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हिंदूवादियों के निशाने पर गोंड समुदाय के लोकगीत

जनार्दन गोंड बता रहे हैं गोंड परंपरा के लोकगीतों और पारंपरिक लोक कलाओं के बारे में कि कैसे इनमें छेड़छाड़ कर हिंदू धर्म की परंपराओं से जोड़ा जा रहा है। उनके मुताबिक आज जो पांडवानी गाई जाती है, वह असल में गोंडवानी है

लोकगीतों को आदिवासी समाज पुरखागीत या पुरखौती गीत कहता है। पुरखौती गीत की सबसे समृद्ध थाती आदिवासियों के पास ही है। उन्होंने प्रकृति के राग-रंग से इनका निर्माण किया है। यही कारण है कि इन गीतों में पवन का वेग, जल का तरंग और झिंगुरों झनझनाहट, पंछियों की चहचहाहट और धरती का शृंगार सुर-ताल तथा लय का रूप धर लेता है। ये रागनियां स्वयं में अमोघ भी हैं। सदियों से सदानीरा की तरह बहती चली आ रही हैं हजारों साल की आत्म पुकार इन गीतों की पहचान है। इसीलिए ये परिवर्तनशील भी हैं; जो अतीत को नवीन करती चलती हैं। इन गीतों में उमंग के साथ-साथ इतिहास भी है।

 दुनिया के हर आदिवासी समुदाय में लोकगीतों की परंपरा पाई जाती है। इन गीतों की अलग-अलग शैलियां हैं। दुनिया के कुछ आदिवासी लोकगीत और लोकधुन इतने अनुठे हैं कि उनका अलग-अलग तरह से इस्तेमाल होता है। गोंडवानी भी ऐसी लोकगीत विधा है, जिसका निर्माण गोंड कोयतुरों ने किया है। 

गोंडी दर्शन में पृथ्वी पर जीवन के विकास की कहानी कही गई है :

पसारू धारू पिरथी नरूं खंड धरती रो
धरती मालिक संभू पिरथी मालिक पेनु रो।   

भावार्थ : सोलह परत सृष्टि और नौ खंड पृथ्वी जी। धरती का मालिक संभु और सृष्टि का मालिक पेनु जी।।

गोंडवानियों में माटी-पानी और पहाड़ का आह्वान किया गया है। गीतों में बताया गया है कि माटी-पानी से बनी धरती की कहानी सात भूखंडों के टूटने-बिखरने की कहानी है। भूखंडों को महाद्वीप कहा गया है। संभु मादाव को सभी द्वीपों का स्वामी कहा गया है। भारत की माटी में गोंडी मिथकों और इतिहास का रचाव-बसाव दिखाई पड़ता है। गोंडी लोकगाथाओं में जहां एक तरफ गणतंत्र का अंश दिखाई पड़ता है, वहीं नदियों और पहाड़ों के उत्स पर प्रकाश पड़ता है; जैसे अमूरकोट अर्थात अमरकंटक की उत्पत्ति। गोंडवानियों में इस पर्वत की उत्पत्ति के गीत गाए गए हैं। इतना ही नहीं, इन लोकगाथाओं में गोंडवाना के लोगों को कोयावंशी कहा गया है और पारी कुपार लिंगो के जन्म की कथा कही गई है :   

कोयामूरी दीपता सिरडी सिंगार।
पेण्डूर मट्टाता परसापेन गुडार।।
पोंगसी वासी मत्ता कोया पुंगार।
मुठवा पुटसी वातोर पहांदी कुपार।।

भावार्थ : कोयामूरी द्वीप के सिरडी सिंगार द्वीप में पेंडुर पर्वत से बहने वाली परसापेन गंगा में एक कोया पुंगार बहता हुआ आया, जिसके कारण हे! पहांदी कुपार लिंगो तुम्हारा जन्म हुआ। 

समूह नृत्य करते गोंड समुदाय के लोग

गोंडवानियों में कोयतुरों और पहाड़ व नदी की गाथा गेय रूप में प्रस्तुत होता है। ऊपर की पंक्तियों में अमूरकोट या अमरकंटक की चर्चा हुई है। आइए देखें कि गोंडवानी में इस गाथा का सार रूप क्या है। गीतों में बताया गया है कि कोयावंशियों को गोंडीवेन कहा जाता है। गोंडों का जन्म अमूरकोट (अमरकंटक) में हुआ। अमरकंटक से ही नरमादा (नर्मदा) नदी निकली है। गोंडों का प्रारंभिक विस्तार भी इसी नदी के आसपास हुआ। गोंडवानी में नरमादा की धारा को ‘कोया पिलांग धारा’ कहा गया है, जिसका अर्थ है – कोया बच्चों का प्रवाह। इस नदी ने उन्हें अपना जल देकर सींचा और अमूरकोट ने बल दिया। इसीलिए अमूरकोट पहाड़ और नरमादा नदी, दोनों कोयतुरों के लिए आन-बान और शान का विषय हैं। वे इसके लिये जीते-मरते हैं। आदिम कोया दाऊ-दाई (माता-पिता) फरावेन सईलांगरा यहीं रहते थे। उन्हीं की कोक (कोख) से गोंडीवेनों का जन्म हुआ। यहीं से उनके बच्चे पांचखंडों के गिरि, कंदरा और वन में फैले। सामुदायिक बोध के बाद गोंडीवेनों ने कोट और फिर बावन गंडराज्यों (गणराज्यों) को स्थापित किया। गंडराज्यों को ही गोंडवाना कहा गया (जिन्हें आज भी देखा जा सकता है)। गोंडवानियों में ये सारी कथाएं गाई गई हैं। आज भी गोंडवाना के तमाम स्थल, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और उड़ीसा में मौजूद हैं। आजादी के बाद जब गोंडवाना राज्य की मांग जोर पकड़ने लगी, तो तत्कालीन सरकार ने मांग को एक सिरे से अस्वीकार कर दिया। लंबे संघर्ष व जन आंदोलन के बाद 1 नवंबर, 2000 को बावन गढ़ों में से छत्तीसगढ़ों के इलाकों को काटकर छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण किया गया। 

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गोंडवानियों से पता चलता है कि अमूरकोट और नरमादा की घाटियों में लिंगो दर्शन अर्थात गोंडी दर्शन का जन्म हुआ और गोंडवेनों को बारह सगावेनों और सात सौ पचास गोत्रों में बांटा गया। एक गोत्र को एक पेड़, एक जंतु और प्रकृति के किसी हिस्से को संरक्षित करना होता था। सरंक्षित होने वाले प्रकृति के इन्हीं अंशों को टोटम कहा गया। कोयतुरों का एक गोत्र प्रकृति के तीन अंशों की रक्षा करता था। इस तरह गोंडवेनों के 750 गोत्रों द्वारा प्रकृति के बाइस सौ पचास जीवों को संरक्षण मिलता था। 

गोंडवानियां बनी-बनाई होती हैं और कुछ लोग परंपराओं को पिरोते हुए नई गोंडवानियों को रचते भी हैं। नई गोंडवानी रचने वाले समूह को कपालिक (तुरंत कपाल की ताकत से रचने वाला) कहा जाता है। परंपरा से चली आती गोंडवानियों में मनु्ष्य के आदिम संघर्ष का बोध समाया रहता है। कई गोंडवानियों में गुफा या कोट से निकल कर नया समाज बनाने की गाथा गाई जाती है। जैसे– 

मट्टा कोट सूटे किसी सांगो वड़ा नावा पज्जा।
बने किसी नेल वीतीकाट कोदो कुटकी विज्जा।।
दाना येर पंडसिहची अपो चंगो मंदाकाट।
छव्वा पूतांग मिले मासी पाटा वारीकाट।। 

भावार्थ : पर्वतीय गुफा या कोट से निकलकर आजा मेरे साथी। आजा साथ–साथ जमीन जोतकर हम कोंदो सावां बोएंगे। उपजे अनाज को पानी में पकाकर बाल-बच्चों के साथ खाएंगे और खुशी के गीत गाएंगे। धरती, आकाश, और जीवों से प्रेम करेंगे। 

सरसरी नज़र से देखने पर तमाम गोंडवानियों में लोक सपनों का निर्वचन दिखाई पड़ता है। साथ रहने, साथ गाने, साथ-साथ परिश्रम करने तथा साथ-साथ साल-वनों को पार करने के तमाम गीत गोंडवानी को प्रकृति के साहचर्य की वानी (वाणी) बनाते हैं। निश्चित रूप से गोंडवानियां लोकाक्षांओं और लोक सपनों का साकार रूप हैं। इतना ही नहीं, गोंडवानियों में विनाश और विस्थापन की परिस्थितियों से ऊपजे दर्द को भी गाया गया है। एक उदाहरण है : 

पीर्र वायो वड़ी वायो नरमदाल वच्ची हत्ता।
दाना बाहून पंडार ताड़ी कोरो आसी हत्ता।।
हिगा बाड़ी मंदाकाट अपो कर्रू सायले।
रेहूक नाटे दा दाकाट कमेय संगने कियाले।। 

भावार्थ : वर्षा नहीं हो रही। हवा नहीं चल रही। बादल की राह तकते–तकते नरमादा सूख गई है। अब अनाज कैसे उगेगा। चूल्हा कैसे जलेगा। भात कैसे पकेगा। बच्चों का पेट कैसे भरेगा। निर्जन जमीन हमें भगा रही है, हमें अब यहां से भागना पड़ेगा। धरती का कोप हमे खा जाएगा। 

लोकगीतों और लोकगाथाओं में इतिहास का तरल रूप संगर्भित रहता है। कुशल हाथों में पड़कर तरल तथ्यों से ठोस ऐतिहासिक निष्कर्ष निकलते हैं। गोंडवानियों के अध्ययन से गोंडवाना के इतिहास को सामने लाया जा सकता है। कुछ इतिहासकारों ने गोंडवानियों और लोकगाथाओं के अध्ययन के माध्यम से मिथकों के अर्थ को खोलने का प्रयास किया है। एडवर्ड स्यूस और प्रतीक चक्रवर्ती (लेखक – गोंडवाना एंड द पॉलिटिक्स ऑफ डीप पास्ट) ऐसे ही मानवशास्त्री और इतिहासकार हैं। लंका की खोज पुस्तक में डॉ. सांकलिया ने स्थापित किया है नर्मदा की घाटियों से आदिमानव के जैसे अवशेष प्राप्त हुए हैं, वैसे नर अवशेष पृथ्वी पर अन्यत्र से प्राप्त नहीं हुए। बस्तर से प्राप्त साक्ष्यों और लोक रीतियों (दशहरे में रावण पूजा) में संबंध जोड़ते हुए वह कहते हैं कि रावण बाहर का नहीं, इसी भूमि का रहने वाला था। गोंडों का आंदि रावेन ही रावण है। यही कारण है गोंड अपने को रावण से जोड़कर देखते हैं। गोंडवानियों में सिंगारद्वीप (गोंडवाना क्षेत्र) के फरावेन सईलांगरा को एक बेटा – आंदि रावेन और एक बेटी – आंदि सुकमा को दर्शाया गया है। इस क्षेत्र में रावेण की पूजा का आधार भी ये गोंडवानियां और लोकगाथाएं हैं। 

गोंडों द्वारा गाई जाने वाली गोंडवानियां उनके इतिहास, मिथकों और प्रतीकों को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने का माध्यम हैं। गोंडवाना के गोटुलों में इन्हें गाया जाता था। जब से गोटुल कमजोर पड़ने लगे हैं, तब से गोंडवाना के तमाम गीत स्वरूपों का उपयोग दूसरी संस्कृति के कथाओं को प्रस्तुत करने में किया जा रहा है। पांडवानी गायन ऐसा ही एक उदाहरण है। यह उसी तरह हो रहा है, जिस तरह गोंड समुदाय की चित्रकला के माध्यम से हिंदू देवी-देवताओं की आकृतियां बनवाई जा रही हैं और उनमें गोंड शैली के रंग भरे जा रहे हैं। इस प्रकार गोंडी चित्रकला शैली के नाम पर इसका बड़ा सांस्कृतिक बाजार तैयार हो चुका है। पढ़े-लिखे आदिवासियों के जागरूक हुए बिना यह सब थम नहीं पाएगा। 

संदर्भ 

कंगाली चंद्रलेखा, गोंडवाना जीव जगत की उत्पत्ति, उत्थान, पतन और पुनरुत्थान संघर्ष, द्वितीय संस्करण, उज्ज्वल सोसायटी, नागपुर संस्करण, 2011 

(संपादन : नवल)


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जनार्दन गोंड

जनार्दन गोंड आदिवासी-दलित-बहुजन मुद्दों पर लिखते हैं और अनुवाद कार्य भी करते हैं। ‘आदिवासी सत्ता’, ‘आदिवासी साहित्य’, ‘दलित अस्मिता’, ‘पूर्वग्रह’, ‘हंस’, ‘परिकथा’, ‘युद्धरत आम आदमी’ पत्रिकाओं में लेख ,कहानियां एवं कविताएं प्रकाशित। निरुप्रह के सिनेमा अंक का अतिथि संपादन एवं आदिवासी साहित्य,संस्कृति एवं भाषा पर एक पुस्तक का संपादन। सम्प्रति इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी व आधुनिक भारतीय भाषा विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।

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