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केंद्रीय विश्वविद्यालयों में सिर्फ नौ ओबीसी प्रोफेसर, क्या यही है ‘सबका साथ, सबका विकास’?

यूजीसी एक्ट, 1956 के तहत पब्लिक फंड यानी इस देश की जनता के टैक्स के पैसे की मदद लेने वाली सभी विश्वविद्यालयों और संस्थानों के लिए सरकार की आरक्षण नीति को लागू करना जरूरी है। लेकिन इसका अनुपालन नहीं किया जा रहा है। बता रहे हैं दीपक के. मंडल

सवर्ण जाति से ताल्लुक रखने वाली एक महिला पत्रकार ने कुछ दिनों पहले अपने एक लेख में लिखा कि उनके घर के लोगों को इस बात में बड़ा आनंद मिलता है कि बीजेपी धीरे-धीरे आरक्षण खत्म कर रही है। अपने घर में यह चर्चा करते हुए लहालोट हो जाते हैं कि मोदी और कुछ साल रह गए तो संविधान से मिला अनुसूचित जाति, जनजाति और पिछड़ों का आरक्षण कहां चला जाएगा, पता भी नहीं चलेगा। यह भाजपा के सवर्ण वोटरों के घरों में बैठकों में होने वाली रस चर्चा भर नहीं है, बल्कि एक कुत्सित मंशा है, जो अब साफ तौर पर परवान चढ़ती दिख रही है। 

चाहे 13 प्वाइंट रोस्टर का मामला हो, या नीट में ओबीसी आरक्षण को दबाए रखना हो या फिर आर्थिक आधार पर दस फीसदी सवर्ण आरक्षण का रास्ता साफ करना हो, सबकुछ बड़े ही सलीके से अंजाम दिया जा रहा है। शिक्षण संस्थानों में एससी, एसटी और ओबीसी आरक्षण की अंदर ही अंदर गला घोंटा जा रहा है। हमें और आपको इसका पता तब चलता है जब सरकार के अंदरखाने चल रहे इस नापाक कोशिश के कुछ सुबूत इधर-उधर से छिटक कर बाहर निकल आते हैं। 

नापाक मंसूबों के सुबूत 

इस महीने इस तरह का एक और सबूत बाहर आया। बीते एक फरवरी को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने सभी कॉलेजों विश्वविद्यालयों, डीम्ड यूनिवर्सिटीज, सरकारी अनुदान और सहायता पर चलने वाले संस्थानों को चिट्ठी लिखकर टीचिंग, नॉन टीचिंग पदों और दाखिलों में एससी-एसटी और ओबीसी आरक्षण लागू करने का निर्देश दिया। तीन महीनों के भीतर इन कॉलेजों, यूनिवर्सिटी और शिक्षण संस्थानों को यूजीसी का यह दूसरा रिमाइंडर था। इससे पहले उसने 19 अक्टूबर 2020 को एक चिट्ठी लिख कर आरक्षण लागू करने की याद दिलाई थी।

रमेश पोखरियाल निशंक, केंद्रीय शिक्षा मंत्री

पिछले साल सितंबर में यह मामला संसद में उठा था। तब केंद्रीय शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक को बताना पड़ा था कि 2019-20 के दौरान टीचिंग में ओबीसी के लिए खाली पड़े पदों की संख्या बढ़ कर 300 हो चुकी है। एससी के लिए 172 और एसटी के लिए 73 पद खाली पड़े हुए हैं। यानी इनमें शिक्षकों को बहाल करने की कोई कोशिश नहीं हो रही है। 

निशंक ने बताया था कि सिर्फ केंद्रीय विश्वविद्यालयों में ही टीचरों के 6,210 पद खाली हैं। करीब 12,437 ऐसे गैर शिक्षक पद खाली हैं, जिन पर नियुक्तियों को मंजूरी मिल चुकी है। 

यूजीसी एक्ट की धज्जियां कौन उड़ा रहा है? 

यूजीसी एक्ट, 1956 के तहत पब्लिक फंड यानी इस देश की जनता के टैक्स के पैसे की मदद लेने वाली सभी विश्वविद्यालयों और संस्थानों के लिए सरकार की आरक्षण नीति को लागू करना जरूरी है। यह नीति शिक्षकों, गैर शिक्षण कर्मियों की भर्तियों से लेकर दाखिला और छात्रावास आवंटन तक में लागू होनी चाहिए। संविधान के अनुच्छेद 30 (1) के प्रावधानों के तहत इन नियमों को किसी भी हाल में लागू करना अनिवार्य है। सिर्फ अल्पसंख्यक संस्थानों पर यह लागू नहीं होता। राज्य सरकारों को भी अपने विश्वविद्यालयों, सहायता प्राप्त और संबद्ध शिक्षण संस्थानों को अपने यहां की आरक्षण नीति के हिसाब से शिक्षकों, गैर शिक्षकों की भर्तियों, नामांकन और छात्रावास आवंटन में ओबीसी, एससी और एसटी के लिए आरक्षण का पालन करना पड़ता है।

यूजीसी, नई दिल्ली

सवाल है कि संविधान की धाराओं और यूजीसी के इतने साफ नियमों-निर्देशों के बावजूद कॉलेजों, राज्याधीन विश्वविद्यालयों, केंद्रीय विश्वविद्यालयों और दूसरे शिक्षण संस्थानों में एससी, एसटी और ओबीसी आरक्षण कौन रोक रहा है? क्योंकि यूजीसी को हर तीन महीने पर इन शिक्षण केंद्रों के कर्ता-धर्ताओं को संविधान की दुहाई देकर आरक्षण लागू करने की याद दिलानी पड़ रही है? जबकि कुलपतियों के चमचमाते दफ्तर, बंगले, गाड़ियों और प्रोफेसरों की मोटी तनख्वाह का बोझ इस देश की श्रमजीवी जनता ढोती है। यह पैसा देश की बहुजन श्रमजीवियों की मेहनत से पैदा होता है।

303 ओबीसी प्रोफेसरों के पदों पर सिर्फ नौ भर्तियां

ओबीसी आरक्षण का हश्र देखिये। अगस्त, 2020 तक सिर्फ केंद्रीय विश्वविद्यालयों में ओबीसी वर्ग के प्रोफेसरों के 313 पद खाली थे, लेकिन इनमें से सिर्फ 2.8 यानी सिर्फ नौ पद भरे गए थे।

यह भी पढ़ें : सवर्ण आरक्षण : हरकत में आया यूजीसी, विश्वविद्यालयों को भेजा सर्कुलर 

यूजीसी के आंकड़ों के मुताबिक 1 जनवरी, 2020 तक जेएनयू, दिल्ली विश्वविद्यालय, बीएचयू और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में ओबीसी वर्ग के प्रोफेसरों के लिए खाली पदों पर एक भी बहाली नहीं हुई थी। 

वर्ष 2019 में सरकार केंद्रीय शिक्षण संस्थान (टीचर कैडर में रिजर्वेशन) अध्यादेश लेकर आई। इस अध्यादेश के तहत केंद्र सरकार ओर से स्थापित किए गए केंद्रीय शिक्षण संस्थानों में एससी, एसटी और ओबीसी प्रोफेसर और एसोसिएट प्रोफेसर के पदों पर सीधी भर्ती को मंजूरी दी गई।

लेकिन इस अध्यादेश के बाद भी हालात जस के तस हैं। विश्वविद्यालयों के कर्ता-धर्ता अक्सर यह बहाना बनाते हैं कि उन्हें इन पदों पर भर्तियों के लिए योग्य उम्मीदवार नहीं मिल रहे हैं। लेकिन राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग का कहना है कि यह सरासर बेईमानी है। क्या यह संभव है कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों को प्रोफेसरों के पदों पर भर्तियों के लिए पिछड़े वर्ग का एक भी कैंडिडेट नहीं मिल रहा है। 

विश्वविद्यालयों में उच्च जाति के कुलपतियों का कब्जा

दरअसल केंद्रीय विश्वविद्यालयों वाइस चासंलरों के पदों पर ऊंची जाति के लोगों को बिठा दिया गया है और उनका पहला काम है कि शिक्षा संस्थानों में पिछड़ी जातियों के आरक्षण को रोकना। कालेजों में प्रोफेसरों के चयन प्रक्रिया से नजदीकी वास्ता रखने वाले सुबोध कुमार खुद दिल्ली विश्वविद्यालय के महाराजा अग्रसेन कालेज में पढ़ाते हैं। विश्वविद्यालयों में पिछड़े वर्ग के प्रोफेसरों की बहाली के सवाल पर उन्होंने न्यूज वेबसाइट द प्रिंट से साफ कहा कि देश में विश्वविद्यालयों के ज्यादातर वाइस चासंलर ऊंची जातियों के हैं। आपको शायद ही कोई ओबीसी कुलपति मिलेगा। इनका एक ही एजेंडा है। इस एजेंडे के तहत ये कुलपति अपने विश्वविद्यालयों में सिर्फ ऊंची जाति और ऊंची जाति की संस्कृतियों को बढ़ावा देते हैं।

जेएनयू के प्रोफेसर नरेंद्र कुमार का कहना है कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों में ओबीसी प्रोफेसरों की नियुक्ति में अब सिर्फ विचारधारा मायने रखती है। अगर आप एक खास विचारधारा से ताल्लुक नहीं रखते तो आपकी नियुक्ति मुश्किल है। यह बताने की जरूरत नहीं कि यह कौन सी विचारधारा है।

सरकार जिस तरह से निजीकरण की राह पर है और सार्वजनिक उद्योगों में अपनी हिस्सेदारी बेचने में लगी है उससे नौकरियों में आरक्षण तो आखिरी सांसें गिन ही रहा है, नई शिक्षा नीति लाकर दाखिला और शिक्षकों की भर्ती में भी इसे खत्म करने की पुख्ता रणनीति तैयार कर ली गई है।

नई शिक्षा नीति के एलान के बाद सीपीएम के महासचिव सीताराम येचुरी ने यह आशंका जताई थी कि शिक्षा के निजीकरण के जरिये कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में आरक्षण खत्म करने की तैयारी कर ली गई है। तब शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने कहा था कि आरक्षण खत्म नहीं होगा। नई शिक्षा नीति में पिछड़े वर्गों को शिक्षा से जोड़ने पर खास जोर दिया जाएगा। इसके लिए राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत एक क्लस्टर बनाया गया है, जिसका नाम है : सोशियो-इकोनॉमिक डिप्राइव्ड ग्रुप्स। सवाल है कि इस सोशियो-इकोनॉमिक डिप्राइव्ड ग्रुप्स में कौन होंगे। इसके क्या मानक होंगे? क्या इस पर संविधान की भी मुहर होगी

साफ है कि मौजूदा आरक्षण नियमों के मुताबिक शैक्षणिक संस्थानों में एससी, एसटी और ओबीसी के आरक्षण को लटकाने में लगी ताकतें एक और शब्दजाल बुन रही हैं। 

(संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

दीपक के. मंडल

दीपक के. मंडल वरिष्ठ पत्रकार हैं और आर्थिक-सामाजिक विषयों पर सतत लेखन करते रहे हैं।

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