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भारतीय जेल : कैद में संविधान, मनुवाद को सांस्थानिक संरक्षण

भारतीय जेल संविधान के आधार पर कार्य करने वाली संस्थान है। वही संविधान जिसमें समता का अधिकार सुनिश्चित है। परंतु संविधान लागू होने के सात दशक बाद भी भारतीय जेलों में मनुवादी जाति व्यवस्था कायम है

[लेख पूर्व में वेब पत्रिका ‘द वायर’ द्वारा ‘क्यों भारतीय जेलें मनु के बनाए जाति नियमों से चल रही हैं’ शीर्षक से प्रकाशित है। इसे हम संपादक की सहमति से प्रकाशित कर रहे हैं]

क्यों भारतीय जेलें मनु के बनाए जाति नियमों से चल रही हैं

नई दिल्ली/मुंबई/बेंगलुरू: [राजस्थान] के अलवर जिला जेल में अपने पहले दिन अजय कुमार* सबसे बदतर का सामना करने की हिम्मत जुटा रहे थे। यंत्रणा, बासी खाना, चुभती ठंड और कठिन मेहनत- जेलों की कठोर हकीकतों के बारे में अब तक उसकी जानकारी का आधार बॉलीवुड था।

उन्हें जैसे ही एक बड़े लोहे के गेट के अंदर लाया गया, विचाराधीन प्रभाग (अंडरट्रायल सेक्शन) में तैनात एक पुलिस कॉन्स्टेबल ने सवाल दागा , ‘गुनाह बताओ।’

अजय अभी बुदबुदाकर कुछ कह ही पाए थे कि कॉन्स्टेबल ने सवाल के जवाब का इंतजार किए बगैर दूसरा सवाल पूछा, ‘कौन जात?’ अनिश्चय की स्थिति में अजय ने हिचकते हुए कहा, ‘रजक।’

इस जवाब ने कॉन्स्टेबल को संतुष्ट नहीं किया। उसने आगे ‘बिरादरी बताने’ के लिए कहा। अनुसूचित जाति के भीतर की जातिगत अस्मिता की भले ही अजय के जीवन में आज तक कोई खास अहमियत न रही हो, लेकिन अगले 97 दिनों के उसके जेल प्रवास की सूरत इससे ही तय होने वाली थी।

यह 2016 की बात है, जब जेल में महज 18 साल के अजय को शौचालय साफ करना करने पड़े, वार्ड के बरामदे में झाड़ू लगानी पड़ी, पानी भरना और बागवानी जैसे अप्रतिष्ठित काम करने पड़े।

उसका काम सुबह होने से पहले शुरू हो जाता था और हर दिन पांच बजे शाम तक चलता था। उन्होंने बताया, ‘मैंने यह मान लिया था कि जेल में आने वाले हर नए कैदी को यह काम करना पड़ता है, लेकिन एक हफ्ते में यह बात साफ हो गई कि शौचालय साफ करने का काम कुछ चुने हुए लोगों को ही करना पड़ता था।’

कामों का बंटवारा स्पष्ट था। साफ-सफाई का काम जाति पिरामिड में सबसे निचले पायदान पर खड़े लोगों को करना पड़ता था। इस पिरामिड में ऊपर खड़े लोगों को रसोई या विधिक दस्तावेजीकरण विभाग (लीगल डॉक्यूमेंटेशन डिपार्टमेंट) में काम करना पड़ता था।

इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

पैसे और प्रभाव वाले लोग कोई काम नहीं करते थे। वे अपने मन की करते थे। इस व्यवस्था में कोई ताल्लुक उस अपराध से, जिसके लिए किसी को गिरफ्तार किया गया है, या जेल में उनके आचरण, से नहीं था। अजय कहते हैं, ‘सब कुछ जाति पर आधारित था।’

उन्हें जेल भेजे जाने के अब चार साल के करीब हो गए हैं। वह जहां काम करते थे, वहां के मालिक द्वारा उन पर चोरी का इल्जाम लगाया गया था। नए मंगाए गए स्विच बोर्ड के कुछ डिब्बे वर्कशॉप से गायब हो गए थे।

वे याद करते हुए कहते हैं, ‘मैं सबसे नया और सबसे कम उम्र का कर्मचारी था। मालिक ने बिना किसी सबूत के मुझ पर आरोप लगाया और मुझे पुलिस के हवाले कर दिया।’

जेल में 97 दिन बिताने और उसके बाद अलवर मजिस्ट्रेट कोर्ट में ट्रायल के बाद अजय को आखिरकार बरी कर दिया गया। लेकिन उस शहर में रह पाना संभव नहीं था। वे जल्दी ही दिल्ली चले आए।

22 साल के अजय अब सेंट्रल दिल्ली के एक मॉल में इलेक्ट्रिशियन का काम करते हैं। अजय कहते हैं कि जेल में बिताए हुए दिनों ने उनकी जिंदगी को कई मायनों में बदल दिया, ‘रातों-रात मुझ पर अपराधी का ठप्पा लगा दिया गया। इसके साथ ही मेरी पहचान एक छोटी जात वाले के तौर पर सीमित कर दी गई।’

मूल रूप से बिहार के बांका जिले के शंभूगंज प्रखंड (ब्लॉक) का रहने वाला अजय का परिवार 1980 के दशक की शुरुआत में राष्ट्रीय राजधानी (दिल्ली) आया था। उनके पिता दिल्ली के एक कुरियर फर्म में काम करते हैं और एक भाई एक राष्ट्रीयकृत बैंक में सिक्योरिटी गार्ड का काम करते हैं।

‘हमारी जाति धोबी है लेकिन हमारे परिवार में से कोई कभी भी इस जातिगत पेशे से नहीं जुड़ा था। मेरे पिता ने जानबूझकर शहर की जिंदगी चुनी थी क्योंकि वे गांव की कठोर जातिगत सच्चाई से भाग जाना चाहते थे।’

अजय कहते हैं, ‘लेकिन जेल के भीतर मेरी पिता की कोशिशों पर पानी फिर गया। मेरी ट्रेनिंग एक इलेक्ट्रिशियन के तौर पर हुई थी, लेकिन जेल के भीतर यह कोई मायने नहीं रखता था।’

उत्तरी दिल्ली में किराए की बरसाती में बैठे अजय कहते हैं, ‘मैं उस बंद जगह में बस एक सफाईवाला था।’ वे याद करते हुए बताते हैं कि इन सबमें सबसे ज्यादा दर्दनाक वाकया वह था जब जेल के गार्ड ने उन्हें एक जाम हो गए सेप्टिक टैंक को साफ करने के लिए बुलाया।

उन्होंने बताया, ‘एक रात पहले से जेल वार्ड के ओवरफ्लो हो रहे थे। लेकिन जेल अधिकारियों ने इसे ठीक करवाने के लिए बाहर से किसी को नहीं बुलाया। मैं यह जानकर हिल गया कि जेल अधिकारी यह काम मुझसे करवाना चाहते थे। मैंने दबी जुबान में इसका विरोध किया और गार्ड से कहा कि मैं इस तरह के काम करना नहीं जानता हूं। लेकिन उसने दलील दी कि कोई भी मेरे जितना दुबला-पतला और कोई नहीं है। उसने आवाज ऊंची करके कहा और मैंने हाथ खड़े कर दिए।’

अजय को अपने सारे कपड़े उतारकर सिर्फ अंडरवियर में टैंक का ढक्कन खोलकर इंसानी मल से भरे हुए हौज में उतरना पड़ा। ‘मुझे लगा कि मैं उस असह्य बदबू से मर जाऊंगा। मैं जोर-जोर से चीखने लगा। गार्ड को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि कि क्या करे। उसने अन्य कैदियों को मुझे बाहर निकालने के लिए कहा।’

भारत में मैला ढोने की प्रथा तीन दशक पहले समाप्त कर दी गई थी और 2013 में इस कानून में बदलाव करके नालों (सीवर) और सेप्टिक टैंकों की सफाई के लिए मानवों के इस्तेमाल को हाथ से मैला उठाने वाले कर्मियों के नियोजन का प्रतिषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम, 2013 के तहत ‘हाथ से मैला उठाना’ माना गया है। यानी गार्ड ने अजय को जो काम करने पर मजबूर किया, वह एक दंडनीय अपराध है।

वे कहते हैं, ‘जब भी मैं उस वाकये के बारे में सोचता हूं, मेरी भूख मर जाती है। जब भी किसी सफाईकर्मी या मेहतर को अपनी गली में देखता हूं दर्द से भर उठता हूं। यह दृश्य मुझे अपनी बेबसी की याद दिलाता है।’

यह बात हिला देने वाली लग सकती है, लेकिन यह अकेले अजय का अनुभव नहीं है। वे कहते हैं कि जेल में सब कुछ व्यक्ति की जाति से तय होता है।

जेल में किसी व्यक्ति की जीवन-शैली के आधार पर वे उसकी जाति बता सकते थे। अजय प्री-ट्रायल [विचाराधीन] कैदी था। दोषसिद्ध कैदियों के विपरीत उन्हें जेल में काम करने से छूट रहती है। लेकिन विचाराधीन कैदियों की जेल में जहां कैदियों की संख्या काफी कम थी, अजय जैसे कैदियों को मुफ्त में काम करवाने के लिए बुलाया जाता था।

जब नियम ही खुद जातिवादी हों

वास्तव में जाति आधारित श्रम कई राज्यों की जेल नियमावलियों (मैनुअल्स) में स्वीकृत है। 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध के उपनिवेशी नियमों में शायद ही कोई संशोधन हुआ है और इन नियमावलियों में जाति आधारित श्रम वाले हिस्से को छुआ भी नहीं गया है।

हालांकि, हर राज्य की अपनी विशिष्ट जेल नियमावली है, लेकिन वे अधिकांश हिस्सों में कारागार अधिनियम, 1894 पर आधारित हैं।

ये जेल नियमावलियां हर क्रियाकलाप का जिक्र तफसील के साथ करती हैं- भोजन की तौल से लेकर प्रति कैदी जगह और ‘अनुशासनहीनों’ के लिए दंड तक का इनमें जिक्र है।

अजय का अनुभव राजस्थान जेल नियमावली की व्यवस्था से मेल खाता है। जेल में खाना बनाने और चिकित्सा सेवा की देखरेख का काम उच्च जाति का काम माना जाता है, वहीं झाड़ू लगाने और साफ-सफाई को सीधे निचली जाति को सौंप दिया जाता है।

खाना बनाने के विभाग के बारे में जेल नियमावली कहती है :

‘कोई भी ब्राह्मण या अपने वर्ग से पर्याप्त उच्च जाति का कोई भी हिंदू कैदी रसोइए के तौर पर बहाली के लिए योग्य है।’

इसी तरह से इस नियमावली का ‘एम्पलॉयमेंट, इंस्ट्रक्शन एंड कंट्रोल ऑफ कंविक्ट्स’ (सिद्धदोषों का नियोजन, निर्देशन और नियंत्रण) शीर्षक वाला भाग 10 कहता है (यह प्रिजनर एक्ट कैदी अधिनियम के अनुच्छेद 59 (12) के तहत नियमों में भी उद्धृत है) :

‘सफाईकर्मियों का चयन उनके बीच से किया जाएगा, जो अपने निवास के जिले की परंपरा के अनुसार या उनके द्वारा पेशे को अपनाने के कारण सफाईकर्मी (स्वीपर) का काम करते हैं- जब वे खाली हों। कोई भी अन्य कैदी स्वैच्छिक तौर पर यह काम कर सकता है, लेकिन किसी भी स्थिति में एक व्यक्ति जो कि पेशेवर सफाईकर्मी (स्वीपर) नहीं है, उसे यह काम करने के लिए मजबूर नहीं किया जाएगा।’

लेकिन यह नियम ‘सफाईकर्मी समुदाय’ की रजामंदी सहमति के सवाल पर चुप रहता है।

ये नियम बुनियादी तौर पर बड़ी पुरुष आबादी को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं और उन राज्यों में जहां महिलाओं को लेकर अलग नियम नहीं बनाए गए हैं, महिलाओं की जेलों पर भी इन कानूनों को थोप दिया गया है।

राजस्थान की जेल नियमावली कहती है, ‘उपयुक्त’ जाति समूहों की स्त्री कैदी के न होने पर ‘दो या तीन खासतौर पर चयनित पुरुष दोषसिद्ध मेहतरों को भुगतान किए जानेवाले एक मजदूर के साथ अहाते में लाया जाएगा, इस शर्त के साथ….’

मेहतर एक जातिसूचक का नाम है, जो जातिगत पेशे के तौर पर हाथ से मैला उठाने में शामिल लोगों को संबोधित करने के लिए इस्तेमाल होता है।

चिकित्साकर्मियों को लेकर नियमावली कहती है, ‘दो या ज्यादा लंबी कैद वाले अच्छी/ऊंची जाति के कैदियों को अस्पताल परिचारक (हॉस्पिटल अटेंडेंट) के तौर पर प्रशिक्षित और नियोजित किया जाना चाहिए।’

सभी राज्यों में जेल नियमावली और नियम आवश्यक दैनिक श्रम को तय करते हैं। श्रम का विभाजन मोटे तौर पर ‘शुद्धता-अशुद्धता’ के पैमाने पर किया गया है, जिसमें ऊंची जातियां सिर्फ ‘शुद्ध/पवित्र’ माना जाने वाला कार्य करती हैं और ‘अशुद्ध/अपवित्र’ काम जातिगत सीढ़ी में नीचे आने वाली जातियों के लिए छोड़ दिया जाता है।

बिहार का उदाहरण देखिए : ‘खाना बनाने’ शीर्षक वाले खंड की शुरुआत इन पंक्तियों से होती है- ‘खाने की गुणवत्ता, सही तरीके से उसकी तैयारी और उसे पकाना और पूरी मात्रा में उसके बंटवारे का भी उतना ही महत्व है।’

जेल में तौल और पाक-कौशल का और ब्यौरा देते हुए जेल नियमावली में कहा गया है, ‘कोई भी ‘ए श्रेणी’ का ब्राह्मण या पर्याप्त तौर पर उच्च जाति का हिंदू कैदी रसोइए के तौर पर नियुक्ति के लिए योग्य है।’

इस नियमावली में आगे स्पष्ट किया गया, ‘किसी जेल में ऐसा कैदी जो इतनी ऊंची जाति का है कि वह मौजूदा रसोइयों के हाथों से बना खाना नहीं खा सकता है, उसे ही सभी व्यक्तियों के लिए रसोइया नियुक्त किया जाएगा। किसी भी सूरत में व्यक्तिगत दोषसिद्ध कैदियों को अपने लिए खाना बनाने की इजाजत नहीं दी जाएगी, सिवाय स्पेशल डिवीजन कैदी के, जिन्हें नियम के तहत ऐसा करने की इजाजत है।’

ऐसा सिर्फ कागजों पर नहीं है

ये सिर्फ आधिकारिक पुस्तिका में लिख कर भुला दी गई इबारतें नहीं हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में हर जगह दिखाई देने वाली जाति-व्यवस्था खुद को अनेक तरीके से प्रकट करती है।

हमने जिन कैदियों से बात की, उनमें से कई ने सिर्फ उनके जन्म की जाति के आधार पर पृथक्करण यानी अलग-थलग किए जाने और निम्नस्तरीय काम करने के लिए मजबूर किए जाने के अनुभव साझा किए।

ब्राह्मण और उच्च जातियों के अन्य कैदी जहां छूट को गर्व और विशेषाधिकार का विषय समझते थे, वहीं बाकी लोगों की स्थिति के लिए सिर्फ जाति-व्यवस्था जिम्मेदार थी।

‘जेल आपको आपकी औकाद (औकात) बताता है,’ जुब्बा साहनी भागलपुर सेंट्रल जेल में करीब एक दशक और मोतिहारी सेंट्रल जेल में कुछ महीने बिताने वाले पूर्व कैदी पिंटू का कहना है कि ‘जेल आपको आपकी सही औकाद (औकात) बताता है।’

नाई समुदाय से आनेवाले पिंटू ने जेल के अपने प्रवास के दौरान जेल में नाई का काम किया। बिहार जेल नियमावली भी श्रम में जाति पदानुक्रम को औपचारिक रूप देती है।

उदाहरण के लिए, सफाई का काम सौंपे जाने वालों के लिए इसमें कहा गया है : ‘सफाईकर्मियों का चयन मेहतर या चांडाल या अन्य निचली जातियों से- अगर अपने अपने जिले की प्रथा के हिसाब से वे खाली रहने पर उससे मिलता-जुलता काम करते हैं या किसी भी जाति से अगर कोई कैदी स्वेच्छा से ऐसा काम करने के लिए तैयार होता है, किया जाएगा।’ ये तीनों ही जातियां अनुसूचित जाति के तहत आती हैं।

समय-समय पर जेल नियमावलियों में कुछ बदलाव होते रहे हैं। कुछ मौकों पर सार्वजनिक विरोध या सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद ऐसा किया गया।

कुछ मौकों पर खुद राज्यों ने इसकी जरूरत महसूस की। लेकिन ज्यादातर राज्यों में जातिगत श्रम विभाजन के सवाल को नजरंदाज कर दिया गया है।

कुछ मामलों में, मिसाल के लिए उत्तर प्रदेश में, सुधारात्मक प्रभावों के लिए धार्मिक और जाति पूर्वाग्रहों को महत्वपूर्ण माना जाता है।

जेल में सुधारात्मक प्रभावों पर केंद्रित पर एक अलग अध्याय कहता है, ‘ सभी मामलों में कैदियों की धार्मिक वर्जनाओं और जाति पूर्वाग्रहों को, जहां यह अनुशासन बनाए रखने वाला हो, तर्कसंगत सम्मान दिया जाएगा।’

इन पूर्वाग्रहों की ‘तर्कसंगतता और अनुकूलता’ की हद को लेकर विवेकाधिकार सिर्फ जेल प्रशासन के पास है। लेकिन, इस मामले में तर्कसंगतता का अर्थ पुरुष और महिला जेलों में श्रम का बंटवारा करने और कुछ लोगों को कठिन श्रम से मुक्त रखते वक्त प्रकट जाति-पूर्वाग्रहों को आगे बढ़ाना मात्र ही रहा है।

मध्य प्रदेश जेल नियमावली, जिसमें कुछ साल पहले ही संशोधन किया गया था, मल वहन कार्य- हाथ से मैला उठाने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला आधिकारिक पद- के जाति आधारित आवंटन को जारी रखती है।

‘मल वहन’ शीर्षक अध्याय कहता है कि शौचालयों में मानव मल की साफ-सफाई की जिम्मेदारी ‘मेहतर कैदी’ की होगी।

हरियाणा और पंजाब राज्य की जेल नियमावलियों और नियमों में भी इस तरह के व्यवहारों का जिक्र मिलता है। सफाईकर्मियों, नाइयों, रसोइयों, अस्पताल कर्मचारी आदि का चुनाव कैदियों की जाति पहचान के आधार पर किया जाता है।

अगर किसी जेल में किसी जरूरी काम को करने के लिए जाति विशेष के कैदियों की कमी है, तो नजदीकी जेलों से कैदियों को लाया जा सकता है। लेकिन, नियमावली में किसी अपवाद या नियमों में परिवर्तन बदलाव का कोई उल्लेख नहीं है।

कैदियों के अधिकारों पर काम कर रहे एक गैर-सरकारी संगठन कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट इनिशिएटिव (सीएचआरआई) में काम कर रहीं प्रोग्राम ऑफिसर सबिका अब्बास ने हाल ही में जब पंजाब और हरियाणा की जेलों की यात्रा की तब इस व्यवहार के खुले प्रचलन ने उन्हें हिला कर रख दिया।

अब्बास कहती हैं, ‘पुरुष और महिला कैदियों ने एक स्वर में कामों के जाति आधारित बंटवारे का अनुभव उनके साथ साझा किया। कुछ लोग गरीबी और परिवार से आर्थिक मदद न मिलने के कारण काम करने पर मजबूर थे. लेकिन ये कैदी भी मुख्यतौर पर पिछड़ी जातियों से थे।’

पंजाब एवं हरियाणा विधिक सेवा प्राधिकरण (लीगल सर्विस अथॉरिटीज ऑफ हरियाणा एंड पंजाब) द्वारा अधिकृत उनके शोध में जेल तंत्र से जुड़े कई मसलों को शामिल किया गया है।

अब्बास का कहना है कि हालांकि सुनवाई-पूर्व (प्री-ट्रायल) कैदी जेल में श्रम करने से मुक्त हैं, लेकिन स्थापित व्यवस्था उन्हें काम करने पर मजबूर करती है।

‘हमने पाया कि दोनों ही राज्यों की ज्यादातर जेलों में स्वीपर और क्लीनर के ज्यादातर पद वर्षों से खाली पड़े थे। यह मान लिया गया था कि ये काम छोटी जाति से आने वाले कैदी करेंगे।’

अब्बास बताती हैं कि दूसरे राज्यों की जेलों के उलट जो आज भी उपनिवेशी जेल नियमों का अनुसरण कर रहे हैं, पंजाब की नियमावली में संशोधन हुए हैं।

वह आगे कहती हैं ‘पंजाब की नियमावली अपेक्षाकृत ढंग से नई है। आखिरी बार इसे 1996 में अपडेट किया गया था, लेकिन इसके बावजूद इसमें जाति आधारित प्रावधान समाप्त नहीं किए गए हैं।’

पश्चिम बंगाल यूं तो राजनीतिक और लोकतांत्रिक आंदोलन को लेकर गिरफ्तार किए गए कैदियों के संबंध में विशेष प्रावधान करने वाला शायद इकलौता राज्य है, मगर जाति आधारित श्रम बंटावारे के सवाल पर यह भी उतना ही प्रतिगामी और असंवैधानिक है।

उत्तर प्रदेश की ही तरह, पश्चिम बंगाल की जेल नियमावली ‘धार्मिक व्यवहार और जाति आधारित पूर्वाग्रहों में हस्तक्षेप न करने’ की नीति पर चलती है।

नियमावली में कुछ विशिष्ट वरीयताओं को शामिल किया गया है- ‘जनेऊ’ पहनने वाले ब्राह्मण या खास नाप के पजामे की मांग करने वाले मुसलमान। लेकिन इसके साथ ही नियमावली यह भी कहती है, ‘खाना पकाने और उसे जेल के कमरों तक पहुंचाने का काम उपयुक्त जाति के कैदी-रसोइए जेल के अधिकारी के निरीक्षण में करेंगे।’

इसी तरह सफाईकर्मियों का चयन मेहतर या हरि जाति से या चांडाल या अन्य जातियों से किया जाएगा, अगर अपने जिले की परंपरा के अनुसार वे खाली होने पर इससे मिलते-जुलते काम करते हैं। यह चयन किसी भी जाति से किया जा सकेगा अगर कोई कैदी स्वेच्छा से यह काम करना चाहता है।’

जेल नियमों की पुस्तिकाओं में ये प्रथाएं कायम हैं और किसी ने इसे चुनौती नहीं दी है।

आंध्र प्रदेश के एक पूर्व इंस्पेक्टर जनरल ऑफ प्रिजन और वेल्लोर स्थित सरकारी अकेडमी ऑफ प्रिजन्स एंड करेक्शनल एडमिनिस्ट्रेशन के पूर्व निदेशक डॉ. रियाजुद्दीन अहमद का कहना है कि नीति-निर्माण संबंधी फैसले करते वक्त जाति का सवाल चर्चा में भी नहीं आता है, ‘34 साल से ज्यादा के मेरे करिअर में इस सवाल पर कभी चर्चा नहीं हुई।’

अहमद को लगता है कि नियमावली में वर्णित नियम काफी हद तक जेलों में बंद लोगों के प्रति सरकार के रवैये को दिखाते हैं। अहमद कहते हैं, ‘आखिर जेल अधिकारी भी जेल के बाहर के जातिग्रस्त समाज की पैदाइश हैं। मगर नियमावलियों में चाहे जो लिखा हो, कैदियों की गरिमा और समानता को सुनिश्चित करना पूरी तरह से जेल कर्मचारियों पर निर्भर करता है।’

दिल्ली की वकील और भारतीय जाति व्यवस्था की मुखर आलोचक दिशा वाडेकर जेल कानूनों की तुलना मनु के प्रतिगामी कानूनों से करती हैं।

एक मिथक-पुरुष मनु को मनुस्मृति का रचनाकार माना जाता है, जिन्होंने प्राचीन काल में जाति और जेंडर के आधार पर मानवता के निम्नीकरण की संहिता का निर्माण किया था।

वाडेकर कहती हैं, ‘यह जेल-प्रणाली बस मनु की दंडनीति की नकल है। जेल व्यवस्था उस आदर्श दंड-प्रणाली पर काम करने में विफल रही है, जो कानून के समक्ष सबकी समानता और सबको कानून के समान संरक्षण के सिद्धांत पर बनाई गई है। इसके उलट यह मनु के कानूनों का अनुसरण करती है जिसकी आधारशिला अन्याय के सिद्धांत पर रखी गई है- एक व्यवस्था जो यह मानती है कि कुछ जिंदगियों को दूसरों से ज्यादा सजा दी जानी चाहिए और कुछ जिंदगियां दूसरों से ज्यादा मूल्य रखती हैं। राज्य परंपरा से प्राप्त ‘न्याय’ की जाति आधारित समझ पर ही चल रहे हैं और जाति पदानुक्रम में व्यक्ति के स्थान के आधार पर ही वे दंड और श्रम पर निर्णय करते हैं।

पश्चिम बंगाल को छोड़ दें, तो अन्य भारतीय राज्यों ने कारागार अधिनियम, 1894 पर काफी कुछ लिया है। अहमद कहते हैं, ‘सिर्फ लिया ही नहीं, बल्कि सही मायने में वे उससे आगे ही नहीं बढ़ पाए हैं।’

2016 में पुलिस शोध एवं विकास ब्यूरो (ब्यूरो ऑफ पुलिस रिसर्च एंड डेवलपमेंट) ने एक विस्तृत मॉडल जेल नियमावली पेश की। यह मॉडल जेल नियमावली महिला कैदियों के साथ बर्ताव के संयुक्त राष्ट्र के नियम (यूएन बैंकॉक रूल्स) और कैदियों के साथ बर्ताव के न्यूनतम संयुक्त राष्ट्र मानकों (मंडेला रूल्स) पर आधारित है।

ये दोनों ही नस्ल, रंग, लिंग, भाषा, धर्म, राजनीतिक तथा अन्य मत, राष्ट्रीय या अन्य विचार, उद्भव, संपत्ति, जन्म या किसी अन्य दर्जे के आधार पर भेदभाव की प्रथा को समाप्त करने की मांग करते हैं।

1977 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्वीकृत नागरिक एवं राजनीति अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय अनुबंध, भारत भी जिसका एक पक्ष है, ने यह साफतौर पर कहा है कि ‘किसी को भी बलपूर्वक या अनिवार्य श्रम करने के लिए मजबूर नहीं किया जाएगा।’

बदलाव की कोई इच्छा ही नहीं 

चूंकि जेल ‘राज्य सूची’ का विषय है, इसलिए मॉडल जेल नियमावली में बदलावों की इन सिफारिशों को लागू करना पूरी तरह से राज्यों पर है।

विभिन्न राज्यों की वर्तमान जेल नियमावलियों में दिक्कतों को स्वीकार करते हुए मॉडल जेल नियमावली कहती है,‘जेलों में जाति या धर्म के आधार पर रसोईघर का प्रबंधन या खाना पकाना पूरी तरह से प्रतिबंधित रहेगा।’

इसी तरह से मॉडल नियमावली जाति और धर्म के आधार पर किसी कैदी के साथ किसी तरह के ‘विशेष व्यवहार’ को प्रतिबंधित करती है। वास्तव में मॉडल जेल नियमावली ‘जाति और धर्म के आधार पर मांग रखने या कार्य करने को दंडनीय अपराध करार देती है। लेकिन इस नियमावली को लागू करने की दिशा में शायद ही कुछ किया गया है।

ऐसा नहीं है कि राज्य के जेल विभागों ने नियम की पुस्तिकाओं से अमानवीय और असंवैधानिक प्रथाओं को हटाया नहीं है। गोवा, दिल्ली, महाराष्ट्र और ओडिशा ने ऐसा किया है।

उन्होंने यह खास तौर पर यह लिखा है कि जेलों के संचालन में जाति का कोई महत्व नहीं होगा। गुजरते वर्षों में दंड देने के लिए पांवों में बेड़ियां बांधने या चाबुक मारने जैसी कई अमानवीय प्रथाओं को समाप्त कर दिया गया है। इसी तरह से कुछ राज्य कारागारों में जाति आधारित पेशों को भी खत्म कर दिया गया है।

लेकिन क्या इसने जाति-प्रथा को पूरी तरह से समाप्त कर दिया? एक पूर्व कैदी ललिता* इसका जवाब ‘न’ के तौर पर देती हैं।

2010 और 2017 के बीच ललिता ने मुंबई और महाराष्ट्र में कई मामलों का सामना किया। उनकी कैद का ज्यादातर समय बायकुला महिला कारागार में बीता।

उन्हें समय-समय दूसरी जेलों में भी ले जाया गया। इस आने-जाने और दूसरे कैदियों और जेल अधिकारियों से संवाद ने उन्हें जेल प्रणाली को उसकी पूरी जटिलता में समझने का मौका दिया।

पुरुष कैदियों के उलट महिला कैदियों की संख्या कम होती है, इसलिए उनके लिए उपलब्ध प्रावधान भी कम होते हैं।

ललिता जेल में अपने और अपने साथी कैदियों के लिए बुनियादी अधिकारों और गरिमा की मांग करने वालों में से थीं। इसलिए जब महिला कैदियों ने अच्छी गुणवत्ता के भोजन और अंडा-मुर्गा-मीट की महीने में ज्यादा आपूर्ति की मांग को लेकर जेल अधिकारियों के खिलाफ विद्रोह किया, तो ललिता उनमें सबसे आगे थी।

जेल नियमों की संख्या काफी ज्यादा है और जेल अधिकारी हर बार उनका इस्तेमाल कैदियों और उनके कानूनी नुमाइंदों द्वारा किसी हस्तक्षेप को रोकने के लिए करते हैं। लेकिन कैदियों की बात तो जाने ही दीजिए, ये आधिकारिक दस्तावेज आम लोगों के लिए भी शायद ही कभी उपलब्ध होते हैं।

ललिता कहती हैं, ‘एक जानकारी रखने वाले कैदी द्वारा अपने अधिकारों की मांग करने से ज्यादा खतरनाक कुछ नहीं है।’ अहमद ललिता से इत्तेफाक रखते हैं।

संशोधित नियमावलियों की अनुपलब्ध्ता को समझाते हुए एकेडमी ऑफ प्रिजंस एंड करेक्शनल एडमिनिस्ट्रेशन, वेल्लोर, के प्रोफेसर एवं वरिष्ठ फैकल्टी बेलुआह इमैनुएल कहते हैं कि बदलावों को नियमावलियों में जगह पाने में औसतन कम से कम 15 साल का समय लगता है।

इमैनुएल आगे कहते हैं, ‘हर बार जब राज्य सरकार इस नियमावली में कोई बदलाव लाती है, इसे सिर्फ आधिकारिक स्तर पर लिख लिया जाता है।’ जेल नियमावली में बदलाव 15 सालों में एक बार इसका दोबारा मुद्रण होने पर ही दिखाई देता है। सभी संशोधनों का एक जगह मिल पाना व्यावहारिक तौर पर लगभग असंभव है।’

कई दशकों से कैदियों के अधिकारों पर काम कर रहा सीएचआरआई भी संशोधित जेल नियमावलियों को संकलित करने की अपनी कोशिश में नाकाम रहा है।

सीएचआरआई की सीनियर प्रोग्राम ऑफिसर सुगंधा शंकर कहती हैं, ‘सिर्फ दस के करीब राज्यों की जेल नियमावलियां/नियम ही राज्य की जेल वेबसाइट पर उपलब्ध हैं। दूसरे राज्यों के संशोधित नियमों की प्रति हासिल कर पाना बेहद कठिन है। हमारा अनुभव है कि कैदियों के लिए भी जेल नियमावली हासिल कर पाना काफी चुनौतीपूर्ण है। आदर्श तौर पर हर जेल लाइब्रेरी में जेल नियमावलियों की एक प्रति अनिवार्य रूप से होनी चाहिए।’

हर नियम के ऊपर रही एक साध्वी की कहानी

ललिता कहती हैं कि महाराष्ट्र में अलिखित जाति प्रथाएं काफी प्रचलित हैं। जिस समय वे बायकुला जेल में थीं, उसी समय उत्तर महाराष्ट्र के मालेगांव में 2008 में हुए बम धमाके की मुख्य आरोपी प्रज्ञा सिंह ठाकुर भी उसी जेल में थीं।

2017 में रिहाई के बाद ठाकुर को भारतीय जनता पार्टी में शामिल कर लिया गया और बाद में 2019 में वे भोपाल से लोकसभा की सांसद चुनी गईं।

अपनी गिरफ्तारी के समय वे महज एक स्वयंभू धर्मगुरु थीं। लेकिन इस तथ्य ने जेल में उन्होंने रसूख बढ़ाने और जेल अधिकारियों को प्रभावित करने से नहीं रोका।

ठाकुर को तीन ‘अलग कोठरियों’ में से एक में रखा गया था। यह निजता की इच्छा रखने वाले धनी और प्रभावशाली के लिए ‘वीआईपी सेल’ के तौर पर भी काम करता है और गलती करने वाले कैदी के लिए यंत्रणा कक्ष या कालकोठरी के तौर पर भी काम करता है।

उनकी अलग कोठरी के बाहर तीन अन्य विचारधीन कैदियों को उनकी ‘सेविका’ के तौर पर तैनात किया गया था जिनका काम सिर्फ ठाकुर के आदेशों का पालन करना था।

एक विचारधीन कैदी, जो ठाकुर यानी क्षत्रिय जाति से ही थी, को उनके खाने-पीने का ख्याल रखने के लिए तैनात किया गया था। ठाकुर द्वारा जेल अधिकारियों द्वारा उनके खाने में कीड़े और अंडे के टुकड़े मिलाने की शिकायत के बाद ट्रायल कोर्ट ने ठाकुर को घर का पका खाने की इजाजत दे थी।

उनका एक रिश्तेदार भगवान झा हर दिन गुजरात के सूरत से 280 किलोमीटर की यात्रा करके बड़ा टिफिन कैरियर लेकर बायकुला जेल आता था। घर का पका हुआ ताजा खाना हर दिन सुबह होने से पहले ही जेल पहुंच जाता था।

ठाकुर सेविका का काम जेल कार्यालय से टिफिन कैरियर लेकर आना और ठाकुर को दिन में तीन बार खाना परोस कर खिलाना था। इसी तरह से प्रभावशाली जाट समुदाय की एक अन्य महिला को ठाकुर का ‘बॉडीगार्ड’ बहाल किया गया था। वह ड्रग की तथाकथित कारोबारी थी। एक स्थानीय दलित महिला उनका शौचालय साफ करती थी।

प्रज्ञा के धर्म, जाति पदानुक्रम में उनकी जाति के स्थान और उनके राजनीतिक रसूख ने जेल में उनके और उनकी सेवा करने वालों की जगह तय की। प्रज्ञा ने इन सेवाओं की मांग कुछ ऐसे की जैसे यह उनका वैधानिक अधिकार हो- और सरकार इसके लिए राजी भी हो गई।

ललिता कहती हैं, ‘यह बात कोई मायने नहीं रखती थी कि जेल नियमावली ऐसी रियायतों की इजाजत देती है या नहीं! मायने यह रखता है कि यह सब न सिर्फ हुआ, बल्कि जेल कर्मचारियों की पूर्ण जानकारी में हुआ।’

कई अन्य पूर्व कैदियों ने भी, जो इसी समय जेल में थे, इस बात की तस्दीक की है।

महाराष्ट्र के 60 जिला और केंद्रीय जेलों में, बायकुला जेल विचाराधीन स्त्री कैदियों के लिए बनी जेल है, जिसमें 262 कैदियों की जगह है. लेकिन किसी भी समय विचारधीन कैदियों की संख्या इस आधिकारिक क्षमता से कहीं अधिक रहती है।

कुछ दोषसिद्ध कैदियों के अलावा, जो रोजाना के कामों को करने के लिए यहां खासतौर पर रखे गए हैं, ज्यादातर श्रम का काम विचाराधीन कैदियों को करना पड़ता है।

इनमें सबसे ज्यादा असुरक्षित स्थिति बांग्ला भाषी मुस्लिम महिलाओं की है, जो बगैर उचित दस्तावेज के, पड़ोसी बांग्लादेश से आई अप्रवासी होने के आरोपों में जेल में डाल दी जाती हैं।

जब किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाता है, तब बाहरी दुनिया अक्सर पुलिसिया कार्रवाई के डर से उनसे संपर्क तोड़ लेती है।

मुंबई के रे रोड इलाके में घरेलू सहायिका का काम करनेवाली नूरजहां मंडल* से बायकुला जेल में उनके चार महीने के प्रवास के दौरान कोई भी मिलने नहीं आया।

बांग्लादेश की सीमा पर पश्चिम बंगाल के एक शहर की दलित मुस्लिम मंडल कहती हैं, ‘मेरा परिवार इतना ज्यादा डरा हुआ था कि उन्होंने मुझसे इस दौरान न कोई संपर्क किया न ही मुझे कोई मनीऑर्डर भेजा। मेरे पास भूखे होने पर थोड़ा-बहुत नाश्ता खरीद लेने का भी पैसा नहीं होता था। मैं अपना काम चलाने के लिए जेल में निम्नस्तरीय काम करने को मजबूर थी।’

वे झाड़ू-पोछा लगाया करती थीं और वृद्ध कैदियों की नहाने में मदद करती थीं। इसके बदले में उन्हें कैंटीन के कुछ कूपन मिल जाते थे।

मुंबई मेट्रोपॉलिटन क्षेत्र में अवस्थित पांच जेलों में कई बांग्ला भाषी मुसलमान थोड़े से पैसे या खाने की वस्तुओं के लिए इसी तरह के काम करते हैं।

ललिता को लगता है कि ‘जाति और गरीबी दोनों ही यहां अंतर्निहित कारक हैं। आप जेल में किसी गरीब ब्राह्मण महिला को कभी भी इस तरह की हताशापूर्ण स्थिति में नहीं देखेंगे। भारत की सत्ता और समाज, दोनों ही निर्माण उनकी सहायता करने के लिए बने हुए हैं। यह सुरक्षातंत्र दूसरों के लिए नहीं है।’

एक जेल का जाति-मानचित्र

1994 की गर्मियों में तमिलनाडु के एक साधारण गांव के मंदिर में हुए एक पारिवारिक झगड़े ने एक सामान्य बहसा-बहसी से बढ़कर एक हिंसक रूप अख्तियार कर लिया, जिसमें एक नौजवान की मृत्यु हो गई।

तब 25 साल के आसपास उम्र के सेलवम* नौ लोगों द्वारा किए गए इस जानलेवा हमले में शामिल थे। उन्होंने जल्दी ही एक स्थानीय पुलिस के सामने समर्पण कर दिया।

यह पहली बार था जब सेलवम किसी आपराधिक कृत्य में शामिल थे। एक स्थानीय उप-जेल में कुछ दिन बिताने के बाद उन्हें तिरुनेवेली के पलायमकोट्टई केंद्रीय कारागार में स्थानांतरित कर दिया गया।

वे याद करते हैं, ‘मैं वहां 75 दिन के आसपास रहा.किसी भी कारागार संरचना की तरह इस जेल में भी कई वॉर्ड और सेल थे. मुझे ‘क्वारंटीन वॉर्ड 2’ में रखा गया था।’

तमिलनाडु में क्वारंटीन विचाराधीन कैदियों के लिए इस्तेमाल किया जानेवाला एक स्थानीय पद है। चार साल बाद सेलवम को दोषसिद्ध करार दिया गया और आजीवन कारावास की सजा दी गई।

1998 के मध्य में उन्हें एक बार फिर जेल भेज दिया गया। वे बताते हैं, ‘अब जेल एक अलग जगह थी। वार्डों का नया-नया नामकरण जाति के आधार पर किया गया था। विचाराधीन प्रभाग में थेवर, नादर, पालर- सबका अपने लिए समर्पित अलग हिस्सा था।’

सेलवम कोलर या लोहार जाति से थे, जो तमिलनाडु में संख्या के हिसाब से एक छोटा समुदाय है। उनके मुताबिक, ‘जेल अधिकारियों ने कुछ जातियों की पहचान फसाद करने वाली जातियों के तौर पर की थी और उन्हें अलग-अलग रखने का फैसला किया था। बाकी सबको उनकी जाति के पदानुक्रम के हिसाब से रखा गया था।’

इन बैरकों का निर्माण जाति के वर्चस्व के आधार पर किया गया है। थेवर वैसे तो अन्य पिछड़ा वर्ग से आते हैं, लेकिन दक्षिण तमिलनाडु के क्षेत्रों में उनकी प्रभुत्व की स्थिति है। उन्हें जेल कैंटीन, लाइब्रेरी और अस्पताल के करीब रखा जाता है। इसके आगे नादर ब्लॉक है (यह भी ओबीसी जाति है) सबसे दूर पालर ब्लॉक है, जिसमें दलित कैदियों को रखा जाता है।

लेकिन यह प्रथा मुख्य तौर पर विचाराधीन अनुभाग तक ही सीमित रही है और दोषसिद्ध कैदियों में पृथक्करण उतना कठोर नहीं है। इसका एक संभावित कारण दोषसिद्ध कैदियों की तुलना में विचाराधीन कैदियों की न्यायिक तंत्र तक अपेक्षाकृत ज्यादा पहुंच है।

बाल कैदियों के लिए काम करने वाले गैर सरकारी संगठन ग्लोबल नेटवर्क फॉर इक्वलिटी के संस्थापक और एडवोकेट के.आर. राजा कहते हैं, ‘जेलों में जेल अधिकारी कैदियों के साथ बहुत सख्ती से पेश आते हैं। लेकिन, विचाराधीन कैदियों पर जरूरत से ज्यादा बल प्रयोग को लेकर जेल अधिकारी सतर्क रह सकते हैं, क्योंकि उनके कोर्ट में याचिका दायर करने की संभावना सबसे ज्यादा है। दूसरी तरफ दोषसिद्ध व्यक्तियों के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटाना इतना आसान नहीं होता है और जेल अधिकारियों को लगता है कि इन्हें ज्यादा असरदार तरीके से काबू में लाया जा सकता है। पृथक्करण नियमों में अंतर का यह कारण है।’

एक प्रशिक्षित काउंसलर राजा ने पलायमकोट्टई जेल में छह साल से ज्यादा समय तक काम किया है। वे विभिन्न बैरकों के कैदियों से मुलाकात करके जेल अवसादों का सामना करने में उनकी मदद करते थे।

राजा ने पलायमकोट्टई जेल की संचना का काफी करीबी अध्ययन किया है। वे जेल में होने वाले बदलावों को जेल के बाहर की दुनिया में उस दौरान होने वाले बदलावों से जोड़ते हैं। वे कहते हैं, ‘आखिर जेलें भी बाहर के समाज का अक्स ही हैं।’

1990 के दशक के मध्य में तमिलनाडु, खासकर राज्य के दक्षिणी जिले दलित समुदाय के खिलाफ राज्य के सबसे भीषण जातीय हिंसा का गवाह बने।

जून, 1997 में मदुरई जिले के मेलावालावू गांव में अच्छी खासी संख्या वाले अन्य पिछड़ा वर्ग के थेवरों ने ग्राम परिषद के अध्यक्ष पद के चुनाव के बाद दलित समुदाय के छह नेताओं को मार डाला था

राजा बताते हैं, ‘तूथूकुडी, तिरुनेवेली, मदुरई और धर्मपुरी क्षेत्र में हमलों का एक सिलसिला शुरू हो गया था। राज्य सरकार के लिए प्रभावशाली जाति समूहों पर नियंत्रण पाना मुश्किल हो रहा था और बगैर ज्यादा विचार किए हुए उन्होंने जेल में बंद कैदियों को जाति के आधार पर अलग-अलग करने का फैसला किया।’

यह प्रथा एक दशक से ज्यादा समय तक बगैर किसी सार्वजनिक विरोध के चलती रही। 2011 में मद्रास उच्च न्यायालय की मदुरई बेंच में प्रैक्टिस कर रहे एडवोकेट आर. अलगुमणि ने इसको लेकर एक याचिका दायर की।

अलगुमणि कहते हैं, ‘चूंकि मैं अपने मुवक्किलों के साथ सीधे संवाद करने को तरजीह देता हूं, इसलिए अक्सर जेल जाया करता था। मुझे आज भी याद है कि मैं जब पहली बार मुरुगन नाम के एक कैदी से मिलने के लिए पलायमकोट्टई जेल में गया। मेरे पास काफी कम सूचना थी और मैं यह उम्मीद कर रहा था कि जेल का गार्ड सही व्यक्ति को खोज पाएगा। जब मैंने मुरुगन का जिक्र किया, तो गार्ड ने मुझसे व्यक्ति की जाति बताने के लिए कहा। मैं हैरान रह गया। मुझे मुरुगन की जाति की जानकारी नहीं थी, इसलिए उसे खोजने में गार्ड मेरी मदद नहीं कर पाया। उस समय मैंने यह महसूस किया कि पलायमकोट्टई में एक कैदी से मिलने के लिए उसका नाम और उसकी केस हिस्ट्री ही काफी नहीं है। आपको उसकी जाति की भी जानकारी होनी चाहिए।’

यह प्रथा असंवैधानिक थी, लेकिन कई वर्षों के दौरान इसका सांस्थानीकरण हो गया था। अलगुमणि ने उच्च न्यायालय में इसे चुनौती देने का फैसला किया। उन्हें इस बात की उम्मीद थी कि कोर्ट इस पर संज्ञान लेगा और इसमें तत्काल हस्तक्षेप किया जाएगा।

अलगुमणि कहते हैं, ‘लेकिन इसकी जगह जेल अधिकारियों ने अपनी बेबसी प्रकट करते हुए यह दावा किया कि ऐसे कैदियों को अलग-थलग करना ही जेल में कानून-व्यवस्था बनाए रखने का एकमात्र रास्ता है। कोर्ट ने हलफनामा स्वीकार कर लिया और मामला खत्म हो गया।’

इसके साथ ही एक विभेदकारी कार्य को समाज में शांति बनाए रखने के एकमात्र ‘स्वीकार्य तरीके’ के तौर पर मान्यता दे दी गई।

अलगुमणि का तर्क है कि यह सुविधा का मामला ज्यादा है। वे पूछते हैं, ‘क्या भारत सरकार जेल के बाहर ऐसे पृथक्करण और भेदभाव को जायज ठहरा सकती है? अगर नहीं,तो यह जेलों के भीतर जायज कैसे है?’

हालांकि, पलायमकोट्टई की प्रथा के बारे में काफी लोगों को पता है, लेकिन वास्तव में जाति आधारित पृथक्करण दूसरे जिलों में भी देखा जाता है। मुख्य तौर पर तमिलनाडु के दक्षिणी क्षेत्र में।

मिसाल के लिए मदुरई केंद्रीय जेल में न केवल पृथक्करण की प्रथा है, बल्कि इस पर जाति आधारित श्रम विभाजन का भी आरोप है।

यहां के जेल अधिकारी सफाई का काम सिर्फ दलित समुदाय को देने के लिए कुख्यात हैं। इस प्रथा के खिलाफ भी अलगुमणि द्वारा दायर की गई एक याचिका मदुरई बेंच के सामने लंबित है।

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों ने सतत तरीके से भारतीय जेलों में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़ा वर्गों के औसत से ज्यादा प्रतिनिधित्व को रेखांकित किया है। लेकिन कुछ जाति-विरोधी संगठनों और अलगुमणि और राजा जैसे कुछ वकीलों को छोड़कर ज्यादातर मानवाधिकार समूहों ने भारत के जेल तंत्र में जाति की हकीकत को नजरअंदाज किया है।

शोध और पैरोकारी अभियानों का ध्यान मुख्य तौर पर प्रकट उल्लंघनों पर रहा है। जाति आधारित भेदभाव जैसी अधिकारों का उल्लंघन करने वाली प्रथाएं उनके विमर्श का हिस्सा नहीं बनती हैं।

वाडेकर कहती हैं कि यह प्रभावशाली पदों पर हाशिये के समुदायों के प्रतिनिधित्व की कमी की गंभीर समस्या का लक्षण है।

वाडेकर कहती हैं, ‘भारत में कैदियों के लगभग सभी अधिकार संगठनों और अकादमिया ने जाति के मसले को अनदेखा किया है. वे इसे उठाते भी हैं, तो परिशिष्ट के तौर पर, ना कि मुद्दे के अभिन्न हिस्से के तौर पर. कैदियों के अधिकारों के विमर्श से जाति को बलपूर्वक बाहर करना, अनैतिक है।’

उनका सवाल है कि जेलों और कारा-व्यवस्था के इर्द-गिर्द लोकप्रिय विमर्श से जाति के इस तरह प्रकट तौर पर नदारद रहने की आखिर और किस तरह से व्याख्या की जा सकती है?

* परिवर्तित नाम.

(अपनी लाइब्रेरी और जेल नियमवालियों के संकलन का इस्तेमाल करने देने के लिए हम सीएचआरआई को धन्यवाद देते हैं. एडवोकेट केआर राजा के तमिलनाडु में पूर्व कैदियों के इंटरव्यू की व्यवस्था करने और उनका तमिल से अंग्रेजी में अनुवाद करने के लिए हम उनके भी शुक्रगुज़ार हैं.)

(द वायर द्वारा 27 दिसंबर, 2020 को पूर्व में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

सुकन्या शांता

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