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सिंधु घाटी की सभ्यता और आर्य श्रेष्ठता के मिथ

उत्तर से दक्षिण तक भारत की जनसंस्कृति आज भी सिंधु सभ्यता के प्रभाव में है। फिर इसमें आर्यों का अवदान क्या है? इसे ब्राह्मण संस्कृति क्यों कहा जाता है? इसका एक ही कारण है, भारतीय समाज का जाति और वर्ण-आधारित विभाजन। बता रहे हैं ओमप्रकाश कश्यप

क्षेत्रीयता के आधार पर भारतीय संस्कृति को दो भागों में बांटा जा सकता है। उत्तर भारत की संस्कृति, जिसे आर्य संस्कृति, वैदिक संस्कृति अथवा सीधे-सीधे ‘ब्राह्मण संस्कृति’ कह दिया जाता है। दूसरी, अनार्य संस्कृति अथवा द्रविड़ संस्कृति, जिसकी जड़ें सिंधु सभ्यता तक जाती हैं। भारत का सांस्कृतिक इतिहास इन्हीं संस्कृतियों के बीच समय-समय पर हुए संघर्ष एवं सम्मिलन का लेखा है। यह भी मान लिया गया है कि सिंधु सभ्यता के पराभव के साथ ही उसकी संस्कृति भी दम तोड़ चुकी थी। अब जो भारतीय संस्कृति है वह मुख्यत: हिंदू यानि ब्राह्मण संस्कृति है। पर क्या सचमुच ऐसा है? सिंधु सभ्यता की भांति क्या उसकी संस्कृति भी पूरी तरह काल-कवलित हो चुकी है?

दरअसल, भारतीय संस्कृति की जड़ों की खोज हमें 3500-4000 वर्ष पहले तक ले जाती है। शुरुआत सिंधु घाटी की सभ्यता से होती है। यह ज्ञात तथ्य है कि सिंधु-नदी के तटवर्ती इलाकों में 3300-1750 ईस्वी पूर्व में एक समृद्ध नागरी सभ्यता विद्यमान थी। समकालीन सभ्यताओं में सर्वाधिक उन्नत सिंधु सभ्यता का विस्तार करीब नौ लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में था, जो आधुनिक पाकिस्तान के क्षेत्रफल से भी अधिक है।

अपने वैभवकाल में सिंधु सभ्यता के सबसे विकसित नगर मोहनजोदड़ो की आबादी अनुमानित तौर पर 35,000-41,000 तथा हड़प्पा की आबादी करीब 23,500 से 35,000 के बीच थी। 35-40 लाख आबादी वाले आधुनिक महानगरों के आगे यह आबादी भले ही छोटी लगे, किंतु उस समय के गांवों की जनसंख्या 50-100 को देखते हुए वे वास्तव में अपने समय के ‘महानगर’ कहलाने के अधिकारी थे। सिंधु नदी की उपजाऊ भूमि पर बसी वह एक समृद्ध सभ्यता थी। इसका प्रमाण वहां से प्राप्त तरह-तरह के आभूषण, विशालकाय अन्न भंडार तथा बेहतरीन नगर संरचनाएं हैं। खुदाई में बहुत कम मात्रा में हथियारों का मिलना दर्शाता है कि सिंधु सभ्यता के निवासी शांतिमय जीवन जीने में विश्वास रखते थे। वे लोग, ‘लड़ाके नहीं थे; और बाहरी आक्रमण की आशंका भी उन्हें कम ही थी।’[1]

ऐसी सुसमृद्ध और फलती-फूलती सभ्यता, करीब 1750 ईस्वी पूर्व पहले प्राकृतिक कारणों से पराभव की ओर बढ़ चुकी थी। सभ्यता के अवसानकाल में सिंधुवासियों को एक मानव-जनित आपदा का सामना भी करना पड़ा था। वह था—2000 से 1500 ईस्वी पूर्व हुआ आर्य कबीलों का आक्रमण।[2] माना जाता है कि उन आक्रमणों ने ही अनार्यों को उत्तर-पश्चिम की दिशा में विस्थापन के लिए विवश कर दिया था।

पाकिस्तान के मोहनजोदड़ो में उत्खनन में मिले सिंधु-घाटी सभ्यता के अवशेष

इतिहासकारों का दावा है कि आर्य अपेक्षाकृत उच्च सभ्यता के दावेदार थे। ‘अमरकोश’(7/3) में उन्हें ‘महाकुलकुलीनआर्यसभ्यसज्जनसाधवः’ महाकुल, कुलीन, आर्य, सभ्य, सज्जन, साधु बताया गया है। सिवाय ऐसे उल्लेखों के, भारत में आने से पहले आर्यों की प्राचीन सभ्यता के बारे में, उस सभ्यता के बारे में जिसे वे पीछे छोड़कर आए थे— हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है। ऐसा भी कोई साक्ष्य नहीं है जो उस दौर में उनकी सभ्यता को सिंधु-घाटी के अधिवासियों की सभ्यता से श्रेष्ठ दर्शाता हो। तथ्यों को खंगालने पर यह तर्क भी विश्वसनीय नहीं लगता कि अनार्यों के सिंधु घाटी से विस्थापन का एकमात्र कारण, आर्यों का अनपेक्षित आक्रमण था।

इतिहासकारों के अनुसार आर्यों ने भारत में अलग-अलग समय में कबीलों के रूप में प्रवेश किया था। दूसरी ओर, सिंधुवासी आर्येत्तर अपने समय की सर्वाधिक विकसित, नागरी सभ्यता के निर्माता थे। वे पशुपालक अर्थव्यवस्था को पार करके, उन्नत कृषि एवं व्यापार-केंद्रित अर्थव्यवस्था के स्तर को प्राप्त कर चुके थे। वे भविष्य के लिए अन्न संग्रहण करना जानते थे। ऋग्वेद में ‘पणि’ शब्द कई स्थानों पर आया है। ‘निरुक्त’ (6/27) के अनुसार पणि ‘व्यवसायी’ लोग थे। वही सिंधु उपत्यका की व्यापार-प्रधान सभ्यता के निर्माता थे। ऋग्वेद में उन्हें आर्य-विरोधी के रूप दर्शाया गया है। बताया गया है कि पणि ऋषिगणों से उनका धन छीनकर ले जाते थे। एक स्थान पर सोम से लालची पणियों को नष्ट कर देने की प्रार्थना की गई है (ऋग्वेद, 6.51.14)। पशु-पालक अर्थव्यवस्था में अंतनिर्हित यायावरी ही आर्यों को भारतीय प्रायद्वीप तक खींच लाई थी।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि आर्यों ने जब सिंधु घाटी में कदम रखा तब तक वे लिपि से अंजान थे। जबकि  सिंधुवासियों के पास 396 अक्षरों वाली समृद्ध लिपि थी।[3] वे गणित के प्रयोग में भी दक्ष थे। सिंधुवासियों के साहित्य के बारे में अभी तक कोई जानकारी नहीं है। आर्यों की पद्य रचनाओं के बारे में हमें पता है जिन्हें वे कंठस्थ करके रखा करते थे। राधाकुमुद मुखर्जी के अनुसार—‘अनेक विद्वान समझते हैं कि भारत वर्ष में 800 ईस्वी पूर्व से पहले तक लेखन कला का ज्ञान नहीं था। किंतु यह मत सभी को मान्य नहीं है। पर इतना निस्संदेह है कि भारत में लिपि से बहुत पहले साहित्य बन चुका था।’[4] स्पेन, फ्रांस और भारत में भीमबेटका की गुफाओं में बने भित्तिचित्रों से पता चलता है कि मनुष्य 30,000-35,000 वर्ष पहले कहानी गढ़ना सीख चुका था। मान सकते हैं कि लिखित हो या मौखिक—सिंधु सभ्यता के अधिवासियों का भी कोई न कोई साहित्य अवश्य रहा होगा। वह सब खुद मिटा या मिटा दिया गया, प्रमाणों के अभाव में इस पर कुछ भी कह पाना संभव नहीं है।

ऋग्वेद में पृथ्वी और उर्वी अर्थात लंबी-चौड़ी धरती, जो गायों से भरी हुई होती थी (गोमती), के अलावा नगर और पुर तथा सौ खंबों वाले(शतभुजी), पत्थरों से बने(अश्वमयी) और शरद-ऋतु में काम आने वाले (शारदी) दुर्गों का भी वर्णन है, जिनमें लोग नदियों की बाढ़ के दौरान आत्मरक्षा करते थे।[5] किंतु उन दुर्गों के निर्माता आर्य ही थे—यह बात दावे से नहीं कही जा सकती। कारण यह है कि वेदों को लिपि के आविष्कार, यानी 800 ईस्वी पूर्व के आसपास ही लिपिबद्ध किया जा सका था। उस समय तक आर्यों को भारत आए सात-आठ शताब्दियां बीत चुकी थीं। इसलिए इस बात की पर्याप्त संभावना है कि भारत आने के बाद, आर्यों ने जिन नई ऋचाओं की रचना की, उनमें सिंधु सभ्यता के मूल नागरिकों द्वारा बनाए गए पुरों का वर्णन भी शामिल था। राधाकुमुद मुखर्जी ऋग्वैदिक सभ्यता को सिंधु सभ्यता की ‘पूर्वगामिनी अथवा उत्तराधिकारिणी’ कहने से बच जाते हैं। लेकिन इससे वे भी इन्कार नहीं कर पाते कि, ‘जिन भौगोलिक एवं ऐतिहासिक परिस्थितियों में ऋग्वेद की रचना हुई, उनमें आर्येत्तर लोगों की संस्कृति एवं जीवन-परिस्थितियों से आर्यों का परिचित हो जाना स्वाभाविक था, जिनमें से कुछ का उल्लेख ऋग्वेद में आ गया। और जो मोहनजोदड़ो से प्राप्त सामग्रियों से मिलता-जुलता है। तात्पर्य यह है कि ऋग्वेद के आर्येत्तर वे लोग हो सकते हैं, जिन्होंने सिंधु सभ्यता का निर्माण किया था।’[6] अन्यत्र वे लिखते हैं कि ‘सिंधु घाटी में आर्यों को एक उन्नत सभ्यता से टक्कर लेनी पड़ी। वह अनेक नगरों में फैली हुई थी।’[7] शरद-ऋतु में काम आने वाले (शारदी) दुर्ग….जिनमें लोग नदियों की बाढ़ के दौरान आत्मरक्षा करते थे’—का आशय भी यही है कि आर्य कबीले उनके निर्माता न होकर, उपयोगकर्ता मात्र थे। ऐसे में आर्यों को सभ्यता के स्तर को आर्येत्तर सिंधुवासियों से उन्नत दर्शाने का कोई औचित्य नहीं है।

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सभ्यता के स्तर पर सिंधुवासियों की श्रेष्ठता को क्या आर्यों ने कभी स्वीकार किया? संस्कृत साहित्य में अनार्यों के प्रति जो अवमाननापूर्ण टिप्पणियां हैं, उन्हें देखकर तो लगता है कि कभी नहीं। स्थापत्य की दृष्टि से ऋग्वेद की भाषा ध्वंस की भाषा है। भारत आने के बाद आर्य धीरे-धीरे नष्ट हो रही उस सभ्यता को सहेजने की कोशिश नहीं करते। कदाचित उनके लिए वह संभव भी नहीं था। संस्कृत साहित्य में भौतिक जगत के प्रति नकार का स्थायी भाव दर्शाता है कि सिंधु सभ्यता के भग्नावशेषों ने आर्यों के मानस में, भौतिक जगत के प्रति गहन नैराश्य को जन्म दिया था। इस बोध को जन्म दिया था कि प्राकृतिक शक्तियों के समक्ष मनुष्य की शक्तियां नगण्य हैं। कदाचित उससे जन्मा डर ही आगे चलकर ब्राह्मणों के धर्म-दर्शन में मायावाद के प्राबल्य का कारण बना। डरे हुए आर्यों ने वन-प्रांतरों को अपना ठिकाना बनाया। वहीं रहते हुए प्राकृतिक शक्तियों की अभ्यर्थना के लिए रचे गए मंत्रों को लिपिबद्ध किया।

वन-प्रांतर में रहने के लिए आग जलाकर बैठना सुरक्षा का भरोसा देता था। प्रकारांतर में उसी से यज्ञों का जन्म हुआ। प्राकृतिक शक्तियों के परामानवीकरण की शुरुआत कदाचित लोगों को यज्ञ का औचित्य समझाने के लिए हुई। सूर्य, वरुण, चंद्र, पूषा, उषा जैसे मानवरूपी देवता गढ़े जाने लगे। इंद्र नामक नायक की परिकल्पना की गई। उसे ‘पुरों को तोड़ने वाला’ (पुरंदर) घोषित किया गया (ऋग्वेद 1/103/3)। धीरे-धीरे देवताओं का पूरा कल्पनालोक गढ़ लिया गया। इस तरह सिंधु सभ्यता के भग्नावशेष, इंद्रादि काल्पनिक देवताओं के पराक्रम एवं शौर्य-कथाएं गढ़ने के काम आने लगे। आगे चलकर जैसे-जैसे यज्ञ-संस्कृति का विस्तार हुआ, प्राकृतिक शक्तियों के परामानवीकरण तथा उनकी प्रशस्ति में रचा गया मिथकीय साहित्य, आर्यों के लिए खुद को अनार्यों से विकसित और सभ्य दिखाने का एकमात्र माध्यम बन गया।

पाकिस्तान सरकार द्वारा 1984 में मोहनजोदड़ो पर केंद्रित डाक टिकट

कर्मकांड प्रधान ब्राह्मण संस्कृति में प्रदर्शन, वास्तविकता से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण था। संभवत: सिंधु सभ्यता को देखकर जन्मी कुंठा ही उन्हें आडंबरों की शरण में जाने को उकसा रही थी। उसी के चलते इंद्रादि देवताओं के महिमामंडन हेतु ऋग्वेद में आर्य-अनार्य संघर्ष के बड़े-बड़े रूपक गढ़े गए। एक जगह (4/16/13) 50,000 कृष्ण-योनि दासों का युद्धभूमि में संहार करने का उल्लेख है। इसी तरह मंत्र 4/30/21 में 30,000 दासों को माया से मूर्छित कर देने का उल्लेख है। कह सकते हैं कि पुराणों की तरह चमत्कारिक विवरण की शुरुआत ऋग्वेद के समय में ही हो चुकी थी। वर्चस्व की लड़ाई केवल आर्यों और अनार्यों के बीच ही नहीं थी, अपितु आर्यों के बीच भी थी। ऋग्वेद में वशिष्ठ और विश्वामित्र की भिड़ंत की कहानी आर्यों में पनप चुकीं दो समानांतर संस्कृतियों के अंतर्द्वंद्व को दर्शाती है।

ऋग्वेद में सुदास और दस राजाओं (कबीलों) के युद्ध तथा उसमें अनार्य कबीलों की पराजय का उल्लेख है। अन्य युद्ध में कृष्णासुर को इंद्र से पराजित दिखाया गया है। इस तरह के और भी कई युद्ध उसमें हैं, जिनमें इंद्र को अनार्यों का वध करते, उनके दुर्गों को ध्वस्त करते हुए बताया गया है। इन्हीं के आधार पर इतिहासकारों की राय बनी कि आर्यों के हमलों से पराजित अनार्य सिंधु कबीले दक्षिण और उत्तर-पश्चिम की ओर पलायन करने लगे थे। लेकिन रमाप्रसाद चंद्रा के अनुसार, ऋग्वैदिक इतिहास का संबंध आर्यों तथा इंद्रपूजक राजाओं के मध्य घरेलू युद्ध से था, न कि आर्यों और अनार्यो के बीच हुए युद्ध से। वे तो यहां तक लिख जाते हैं कि अनार्यों की केवल एक जाति, निषाद इतनी बड़ी संख्या में थी कि उसे समाप्त करना आसान नहीं था। निषाद इतने शक्तिशाली भी थे कि उन्हें दास बनाना अथवा सभी को एक साथ खदेड़ पाना असंभव ही था। इसलिए उन्होंने निषादों से समझौता करने में ही अपनी भलाई समझी।[8] सिंधुघाटी की बसाहट से जुड़े आंकड़े भी रमाप्रसाद चंद्रा के निष्कर्ष की पुष्टि करते हैं।

2000 ईसा पूर्व में भारतीय प्रायद्वीप की कुल अनुमानित जनसंख्या 60 लाख थी। उसमें से 50 लाख लोग सिंधु-क्षेत्र के अधिवासी थे। उस जनसंख्या में 9.4 प्रतिशत प्रति शताब्दी की दर से वृद्धि हो रही थी।[9] इस तरह 1500-1600 ईस्वी पूर्व में, जब आर्यों ने भारत-भूमि पर कदम रखा, यहां की कुल जनसंख्या लगभग 85 लाख थी। उनमें 70 लाख से अधिक लोग सिंधु घाटी में रखते थे। 20-22 लाख वर्ग किलोमीटर में फैली, इतनी बड़ी जनसंख्या को, कुछ सौ या हजार की टुकड़ियों में जब-तब आने वाले आर्य विस्थापित नहीं कर सकते थे। इसलिए आर्यों को यदि सिंधु-क्षेत्र खाली करना पड़ा तो उसके पीछे आर्यों के हमलों से कहीं ज्यादा, कुछ अपरिहार्य परिस्थितियों का योगदान था। सिंधु-सभ्यता के निवासियों का मुख्य व्यवसाय खेती था; और मौसम पर आधारित खेती की अपनी विडंबनाएं होती हैं। कभी बाढ़ तो कभी सूखा। जाहिर है कि जैसे-जैसे सिंधु-परिक्षेत्र की जनसंख्या बढ़ रही थी, बाढ़-क्षेत्र में खेती की अनिश्चितता उन्हें सुरक्षित ठिकानों की खोज के लिए प्रेरित कर रही थी। कह सकते हैं कि बेहतर ठिकानों की खोज ने ही अनार्यों को गंगा और यमुना के मैदानों तक पहुंचा दिया था। यह विस्थापन आर्यों के भारत आगमन के बाद आरंभ नहीं हुआ था। अपितु सिंधु सभ्यता के आरंभिक दौर में ही आरंभ हो चुका था।

हड़प्पा सभ्यता को लेकर नए पुरातात्विक शोध भी इसकी पुष्टि करते हैं। भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा राखीगढ़ी के उत्खनन को लेकर जारी रिपोर्ट के अनुसार, सिंधु घाटी सभ्यता उत्तर जम्मू और कश्मीर की तलहटी में बसे मंदा तथा ऊपरी अफगानिस्तान के शोर्तुघाई से लेकर, दक्षिण में देमावाड़ तक 1600 किलोमीटर तथा पूरव में आलमगीरपुर से लेकर पश्चिम में सुक्ताघर डोई तक 1600 किलोमीटर से अधिक में उसका विस्तार था। सिंधु सभ्यता के दो प्रमुख नगरों, मोहजो-दरो और राखीगढ़ी के बीच ही 1000 किलोमीटर से अधिक का फासला है।[10]  रिपोर्ट के अनुसार 1800 ईस्वी के आसपास उस क्षेत्र को भीषण सूखे का सामना करना पड़ा था। वर्षों लंबे सूखे के से परेशान होकर सिंधुवासी उत्तर-पूर्व की ओर प्रस्थान करने लगे थे। वही हड़प्पा सभ्यता के पराभव का कारण बना था।[11] आधुनिक शोध भी इसकी पुष्टि करते हैं।

दूसरे, यदि आर्यों से पराजय ही अनार्यों के सिंधु क्षेत्र से पलायन का प्रमुख कारण होता तो वे भारतीय सभ्यता और संस्कृति पर वैसा असर कतई न छोड़ पाते, जैसा आज दिखाई पड़ता है। आर्य संस्कृति का 3000 वर्ष पुराना इतिहास भी उसे मिटा नहीं पाया है। इसमें से हम कुछ की चर्चा करेंगे। पहला है लिंग पूजा। ऋग्वेद(7/21/5, 10/93/3) में आर्येत्तर लोगों के बारे में कहा गया कि वे ‘केवल अपने नियमों का पालन करने वाले’(अन्यवृत) तथा ‘लिंग पूजक’(शिश्नदेवा) थे। सिंधुवासियों की संस्कृति में भी लिंग पूजा का विशेष स्थान था। सिंधु घाटी से विस्थापित अनार्य जहां-जहां गए, वहां उनके साथ लिंग पूजा भी गई। अपने देश में आज भी लिंग पूजा, मूर्ति पूजा का सबसे प्रचलित रूप है। ब्राह्मणों ने ब्रह्मा को भले ही सृष्टि के निर्माता का दर्जा दिया हो, मगर ‘महादेव’ का दर्जा अनार्य देवता ‘शिव’ या ‘पशुपति’ को ही प्राप्त है। गांव-देहात के मंदिरों और पूजा स्थानों पर कोई और मूर्ति हो न हो, शिवलिंग अवश्य दिखाई दे जाता है।

सिंधु सभ्यता में मातृदेवी की पूजा का संकेत भी मिलता है। कुछ स्त्री-मूर्तियां मिलती हैं—‘बहुसम्मत विचार के अनुसार ये महामातृदेवी (महीमाता), या मातृरूप में स्थित प्रकृति की मूर्तियां हैं….यही ऋग्वेद के आदित्यों की माता अदिति हैं। आर्य और अनार्य दोनों प्रकार की भारतीय प्रजा भुइयां आदि ग्रामदेवियों से लेकर आज तक इसी अंबिका या मातृदेवी के नाना रूपों की पूजा करती आई है।’[12] कुछ वर्ष पहले तक गांव-देहात में मंदिर हो न हो, मगर कोई न कोई देवी अवश्य होती थी, जिसे कहीं ग्राम देवी कहा जाता था, कहीं चामुंडा तो कहीं कुछ और। निचली जातियां प्रायः उन्हीं देवियों की पूजा करती थीं। आज भी गांवों में ऐसे देवी-स्थान बहुतायत में मिलते हैं।

सिंधुवासियों का तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण योगदान लिपि के क्षेत्र में था। सिंधु घाटी में आने के पहले और यहां आने के बाद, करीब 800 ईस्वी पूर्व तक आर्यों ने जो भी साहित्यिक रचनाएं कीं, वे मौखिक थीं। ई. टॉमस का विचार था कि आर्यों ने ‘विभिन्न देशों में भ्रमण करते हुए किसी लिपि का आविष्कार नहीं किया, किंतु जिस देश में वे जाकर बसे, वहीं की लिपि को अपनी भाषा लिखने के काम में ले लिया।’[13] यद्यपि सिंधु लिपि को अभी तक पढ़ा नहीं गया है। तथापि भाषाशास्त्रियों के अनुसार ब्राह्मी लिपि के कई अक्षरों पर सिंधु लिपि से ही लिए गए हैं। जॉर्ज बुहलर ने अशोककालीन ब्राह्मी लिपि और प्राचीन सिंधु लिपि का तुलनात्मक अध्ययन किया था। उसने एक सूची बनाई थी, तदानुसार ब्राह्मी लिपि के कम से कम 36 अक्षर सिंधु घाटी से प्राप्त लिपि से लिए गए हैं।[14] इसके अलावा रक्षावीटिका(गंडा-ताबीज), योग, वृक्षों और पशुओं की देवताओं/अर्धदेवताओं के रूप में पूजा तथा योग जो आज भी भारतीय संस्कृति का अभिन्न हिस्सा हैं—सभी सिंधु-सभ्यता की देन हैं।  बाद में ब्राह्मण संस्कृति ने थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ उन्हें अपना लिया था।

उपरोक्त उदाहरणों से साफ है कि उत्तर से दक्षिण तक भारत की जनसंस्कृति आज भी सिंधु सभ्यता के प्रभाव में है। फिर इसमें आर्यों का अवदान क्या है? इसे ब्राह्मण संस्कृति क्यों कहा जाता है? इसका एक ही कारण है, भारतीय समाज का जाति और वर्ण-आधारित विभाजन। सभ्यता और संस्कृति के नाम पर जो कुछ है सभी को ब्राह्मणों की देन मान लेने की प्रवृत्ति। यह सब एक दिन में नहीं हुआ। धर्म और अध्यात्म के नाम पर ब्राह्मणों ने संस्कृति और ज्ञान के सभी केंद्रों पर कब्जा कर लिया था। शासक देशी हो या विदेशी जो उनके विशेषाधिकारों की रक्षा का आश्वासन देता, वे उसी के अनुशासन में ढल जाते थे। बाहर से आए शासकों के लिए भी, बजाय पूरे समाज को खुश करने के, मुट्ठी-भर पुरोहित वर्ग को संतुष्ट करके अपने पक्ष में कर लेना आसान था।

यही कारण है कि पिछले ढाई हजार वर्षों के इतिहास में अनेक राजा बदले, राजाओं के धर्म बदले, ठिकाने बदले परन्तु ब्राह्मण सदैव सत्ता केंद्र में बने रहे। जिस तरह उन्हें राजाओं और शक्ति केंद्रों के बदलने से कोई फर्क नहीं पड़ता, वैसे ही देवताओं के घटने-बढ़ने, नई पूजा पद्धतियों के शामिल होने या कुछ लोगों द्वारा उनका बहिष्कार किए जाने से भी उन पर कोई फर्क नहीं पड़ता। आज भी, जब तक जाति के नाम पर मिले उनके विशेषाधिकारों को कोई ठेस न पहुंचे, वे हर समझौते के लिए तैयार रहते हैं। प्राप्त विशेषाधिकारों के बल पर वे जो कह दें उसे धर्म मान लिया जाता है; और जो कर दें वह संस्कृति का हिस्सा बन जाता है।

संदर्भ :

[1] हिंदू सभ्यता, राधाकुमुद मुखर्जी, राजकमल प्रकाशन, हिंदी अनुवाद वासुदेवशरण अग्रवाल, पंचम संस्करण, पृष्ठ 36।

[2] ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ इंडिया, दूसरा संस्करण, ज्यूडिथ ई. वाल्श, स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ न्यू यार्क, पृष्ठ 19।

[3] हिंदू सभ्यता, राधाकुमुद मुखर्जी, पृष्ठ 37 (अक्षरों की बनावट के लिए जॉन मार्शल की द्वारा संपादित मोहेनजो-दरो एंड हड़प्पा सिविलाइजेशन, खंड-दो, पृष्ठ 434-449 को देखा जा सकता है)

[4] हिंदू सभ्यता, राधाकुमुद मुखर्जी, पृष्ठ 22

[5] वही, पृष्ठ 48

[6] वही, पृष्ठ 50

[7] वही, पृष्ठ 90

[8] दि इंडो-आर्यन रेसिस, रमाप्रसाद चंद्रा, दि वारेंद्र रिसर्च सोसाइटी, 1916, पृष्ठ 5

[9] एटलस ऑफ वर्ल्ड पापुलेशन हिस्ट्री, कॉलिन मेकएवडी और रिचर्ड जोन्स, प्रकाशक फॅक्ट ऑन फाइल, न्यू यार्क, पृष्ठ 91

[10] डॉ. अमरेन्द्र नाथ, एक्सकेवेशंस एट राखीगढ़ी, भारतीय पुरातत्व विभाग विभाग, पृष्ठ 4

[11] वही, पृष्ठ 50-51

[12] हिंदू सभ्यता, राधाकुमुद मुखर्जी, 38

[13] वही, पृष्ठ 56

[14] दि इंडस स्क्रिप्ट, एस. लेंगड़न, मोहेनजो-दरो एंड इंडस सिविलाइजेशन, संपादक जॉन मार्शल, आर्थर प्रोबस्थियन, लंदन, 1931, पृष्ठ 433

(संपादन : नवल/अमरीश)


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लेखक के बारे में

ओमप्रकाश कश्यप

साहित्यकार एवं विचारक ओमप्रकाश कश्यप की विविध विधाओं की तैतीस पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। बाल साहित्य के भी सशक्त रचनाकार ओमप्रकाश कश्यप को 2002 में हिन्दी अकादमी दिल्ली के द्वारा और 2015 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के द्वारा समानित किया जा चुका है। विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में नियमित लेखन

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