बच्चा! वह तो गोया आर-पार के मूड में है – वह अपनी मां से बीच अकास में दीया जलाने को कह रहा है और दही बिलोने से निकले मक्खन को खौलाकर घी निकालने की बात कह रहा है, जिससे मां की इज्जत और हमारे कहने की लाज रह जाती। अब सारी कविता के संदर्भ इतने व्यापक हो जाते हैं कि लगता है कवि पूरे शोषण तंत्र से लड़ने के लिए अपनी पैदावार के उपयोग से चेतना का दीया जलाना चाहता है और दर्जनों लोगों की खुराक बनाने की जगह अपने परिश्रम के हासिल को अपने लिए सुरक्षित रखना चाहता है। यह वस्तुतः आत्मनिर्भरता और स्वावलंबन की बात है। यह आज़ादी की बात है।

विद्रोही की अवधी कवितायें उनकी काव्य-चेतना के विकास की कविताएं हैं। ये एक कवि का अपनी मातृभाषा में आंख खोलने और अपना विश्व-दृष्टिकोण बनाने की कविताएं हैं और आगे चलकर जो विद्रोही की प्रखर राजनीतिक चेतना विकसित हुई वस्तुतः ये कविताएं उसी की सीढ़ी हैं। एक अन्य कविता मारि कय मुआय देब, जरि से मिटाय देब देखना चाहिए। इस कविता को पढ़कर समझ में आता है कि कविता में विद्रोह कैसे आता है। आता है तो एक चलती हुई कहानी की तरह जिसके बीच में कोई ऐसी बात होती है। ऐसा मोड़ आता है कि कहानी की राह बदल जाती है। उसका अर्थ और उसकी ध्वनि बदल जाती है। और इसी में हम उस विद्रोही को अंखुआते देख सकते हैं जो क्रूरतम और बर्बरतम व्यवस्था द्वारा ध्वस्त और बर्बाद किए जाने के हर षड्यंत्र के बावजूद न पागल होता है, न समझौतावादी होता है और न ही आत्महत्या करता है न पलायन करता है। वह लड़ता है और लड़ते हुये शहीद हो जाता है। यह कविता भी बचपन के वैभव से ही शुरू होती है जिसमें इस पार कवि की भैंस और पड़िया चर रही हैं और पार उसका लाल बछड़ा चर रहा है। कवि कह रहा है कि जब तक मेरी बांसुरी बजती रहेगी तब तक शेर डरता रहेगा। अब इस बात पर ध्यान दीजिये कि बांसुरी बजाने की क्या स्थिति है। मुहावरा है चैन की बंसी बजाना। चैन की बंसी वही बजा सकता है जिसके घर में अनाज हो लेकिन वहां चूहे दंड न पेलते हों। जिसके खूंटे पर भैंस हो लेकिन बिसुकी हुई न हो। जिसके दरवाजे पर बैल हों लेकिन निकलुआ और मरकहे न हों। जिसके बच्चे हों लेकिन आवारा और कामचोर न हों। दूसरे शब्दों में जो आज़ाद हो। और अगर आज़ाद होगा तो बांसुरी बजाएगा ही और जब तक बांसुरी बजेगी तब तक उसके पशुओं पर हमला करने की औकात शेर में न होगी। लेकिन बांसुरी बजाने वाले इस अहीर छोकरे का परिचय देखिये जो कहता है कि मैं बांसुरी जरूर बजाता हूँ लेकिन मैं कृष्ण नहीं हूं और ना ही मेरा गांव किसी नदी के किनारे है। मैं तो बिरहिया मनई हूं जो गांव-शहर को फूँकते-तापते घूम रहा हूं और दोस्त, तुमसे बता रहा हूं कि समय बहुत खराब है। 

और आगे का संदर्भ समझने के लिए पहले इस कविता की लय को समझ लिया जाय और साथ ही साथ विद्रोही की लय को भी तब यह समझा जा सकता है कि वास्तव में यह आदमी यथार्थ के बीहड़ में कैसे उतरता होगा। विद्रोही अवधी की स्थानीयता की वह लय आत्मसात कर लेते हैं जो एक कथासूत्र के साथ आगे बढ़ती है और ज़िंदगी और व्यवस्था की एक सच्चाई की परतें खोलती जाती हैं, जो होती तो हमारे आसपास रहती हैं, लेकिन जब विद्रोही के शब्दों में पढ़ते हैं तो अवाक रह जाना पड़ता है। मैं इस बात को विद्रोही के विज़न और चेतना के विकास के रूप में देखता हूं जो आगे चलकर उनकी सम्पूर्ण काव्य-चेतना और राजनीतिक प्रखरता में ढल जाती है। शायद इसीलिए विद्रोही एक अनथक कवि-योद्धा की तरह सक्रिय रहे और उनके सरोकार व्यापक जनता से जुड़े रहे। अब जरा इस कविता के कथानक की ओर चलिये। विद्रोही कहते हैं – मैं तो छोटा सा लड़का हूं उबटन से जिसकी मालिश होती है आंखों में डिठौना लगता है। ये दोनों क्रियाएं गहरे दुलार का प्रतीक हैं और जिसे इतना दुलार मिला उसके नमक रोटी के आगे छप्पन भोग भी फीका है। यह देहातों में माना जाता है। विद्रोही कहते हैं – इसीलिए मैं यह बिरहा गाता हूं और इसके अलावा मुझे कोई आल्हा और मल्हार नहीं आता। लेकिन मुझे सीधा जानकर मेरा सत्तू मत छीनो नहीं तो गेहूं-चावल के रूप में हर्जाना देना पड़ेगा। जरा ध्यान दीजिये कि बिरहा पौरुष और वीरत्व का गान है। यह वस्तुतः जनता का गाना है। विद्रोही ने आजीवन इस त्वरा को बरकरार रखा। आल्हा सामंती विरुदावली है और मल्हार भी अभिजात्य गान है और वे कह रहे हैं कि ये दोनों ही मुझे नहीं आते। 

ऐसे विद्रोही के यादव होने से क्रांति कम हो सकती है क्या? 

(संपादन : नवल/अनिल)


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रामजी यादव

रामजी यादव एक राजनितिक कार्यकर्ता के रूप में विभिन्न संगठनों में सक्रिय रहे हैं। उन्होंने कानपुर के मिल मज़दूरों और रेलवे कर्मचारियों को संगठित करने में भी भूमिका निभाई। उन्होंने 100 से अधिक वृत्तचित्रों का निर्माण और निर्देशन भी किया है। उनके प्रमुख वृत्तचित्र हैं 'गाँव का आदमी', 'पैर अभी थके नहीं', 'एक औरत की अपनी कसम', 'यादें', 'समय की शिला पर', 'कालनदी को पार करते हुए', 'विकल्प की खोज', 'वह समाज जो जनता का है', 'जलसत्ता', 'द कास्ट मैटर्स', और 'इस शहर में एक नदी थी' आदि। उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं, 'अम्बेडकर होटल', 'खेलने के दिन', 'भारतीय लोकतंत्र' और 'दलित सवाल', 'भारतेंदु', 'ज्योतिबा फुले', 'गिजुभाई', 'रामचंद्र शुक्ल', 'आंबेडकर संचयन'। इन दिनों वे ‘गांव के लोग’ त्रैमासिक का संपादक कर रहे हैं।

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