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किसान आंदोलन के मुद्दे और पूर्वी उत्तर प्रदेश के दलित-बहुजन किसानों की पीड़ा

किसान आंदोलन के संदर्भ में उत्तर प्रदेश दो भागों में बंट गया है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान आंदोलन कर रहे हैं और पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसानों में सुगबुगाहट भी नहीं है। इसकी वजह क्या है, बता रहे हैं सुशील मानव

पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और राजस्थान  के किसानों द्वारा नई दिल्ली की घेरेबंदी के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कुछ सुगबुगाहट शुरु हुई। हजारों किसान दिल्ली की पांच सीमाओं पर धरना देकर बैठ गये। उत्तर प्रदेश की बात की जाय तो मथुरा, मेरठ, सहारनपुर,गाज़ियाबाद, बागपत और उससे सटे जिलों के किसानों ने मथुरा हाइवे और तमाम जगह घेरेबंदी शुरु की। लेकिन पूर्वी यूपी के किसानों में खामोशी है।  सुल्तानपुर, जौनपुर, आजमगढ़, अंबेडकर नगर, गोरखपुर, वाराणसी, भदोही, फैजाबाद, प्रतापगढ़, इलाहाबाद, कानपुर, उन्नाव, मिर्जापुर आदि जिलों में कोई सरगर्मी नहीं है। आखिर इसका कारण क्या है? जबकि पूर्वी यूपी में कुर्मी कोइरी वर्ग के प्रतिनिधित्व का दावा करने वाली अनुप्रिया पटेल (अपना दल), और राजभरों का प्रतिनिधित्व ओमप्रकाश राजभर, मौर्य, कुशवाहा के नेता बाबू सिंह कुशवाहा (जनाधिकार पार्टी), स्वामी प्रसाद मौर्या आदि तमाम किसान जातियों के नेता व दल सक्रिय हैं।   

पूर्वी यूपी के किसान यूनियनों का सक्रिय नहीं होना अहम कारण

आजमगढ़ के इंद्र यादव युवा किसान हैं और तमाम आंदोलनों पर नजदीकी नज़र रखते हैं। वो बताते हैं कि आजमगढ़ और उससे जुड़े जिलों में किसान आंदोलन को लेकर कोई सरगर्मी नहीं है। हालांकि हाल में बने तीनों कृषि कानूनों को किसान अच्छा नहीं मानते और उनकी भी राय है कि दिल्ली में आंदोलन कर रहे किसानों की बात सरकार को माननी चाहिए।  

इंद्र यादव बताते हैं कि पूर्वी यूपी में जो किसान हैं वो छोटे-मझोले किसान हैं। पूर्वी यूपी में जो सबसे बड़े किसान हैं उनके पास अधिकतम 15-20 बीघे ज़मीन हैं। जबकि छोटे मझोले किसानों के पास 1 से 5 बीघे खेती की ज़मीन है। इनमें हर जाति वर्ग के किसान हैं। जो कथित ऊंची जाति के किसान हैं वो लोग खुद से खेती करवाने के बजाय बटाई या उखड़ा पर खेत दे देते हैं। अमूमन खेत कम हैं, और जो है उसमें भी कोई एक फसल लेने के बजाय किसान मिली-जुली खेती होती है। यानि घर-गृहस्थी चलाने लायक सब उगा लेने की कोशिश होती है। यानि परिवार की ज़रूरत भर का अनाज, ज़रूरत भर की दाल, ज़रूरत भर की सब्जी आदि। इंद्र यादव आगे बताते हैं कि उनके इलाके में मक्का, बाजरा, गेहूँ, चावल, अरहर, आलू, चना, प्याज, मटर, सरसों की खेती होती है। 

दिल्ली-उत्तर प्रदेश के गाजीपुर बार्डर पर ट्रॉली में बैठे एक वृद्ध किसान

तो क्या पूर्वी इलाके में व्यावसायिक खेती नहीं होती? पूछने पर इंद्र यादव बताते हैं कि जौनपुर के खुटहन में आलू की व्यावसायिक पैदावार होती है। आलू सरकारी रेट पर नहीं जा पाता है। निजी गोदाम में रखते हैं लोग। जैसी पैसे की ज़रूरत होती है उसके मुताबिक गोदाम से निकालकर व्यापारी को बेच देते हैं। कई बार कम आलू गोदाम वाले नहीं रखते या उनकी व्यापारियों से सेटिंग होती है। तो मजबूरी में किसान को अपना आलू औने-पौने दाम व्यापारी को बेचना पड़ा बाद में यही आलू बाज़ार में 50 रुपए किलो के भाव से बिका है। इसी तरह गन्ने की खेती होती है। गन्ना मिल में जाता है। लेकिन आस-पास कोई शुगर मिल नहीं हैं, पहले थी बंद हो गई। किसी के मार्फत कांटा करके जाता है। सितंबर-अक्टूबर में बाज़ार में गेहूं 1500 रुपये प्रति क्विंटल बिका है जबकि नवंबर महीने में 1700- 1800 रुपये प्रति क्विंटल बिका। लेकिन हमें बाज़ार के रेट का तो अंदाजा नहीं हैं कि कब कम होगा कब ज़्यादा। लेकिन बात बस उतनी ही है कि बहुत व्यापक पैमाने पर कृषि उत्पाद नहीं उगाते यहां के किसान।

किसान आंदोलन को लेकर पूर्वी यूपी में सन्नाटे के बाबत इंद्र यादव बताते हैं कि इस तरफ कोई प्रभावी किसान यूनियन सक्रिय नहीं है। इसके चलते यहां कि किसानों में राजनीतिक चेतना की कमी है। भारत बंद के दिन कुछ राजनीतिक दलों के छात्र संगठनों ने चौक-चौबारों पर फुटकर प्रदर्शन किया था। 

पिछले साल धान बिक्री का पैसा नहीं मिला

गोरखपुर के चौरीचौरा ब्लॉक के निवासी जदगीश प्रसाद बताते हैं कि गोरखपुर के छोटे किसानों में सभी वर्ग के लोग आते हैं। वो बताते हैं कि पहले लोग ब्लॉक से कृषि संबंधी बीज, खाद, दवाई लेते थे। अब स्थिति इतनी  बदतर हो गई है कि ब्लॉक से किसानों ने बीज, खाद, दवाई नहीं खरीदी। जगदीश प्रसाद बताते हैं कि सरकारी कैंप लगाकर सरकार अनाज खरीदती है। लेकिन पिछले साल की खरीद का भुगतान आज तक नहीं हुआ। मेरे गांव के कई लोग भुक्तभोगी हैं, मैं खुद भी हूँ। हमने कई बार ब्लॉक तक दौड़-भाग की फिर थक हारकर घर बैठ गए।

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जगदीश प्रसाद गहरी सांस लेकर फिर कहते हैं कि हमारे पास कुल 5 बीघे ज़मीन है। हम बाजार रेट से ज़्यादा अपने घर-परिवार की ज़रूरत देखते हैं। पैसे की ज़रूरत पड़ती है तो तभी फसल बेचते हैं। पिछले साल हमने सरकारी मंडी में बेचा था, अभी तक पैसा नहीं आया। कोई गांरटी नहीं होती कब तक पैसा आएगा। एक बार अनाज देने के लिए दौड़-भाग करो और फिर पैसे के लिए दौड़ो। इसलिए हम नहीं बेचते सरकारी मंडी में।

वे आगे बताते हैं कि जिले में पिछड़ा-दलित वर्ग के अधिकांश लोगों का जीवन खेती आधारित है। धान गेहूँ, मूंगफली, अरहर, तिल, गन्ना उगाते हैं। धान-गेहूं छोड़ बाकी खाने भर का ही हो पाता है। धान-गेहूं खाने से ज़्यादा होता है तो बेचते हैं। नेवता हँकारी, इलाज, बच्चों की फीस आदि के लिए जब हमें पैसे की ज़रूरत तत्काल पड़ती है तो बाज़ार में तुरंत अनाज बेचकर पैसे मिल जाते हैं। सरकारी पैसे का कोई निश्चित समय नहीं है कि पैसा कब आएगा। दूसरी बात यह कि हम अपना अनाज एकमुश्त इसलिए भी नहीं बेचते कि बेचकर पैसा ले लें तो पैसा टिकेगा नहीं। अनाज रहता है तो हार-गाढ़ (ज़रूरत) पड़ने पर रुपए में बदल जाता है। कोई अलग से कमाई का साधन नहीं है। खेती के अलावा कुछ और काम हो या पास में कुछ जमा पूंजी हो तो हम लोग भी सरकारी मंडी और एमएसपी देखें।    

आवारा पशुओं ने हमें बर्बाद कर दिया

प्रतापगढ़  जिले के विश्वनाथगंज के किसान राजेंद्र कुमार पटेल कहते हैं कि किसान आंदोलन सही है। होना चाहिए। सरकार को किसानों की बात माननी चाहिए। वे बताते हैं कि पिछले तीन साल से पूरी खेती चौपट हो जा रही है। जिले में आवारा पशुओं की बाढ़ सी आ गई है। पहले नीलगाय ही होती थी, अब तो सांड़ और गायों का झुड़ जिधर से गुज़रता है चरकर फसल बैठा देता है। कंटीले तार लगाएं तो खर्चा ज़्यादा होता है। इतना बजट नहीं है हमारे पास। 

राजेंद्र बताते हैं कि पहले पूरे जिले में अरहर और चना की ख़ूब खेती होती थी। यहां से तूर दाल की आपूर्ति आस पास के जिलों में भी होती थी। लेकिन एक तो समय ज़्यादा लगता है तूर की खेती में, फिर जानवरों के चलते पैदा कुछ नहीं मिलता था। इसीलिए लोगो ने धीरे धीरे अरहर बोना ही बंद कर दिया है। पिछले चार साल में तूर दाल की कीमतें बढ़ी हैं। राजेंद्र आगे कहते हैं खेती में हर चीज तो नहीं पैदा होती ना। काफी कुछ दुकान से खरीदना पड़ता है। दुकानदार के बही-खाते में जब उधार हजार रुपए से ऊपर हो जाता है तो एक बोरा गेहूं-चावल जो उस समय का रेट होता है, उसकी मुताबिक देकर उधार चुकता कर देते हैं। किसानी जीवन का यही हिसाब है।                          

प्रयागराज जिले की सोरांव तहसील सब्जी उत्पादन के लिए प्रसिद्ध है। यहां पर अमूमन कुर्मी और कोइरी जातियों के किसान सब्जी की खेती करते हैं। जगत बहादुर बताते हैं कि कोरोना के कारण लॉकडाउन की वजह से किसान बर्बाद हो गए। लॉकडाउन के चलते शादी-विवाह टल गया था। सब्जियां मंडियों में नहीं जा पाईं। हमारी पूरी लागत डूब गई। आलू प्याज पड़े पड़े सड़ गये। और आज क्या रेट बिक रहा है। 

फूलपुर तहसील के किसान नान्हू राम पटेल बताते हैं कि सरकारी मंडियों में एक दिन में या एक बार में तौल नहीं होती। चार दिन अनाज रखकर रखवाली कौन करे। फिर अपने पास कोई निजी साधन तो है नहीं कि चार दिन लेकर जायें वहां। फिर वहां 15-20 प्रतिशत काट लेते हैं। अट्ठारह-बीस का फर्क होता है रेट में, लेकिन झमेला भी तो रहता है।

नान्हू राम आगे बताते हैं कि अलग अनाज का अलग रेट होता है। जैसे धान की खरीद ले लें तो अमूमन सरकारी मंडी पर पहले पतले धान की खरीद होती है। जबकि हमारे पास ज़मीन कम है तो हम लोग ज़्यादा उपज वाली अनाज बोते हैं। जो अपेक्षाकृत मोटा होता है। संकर धान बोते हैं तो वो प्रति बीघे ज्यादा पैदा देगी पर चावल मोटा होगा और तीन महीने में तैयार हो जाएगा। वहीं बासमती, सोनम, मंसूरी बोयेगें तो समय ज़्यादा लगेगा, करीब चार महीने। इससे दूसरे तूर (अगली फसल) की खेती पिछड़ जाएगी। आलू या मटर जैसी अक्सर वाली खेती फिर इसमें नहीं हो पायेगी। नान्हू राम बताते हैं कि पहले वो आलू की खेती करते थे। और करीब डेढ़ बीघे आलू लगाते थे। लेकिन आलू की खेती का पिछले एक साल से ट्रेंड ये रहा है कि एक साल दाम एकदम से गिर जाता है और दूसरे साल अचानक से दाम आसमान छूने लगता है। यही हाल प्याज और लहसुन का है। कई बार घाटा खाने के बाद कच्ची फसलों की खेती बंद कर दी। बस घर की ज़रूरत भर का उगाते हैं।

(संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

सुशील मानव

सुशील मानव स्वतंत्र पत्रकार और साहित्यकार हैं। वह दिल्ली-एनसीआर के मजदूरों के साथ मिलकर सामाजिक-राजनैतिक कार्य करते हैं

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