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मीडिया कंपनियों की पत्रकारिता बनाम सच की पत्रकारिता

सत्ता स्वतंत्र तरीके से पत्रकारिता करने वाले समाज के जागरुक नागरिकों में कुछेक को तरह-तरह से प्रताड़ित कर बाकी की जागरूकता को डराना चाहती है। किसी एक की गिरफ्तारी वास्तव में एक संदेश के लिए की जाती है जैसे हमने मिथकों में एकलव्य के रुप में देखा है। अनिल चमड़िया का विश्लेषण

मीडिया विमर्श 

अभिव्यक्ति की आजादी का इस्तेमाल सभी लोग कर रहे हैं। लेकिन उन सभी पर हमले नहीं हो रहे हैं। हमले उन पर हो रहे हैं जो इस संवैधानिक अधिकार का इस्तेमाल कर संविधान के हिसाब से समाज को बनते देखना चाहते हैं। यानी संविधान को दो तरह से इस्तेमाल किया जा सकता है। एक तो संविधान के अनुरूप समाज को बनाने के लिए संविधान की धाराओं का इस्तेमाल किया जा सकता है तो दूसरे उन व्यवस्थाओं को बनाए रखने के लिए संविधान का इस्तेमाल कर सकते हैं जैसे कि संविधान से पूर्व गुलामी और गैरबराबरी की स्थिति थी। अगर मौजूदा संदर्भों की भाषा में इसे समझने की कोशिश की जाय तो एक किसानी के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का इस्तेमाल करना चाहता है तो दूसरा कंपनियों के हितों में अभिव्यक्ति की आजादी को बेच रहा है।

 

पत्रकारिता के दो पक्ष हैं। सच कहने की पत्रकारिता और कंपनियों के लिए पत्रकारिता। यह गलत व्याख्या है जिसे हम ‘मेन स्ट्रीम’ और ‘वैकल्पिक पत्रकारिता’ के रुप में विभाजित करते हैं। ‘मेन स्ट्रीम’ मीडिया उन कंपनियों द्वारा स्थापित किया गया शब्द है जो कंपनियां संविधान की धाराओं का इस्तेमाल करते हुए पत्रकारिता का धंधा करती है और राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्तर पर वर्चस्व में हिस्सेदार होती है। बड़ी कंपनियों ने छोटे-छोटे हजारों हजार समाचार पत्रों को निगल लिया, अपनी दौलत की ताकत से बाजार पर कब्जा कर लिया है और तकनीक पर अपना नियंत्रण बना लिया है। यह कल्पना करें कि 1857 के आसपास देश में विभिन्न भाषाओं के 475 अखबार थे। क्या 2021 में कोई भी सचेत व्यक्ति दस बीस से ज्यादा अखबार के नाम बता सकता है? वे दस-बीस भी बड़ी-बड़ी मीडिया कंपनियों के ब्रांड हैं। 

हाल की घटनाओं पर नजर डालें। हर क्षेत्र में सक्रिय जागरूक लोगों पर हमले हुए हैं। वह शिक्षण संस्थानों से लेकर श्रमिकों के बीच सक्रिय लोगों पर तरह तरह से हुए हमले की घटनाओं के रुप में देख सकते हैं। हमले के रुप भर अलग हैं। गिरफ्तारियां, फर्जी मुकदमे, डराना-धमकाना, घरों व दफ्तरों पर सरकारी मशीनरी द्वारा छापेमारी, शारीरिक व तकनीक के जरिए हमले आदि हैं। यानी क्षेत्र और जागरूक लोगों के कद और व्यक्तित्व के हिसाब से सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक हमलों के स्तर तय किए जाते हैं। इसी तरह से किसी भी रुप में सच को अभिव्यक्ति करने और झूठ के दावे की पोल खोलने की वजह से हमले तेज हुए हैं। व्यंग्य करने वालों से लेकर ट्वीट और सोशल मीडिया पर पोस्ट लिखने वाले की वजह से हमले हो रहे हैं। दिल्ली की अंतरराज्यीय सीमाओं पर 26 नवंबर 2020 के बाद से देश भर से किसानों के आंदोलन के तेज होने के साथ ही उन लोगों पर हमले हुए जो कि किसानों के बीच रहकर उनके हालात और साहस का परिचय लोगों से करा रहे थे। यह हमला गिरफ्तारी से लेकर दफ्तरों पर छापेमारी के रुप में सामने आई। यानी राजनीतिक सत्ता, संविधान में अपराधों के लिए दंड देने की जो मशीनरी व्यवस्था है, उसका इस्तेमाल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का इस्तेमाल करने वालों के खिलाफ कर रही है।

हिरासत में लिए जाने के बाद अदालत में पेशी के लिए जाते स्वतंत्र पत्रकार मनदीप पुनिया

यह सभी जानते हैं कि भारतीय गणराज्य की राजनीतिक व्यवस्था मौजूदा समय में उन राजनीतिक विचारधाराओं को मानने वालो से नियंत्रित हो रही है, जिन्हें इस संविधान का वैचारिक स्तर पर विरोध रहा है। यह राजनीतिक सत्ता ऐसी है जो कि संवैधानिक मशीनरियों में उन्हें ही अपने हितों के अनुकूल मानती है जो उनके हमले की कार्रवाईयों में सहायक होती है। उनके हमलों में सहयोग नहीं करने वाले या संविधान के अनुसार अपनी कार्रवाईयों को अंजाम देने वाले राजनीतिक सत्ता की तरफ से शत्रु के रुप में देखें जाते हैं और उन्हें भी तरह तरह से प्रताडित किया जाता है। यहां तक कि वैसी अदालतें भी उन्हें अपने अनुकूल लगती हैं जहां न्याय देने वाले अधिकारी उनके हितों को विस्तार करने में मदद करते हैं। वैसे न्यायिक अधिकारियों को सत्ता पुरस्कृत करती है।

अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का इस्तेमाल करने वाले तमाम लोगों के सामने मौजूदा समय अपना पक्ष चुनने की चुनौती पेश करता है। पत्रकारिता में भी ऐसा ही है। कंपनियों की पत्रकारिता द्वारा परोसे जाने वाली सामग्री सत्ता का सच होती है तो समाज के सच के साथ वे पत्रकार खड़े हैं, जिनके पास संविधान के अनुरूप समाज बनाने में अपनी भूमिका के महत्व का अहसास है। 

गौर करें तो एक सच यह सामने दिखाई देता है कि सत्ता बराबर कंपनियों की पत्रकारिता को बढ़ावा देती है क्योंकि उन कंपनियों के आर्थिक हितों की नकेल उसके हाथों में होती है। सत्ता को सबसे ज्यादा दिक्कत बहुत बड़ी संख्या में सक्रिय पत्रकारिता के संस्थानों व स्वतंत्र पत्रकारों से होती है क्योंकि उन सभी को नियंत्रित करना संभव नहीं लगता है। इसीलिए स्वतंत्र तरीके से पत्रकारिता करने वाले समाज के जागरुक नागरिकों में कुछेक को तरह-तरह से प्रताड़ित कर बाकी की जागरूकता को डराना चाहती है। किसी एक की गिरफ्तारी वास्तव में एक संदेश के लिए की जाती है जैसे हमने मिथकों में एकलव्य के रुप में देखा है। एकलव्य ने खामोशी से शिक्षा हासिल की तो उसका अंगूठा काटकर उस पूरे समुदाय को भयभीत करने का संदेश तैयार किय़ा गया, जिसके भीतर पढ़ने-लिखने की इच्छा बलवती हो रही थी। 

क्या यह सोचा जा सकता है कि किसानों के आंदोलन के बीच सक्रिय पत्रकार मनदीप पुनिया को पुलिस ने गिरफ्तारी का यह कारण बताया कि उसके पास पत्रकारिता का परिचय पत्र नहीं था। संविधान में पत्रकार और पत्रकारिता को कोई विशेष अधिकार नहीं दिया गया है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार सभी नागरिकों को हैं और एक नागरिक के नाते हर कोई पत्रकारिता कर सकता है । उसके लिए किसी कंपनी का परिचय पत्र रखने की अनिवार्यता नहीं है। उसका यह कहना कि वह पत्रकार है, यह काफी हैं। कंपनियों ने पत्रकारिता को एक लाइसेंस-शुदा धंधे के रुप में परिवर्तित किया है और इसके लिए उन्हें बदनाम करने का अभियान चलाया है कि स्वतंत्र पत्रकारिता करने वाले “खोटे” होते हैं। 

जबकि मौजूदा स्थिति यह है कि कंपनियों का पत्रकार पहले अपनी कंपनियों के लिए विज्ञापन बटोरने वाला प्रतिनिधि होता है। ‘दी टाइम्स ऑफ इंडिया’ के प्रबंधक विनीत जैन ने एक इंटरव्यू में कहा है कि वह विज्ञापन का धंधा करते हैं। यानी वे विज्ञापन के धंधे के लिए पत्रकारिता का इस्तेमाल करते हैं। विज्ञापन को केवल विज्ञापन के अर्थों में यहां नहीं पढ़ा जाना चाहिए। विज्ञापन का अर्थ यहां आर्थिक हिस्सेदारी से हैं। मीडिया कंपनियां लगातार संपन्न होती चली गई हैं। इसके बावजूद कि लोगों के बीच गरीबी और बदहाली के हालात बिगड़ते गए हैं। जिस लोकतंत्र में मीडिया कंपनियां दिनोंदिन अमीर हो रही हों और लोग गरीब दर गरीब हो रहे हों, इसका एक ही अर्थ है कि मीडिया कंपनियां गरीबी के हालात बनाने में हिस्सेदारी कर रही हैं। 

लोकतंत्र जैसा शब्द समाज की अपनी राजनीतिक पूंजी होती है। लोकतंत्र लाभ के लिए तरह तरह का धंधा करने वाली कंपनियों का विषय नहीं होता है। कंपनियां तानाशाही और लोकतंत्र के बीच तब फर्क करती है जब उनके आर्थिक हितों में उतार चढ़ाव होता है। समाज लोकतंत्र की चिंता करता है और उसे मजबूत करने के लिए संगठित होता है। लेकिन समाज द्वारा किए जाने वाले किसी आंदोलन का उदाहरण नहीं हैं जिसमें कि उसे कंपनियों की पत्रकारिता का समर्थन हासिल हुआ हो। पत्रकारिता के इतिहास में जाकर देखें तो उन पत्रकारों व पत्रकारिता संस्थानों ने ही अपनी कुर्बानी दी है जो कि कंपनियों के आर्थिक हितों में खुद को हिस्सेदार नहीं समझते हैं। अंग्रेजों के शासन काल में जो पत्रकारिता का धंधा करने वाली कंपनियां सत्ता की तरफदारी करती थीं, वे आज भी अपने उस चरित्र का बरकरार रखी हुई हैं। 

डॉ. आंबेडकर की कंपनियों की मीडिया के संदर्भ में कहीं गई निम्न बातों पर गौर करें। 

  1. किसी मकसद को ध्यान में न रखकर निष्पक्ष समाचार देना, समाज के हित में सार्वजनिक नीति का दृष्टिकोण प्रस्तुत करना, बिना किसी भय के बड़े से बड़े और ऊंचे से ऊंचे व्यक्ति के दोष व गलत मार्ग का पर्दाफाश करना अब भारत में पत्रकारिता का पहला और महत्वपूर्ण कर्तव्य नहीं माना जाता। अब नायक-पूजा ही उसका प्रमुख कर्तव्य बन गया है।”
    ये बात अंग्रेजों की सरकार के वक्त की है।
  1. डॉ. आंबेडकर ने ठीक वही कहा था कि जिस तरह के मीडिया के बारे में फिलहाल आमतौर पर टिप्पणी की जाती है। उन्होंने कहा है कि “समाचारों के अंतर्गत सनसनी फैलाना, गैर-जिम्मेदाराना उन्माद भड़काना और जिम्मेदार लोगों के दिमाग में गैर-जिम्मेदारों की भावनाओं को भरने की कोशिश में लगे रहना ही आज की पत्रकारिता हैं।”
  2. डॉ. अंबेडकर ने उस समय बताया कि “लार्ड सेल्सबरी ने नार्थ क्लिप की पत्रकारिता के बारे में कहा था कि वह दफ्तर के बाबूओं के लिए दप्तर के बाबूओं द्वारा लिखी जाती है। भारतीय पत्रकारिता में भी यह सब है, पर उसमें यह भी शामिल किया जा सकता है कि वह ढोल बजाने वाले लड़कों के द्वारा अपने नायकों का महिमा मंडन करने के लिए लिखी जाती है। नायक पूजा के प्रचार के लिए इतनी बेदर्दी से देश के हितों का कभी बलिदान नहीं किया गया। लेकिन कुछ सम्मानित अपवाद भी हैं। किन्तु वे आवाजें इतनी कम हैं कि कभी सुनी नहीं गईं।”
    लार्ड नार्थ क्लिफ के बारे में कहा जाता है कि उसने लोकतंत्र की और लोकतंत्र के लिए पत्रकारिता की जगह लोकतंत्र के अधिकारों का इस्तेमाल कर मालिकों के हितों की पत्रकारिता का मॉडल तैयार किया था।
  1. “अपने वर्चस्व को स्थापित करने में राजनीतिकों ने बड़े उद्योगपतियों का सहारा लिया है। … भारत में पत्रकारिता कभी एक पेशा हुआ करता था, पर अब यह एक व्यापार बन गया है। अब तो साबुन बनाने के सिवा इसका कोई और नैतिक कार्य नहीं रह गया है। यह स्वयं को जनता का एक जिम्मेदार मार्गदर्शक नहीं मानती है।”

बहरहाल, गणराज्य के अनुकूल सीमित दायरे वाले असंख्य पत्रकारिता संस्थानों का निर्माण और सामाजिक विकास के नजरिये से पत्रकारिता का प्रशिक्षण ही विकल्प हैं। 

(संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

अनिल चमड़िया

वरिष्‍ठ हिंदी पत्रकार अनिल चमडिया मीडिया के क्षेत्र में शोधरत हैं। संप्रति वे 'मास मीडिया' और 'जन मीडिया' नामक अंग्रेजी और हिंदी पत्रिकाओं के संपादक हैं

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