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हिन्दी कविता के विद्रोही स्वर की तलाश

पितृसता, जातिवाद, राजशाही और धार्मिक पाखंड के गंठजोड़ को अपनी कविताओं के माध्यम से जर्बदस्त शिकस्त देते विद्रोही समकालीन हिन्दी काव्य में अपने किस्म के विरल कवि थे, जिन्हें उनकी रचनात्मकता के लिए सम्मानित किया जाना था, हिन्दी समाज ने उन्हें विक्षिप्त होने के लिए छोड़ दिया। अरुण नारायण की समीक्षा

पुस्तक समीक्षा

बीते वर्ष 2020 में जिस पुस्तक ने मुझे सर्वाधिक आकर्षित किया है वह है अगोरा प्रकाशन, वाराणसी,उत्तर प्रदेश से प्रकाशित ‘विद्रोही होगा हमारा कवि’। अपने उद्देश्य और सरोकार में इतनी सधी हुई पुस्तक इधर के दिनों में हमारी नजर से नहीं गुजरी। कुल 360 पृष्ठों में फैली इस पुस्तक में हिन्दी काव्य परिदृश्य से आरंभ से ही ओझल कर दिये गए अवधि, हिन्दी के जनपक्षधर और वाचिक परंपरा के विलक्षण कवि रमाशंकर यादव विद्रोही के जीवन और उनकी कविताओं का मूल्यांकन है। इसे युवा लेखक संतोष अर्श ने संपादित किया है। उन्होंने स्वयं एक सधे हुए संपादकीय के साथ ही विद्रोही की कविताओं में आयी स्त्रियों के पक्ष की एक भिन्न व्याख्या की है।

पूरी पुस्तक ‘कवि की विरासत’ (21 कविताएं), ‘धरोहर’, ‘तस्वीरें’, ‘कवि की यादें’ (8 संस्मरण), ‘कविता पर बातें’ (14 लेख) और ‘मुखामुखम’ नामक छह खंडों में विन्यस्त है। इसमें लगभग पचास लोगों की सहभागिता है जिसमें सभी वर्गों के लोगों ने विद्रोही जी के साहित्य और उनके जीवन को फोकस कर अपनी बातें कहीं हैं। इसके पहले विद्रोही की कविताएं या उनके कवि कर्म पर शायद ही किसी पत्र-पत्रिका या आलोचक न कोई सुध ली हो। हिन्दी साहित्य संसार में उनकी ही नोटिस ली जाती है जो स्थापित सत्ता से नाभिनाल रहते हैं। चाहे वह धर्म की सत्ता हो या जाति की अथवा अन्य किसी भी तरह के यथास्थितिवाद बनाए रखने की। अगर आप इस फ्रेम में रहेंगे तो आलोक धन्वा की तरह लिजेंड बना दिये जाएंगे और अगर उसके खिलाफ गए तो विद्रोही की तरह गुमनामी के अंधेरे में दफन कर दिये जाएंगे। 

हिन्दी का साहित्य संसार बेहद संकीर्ण, जातिवादी और संगठित रूप से गिरोहवादी रहा है। वहां आरंभ से ही ब्राहणवादियों का वर्चस्व रहा है। हिन्दी का काव्य संसार तो पूरी तरह उन्हीं के कब्जे में है। यह अकारण नहीं कि तुलसी से मंगलेश डबराल तक, निराला से अशोक वाजपेयी तक कविता का पूरा क्षेत्र एक ही जातियों के कवि से अंटी-पट़ी है। प्रकाशन से लेकर पुरस्कार तक, कमिटियों से लेकर विदेशी यात्राओं तक की आप सूची बना लीजिए शायद ही वहां आपको कोई विद्रोही मिलेंगे, मलखान सिंह मिलेंगे, दिनेश कुशवाहा मिलेंगे या कोई वंदना टेटे मिलेंगी। यह क्षेत्र पूरी तरह ब्राहणों के सुरक्षित अभयारण्य रहा है। यह अकारण नहीं कि पत्र-पत्रिकाओं से लेकर रवीश के प्राइम टाइम तक में जो स्पेस वे पाते रहे हैं दूसरे वर्ग से आनेवाले लेखकों के लिए वही स्पेस वर्जित रहा है। 

रमाशंकर यादव विद्रोही

अगोरा प्रकाशन ने ‘विद्रोही होगा हमारा कवि’ पुस्तक के माध्यम से हिन्दी कविता में जड़ जमा चुकी इस प्रवृत्ति को एक मजबूत शिकस्त दी है और हिन्दी काव्य दुनिया को एक यादगार कवि से परिचित कराया है। शैलेश कुमार यादव, रामजी यादव, चौथीराम यादव, कमलेश वर्मा, सत्येंद्र पीएस, अभिषेक श्रीवास्तव जैसे लेखकों ने विद्रोही के काव्य व्यक्तित्व की जो व्याख्या की है वह हिन्दी आलोचना की एक एक विरल और संभावनाशील दिशा की ओर संकेत करनेवाली है। जे.एन.यू की वर्चस्व प्राप्त प्रगतिशीलता, उस स्फियर की कई दशकों की मौखिक, वाचिक चर्चाएं और सबसे बढ़कर विद्रोही जैसे कवि की वहां हर मौके पर उपस्थिति इस पुस्तक को महत्वपूर्ण बनाती है।

पितृसता, जातिवाद, राजशाही और धार्मिक पाखंड के गंठजोड़ को अपनी कविताओं के माध्यम से जर्बदस्त शिकस्त देते विद्रोही समकालीन हिन्दी काव्य में अपने किस्म के विरल कवि थे, जिन्हें उनकी रचनात्मकता के लिए सम्मानित किया जाना था हिन्दी समाज ने उन्हें विक्षिप्त होने के लिए छोड़ दिया। हिन्दी साहित्य के जातिवादी नेक्सस में न तब और ना ही अब उनकी कोई सुध ली। पुस्तक में शामिल कई लेख, संस्मरण लगभग 40 सालों की दिल्ली, जेएनयू और हिन्दी समाज की हलचलों को अपने अपने तरीके से प्रतिबिम्बित करती है। इन लेखकों में कई ऐसे हैं जो हिन्दी की लोकप्रिय पत्रिकाओं में शायद ही आये हों, लेकिन इसका तर्क किसी भी बड़े नामवर से ज्यादा पावरफुल है।

विद्रोही के व्यक्तित्व कृतित्व एकायामी नहीं अपितु बहुआयामी था। जिसे इस पुस्तक के माध्यम से हर तरह से पुष्ट भी किया गया है। ‘धरोहर’ खंड में उनकी बेटी अमिता कुमारी और भाई कृपाशंकर यादव ने भी बहुत मार्मिक और सधे हुए अनुभव कलमबद्ध किये हैं। उनकी बहन से इंटरव्यू भी किया गया है। यह सब कितना श्रमसाध्य कार्य रहा होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है। यह संपादक की सफलता है। इस प्रकरण में पत्नी का अनुभव भी लिपिबद्ध किया गया होता तो और बेहतरीन बात होती। विद्रोही जी की कुछ तस्वीरें और उनसे संदर्भित अखबारी कतरने भी हैं जो उनके समय को जीवंत करती हैं। खासकर उस समय के आंदोलन, विश्वविद्यालय से छात्रों की रस्साकसी आदि मुद्दे।

‘कवि की विरासत’ खंड में उनकी हिन्दी अवधि से चुनी हुई 21 प्रतिनिधि कविताएं हैं, जिसमें ‘नयी खेती’, ‘जन-गण-मन’, ‘मोहनजोदड़ो की आखिरी सीढ़ी से’, ‘नूर मियां का सुरमा’, ‘सीता’, ‘जनि जनिहा मनइया जगीर मांगता’ आदि चर्चित कविताएं हैं। इस खंड में उनका एक भाषण- ‘गांधी को हमने घर के आदमी की तरह प्यार किया’ संलग्न है। 

‘कवि की यादें’ खंड में असरार खान, सरफराज हामिद, नित्यानंद गायेन, मुलायम सिंह, सत्येंद्र पीएस, धर्मराज कुमार, राकेश कबीर, कल्याणी सिंह और सुमित चौधरी के संस्मरण एवं आलेख हैं। इस खंड के माध्यम से विद्रोही जी के व्यक्तित्व कृतित्व के कई पक्ष उद्घाटित होते हैं। खासकर असरार खान के संस्मरण बेहद महत्वपूर्ण हैं जो उनके आरंभिक जीवन संघर्ष से लेकर जेएनयू में उनके निष्कासन और अंतिम दिनों के बारीक ब्यौरों से भरे पड़े हैं। सत्येंद्र पीएस ने विश्वविद्यालय में जातीय वर्चस्व को वेधक अंदाज में टारगेट करते हुए विद्रोही के कवि पक्ष की सुुंदर व्याख्या की है। राकेश कबीर, सुमित चौधरी, कल्याणी सिंह और धर्मराज कुमार के लेख भी काबिल-ए-तारीफ हैं लेकिन नित्यानंद गायेन और मुलायम के लिखे में और सधाव की जरूरत थी।  

समीक्षित पुस्तक का कवर पृष्ठ

‘कविता पर बातें’ खंड में चौथीराम यादव, रामजी यादव, आशुतोष कुमार, कमलेश वर्मा, अभिषेक श्रीवास्तव, अनुज कुमार, संतोष अर्श, शैलेश कुमार यादव, विहाग वैभव, महेश सिंह, अर्पणा, क्षमा यादव, सुशील कुमार शैली आदि ने अपने अपने तरीके से विद्रोही के काव्य मिजाज के अलग-अलग पक्ष के अलक्षित पक्ष की व्याख्या की है जो अपनी तरह की है। अपर्णा का लेख भी कई तरह की सूचनाओं से हमें अवगत कराता है। खासकर अपने उपर बनी फिल्म के बारे में उनकी बातचीत को भी अपर्णा ने हू-ब-हू रख दिया है, जो उनकी सोच की बारीक तहों को अभिव्यक्त करता है।

‘मुखामुखम’ खंड में रामबचन यादव ने चौथीराम यादव से विद्रोही जी के संपूर्ण पक्ष पर बातचीत की है जो बेहद दिलचस्प है। इस खंड में विद्रोही की कविताओं पर राहुल प्रकाश, विष्णु खरे, आशुतोष कुमार, रुस्तम सिंह, संतोष अर्श, अरुण देव, प्रो. राजेश मल्ल और संजय जोशी की सन 2018 में आभासी संसार पर हुई बातचीत को भी रखा गया है, जिसमें उनकी कविताओं पर रौशनी पड़ती है। 

किताब के अंत में विद्रोही जी का तीन पृष्ठों में सारगर्भित परिचय दिया गया है जो बहुत ही महत्वपूर्ण है। एक संक्षिप्त स्वरूप में उनके जन्म से मृत्यु तक शिक्षा से सामाजिक आंदोलनों तक में हिस्सेदारी को तिथिवार संजोया गया है। पुस्तक के अंत में सहभागी लेखकों के परिचय और फोन नंबर भी दिये गए हैं। 

एक पुस्तक के महत्वपूर्ण बनने में जो काबिलियत होनी चाहिए लगभग वह सब यहां उपलब्ध है। काश! विद्रोही जी, गोरख पांडे जैसे लेखकों के विक्षिप्त होने के कारणों को दर्शाता एकाध आलेख होता तो मैं समझता हूं यह किताब मुकम्मल होती। बावजूद इसके भी यह महत्वपूर्ण प्रयास है जिसकी जितनी भी तारीफ की जाए वह कम ही होगी।  

पुस्तक की पीठ पर विद्रोही जी से जुड़े कुछ उद्धरण दिये गए हैं, वह नामों को ध्यान में रखकर ज्यादा और कंटेंट की अनदेखी ज्यादा है। इसे पुस्तक में ही शामिल लेखों से ही सजाया जाता तो और बेहतर होता। 

बहरहाल, समग्रता में यह अपने किस्म की महत्वपूर्ण पहल है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए।  

समीक्षित पुस्तक : विद्रोही होगा हमारा कवि
संपादक : संतोष अर्श
प्रकाशक : अगोरा प्रकाशन, वाराणसी, उ.प्र.
कीमत : 350 रुपए मात्र   

(संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

अरुण नारायण

हिंदी आलोचक अरुण नारायण ने बिहार की आधुनिक पत्रकारिता पर शोध किया है। इनकी प्रकाशित कृतियों में 'नेपथ्य के नायक' (संपादन, प्रकाशक प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन, रांची) है।

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