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दलेस के ऑनलाइन मंच पर प्रेमचंद से लेकर ओमप्रकाश वाल्मीकि के रचनाकर्म पर विस्तृत चर्चा

नहीं बदलना यानी जड़ बने रहना कोई अच्छी चीज नहीं है। प्रेमचंद के समय से लेकर अब तक एक लंबा समय बीत चुका है और इतने समय में समाज को बदल जाना चाहिए था। मसलन, इतने सालों में दलितों का मंदिर प्रवेश का मुद्दा खत्म हो जाना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ

प्रेमचंद को आप कम्युनिस्ट या आंबेकरवादी खांचे में फिट नहीं कर सकते हैं। उनकी कुछ सीमाएं हैं। लेकिन वे बहुजन विमर्श को साहित्य में लाने वाले पहले साहित्यकार थे । मसलन, प्रेमचंद ने 1936 में लिखित ‘गोदान’ उपन्यास में पंडित मातादीन के प्रति दलित वर्ग का जो व्यवहार दिखाया है उतना प्रगतिशील लेखन तो आज भी साहित्य में नहीं किया जा रहा है। 

ये बातें सुप्रसिद्ध बहुजन लेखक सुभाष चंद्र कुशवाहा ने दलित लेखक संघ (दलेस) के तत्वावधान में ऑनलाइन परिचर्चा को संबोधित करते हुए कहीं। 

यह परिचर्चा दलेस की अध्यक्ष अनीता भारती की अध्यक्षता में बीते 4 दिसंबर को शाम सात बजे शुरू हुई। करीब एक घंटे की इस परिचर्चा में दलेस के मंच पर फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित किताब “प्रेमचंद की बहुजन कहानियां” (संकलन व संपादन : सुभाष चंद्र कुशवाहा), डॉ. चैन सिंह मीना की पुस्तक “हिंदी दलित कविता रचना प्रक्रिया”(भावना प्रकाशन) और डॉ. कार्तिक चौधरी द्वारा संपादित किताब “दलित साहित्य की दशा-दिशा” (अधिकार प्रकाशन) का विमोचन भी किया गया। सुभाष चंद्र कुशवाहा, डॉ. चैन सिंह मीना व डॉ. कार्तिक ने परिचर्चा में भागीदारी की।  

परिचर्चा की शुरूआत में दलेस की अध्यक्ष अनीता भारती ने तीनों पुस्तकों के बारे में बताया। उन्होंने कहा कि दलित-बहुजन साहित्य समतामूलक समाज का निर्माण करता है। सामाजिक बदलाव में इस तरह के साहित्यिक प्रयासों की भूमिका अहम है। 

वहीं अपने संबोधन में सुभाष चंद्र कुशवाहा ने “प्रेमचंद की बहुजन कहानियां” के संकलन के पीछे के कारणों पर विस्तार से चर्चा की। उन्होंने कहा कि वर्तमान में देश और समाज जिन विषम परिस्थितियों से गुज़र रहा है उनसे समाज का कौन सा अंग किस रूप से प्रभावित हो रहा है, इसे ही ध्यान में रखकर उन्होंने प्रेमचंद की 19 कहानियों का चयन किया है। इन कहानियों को उनके मूल स्वरूप में पुस्तक में प्रकाशित किया गया है। इसका उद्देश्य यही है कि पाठक प्रेमचंद के उस दृष्टिकोण को समझें, जिसके आधार पर उन्होंने इन कहानियों की रचना की। उन्होंने कहा कि उनका खास ज़ोर इस बात पर रहा कि पढ़ते समय पाठक को लगे कि ये बातें भले ही प्रेमचंद ने बीसवीं सदी के पहले साढ़े तीन दशकों में लिखीं परन्तु उनकी प्रासंगिकता जस की तस है।  इतने सालों में भी समाज नहीं बदला। जातिगत भेदभाव आज भी हमारे समाज की सच्चाई है। 

अनीता भारती, सुभाष चंद्र कुशवाहा, कार्तिक चौधरी और चैन सिंह मीना

कुशवाहा ने कहा कि नहीं बदलना यानी जड़ बने रहना कोई अच्छी बात नहीं है। प्रेमचंद के समय से लेकर अब तक एक लंबा समय बीत चुका है और इतने समय में समाज को बदल जाना चाहिए था।  मसलन,  इतने सालों में दलितों के मंदिर प्रवेश का मुद्दा खत्म हो जाना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि वे यह मानते हैं कि मंदिर जाने का कोई मतलब या सरोकार नहीं है। आदर्श स्थिति तो यही होगी कि कोई बहुजन मंदिर जाए ही नहीं। फिर भी यदि कोई बहुजन जाना चाहता है तो उसे रोका क्यों जाए। 

‘गोदान’ की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि दलित वर्ग द्वारा पंडित मातादीन का जनेऊ तोड़ दिया जाता है और उसके मुंह में हड्डी लगाकर उसे जाति भ्रष्ट कर दिया जाता है। उसे जाति भ्रष्ट कर अपनी जाति में शामिल करने का उपक्रम जितने क्रांतिकारी तरीके से दलित वर्ग करता है वैसा तो आज भी कहीं नहीं होता। आज हाशिए के समाज पर ज़्यादा आक्रमण हो रहे हैं। ऐसे में प्रेमचंद की कहानियां ऊर्जा देती हैं। उन्होंने फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित किताब “प्रेमचंद की बहुजन कहानियां” पर विस्तार से बात करते हुए कहा कि इस संग्रह की पहली कहानी ‘बलिदान’ है जो 1918 में “सरस्वती” में छपी थी। यह वह समय था जब गांधी हिंदी राज्यों में प्रवेश कर चुके थे और खिलाफ़त आंदोलन-असहयोग आंदोलन की उनकी रणनीति बन चुकी थी। उसी काल में जमीदारों के विरुद्ध हाशिए के समाज का जबरदस्त विद्रोह दिखता है अवध प्रांत में। इतना जबर्दस्त प्रभाव था अवध आंदोलन का कि लखनऊ से इलाहबाद के बीच लाखों किसानों को आम के पेड़ों पर लटकाकर फांसी दी गई थी। उस दौर में लगान के अलावा  187 नजराने (उपकर) किसानों पर लगाए जाते थे। गोधूलि के समय गांव वापिस लौटते किसान पर धूल उड़ाई टैक्स लगाया जाता था। ‘बलिदान’ कहानी इसी नज़राने पर है। किसान आत्महत्या को कथा साहित्य के केंद्र में सबसे पहले प्रेमचंद ही लाते हैं। वर्तमान में भी परिदृश्य वही है। किसानों की आत्महत्या के मामले बढ़े हैं। किसान आत्महत्या को केंद्र में रखकर कहानी लिखने वाले प्रेमचंद पहले कहानीकार रहे। उनके उपन्यास “गोदान” में भी होरी किसान आत्महत्या कर लेता है।

वहीं ‘विध्वंस’ कहानी में भुनगी नामक बहुजन महिला पात्र है जो भाड़ भूजतीं है। वह जमींदार के बागों से पत्ते बटोरकर भाड़ जलाती थी। जमींदार बिना मेहनताना दिए अपना अनाज भुनवाने के लिए भेजता है और न भूनने पर भाड़ तोड़कर, पत्तों के ढेर में आग लगा देता है। परंतु, भुनगी गिड़गिड़ाती नहीं है। आग में कूद जाती है और आग की चपेट में उस ब्राह्मण का घर जल जाता है जो जमींदार को उकसाता है। यह पिछड़े वर्ग की एक स्त्री का सामंतवाद के खिलाफ विद्रोह और विध्वंस का चित्रण है।

इसके अलावा सुभाष चंद्र कुशवाहा ने ‘सवा सेर गेहूं’, ‘बाबा जी का भोग’ और ‘हीरा-मोती’ सहित अनेक कहानियों के बारे में बताया। 

वहीं डॉ. कार्तिक चौधरी ने अपनी किताब ‘दलित साहित्य की दशा और दिशा’ पर अपनी बात रखते हुए कहा कि इस किताब में कुल 25 आलेख संकलित हैं। पुस्तक में समकालीन परिप्रेक्ष्य में दलित साहित्य किस रूप में ढल रहा है, उसकी परख की गई है। उन्होंने कहा कि दलित साहित्य की चौथी पीढ़ी सक्रिय है और इस बीच दलित साहित्य में किस तरह के बदलाव हुए हैं, यही खोजबीन इस पुस्तक के केंद्र में है। पुस्तक में मैने बताया है कि दलित साहित्य मनोविज्ञान का साहित्य है जिसमें साहित्यकार मनोवैज्ञानिक के तौर पर सामने आता है। उनके पास जोखिम  उठाने और चुनौती स्वीकार करने का साहस है। उन्होंने कहा कि उन्होंने यह बताने की कोशिश की है कि कैसे मनोचिकित्सक की तरह दलित साहित्यकार शब्दों के अर्थ को का वैज्ञानिक धरातल पर परीक्षण कर एक समतामूलक समाज के निर्माण पर ज़ोर देता है क्योंकि उसके लेखन में मौलिकता के साथ साथ यथार्थ और खुद के जीवन की सच्चाई भी है। दलित साहित्य, मानवतावादी साहित्य को हमारे समक्ष रखकर आनंदवादी परंपरा को चुनौती देता है ।

उन्होंने बताया कि संग्रह का पहला आलेख ‘दलित साहित्य की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि’ को जयप्रकाश कर्दम ने लिखा है। वे लोक की परंपरा से दलित आलोचना को जोड़ते हैं। वे बताते हैं कि जो साहित्य मानवीय होगा वही मुकम्मल साहित्य बनेगा। उनकीयह  तर्कदृष्टि महत्वपूर्ण है क्योंकि हिंदी साहित्य में एक बड़ा वर्ग उपेक्षित रहा है। दलित साहित्य का जुड़ाव बहुजन लोक की तरफ है। 

दूसरा आलेख पश्चिम बंगाल के समालोचक विजय कुमार भारती का लिखा ‘दलित साहित्य का समकालीन परिप्रेक्ष्य’ है। अपने आलेख में उन्होंने 30-35 लेखकों के बारे में बताया है। तीसरा आलेख सूरज बड़त्या का है जिसका शीर्षक है – ‘भारतीय समाज का क्रूर सच जूठन आत्मकथा’। “जूठन” के बिना दलित साहित्य की बात नहीं हो सकती। चौथा आलेख कौशल पंवार का शोधपरक लेख है। यह आलेख धर्मशास्त्रों में शूद्रों व महिलाओं के जीवन पर है। 

यह भी पढ़ें : प्रेमचंद की बहुजन कहानियाँ और जाति के प्रश्न

डॉ. कार्तिक ने दलित आंदोलन में छद्म भेषधारियों की पहचान और बाज़ारवाद के परिप्रेक्ष्य में दलित साहित्य की भूमिका पर जोर देते हुए कहा कि पूंजीवादी समय में जुलाहा साड़ी सेंटर, मोची फुटवियर जैसे दलित समाज के नाम पर दुकानें देखने को मिलेंगीं। वर्षों से जिनकी अवहलेना हुई, समाज में उनके नाम की चमचमाती ब्रांडिग हुई है। पर ये दुकानें किनकी हैं? दलित साहित्यकारों को इस पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है।

परिचर्चा के अंतिम वक्ता डॉ. चैन सिंह मीना ने अपनी किताब “हिंदी दलित कविता- रचना प्रक्रिया” पर बात रखी। उन्होंने कहा कि साल 2015-16 में इस पुस्तक की रूपरेखा बनी। इसमें कुल 20 अध्याय हैं, जिनमें अलग-अलग तरीके से हिंदी दलित कविताओं को समझने का प्रयास किया गया है। पहला अध्याय ‘दलित कविता असहमति की परंपरा और इतिहासबोध है’। उन्होंने बताया कि सबसे ज़्यादा ज़रूरत इस बात की है कि दलित कविता में इतिहासबोध का जो स्वरूप है उसे दलित पाठकों और बहुजन समाज में जागृत किया जाय। उन्होंने कहा कि ऐतिहासिक और सामाजिक परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है कि जिस भी जाति, समाज या राष्ट्र का इतिहास नहीं है वह कभी भी समृद्ध स्थिति में नहीं रहेगा। जो वर्चस्ववादी समाज है उसने निरंतर प्रयास किया कि बहुजन समाज को उसके इतिहास के बोध से दूर रखा जाए। अभी तक साहित्य को कई तरह से व्याख्यायित किया जाता रहा है। लेकिन ये पूर्ण परिभाषाएं नहीं है। साहित्य जनसमूह के हृदय की विकास है तो जनसमूह के हृदय की विकृति का इतिहास भी है। क्योंकि जिस मानवीय तरीके से मनुष्य समाज को बढ़ना था वह नहीं बढ़ा।   

अपने संबोधन में उन्होंने  मलखान सिंह की कविता ‘आखिरी जंग’ की पंक्तियाें को प्रस्तुत किया – 

“ओ परमेश्वर!
कितनी पशुता से रौंदा है हमें
तेरे इतिहास ने।
देख, हमारे चेहरों को देख
भूख की मार के निशान
साफ दिखाई देंगे तुझे।
हमारी पीठ को सहलाने पर
बबूल का कांटों से
दोनो मुट्ठियां भर जाएंगी तेरी।”

डॉ. चैन सिंह मीना ने दलित इतिहास के संदर्भ में लोकगीतों को रेखांकित करते हुए कहा कि जितने भी लोकगीत हैं दलित समाज के लिए उनका महत्व इसलिए भी है कि उनका इतिहास मुख्यधारा में नहीं मिलता। पीढ़ी दर पीढ़ी उन्होंने लोकगीतों के माध्यम से अपना इतिहास संरक्षित करने का प्रयास किया। और वंचित समाज को इसे बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ा। 

दलित-बहुजन साहित्य के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा के साथ परिचर्चा का समापन हुआ। परिचर्चा के दौरान बड़ी संख्या में लोग उससे जुड़े। अंत में परिचर्चा की अध्यक्षता कर रहीं अनीता भारती ने सभी के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया।

(संपादन : नवल/अमरीश)


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लेखक के बारे में

सुशील मानव

सुशील मानव स्वतंत्र पत्रकार और साहित्यकार हैं। वह दिल्ली-एनसीआर के मजदूरों के साथ मिलकर सामाजिक-राजनैतिक कार्य करते हैं

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