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सवर्णों को चाहिए बहुजनों से हनुमान जैसी वफादारी

बीते सप्ताहांत दिल्ली में लाल किले के सामने चांदनी चौक इलाके में रातों-रात एक हनुमान मंदिर बना दिया गया। इसके पहले दिल्ली हाईकोर्ट ने बीच सड़क बने एक पुराने मंदिर को हटाने का आदेश दिया था। अब रातों-रात बने हनुमान मंदिर के समर्थन में सभी राजनीतिक दलों के नेता उतर आए हैं। इस घटनाक्रम के बहाने भारतीय राजनीति में हो रहे बदलाव को रेखांकित कर रहे हैं भंवर मेघवंशी

दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश पर गत 9 जनवरी को दिल्ली के चांदनी चौक इलाके में सड़क पर स्थित एक हनुमान मंदिर को सौंदर्यीकरण के लिये हटा दिया गया। एक ऐसे वक्त में जब मंदिर निर्माण भारत का राष्ट्रीय कार्यक्रम बना हुआ है, राम के भक्त हनुमान का मंदिर हटा दिया जाना बेहद संवेदनशील मुद्दा तो बनना ही था। यह उन लोगों के लिए एक बड़े अवसर की संभावना को भी चिह्नित करता है कि जो मंदिर के मुद्दे से सत्ता प्राप्ति की कारीगरी खूब जानते है। 

मंदिर हटाए जाने की खबर चांदनी चौक के स्थानीय निवासियों को ही रही होगी, लेकिन अब रातों-रात उस स्थान के नजदीक ही एक नया मंदिर निर्मित हो गया है ,जो स्टील और लोहे से बना है। लोगों को कोई आश्चर्य नहीं है कि यह मंदिर अचानक कैसे प्रकट हो गया है। जाहिर तौर पर जिन लोगों ने बाबरी मस्जिद में रामलला प्रकटाए, उसी विचार समूह के लोग हैं, जिन्होंने यह चमत्कार कर दिखाया होगा। वे ऐसा करने में सिद्धहस्त हैं। उनकी रातों-रात मूर्तियां और मंदिर प्रकटीकरण का पुराना इतिहास रहा है।

मीडिया की रपटों के अनुसार हटाया गया मंदिर काफी पुराना था और सड़क के बीच में था। उसके पास एक प्राचीन पीपल का पेड़ भी था। जब शहर का सौन्दर्यकरण होता है तो पुरानी इमारतें, पेड़ और सड़कें उसकी भेंट चढ़ जाते हैं। कभी-कभी स्थानीय निकाय अथवा प्रशासन इस तरह के ढांचों को हटा देता है तो कभी अदालतें इसमें अपनी भूमिका निभाती है। दिल्ली के चांदनी चौक पर बना हनुमान मंदिर भी दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश से हटाया गया और मूर्तियों को पास के मंदिर में ससम्मान रखवा दिया गया।

जब विवाद बढ़ने लगा और आरोप-प्रत्यारोप होने लगे, तब हिंदूवादी संगठनों और भाजपा ने आम आदमी पार्टी (आप) और अरविन्द केजरीवाल पर आरोप लगाना शुरू किया। फिर तो राम भक्त भाजपा को हनुमान भक्त आप के लोगों ने जवाब देना प्रारम्भ किया। हालांकि कांग्रेस भी मंदिर के पक्ष में जंगी प्रदर्शन कर चुकी है। जो भी प्रभावी राजनीतिक दल है, सब मंदिर का ही पक्ष ले रहे हैं। सभी को ऐसा लगता है कि मंदिर का समर्थन नहीं किया तो वे शायद जन समर्थन खो देंगे।

विश्व हिन्दू परिषद् ने तो रविदास मंदिर की तर्ज पर दिल्ली सरकार से हनुमान मंदिर बनवाने की मांग ही कर डाली है और एक राजनीतिक दल के नेताओं ने नए ढांचे में विशेष हनुमान चालीसा पाठ की घोषणा कर दी है। वहीं दूसरी पार्टी के नेता ने नवनिर्मित मंदिर में जाकर विश्व शांति के लिये प्रार्थना करने की उद्घोषणा की है।

लालकिले के सामने चांदनी चौक इलाके में रातोंरात तैयार हुआ हनुमान मंदिर

सबसे आश्चर्यजनक यह कि इस पूरे प्रकरण में दिल्ली पुलिस और दिल्ली सरकार की अहम भूमिका है। दिल्ली में सत्तारूढ़ आप पार्टी के नेता नए मंदिर का स्वागत कर रहे हैं। वहीं उनकी सरकार रातों-रात मंदिर बना दिये जाने की घटना की जांच कर रही है। केंद्र में सत्तारूढ़ दल भाजपा के नेता नवनिर्मित मंदिर में पूजा-अर्चना कर रहे हैं और उनके मातहत पुलिस अधिकारी मंदिर मामले में पूछताछ कर रहे है। ऐसा लगता है कि सारा ही मैच फिक्स है अथवा दोस्ताना संघर्ष किया जा रहा है।

मंदिर के पुजारी का बयान सुनकर तो आपका सिर चकरा जाएगा। उनका कथन है कि उनको सपना आया, जिसमें उनको भगवान से आदेश मिला कि मंदिर पहुंचो। जब वे सुबह-सुबह पहुंचे तो उन्हें साक्षात् हनुमान जी का बनाया यह मंदिर मिला। कुछ लोग कहते हैं कि मंदिर स्थानीय निवासियों ने बनाया है तो कुछ का कहना है कि हनुमान जी ने खुद ही बनाया है।

खैर यह अविश्वसनीय बात है और किसी को इस पर यकीन नहीं हो सकता है कि कोई अलौकिक शक्ति ने मंदिर बना दिया या मंदिर स्वत: प्रकट हो गया है। सब जानते हैं कि ऐसा कुछ भी नहीं होता है और ना ही चांदनी चौक में हुआ है। फिर भी यह भाईचारा मैच जारी है और लोगों को पौराणिक कहानियों की चाशनी चटाई जा रही है। यह मिथकों की वापसी का दौर है। संविधान के नीति निदेशक तत्वों में जिस वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विकसित करने का वायदा किया गया है, उस विचार और सपने की हत्या है। यह नागरिकों को अंधश्रद्धा की अंधी सुरंग में धकेलने का शर्मनाक कृत्य है।

धर्म और आस्था के ज़रिए अधिनायकवादी सत्ताएं आम जनता का शोषण करती है। सरकारें चाहती है कि अंधविश्वास और पाखंड को बढ़ावा मिलता रहे, लोग धर्म, भजन-कीर्तन, आरती, प्रसाद और पूजा-पाठ के नशे में निमग्न रहें और भक्त बनकर जयकार करना सीख जाएं। मंदिर में भगवानों की जय और बाहर शक्तिमानों की जय जय करें।

कोई भी सरकार सवालों का सामना नहीं करना चाहती है। विद्रोही किसी को पसंद नहीं आते हैं। भक्त सबको प्रिय हैं। धर्म सत्ता, राजसत्ता और अर्थसत्ता की जुगलबंदी सदैव आम जन के विरोध में कायम रही है और आज भी मजबूती के साथ बनी हुई है। जिन राजनीतिक दलों को जनता की समस्याओं पर केन्द्रित करना चाहिए, वे जनता के लिये समस्याएं खड़ी कर रहे हैं। आखिर बीच सडक पर मंदिरों और दरगाहों जैसे धर्मस्थलों का क्या काम है? उनकी वजह से न केवल ट्रैफिक बाधित होता है, बल्कि राह चलते लोग गाड़ी रोककर जब आंखें बंद करके सिर झुकाते हैं तो दुर्घटनाएं भी हो जाती हैं। सवाल यह भी है कि क्या इसी तरह कोई जोतीराव फुले या डॉ. आंबेडकर की प्रतिमा सड़क के मध्य या किनारे भी स्थापित कर दे तो शासन प्रशासन उसको स्वीकार करेगा या मूर्ति को उखाड़ फेंकेगा और लगाने वालों को जेल में ठूंस नहीं देगा? 

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यह प्रश्न कौन उठाएगा कि एक धर्मनिरपेक्ष देश के सरकारी कार्यालयों में मंदिर, दरगाहें आदि क्यों होने चाहिए? धर्म जब व्यक्तिगत आस्था का विषय है तो फिर उसे सार्वजनिक रूप से सब पर थोपना कहां तक जायज है? हर सरकारी दफ्तर का शिलान्यास भूमि-पूजन से क्यों होना चाहिए? सरकारों का काम धर्म और अंधश्रद्धा को बढ़ावा देना है या तर्क, विज्ञान और विवेक को बढ़ाना है? 

बहरहाल, देश की राजधानी दिल्ली की राजनीति में हनुमान मंदिर का मुद्दा नई धार्मिक राजनीति की शुरुआत मात्र है।  राम के नाम पर इस देश का पर्याप्त दोहन हो चुका है। तीन दशक के प्रयासों से राम मंदिर की आड़ में चलाए गए ब्राह्मणवादी वर्चस्व के आन्दोलन ने श्रमण संस्कृति और उसके अनुयायियों को दास बनाने का अभियान छेड़ रखा है। सत्ता के संरक्षण में बन रहे मंदिर के लिये जुटाई गई हजारों करोड़ रूपए की धनराशि देश के बहुजनों के लिये एक प्रतिक्रांति का सबब बनने जा रही है। अब वे हनुमान को ले आए हैं। अगले कुछ दशक हनुमान के नाम पर मेहनतकश कौमों को मूर्ख बनाने का काम चलेगा और सामाजिक न्याय और परिवर्तन की मुहिम को नष्ट किया जाएगा।

सनद रहे कि यह धीमा जहर इसलिए दिया जा रहा है ताकि वैज्ञानिक समाजवाद की बातें इतिहास बन जाय। लोग अंधविश्वास और पाखंडों से दूर न जा पाएं। पत्थर पूजते रहें, भूत-प्रेत, टोने-टोटके, डायन उतारते चढाते रहें, आत्माओं का आह्वान करें और दुष्ट आत्माएं भगाते रहें। जनता सरकारी दफ्तरों में आकर सवाल न पूछे। अपने बुनियादी हक-हुकूक के लिए संघर्ष न करे। इसके लिए उनको भाग्यवादी बनाना बहुत जरुरी है। अपनी गरीबी और जाति जन्य वंचनाओं पर प्रश्न न उठाएं। इसके लिये उनको धर्म स्थलों की तरफ डायवर्ट करना आवश्यक है। 

जबकि बहुजन संस्कृति के महानायकों व नायिकाओं, संतों ने हमें इस पाखंड से बचाने के लिए शिक्षाएं दीं। उन्होंने वैदिक पौराणिक मिथकों और मूर्ति पूजा तथा तमाम ब्राहमणवादी उपक्रमों का न केवल विरोध किया, बल्कि यह भी साबित किया कि इनको पूजना, मानना सब निरर्थक हैं। उन्होंने वेदों पर सवाल उठाए, अलौकिक शक्तियों के विचारों को खारिज किया, यज्ञ हवनों का बहिष्कार किया और मंदिरों-मस्जिदों से बचने का आह्वान किया। लेकिन क्या हम सचेत हो पाए हैं? क्या उनकी शिक्षा हमने समझी है या हम उन सबको भुला कर उन लोगों को मजबूत बना रहे हैं, जिन्होंने श्रमण संस्कृति और बहुजन सुखाय-बहुजन हिताय के विचार को नष्ट करके महज ब्राह्मण हिताय का वर्चस्ववादी विचार हम पर थोप रखा है।

यह तो निर्विवाद है कि इस देश का सवर्ण वर्चस्ववादी समुदाय बहुजनों से हनुमान जैसी वफ़ादारी चाहता है, जो हर बात सिर झुका कर स्वीकार कर ले, उनके कमजोर होने पर अपनी जान दांव पर लगाकर संजीवनी बूटी ले आए और अंत में अपनी स्वामी भक्ति का सबूत खुद का सीना फाड़कर दे। अब उन्हें बहुजन समाज में करोड़ों हनुमान चाहिए। स्मरण रहे कि हाल ही में बिहार चुनाव के वक्त रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान ने खुद को मोदी का हनुमान कहा था।

दरअसल, दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों में हनुमान भाव ( दास्य भाव ) की स्थापना ब्राहमणवाद का अगला लक्ष्य है। राम भाव ( स्वामी भाव) में तो वे ही रहेंगे। आदिवासी इलाकों में बड़ी संख्या में हनुमान मंदिर स्थापित किये गए हैं। उन्हें हनुमान भक्त बनाया गया है। शबरी आदि के ज़रिए प्रकृति पूजक आदिवासियों को राम से जोड़ दिया गया है। बजरंग दल में उपद्रव करने के लिये दलितों को मौके दिये गये हैं, वे हुडदंगी सेनाओं में शामिल होकर स्वयं को धन्य मान रहे हैं। पिछड़ों के कंधे पर साम्प्रदायिकता का भूत सवार है ही। अब हिन्दुत्व की विषैली राजनीति को बहुजनों को अपना हनुमान बनाने के एजेंडे को पूरा करना है और वे इसी दिशा में अग्रसर भी हैं। चिंता की बात यह है कि जिन बहुजनों को हनुमान बनाया जा रहा है, उन्हें अपनी पीढ़ियों की बर्बादी का कोई अनुमान भी नहीं है।   

(संपादन : नवल/अमरीश)


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लेखक के बारे में

भंवर मेघवंशी

भंवर मेघवंशी लेखक, पत्रकार और सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता हैं। उन्होंने आरएसएस के स्वयंसेवक के रूप में अपना सार्वजनिक जीवन शुरू किया था। आगे चलकर, उनकी आत्मकथा ‘मैं एक कारसेवक था’ सुर्ख़ियों में रही है। इस पुस्तक का अंग्रेजी अनुवाद हाल में ‘आई कुड नॉट बी हिन्दू’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। संप्रति मेघवंशी ‘शून्यकाल डॉट कॉम’ के संपादक हैं।

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