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किसान आंदोलन में शिक्षा की लौ जलातीं बहुजन महिलाएं

दिल्ली-उत्तर प्रदेश की सीमा गाजीपुर आंदोलन स्थल पर इन दिनों सावित्रीबाई फुले पाठशाला का संचालन किया जा रहा है। इस पाठशाला में आंदोलन में शामिल होने वाले बच्चे और कूड़ा बीनने वाले बच्चे प्राथमिक शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। इस पाठशाला की संचालिका निर्देश सिंह से सुशील मानव की खास बातचीत

“बच्चे देश का भविष्य हैं और कूड़े में खाना ढूंढ़ रहे हैं। जिन हाथों में कलम होना चाहिए, उनमें कूड़ा है। जिन पीठों पर स्कूल बैग होना चाहिए उस पर कबाड़ की बोरियां लदी हैं। जिन आंखों में सपने होने चाहिए उनमें ये दिख रहा है कि मेरे सामने कूड़ा पड़ा है और भागकर उठाना है। लेकिन ये सरकार के एजेंडे में, मीडिया के कैमरे में, बजट में, चुनाव के नारे में ये नहीं होते, क्यों?”- यह कहना है दिल्ली-उत्तर प्रदेश के ग़ाज़ीपुर बॉर्डर पर बच्चों के लिए स्कूल चला रहीं निर्देश सिंह का।

बताते चलें कि निर्देश सिंह 22 जनवरी से ग़ाज़ीपुर बॉर्डर पर किसान आंदोलन में शामिल बच्चों को पढ़ाने के लिए ‘सावित्री बाई फुले पाठशाला’ चला रही हैं। आंदोलन में पाठशाला चलाने का आईडिया और उद्देश्य के बाबत वह बताती हैं कि “26 नवंबर से शुरु हुआ किसान आंदोलन लगातार चलता जा रहा था। पता नहीं चल रहा था कि यह कब तक चलेगा। मैंने देखा कि आंदोलन के चलते बच्चों की शिक्षा प्रभावित नहीं होनी चाहिए। यह सोचकर कि किसान आंदोलन में जो बच्चे आए हैं, उनकी पढ़ाई रुकनी नहीं चाहिए। इसलिए हमलोगाें ने यह पाठशाला खोला। 

स्कूल में हैं 130 बच्चे, 80-90 कूड़ा बीनने वाले

वह बताती हैं कि पाठशाला हमलोगों ने आंदोलन में शामिल किसानों के बच्चों के लिए खोला था, लेकिन इसमें किसानों के बच्चों के साथ साथ कूड़ा बीनने वाले बच्चे भी पढ़ते हैं। यहां स्कूल में कुल 130 बच्चे हैं, जिनेमें करीब 80-90 बच्चे कूड़ा बीनने वाले बच्चे हैं।

गाजीपुर बार्डर पर शिक्षा ग्रहण करते बच्चे

आंदोलन स्थल पर चल रही ‘सावित्रीबाई फुले पाठशाला’ में सुबह 8 बजे से शाम 6 बजे तक 2-2 घंटे के 5 बैच चलते हैं, जिसे अलग-अलग टीमें पढ़ाती हैं। निर्देश सिंह के मुताबिक, उनकी टीम में 9 लोग हैं। इसके अलावा स्वयंसेवक भी हैं रोजाना बच्चों को पढ़ाने में भागीदारी करते हैं। पढ़ाने का काम अधिकांश महिलाओं के जिम्मे है।

आंदोलन खत्म होने के बाद कराएंगे निजी स्कूलों में दाखिला

आंदोलन खत्म होने के बाद किसानों के बच्चे तो अपने गांव लौट जाएंगे। लेकिन जो कूड़ा बीनने वाले बच्चे हैं उनकी शिक्षा का क्या होगा? इस सवाल के जवाब में निर्देश बताती हैं कि हमलोग भी इन बच्चों के बारे में सोच रहे हैं और तैयारी भी कर रहे हैं। शिक्षा के अधिकार कानून के तहत निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत अलाभित बच्चों का जो कोटा होता है, जिसके लिए सरकार अनुदान देती है, उस कोटे के तहत हम इन बच्चों का दाखिला कराने की कोशिश करेंगे। साथ ही, जो अधिक मेधावी बच्चे होंगे, हमारी कोशिश होगी कि हम अपने संस्था द्वारा उन बच्चों को गोद लें। और उनकी पूरी शिक्षा की जिम्मेदारी उठाएंगे। 

आंदोलन में शामिल महिलाओं के लिए लाइब्रेरी 

निर्देश सिंह आगे बताती हैं कि “हमने एक छोटी सी लाइब्रेरी बनाई है। शाम को 6 बजे से रात 11 बजे तक संविधान के मौलिक अधिकार और संविधान की प्रस्तावना आदि का पाठ करते हैं। इसमें महिलाएं शामिल होती हैं। अपने संगठन के बारे में वह बताती हैं कि “जब आंबेडकरवादी विचारधारा वाले संगठनों में काम करते हुए हमें लगा कि बहुजन पुरुषों के लिए काम करने को तो बहुत सी संस्थाएं हैं, लेकिन महिलाओं के लिए फील्ड में जाकर काम करनेवाली संस्थाएं कम हैं। मैंने बहुजन महिलाओं के लिए काम करने की इच्छा प्रकट की तो मुरादाबाद के मेरे वरिष्ठ साथियों केदारनाथ जी और लखपत सिंह जी ने मुझे प्रोत्साहित किया। फिर वर्ष 2014 में हमलोगो ने मिलकर एक संस्था का गठन ‘माता सावित्री बाई महिला ब्रिगेड’ के नाम से किया। 

बच्चों को पढ़ातीं पाठशाला की संचालिका निर्देश सिंह

संस्था के कामकाज के बारे में निर्देश सिंह बताती हैं कि “हमारी संस्था ने महिलाओं के लिए कई सम्मेलन आयोजित किए, जिनमें हजारों की संख्या में महिलाओं ने हिस्सा लिया। हमारे मंच केवल महिलाओं के लिए हैं। यहां तक कि कार्यक्रम में भी केवल महिलाएं शामिल हो सकती थीं। हमलोगों ने उन पुरुषों का स्वागत किया जो अपनी महिला परिजनों को लेकर कार्यक्रम में शामिल हुए। हमलोग हर साल एक महिला सम्मेलन कराते हैं, जिसमें देशभर की महिलाएं शामिल होती हैं। इसके अलावा देश में कहीं भी दलित-बहुजन महिलाओं पर अत्याचार होता है, अन्याय होता है तो हम इसके खिलाफ आंदोलन करते हैं ताकि उन्हें न्याय मिले।”

बुराईयां यदि महिलाओं के जरिए खत्म हों तो तेजी से खत्म होंगे

संगठन के उद्देश्य के बारे में निर्देश सिंह बताती हैं कि “महिलाओं को वैचारिक रूप से मजबूत बनाना हमारे संगठन का प्रमुख उद्देश्य है। वजह यह कि कुरीतियों और बुराईयों से सबसे अधिक नुकसान बहुजन समाज का हो रहा है। इन बुराइयों को यदि महिलाओं के जरिए खत्म किया जाय तो ये बहुत तेजी से खत्म होंगे। इसलिए हम लोग अंधविश्वास के उन्मूलन को लेकर जागरूकता फैला रहे हैं। हमलोग बहुजन महिलाओं और बहुजन बच्चों की शिक्षा के महत्व के बारे में बताते हैं। उन्हें समझाते हैं कि जो भी तरक्की होगी वो शिक्षा के जरिए ही होगी।”

गाजीपुर बार्डर पर चल रहे सावित्रीबाई फुले पाठशाला में चर्चा करतीं महिलाएं

निर्देश सिंह किसान आंदोलन में बहुजन महिलाओं की भागीदारी के सवाल पर बताती हैं कि “आंदोलन में दिन-रात लंगर चलता है। उस लंगर में महिलाओं का श्रम सबसे ज़्यादा लगता है। रोटियां बनाना, सब्जी काटना आदि काम महिलाओं के जिम्मे है। वोलंटियर्स का काम भी महिलाएं कर रही हैं। आंदोलन में महिलाएं पूरी भूमिका निभा रही हैं। इसके अलावा कई बहुजन महिलायें बहुजन लड़कियां अपने यूट्यूब चैनल के माध्यम से किसान आंदोलन को बहुजन समाज तक लेकर जा रही हैं। इसके लिए वह ख़तरे भी उठा रही हैं। आंदोलन स्थल की साफ सफाई में भी बहुजन महिलाएं महत्वपूर्ण रोल निभा रही हैं। इसके अलावा दिन भर में 17-18 महिलाएं मंच पर बोलती हैं। वे अपने अर्जित अनुभवों से महिलाओं को इन कृषि किसानों को आगाह करती हैं। बहुजन महिलाएं जैसे बीज संजोने से लकर खेती में बुआई, रोपाई, कटाई निराई, गुड़ाई करती हैं। वैसे ही आंदोलन में सहभागिता कर रही हैं। अन्य आंदोलन के मुकाबले इस आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी ज़्यादा है। इनमें छत्तीसगढ़ और बिहार जैसे दूर के राज्यों की महिलाएं भी हैं। ये महिलाएं यहां इस आंदोलन तक पितृसत्तात्मक समाज की सोच को फांदकर पहुंच रही हैं। 

कृषि क़ानूनों का सबसे ज़्यादा असर दलित-बहुजन महिलाओं पर पड़ेगा

निर्देश सिंह कहती हैं कि “इन तीन कृषि क़ानूनों के लागू होने पर इनका सबसे ज़्यादा घातक असर दलित-बहुजन महिलाओं पर ही पड़ेगा। घर की रसोई महिलाएं चलाती हैं। आज खुले बाजार में दाल 90 रुपये, नमक 20 रुपये, सरसों तेल 120 रुपये लीटर मिल रहा है। जब यही सब सामान जमाखोरी के बाद मनमाने दाम पर कॉर्पोरेट बेचेगा तो सबसे पहले ये चीजें बहुजन परिवारों की थाली से गायब होंगे। आलू जब 50 रुपये किलो और प्याज जब 100 रुपये किलो बिका तब हमने प्रभाव देखा है। तो जो महिलायें अभी 6-10 हजार रुपये में हर महीने अपने परिवार का पेट पाल रही हैं वो 25 हजार में भी नहीं हो पाएगा। जबकि उनकी आय महंगाई के अनुपात में इतनी नहीं बढ़ेगी। तब क्या होगा।” 

निर्देश सिंह कहती हैं “दलित-बहुजन वर्ग की लड़ाई अभी तक रोटी तक ही रही है। शेष संसाधनों तक इनकी भागीदारी के लिए इनकी लड़ाई पहुंची ही नहीं। इसके लिए इतना बड़ा कोई आंदोलन नहीं हुआ। हुआ भी तो मीडिया और सरकार ने दबा दिया। तो अगर हमें सरकार के नियमों की मुखालफत करनी है तो पहले पेट की आवश्यकता होगी। अब तो सरकार रोटी को ब्रांड बनाने जा रही है। आज आप देखिए कि ब्रांडेड कपड़े अधिकांश बहुजन महिलाएं महंगे होने के कारण नहीं पहन पाती हैं। ऐसे ही जब खाने की ब्रांड हो जाएंगे तो वे नहीं खरीद पाएंगीं। मजदूर बढ़ जाएंगे और मजदूरी घट जाएगी। इन कारणों से हम तीनों कृषि क़ानूनों का का विरोध कर रहे हैं। हम इसलिए कह रहे हैं क्योंकि ये किसानों का नहीं, जनता का आंदोलन है। रोटी को तिजोरी में बंद न होने देने का आंदोलन है।” 

(संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

सुशील मानव

सुशील मानव स्वतंत्र पत्रकार और साहित्यकार हैं। वह दिल्ली-एनसीआर के मजदूरों के साथ मिलकर सामाजिक-राजनैतिक कार्य करते हैं

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