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जनसरोकार के सवाल और राज्य की ‘राजनीति’

पूछना तो उन किसानों को भी चाहिए जिनके खाते में दो हज़ार की रकम आई कि उन्हें इतना कम क्यों मिला? साल भर में छह हज़ार का वे क्या करेंगे? पांच सौ रुपए महीने की इस दयानतदारी से उनका पेट कितना भर सकता है? रामजी यादव का विश्लेषण

बहस-तलब 

इधर हमारे देश के किसान बहुत खुश हैं। कुछ समय पहले जो मुट्ठियां तनी हुई थीं वे अब खुलकर फैली हुई हथेली की तरह हो गई हैं क्योंकि उनमें कुछ पाने का अहसास समा गया है। और आप यकीन कीजिये, किसानों के इतिहास में ऐसा शायद ही कभी हुआ हो, लेकिन अब सुनने में यह आ रहा है कि कुछ किसानों ने फैली हुई हथेली के प्रतीक को ही बदल दिया है और अब वे छह हज़ार का विरोध करने वाले और ‘प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना’ से असहमति जताने वालों के गाल पर थप्पड़ की तरह अपनी फैली हुई हथेली का उपयोग कर रहे हैं। वे किसान बहुत विगलित हो गए जिन्हें दो हज़ार की पहली राशि का मैसेज मोबाइल पर मिला। वे खुशी में गोते खाने लगे जिनके पोतों ने उन्हें लाभार्थी होने के सौभाग्य की सूचना दी।

किसान किंकिर्तव्यविमूढ़ हैं। अपनी स्मृतियों को बुरी तरह खन-खोद डालने पर भी उन्हें इतिहास में ऐसा कोई उदाहरण ही नहीं मिल रहा है कि पहले इस देश के किसी प्रधानमंत्री ने सीधे उनके खाते में छह हज़ार रुपए डालने की कोशिश की हो। न भूतो वाला ही मामला ठहरा और भविष्यति का आलम यह है सब कुछ हरा-हरा ही दिखाई देने लगा है। फिर क्या राफेल और क्या महंगाई। सब विपक्षियों का कुप्रचार है। अब तो भविष्यति भी किसानों को छह हज़ार सीधे मिलेंगे। न बिचौलियों का खतरा न अफसरों का भय। एक क्लिक में रुपए खाते में। स्वयं प्रधानमंत्री भविष्यति को लेकर इतने आश्वस्त हैं कि वे लोगों से एसएमएस से राय मांग रहे हैं कि बताइये कि मई 2024 में जब मैं फिर सत्ता में आऊंगा तो ग्रामीणों के लिए, स्त्रियों के लिए, युवाओं के लिए, मजदूरों के लिए, किसानों के लिए क्या करूंगा। क्योंकि सारी समस्याएं तो इस कार्यकाल में मैंने सुलझा ही दी। उज्ज्वला दे दिया। गैस महंगी है तो अंबानी अपना समझे। देश-प्रेम हो तो मुनाफा कम करे नहीं तो व्यापारी तो है ही। बीएसएनएल जैसे सफ़ेद हाथी को ऐसा बांधा कि अब उसके सामने चुपचाप सोने के कोई चारा ही नहीं रह गया । उसके समानांतर जियो को ऐसा जिलाया कि अब वही सबसे भरोसे का नेटवर्क बन गया है। 

इसलिए अब करने को क्या बच गया है? सब कुछ हो गया है। शौचालय-क्रांति कभी और हुई थी? शौचालय-क्रांति भारत जैसे पिछड़े देश में तो नामुमकिन ही था लेकिन आपने रेडियो-टेलीविज़न पर सुना होगा कि मैंने नामुमकिन में से ना हटा दिया। अब क्या बचा मित्रो, मुमकिन। इसलिए अब सबकुछ मुमकिन है। मैंने हर भारतीय को यह अहसास कराया कि तुम अपना शौचालय साफ रखो। गंदगी से रोग फैलते हैं। अब इतना बेसिक काम किसी और ने किया हो तो बता दीजिये। देश को दुनिया के नक्शे पर खड़ा किया। इससे बड़ा कोई काम हो तो बताओ? और अब मुझे हर भारतवासी से एसएमएस मंगाकर जानना है कि अगली सरकार में उनके लिए क्या करना होगा?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

मजदूर भी एसएमएस करें और किसान भी एसएमएस करें। आप तो जानते ही हैं कि देश को ऊंचा उठाने के लिए मुझे एक पैर हमेशा बाहर के लिए रखना पड़ता है। देश में रहता हूं तो हर जगह मुझे चुनाव लड़ना पड़ता है। कोई भी नहीं जो मेरी कमी पूरी कर सके। इसलिए मैं हर जगह हर भूमिक में हूं। मैं ही नगर निगम में पार्षद हूं। मैं विधानसभाओं में विधायक हूं। मैं संसद में सांसद और विभागों में मंत्री हूं। विदेशमंत्री के बस की बात नहीं कि वह पाकिस्तान से बात कर ले इसलिए कि मैं विदेशमंत्री हूं। सेना में मनोबल की कमी हो गई हो तो घबराने की बात नहीं। मैं सेनापति हूं। मैं सर्जिकल स्ट्राइक करता हूं ताकि सेना के मनोबल में वृद्धि हो। मैं ही वित्तमंत्री हूं और मेरे कहने पर करोड़ों लोग गैस की सब्सिडी छोड़ देते हैं। 

अब आप ही बताइये कि अगर आप लोग एसएमएस न करेंगे तो मैं भला कैसे जान पाऊंगा कि मई, 2024 में जब मैं दोबारा चुनकर आऊंगा तो आपके लिए क्या-क्या करना चाहिए?

इतनी बातें सुनते हुए किसानों ने प्रधानमंत्री में पूरी तरह भरोसा जता दिया। वे बहुत खुश और भाव-विह्वल हैं। किसी ने तो उनका दर्द समझा। हमारे प्रधानमंत्री दर्द समझते हैं। उन्होने महिलाओं का दर्द समझा। उन्हें उज्ज्वला का लाभ दिया। गैस महंगी हो तो वे लकड़ियां बीनकर लाएं। लेकिन घर में सिलिन्डर का क्या गर्व होता है इसे कोई बता सकता है? इस सवाल का जवाब केवल प्रधानमंत्री ही दे सकते हैं क्योंकि उज्ज्वला योजना उनकी ही देन है। ऐसे भी कौन अर्थशास्त्री है जो समझाये कि जो सोलह सौ का सिलिन्डर नहीं खरीद सकता वह नौ सौ रुपए की गैस कैसे खरीद सकता है? किसे गरज पड़ी है कि 6000 रुपए और महंगाई के बीच के अंतर्संबंध पर बात करे। हो सकता है किसानों को लगा हो कि इतने पैसे में क्या होगा, लेकिन यह सोलह सौ रुपए के सिलिन्डर से कई गुना अधिक है, इसलिए चुप्पी साध गए होंगे। 

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दो-दो हज़ार की पहली किस्त जिस दिन खाते में आई उस दिन किसानों ने खुशी से नृत्य किया। घर के सभी कोनों में घी के दीये जलाए और रातभर सोचते रहे कि अब वे कितने उज्ज्वल भविष्य में जिएंगे। देश के 9 करोड़ से ज्यादा किसानों के खाते समृद्ध हुए और किसानों ने प्रधानमंत्री को आशीर्वाद दिया। लोग कहते हैं कि भारत में किसान सबसे निरीह मनुष्य हैं। बाज़ार उन्हें सरेआम लूट ले और वे लुट जाते हैं। उनकी जरूरतें हमेशा मुंह बाए रहती हैं। अब यही लीजिये कि सरकार ने पचास किलो की यूरिया और डीएपी की बोरियों में से पांच किलो कम कर दिया और दाम पचास किलो का लिया लेकिन किसानों ने कुछ नहीं कहा। आपस में भुनभुनाए जरूर लेकिन कुछ नहीं कहा। बल्कि उन्हें तो यह डर लगने लगा कि कहीं यूरिया और डीएपी इस संसार से गायब ही न हो जाए इसलिए वे समय रहते ही टूट पड़े और वजन आदि मसलों पर ध्यान ही नहीं दिया। 

किसानों में भी कई तरह के किसान होते हैं लेकिन मोटा-मोटी दो तरह के किसान हर जगह पाए जाते हैं। एक रजिस्टर्ड किसान और दूसरे छुट्टा किसान। रजिस्टर्ड किसान यूरिया और डीएपी जैसी चीजें सब्सिडी वाली कीमत पर पा जाया करते हैं। लेकिन यह कोई मामूली बात नहीं है। देखते ही देखते सब्सिडी वाली यूरिया और डीएपी चुनी हुई दुकानों और केंद्र से गायब हो जाती है और रजिस्टर्ड किसान मुंह बाए एक-दूसरे को देखते रह जाते हैं। वे भी छुट्टा किसानों की तरह दुर्भाग्यशाली हो जाते हैं और बाज़ार की ओर जाते हैं। अब पचास किलो की कीमत पर पैंतालीस किलो की बोरी के लिए उनसे दुकानदार सौ रुपए अधिक ले या दो सौ रुपया अधिक ले। किसान इसके बारे में गुणा-गणित करेगा तब तो गया काम से। बाज़ार से भी इनके गायब होने की संभावना कम नहीं होती। इसलिए वह इस डर से एक बोरी हासिल करता है ताकि उसको कालाबाज़ारी से इसे न खरीदना पड़े वरना बाज़ार तो फिर भी जेब पर ही डाका डालता है लेकिन कालाबाजार बिना कलेजा निकाले संतोष नहीं करता।

इस दुष्चक्र में फंसा किसान घर जाकर कुछ यूरिया और डीएपी की पैंतालीस किलो की बोरी को हसरत और विजय की भावना से देखता है और फिर बड़ी आसानी से लूट लिए गए रुपए को गहरी आह के साथ श्रद्धांजलि देता है। क्या रजिस्टर्ड क्या छुट्टा किसान सभी की कहानी एक है। 

ऐसे किसानों को ही विद्वान और संवेदनशील लोग निरीह मनुष्य कहते हैं। ऐसे निरीह मनुष्यों के लिए कबीरदास जी ने कहा है कि निर्बल को न सताइए जाकी मोटी हाय और आप समझ लीजिये कि मुई खाल की सांस से सार भसम होई जाय। तो प्रधानमंत्री जी ने मुई खालों की सांस का महत्व जान लिया इसीलिए अखबारों के मुताबिक स्वयं प्रधानमंत्री गोरखपुर में अपने विरोधियों पर छप्पन मिनट तक लगातार बरसते रहे। उन्होंने छप्पन मिनट तक अपने विरोधियों को हड़काया कि किसानों के साथ राजनीति करनेवालों को श्राप लगेगा। किसानों की बददुआ उन्हें बर्बाद कर देगी। 

इसीलिए तो जब प्रधानमंत्री चिंघाड़ कर कहते हैं कि विपक्ष अफवाहें फैला रहा है कि जो रुपए मोदी दे रहा है वह एक साल बाद वसूल लेगा। यह पैसा किसानों के हक का है। मोदी क्या कोई भी वापस नहीं ले सकता है। तब किसानों की बांछें खिल जाती हैं। उन्हें लगता है कि अभी तो यह अंगड़ाई है आगे और मलाई है। जहां किसी बात की कोई उम्मीद न हो वहां आहट ही एक हासिल है। जहां झाड़ी भी न हो वहां रेंड़ के नीचे बैठकर दोपहरी काट ली जाती है। बस आदमी थोड़ा सा सिकुड़ कर बैठना भर सीख ले और धूप के तेज होने की शिकायत करना भूल जाय। थोड़ा सा मन मार ले। थोड़ा भक्त हो जाय। थोड़ा कॉंग्रेस की लूट का इतिहास दुहराना सीख ले। तब उसे लगने लगा कि अच्छे दिन शुरू हो गए हैं। 

प्रधानमंत्री ने अब तक नामुमकिन रहे अच्छे दिन में से ना हटा दिया। अच्छे दिन मुमकिन हो उठे। आप भी देख सकते हैं बशर्ते आप अपने आत्मसम्मान की हत्या कर लें। उज्ज्वला के सिलिन्डर और 6000 रुपए की कृपा को हाथ जोड़कर स्वीकार कर लें और अपनी रीढ़ को मोड़ दें। आप धीरे-धीरे भूल जाएंगे कि पचास किलो का दाम लेकर मात्र पैंतालीस किलो यूरिया और डीएपी ही आपको मिल रही है। आपको याद ही नहीं रहेगा कि एक सिलिन्डर गैस का दाम महीने दर महीने बढ़ते-बढ़ते दोगुना हो चुका है। 

और धीरे-धीरे आप उन बातों को अपना मानने लगते हैं जिनसे आपका सीधा कोई सरोकार नहीं होता। आप कॉर्पोरेट की खुली लूट को विकास मानने लगते हैं और यह भूल जाते हैं कि महंगाई किस गति से अनियंत्रित बढ़ती जा रही है और इसके लिए जिम्मेदार वास्तव में वही कॉर्पोरेट है जिसे देखते हुए आप विकास का मीटर खोले बैठे हैं। साबुन की एक छोटी सी बट्टी का दाम महीने दर महीने बढ़ता रहता है। चावल, चीनी, नमक और दाल की कीमतें रुपए दो रुपए तक बढ़ती हुई उछाल मार लेती हैं लेकिन आपको फुर्सत नहीं होती कि आप इस बात पर सोचें और संवाद करें कि इनको नियंत्रित करने में संसद की क्या भूमिका है और क्या होनी चाहिए? आप संसद को एक मनोरंजन समिति की तरह देखते रहते हैं और बहुत से विधेयक वहां ऐसे पास हो जाते हैं जो किसी न किसी रूप में आपके भी खिलाफ जाते हैं। आप संसद की नीयत नहीं सांसद का चेहरा और जाति देखते हैं। भले पैदल चलते हों और तेज रफ्तार गाड़ियों की भीड़ में सड़क पार करना आपके लिए मुश्किल हो लेकिन आठ लेन की सड़कों की वकालत करने लगते हैं। आप भले ही अपने बच्चे की फीस न दे पाते हों लेकिन आपको निजी स्कूलों से प्रेम हो जाता है और आप सार्वजनिक स्कूलों से नफरत करने लगते हैं। धीरे-धीरे आप हर चीज में दूसरे का मुंह देखने लगते हैं और कभी भी सड़क पर नहीं उतरते हैं। आप हर काम के लिए किसी मसीहा का इंतज़ार करते हैं। आप मसीहवाद के शिकार हो जाते हैं। सत्ता और व्यवस्था की खामियों से स्थगित होती आपकी आकांक्षाओं के रथ पर सवार कोई मनोरोगी आपका मसीहा बन जाता है। आप उसे अपने भरोसे का आदमी मानते हैं और वह आपकी समस्याओं पर हंसता है। लेकिन जैसे ही उसे लगता है कि आपका भरोसा उसमें कम हो रहा है वैसे ही वह रोने लगता है। अपने परिवार, गरीबी, संघर्ष और ईमानदारी का ढ़ोल पीटता है और देशहित में परिवार छोडने की कहानियां सुनाता है और आप चकित रहने लगते हैं। वह स्वयं मनोरोगियों की फौज के सहारे अपनी महानता का तम्बू तानता है और आप उसकी छाया महसूस करने लगते हैं। एक आदमी आपको सरेआम ऐसा बेवकूफ बनाता चला जाता है और आपके तर्क उसके सामने हवा हो जाते हैं जबकि सामने वाले पर शक और तर्क करने की सीख बुद्ध, सरहपा, कबीर, रैदास, नज़ीर, मीर, गालिब, फुले, आंबेडकर और पेरियार सब लोगों ने दी है । 

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जब आप यूरिया और डीएपी के वजन और दाम को नज़रअंदाज़ करते हैं तब आप बहुत कुछ नजर अंदाज करने लगते हैं। तब आपको नोटबंदी की विभीषिका नज़र नहीं आ सकती। जब आप साबुन की बट्टी और टूथब्रश के दामों को नज़रअंदाज़ करते हैं तब आपको अपने देश के दश्तकारों की मौतें नहीं दिखाई दे सकतीं। जब सड़कों और बिल्डिंगों और ऐप्स से पैसों के लेनदेन को विकास मानकर झूमने लगते हैं तब आप नहीं देख सकते की आपकी पीढ़ियां कैसे और किस तरह बर्बाद की जा चुकी हैं। वे भविष्य के कीड़े-मकोड़ों से अधिक महत्वपूर्ण नहीं रह गई हैं, क्योंकि एक व्यवस्था ने करोड़ों लोगों को इंसानी हक और सम्मान से वंचित कर रखा है और आपकी पीढ़ियों का इस्तेमाल ऐसे लोगों के खिलाफ कर दिया गया है। आपकी पीढ़ियों का कुल हासिल झूठ, पाखंड, नफरत, गाली-गलौज, हिंसा, परजीविता और दलाली के सिवा कुछ है ही नहीं। वे कहीं भी जाएंगी उनका हासिल यही रहेगा। लेखन में, खेल में, तकनीक में, व्यवसाय में, प्रशासन में, शिक्षा में सब जगह वे यही करेंगी। यहां तक कि विज्ञान और इंसानियत को भी वे कलंकित किए बिना नहीं रहेंगी। जब आप नमामि गंगे पर मुग्ध रहेंगे तब आप देख ही नहीं पाएंगे कि वास्तव में पर्यावरण को तहस-नहस करनेवाले कौन हैं। जंगल के जंगल चबा जानेवाले, गांवों और शहरों का सौन्दर्य नष्ट करने वाले, पहाड़ों को खा जाने वाले और नदियों-समुंदरों को पी जाने वाले दैत्य कौन हैं? और असल में बरसों के संघर्षों और कुर्बानियों से हासिल की गई संसद और संविधान का मूल्य समझने की आपकी योग्यता आपका मसीहा धीरे-धीरे हर लेगा और आप बेख़ुद रहते रहेंगे। आप दिल को टटोलेंगे तो पाएंगे कि आप एक ऐसी भाषा में अपने को अभिव्यक्त करने लगे हैं जो किसी और व्यवस्था ने आपके दिमाग में रोप दिया है। और ऐसे ही एक दिन आप एक संकीर्ण इंसान बन कर रह जाते हैं। फिर तो राष्ट्रवाद, सेना, भारतमाता, गोरक्षा, मॉब लिंचिंग, पाकिस्तान के नाम पर एक रोबोट के सिवा आप कुछ नहीं रह जाएंगे। 

ऐसे में क्या आप यकीन कर पाएंगे कि आपको रोज झांसा देने वाले फकीर ने आपको किस जगह पर ला छोड़ा है? आप उससे कोई सवाल पूछ सकते हैं? क्या आप पूछ सकते हैं कि जून 2014 से सितंबर 2018 के बीच कर्ज के रूप में लिए गए 25,12,490 करोड़ रुपयों का क्या हुआ? मालूम हो कि जून 2014 में भारत पर कुल कर्ज 54,90,763 करोड़ रुपए का था और मौजूदा प्रधानमंत्री ने उसे 80,03,253 करोड़ पर पहुंचा दिया। रोजगार सृजन हुआ नहीं। दो करोड़ रोजगार हर साल देने का वादा था लेकिन पूरा नहीं हुआ तो बाद में पकौड़ा उद्योग बनाया गया। शिक्षा के बजट में कटौती हुई। मनरेगा में कटौती हुई। किसानों की बात ही नहीं सुनी गई। गन्ना किसानों का अरबों बकाया है। छोटे व्यापारियों और दूकानदारों को तबाह कर दिया गया। नोटबंदी, जीएसटी ने उन्हें सड़कों के बनने का कोई ठोस रिकार्ड नहीं है। अस्पताल और विश्वविद्यालय बने नहीं। आयुष्मान भारत का पैसा अस्पतालों में पहुंचा नहीं। गंगा साफ हुई नहीं। किसी के एकाउंट में पंद्रह लाख आया नहीं। फिर इतना सारा पैसा गया कहां? राफेल का तो चलिये अनिल अंबानी खा गया। नीरव मोदी, ललित मोदी, विजय माल्या, मेहुल चौकसी ने भी कुल मिलकर एकाध लाख करोड़ पार कर दिया होगा। फिर भी आप अंदाजा लगा सकते हैं कि बाकी रुपए कहां लगे? क्या इसी हिसाब के भय से फकीर ने झोला उठाकर चल देने का संकेत हवा में फैलाया। आपमें ज़मीर बचा हो तो पूछिए। 

वैसे पूछना तो उन किसानों को भी चाहिए जिनके खाते में दो हज़ार की रकम आई कि उन्हें इतना कम क्यों मिला? साल भर में छह हज़ार का वे क्या करेंगे? पांच सौ रुपए महीने की इस दयानतदारी से उनका पेट कितना भर सकता है? वे अपने और अपने परिवार के लिए कितने कपड़े ले सकते हैं? और भी बहुत से सवाल हैं क्योंकि सैकड़ों जरूरतें हैं जो पूरी होनी चाहिए। 

लेकिन किसान बहुत खुश हैं। वे घी के दीये जला रहे हैं। नाच रहे हैं। मदहोश हो रहे हैं। क्या वास्तव में हमारे देश का यथार्थ इस कदर जादुई हो चुका है और मुझे कुछ पता ही नहीं!!

(संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

रामजी यादव

रामजी यादव एक राजनितिक कार्यकर्ता के रूप में विभिन्न संगठनों में सक्रिय रहे हैं। उन्होंने कानपुर के मिल मज़दूरों और रेलवे कर्मचारियों को संगठित करने में भी भूमिका निभाई। उन्होंने 100 से अधिक वृत्तचित्रों का निर्माण और निर्देशन भी किया है। उनके प्रमुख वृत्तचित्र हैं 'गाँव का आदमी', 'पैर अभी थके नहीं', 'एक औरत की अपनी कसम', 'यादें', 'समय की शिला पर', 'कालनदी को पार करते हुए', 'विकल्प की खोज', 'वह समाज जो जनता का है', 'जलसत्ता', 'द कास्ट मैटर्स', और 'इस शहर में एक नदी थी' आदि। उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं, 'अम्बेडकर होटल', 'खेलने के दिन', 'भारतीय लोकतंत्र' और 'दलित सवाल', 'भारतेंदु', 'ज्योतिबा फुले', 'गिजुभाई', 'रामचंद्र शुक्ल', 'आंबेडकर संचयन'। इन दिनों वे ‘गांव के लोग’ त्रैमासिक का संपादक कर रहे हैं।

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