h n

दलित और पिछड़े वर्ग के किसानों की आंदोलन में अहम भूमिका : योगेंद्र यादव

इसके पहले किसानों के जितने भी आंदोलन हुए, उन्हें ऊंची व दबंग जातियाें के किसानों का आंदोलन कहा गया। लेकिन इस बार ऐसा नहीं है। इस आंदोलन में सभी तबके के किसान शामिल हैं। फिर चाहे वे दलित हों, अति पिछड़े वर्ग के हों। यह एकजुटता महत्वपूर्ण है

देश के किसान केंद्र सरकार के तीन कानूनों कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) अधिनियम, 2020, मूल्य आश्वासन एवं कृषि सेवाओं पर कृषक (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) अनुबंध विधेयक 2020 और आवश्यक वस्तु संशोधन अधिनियम, 2020 के विरोध में आंदोलनरत हैं। किसानों और सरकार के बीच अब तक चार बार की बैठक बेनतीजा रही है। अखिल भारतीय किसान समन्वय समिति के सदस्य योगेंद्र यादव से फारवर्ड प्रेस के हिन्दी संपादक नवल किशोर कुमार ने दूरभाष पर विशेष बातचीत की

अब यह तो साफ हो गया है कि किसानों के आंदोलन में किसी खास प्रांत के किसान नहीं रह गए हैं। अब इसमें देश भर के किसान शामिल हो चुके हैं। आपके हिसाब से इस एकजुटता की वजह क्या है?

देखिए, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कृषि विधेयकों के पारित होने के समय कहा था कि इन कानूनों से ऐतिहासिक बदलाव होंगे। यह तो नहीं हुआ लेकिन किसानों ने ऐतिहासिक एकजुटता का प्रदर्शन अवश्य किया है। यह ऐतिहासिक अवसर है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि देश भर के किसान अब समझ चुके हैं कि केंद्र सरकार ने जो तीन काले कानून बनाए हैं, उससे उन्हें व्यापक स्तर पर नुकसान होगा। उनका शोषण होगा और उन्हें बाध्य कर दिया जाएगा। पहले यह पंजाब के किसानों ने समझा और उन्होंने आंदोलन शुरू किया। अब देश भर के किसान इस आंदोलन में शामिल हो रहे हैं। 

क्या आप मानते हैं कि इस आंदोलन में खेतिहर मजदूर और छोटे व बटाईदार किसानों की भूमिका भी है जो मुख्य तौर पर दलित और पिछड़े हैं?

बिल्कुल, सबसे पहले तो यह समझने की आवश्यकता है कि किसान केवल वे नहीं होते जिनके पास जमीनें होती हैं। भारतीय किसान समन्वय समिति जो कि 32 किसान संगठनों का समन्वय कर रहा है, मैं भी इसका एक सदस्य हूं। हमारे साथ कई संगठन खेतिहर मजदूरों और छोटे व सीमांत किसानों के हैं। यह तो साफ है कि सरकार के नये कानूनों की मार उनके उपर भी पड़ेगी। वे भी जानते हैं कि यदि न्यूनतम समर्थन मूल्य का कानून नहीं रहा तो आर्थिक नुकसान उनको भी उठाना पड़ेगा। इसको ऐसे समझिए कि पहले जो फसलों की सरकारी खरीद होती थी, वह जनवितरण प्रणाली के माध्यम से लोगों तक पहुंचता था। अब जब सरकार ने जमाखोरी का नया कानून बनाया है तो इस व्यवस्था पर भी असर पड‍़ेगा। लोगों को प्राइवेट कंपनियों के रेट के हिसाब से अनाज खरीदना होगा। इस तरह सरकार ने न केवल किसानों को बल्कि गरीब-गुरबों तक को संकट में डाल दिया है। यही वजह है कि इस आंदोलन में सभी शामिल हैं। 

योगेंद्र यादव, सदस्य, अखिल भारतीय किसान समन्वय संगठन

जहां तक आपने खेतिहर मजदूरों और छोटे व बटाईदार किसानों की सामाजिक पृष्ठभूमि के बारे में जानना चाहा है तो मैं आपको बता दूं कि इसके पहले किसानों के जितने भी आंदोलन हुए, उन्हें ऊंची व दबंग जातियाें के किसानों का आंदोलन कहा गया। लेकिन इस बार ऐसा नहीं है। इस आंदोलन में सभी तबके के किसान शामिल हैं। फिर चाहे वे दलित हों, अति पिछड़े वर्ग के हों। यह एकजुटता महत्वपूर्ण है।

मेरा सवाल भी यही है कि वे राजनीतिक दल जो दलित और पिछड़े वर्ग की राजनीति करते हैं, उन्होंने भूमि सुधार व किसानों के सवालों को तवज्जो नहीं दी और इस कारण उनके सवाल विमर्श के केंद्र में नहीं रहे।

आप सही कह रहे हैं। मौजूदा किसानों का आंदोलन इसका ही प्रतिफल है। जब राजनीतिक दलों ने किसानों के सवालों को लेकर गंभीर पहल नहीं की तब किसान आंदोलित हुए हैं। यह राजनीतिक दलों को करना चाहिए था। लेकिन उन्होंने नहीं किया।

अंतिम सवाल, क्या आपको लगता है कि तीनों कानून यदि सरकार वापस ले लेती है तो किसानों खासकर वे किसान जो दलित और पिछड़े वर्ग के हैं, जिनके पास अपना खेत नहीं है, बटाईदारी पर खेती करते हैं या फिर मजदूरी करते हैं, उनकी समस्याओं का निराकरण हो जाएगा?

निराकरण कैसे होगा। आप जो सवाल उठा रहे हैं वे किसानों से संबंधित शाश्वत सवाल हैं। वे बने रहेंगे। अभी जो आंदोलन चल रहा है उसका मकसद यही है कि जो नयी परेशानी केंद्र सरकार किसानों पर थोपना चाहती है, उसको वापस लिया जाय। सरकार ने इन कानूनों को सौगात कहा है जबकि किसानों ने उनके इस सौगात को स्वीकारने से मना कर दिया है। मैं यह मानता हूं कि किसानों के जो शाश्वत सवाल हैं, वे सवाल बने रहेंगे। 

(संपादन : अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें 

मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

संबंधित आलेख

नई भूमिका में बिहार तैयार
ढाई हजार वर्ष पहले जब उत्तर भारत का बड़ा हिस्सा यज्ञ आधारित संस्कृति की गिरफ्त में आ चुका था, यज्ञ के नाम पर निरीह...
अखबारों में ‘सवर्ण आरक्षण’ : रिपोर्टिंग नहीं, सपोर्टिंग
गत 13 सितंबर, 2022 से सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ईडब्ल्यूएस आरक्षण की वैधता को लेकर सुनवाई कर रही है। लेकिन अखबारों...
यूपी : दलित जैसे नहीं हैं अति पिछड़े, श्रेणी में शामिल करना न्यायसंगत नहीं
सामाजिक न्याय की दृष्टि से देखा जाय तो भी इन 17 जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने से दलितों के साथ अन्याय होगा।...
बहस-तलब : आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पूर्वार्द्ध में
मूल बात यह है कि यदि आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जाता है तो ईमानदारी से इस संबंध में भी दलित, आदिवासी और पिछड़ो...
साक्षात्कार : ‘हम विमुक्त, घुमंतू व अर्द्ध घुमंतू जनजातियों को मिले एसटी का दर्जा या दस फीसदी आरक्षण’
“मैंने उन्हें रेनके कमीशन की रिपोर्ट दी और कहा कि देखिए यह रिपोर्ट क्या कहती है। आप उन जातियों के लिए काम कर रहे...