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पंजाब में संत रविदास की दलित स्वाभिमान की विरासत

रौनकी राम बता रहे हैं कि गुरु रविदास ने भक्ति को एक नया अर्थ दिया एवं उसे अछूत प्रथा और सत्ता एवं संपत्ति के असमान वितरण के सामाजिक स्तर पर विरोध का नया और साहसिक साधन बनाया। यह इस अर्थ में नया था कि वह सभी के प्रति करुणा के भाव पर जोर देता था और निराकार ईश्वर में पूर्ण विश्वास रखता था

रविदास जयंती पर विशेष

गुरु रविदास 16-17वीं शताब्दी के सबसे प्रसिद्ध अछूत संत-कवि थे। वे उत्तर भारत के भक्ति आंदोलन, विशेषकर निर्गुण संप्रदाय या संत मत/परंपरा के सबसे चमकते सितारों में एक थे। साथ ही उन्हें उत्तर-पश्चिमी व मध्य भारत के दलितों, विशेषकर चमारों/चम्भारो/चर्मकारों द्वारा अत्यंत श्रद्धा से देखा जाता है। उनकी लोकप्रियता इसी से जाहिर है कि देश में विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न भाषाएँ बोलने वाले उनके अनुयायियों ने उन्हें अनेक नाम दिए हैं। वे रैदास, रोहिदास, रुईदास, रामदास, रायदास, रोहित्सा, राहदेसा, रव दास और रब दास आदि नामों से जाने जाते हैं।

उनका नाम लेते ही उनके अनुयायियों का मन अभिमान और आत्मविश्वास से झूम उठता है और वे अपनी जातिगत पहचान पर गर्वित हो उठते हैं। जेम्स जी. लोक्टेफेल्ड का कहना है कि भले ही एक समय रविदास का नीची जाति का होना समस्या रही होगी, परंतु उनके समकालीन प्रशंसक उनकी जातिगत पहचान से इंकार नहीं करते। बल्कि वे उसकी पुष्टि करते हैं। गुरु रविदास के अनेक अनुयायी स्वयं को रविदासिया या ‘रविदासी आदि धर्मी’ कहलाना पसंद करते हैं। कैथरिन लुम का कहना है कि ‘व्यक्तिगत और सामूहिक, दोनों स्तरों पर दलितों में गर्व का जो भाव उत्पन्न हुआ, उसने रविदासिया आंदोलन को एक अनूठा प्रतीक दिया’।

अछूत प्रथा के खिलाफ गुरु रविदास के संघर्ष और वाराणसी के पंडितों से उनके टकराव ने संभवतः उन्हें उत्तर भारत का सबसे लोकप्रिय संत बनाया। वाराणसी (बनारस) को वर्णाश्रम व्यवस्था की धुरी व हिन्दू धार्मिकता और ब्राह्मणों की शिक्षा का केंद्र माना जाता था। गुरु रविदास की भक्ति को वाराणसी के पंडित, ब्राह्मणों के सदियों से चले आ रहे वर्चस्व के विरुद्ध अछूतों के विद्रोह का एक स्वरुप मानते थे। गुरु रविदास की भक्ति उनकी क्रांतिकारी कविताओं में अभिव्यक्ति पाती है, जो ऊंची जातियों द्वारा दलितों पर अत्याचार का सजीव वर्णन करती हैं। उन्होंने एक नई राह चुनी थी। उन्होंने न तो कोई दूसरा धर्म अपनाया और ना ही ब्राह्मणों/ऊंची जातियों की विश्वदृष्टि को स्वीकार कर समाज में सम्मान और स्वीकार्यता पाने की चेष्टा की। उन्होंने अपनी दलित पहचान से समझौता किए बगैर सामाजिक बहिष्करण के विरुद्ध संघर्ष किया। अपनी कई कविताओं के अंत में गुरु रविदास बिना किसी संकोच के अपनी जाति का उल्लेख करते हैं।

गुरु रविदास के बारे में प्रचलित एक कथा ने उन्हें पददलितों के रोल मॉडल के रूप में स्थापित करने में मदद की। इस कथा के अनुसार, एक साधु ने उन्हें पारस (एक मिथकीय पत्थर जो लोहे को सोने में बदल देता है) दिया, परन्तु उन्होंने उसका उपयोग करने से साफ़ इंकार कर दिया। यह कथा शायद बिना मेहनत के कमाए गए धन के प्रति उनकी वितृष्णा को प्रतिबिंबित करने के लिए गढ़ी गयी होगी। बिना श्रम के धनार्जन, ब्राह्मणों का लक्षण था। गुरु रविदास शारीरिक श्रम से, पसीना बहाकर धनार्जन करने को श्रेष्ठ मानते थे। पसीना बहाकर जीवनयापन करने पर उनके जोर ने ‘कीरत’ (शारीरिक श्रम) की श्रमण परम्परा को एक प्रकार के सम्मान और पवित्रता से विभूषित किया।

संत रविदास की जयंती के मौके पर निकाली गई रैली में शामिल लोग (फाइल फोटो)

यह साफ़ है कि गुरु रविदास का वैकल्पिक दलित एजेंडा, ब्राह्मणवाद की बजाय श्रमण परंपरा के अधिक नज़दीक था। वे यह साबित करना चाहते थे कि “ब्राह्मण खोखले लोग हैं जो अपने दंभ और पाखंड में फूले रहते हैं”[1]। इसलिए, गुरु रविदास जूते गांठने के कथित नीची जातियों के अपने पारंपरिक पेशे से जुड़े रहे। वे यह मानते थे कि सामाजिक बहिष्करण के शिकार वर्गों को अपनी स्थिति सुधारने के लिए अपने वंशानुगत ‘अपवित्र’ पेशों को छोड़ने की ज़रुरत नहीं हैं। दूसरे शब्दों में, वे शारीरिक श्रम – जो कि अधिकांश दलितों के जीवन का मुख्य आधार है – को गरिमापूर्ण मानते थे।

गुरु रविदास की इसी सोच ने कई दलितों को अपनी कथित निम्न जातिगत पहचान का खुलकर प्रदर्शन करने के लिए प्रेरित किया। पंजाब के दोआब क्षेत्र में कई मोटरसाइकिलों और कारों पर ‘पुत्त चमारन दे’ (चमार पुत्र) और ‘एससी बॉयज’ (अनुसूचित जातियों के लड़के) लिखे स्टीकर देखे जा सकते हैं। मई 2008 में अपनी अमरीका यात्रा के दौरान कैलिफ़ोर्निया में मेरी मुलाकात एक अमरीकी-पंजाबी दलित लड़की से हुई, जिसने अपनी कार के लिए एक विशेष नंबर प्लेट (चमरी नंबर 1) हासिल की थी ताकि वह अपनी कथित निम्न जातिगत पहचान का प्रदर्शन कर सके। इस तरह, गुरु रविदास की दिखाई राह पर चलते हुए दलित न केवल अपने कथित निम्न सामाजिक दर्जे को छुपाने से इंकार कर रहे हैं, बल्कि वे स्थानीय स्तर परर खुलकर उस वर्चस्ववादी सामाजिक पदक्रम को चुनौती भी दे रहे हैं, जिसने उन्हें सदियों तक सामाजिक-सांस्कृतिक हाशिए पर जीने के लिए मजबूर किया। पंजाब के प्रसिद्ध आदि धर्म आंदोलन के नेताओं की दृष्टि में गुरु रविदास की शिक्षाएं और लेखन, उनके इस मुक्तिकामी संघर्ष के लिए बौद्धिक हथियार थे। सच तो यह है कि मतभिन्नता और असहमति पर आधारित उनके सामाजिक-धार्मिक दर्शन और विचारधारा ने एक राजनैतिक रणनीति का आकार ले लिया है। उनका दर्शन और विचारधारा, पंजाब में उभर रहे वैकल्पिक दलित एजेंडा का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया है।

भक्ति, सामाजिक प्रतिरोध और वैकल्पिक दलित एजेंडा 

गुरु रविदास ने अपनी शिक्षाओं और लेखन के जरिए जिस वैकल्पिक दलित एजेंडा का प्रस्ताव किया, उसे भक्ति के उनके नितांत अनूठे स्वरुप से समझा जा सकता है – उस स्वरुप से जिसने उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी की शुरुआत में भारत में एक क्रांतिकारी दलित आंदोलन को जन्म दिया। भक्ति का यह स्वरुप, हिंदू भक्ति के धार्मिक कर्मकांडों और उसकी संकीर्ण विशिष्टताओं से पूरी तरह मुक्त था और करुणा व श्रम की गरिमा के नैतिक सिद्धांतों पर अवलंबित था। उनकी भक्ति का आधार थे आर्यों के आगमन के पूर्व की सांस्कृतिक विरासत के प्रजातांत्रिक और समतावादी सिद्धांत। गुरु रविदास ने भक्ति को एक नया अर्थ दिया एवं उसे अछूत प्रथा और सत्ता एवं संपत्ति के असमान वितरण के सामाजिक स्तर पर विरोध का नया और साहसिक साधन बनाया। यह इस अर्थ में नया था कि वह सभी के प्रति करुणा के भाव पर जोर देता था और निराकार ईश्वर में पूर्ण विश्वास रखता था। सभी के प्रति करुणा भाव का सिद्धांत उनके सामाजिक दर्शन और संघर्ष के समतावादी चरित्र को प्रतिबिंबित करता था। निराकार (निर्गुण) ईश्वर में उनकी पूर्ण आस्था का उद्देश्य तत्कालीन सामाजिक श्रेष्ठी वर्ग की पददलितों की स्थिति के प्रति उपेक्षा भाव को उजागर करना था – उन वर्गों की जिनकी मुक्ति के लिए वे ईश्वर की शरण में गए थे। भक्ति पर आधारित सामाजिक प्रतिरोध का उनका यह तरीका साहसिक था क्योंकि इसके लिए उन्होंने ब्राह्मणों के प्रतीकों का ही इस्तेमाल किया। उस काल में समाज से बहिष्कृत उनके जैसे व्यक्ति के लिए यह अकल्पनीय था। गुरु रविदास ने ब्राह्मणों की निरंकुशता और अत्याचारों का मुकाबला करने के लिए उन्हीं के प्रतीक चुने – जैसे धोती और जनेऊ पहनना और तिलक लगाना। उन्होंने अत्यंत चातुर्य से ब्राह्मणों के प्रतीकों का उनके ही विरुद्ध इस्तेमाल किया – उन प्रतीकों का जो दलितों के लिए निषिद्ध थे। यह दलितों की आवाज़ बुलंद करने का एक नायाब और वैकल्पिक तरीका था। उनकी वेशभूषा ऊंची जातियों के सदस्यों जैसी ही होती थी, परंतु वे अपनी जातिगत पहचान छुपाते नहीं थे। इसके साथ ही, उन्होंने जूते बनाने और सुधारने के अपने परंपरागत और कथित तौर पर निम्न पेशे को भी नहीं त्यागा। ब्राह्मणों के प्रतीकों का प्रयोग कर वे शायद यह दर्शाना चाहते थे कि निम्न जातियां अपने पारंपरिक वंशानुगत पेशों को त्यागे बिना और कोई दूसरा धर्म अपनाए बिना भी अपनी व्यक्तिगत और सामूहिक दलित पहचान का प्रयोग ऊंची जातियों की सामाजिक श्रेष्ठता को चुनौती देने के लिए कर सकतीं हैं।

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गुरु रविदास ने अपनी भक्ति को ‘बानी’ (आध्यात्मिक दर्शन) के रूप में कविता के माध्यम से अभिव्यक्त किया। उनकी बानी सार्वभौमिक है। उसके तेवर क्रांतिकारी हैं और वह निराकार ईश्वर के प्रति अपरिमित प्रेम से लबरेज है। उसमें एक बेहतर दुनिया की आशा है और शोषकों व सत्ताधारियों और धर्म के नाम पर दमन के विरुद्ध लड़ने का आह्वान है। कुछ अध्येताओं का मानना है कि गुरु रविदास की कविताओं में दलितों की दुर्गति का वर्णन तो है, परंतु उनमें समाज सुधार का उतना प्रबल आग्रह नहीं है और ब्राह्मणवाद व जाति प्रथा की उतनी तीखी निंदा नहीं है, जितनी की तुकाराम और कबीर की रचनाओं में है। कबीर और रविदास की कविताओं में बात कहने के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं, परंतु अंततः वे एक ही बात करतीं हैं। गुरु रविदास की कविता में विनम्रता और भक्ति का भाव है। साथ में, उसमें सुधार के प्रति उमंग और दलितों के जीवन से गहरा सरोकार भी है। गुरु रविदास की कविता, पददलितों की सामाजिक और आध्यात्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने की उनकी उत्कंठा दर्शाती है और जल्द से जल्द उनकी मुक्ति पर जोर देती है।

प्रतिरोध की जिस भक्ति-केन्द्रित विधा की चर्चा ऊपर की गयी है, वह इसलिए और महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि उसकी प्रकृति अहिंसक है और वह उभरते हुए वैकल्पिक दलित एजेंडा के शांतिपूर्ण स्वरुप को रेखांकित करती है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, गुरु रविदास हिंदू धर्म की दमनकारी सामाजिक व्यवस्था को शांतिपूर्ण तरीकों से बदलना चाहते थे। और इसीलिए उन्होंने निराकार परंतु कृपालु ईश्वर को अपने सामाजिक प्रतिरोध का हथियार बनाया। गुरु रविदास का ईश्वर, हिन्दू सामाजिक व्यवस्था के हाशिए पर धकेल दिए गए तथाकथित अछूतों को पवित्र करने वाला और ऊंचा उठाने वाला था। वे लिखते हैं, “ऐसी लाल तुझ बिनु कउनु करै। गरीब निवाजु गुसाईआ मेरा माथै छत्रु धरै… नीचउ ऊच करै मेरा गोबिंदु काहू ते न डरै” (हे प्रभु! तुम्हारे सिवा कौन ऐसा कृपालु है जो भक्त के लिए इतना बडा कार्य कर सकता है। तुम गरीब तथा दीन-दुखियों पर दया करने वाले हो। तुम ही ऐसा कृपालु स्वामी हो, जिसने मुझ जैसे अछूत और नीच के माथे पर राजाओं जैसा छत्र रख दिया)। एक अन्य स्थान पर वे लिखते हैं, “मेरी जाति कुढ़ बांडला ढोर ढोवंता, नितहि बनारसी आसपासा अब बिप्र परधान तिहि करहि डंडौति तेरे नाम शरणाऐ रविदास दासा (मेरी जाति कुढ़ बांडला है। मैं बनारस के आसपास मृत जानवरों के शरीर ढोता रहता हूं। अब हे ब्राह्मणों और प्रमुखों, मेरे सामने अपना सर झुकाओ क्योंकि इस सेवक रविदास ने तुममें (ईश्वर) शरण ले ली है।) गुरु रविदास की मान्यता थी कि उनके निराकार ईश्वर ने न केवल उनका सामाजिक दर्जा ऊंचा कर दिया है वरन वे ऊंची जातियों के श्रेष्ठियों में भी श्रेष्ठी बन गए हैं।

गुरु रविदास न केवल सामाजिक दमन के खिलाफ अहिंसक संघर्ष चलाना चाहते थे, वरन वे दमनकारियों से भी कहते थे कि वे हिंसा का रास्ता त्याग दें। इस तरह, किसी अन्य धर्म को अपनाने या ऊंची जातियों की राह पर चलने की बजाय, गुरु रविदास ने अपने अनुयायियों को यह समझाया कि उन्हें उनकी दलित पहचान से जुड़े रहना चाहिए। यह विचार पंजाब में उभर रहे वैकल्पिक दलित एजेंडा का महत्वपूर्ण हिस्सा है। गुरु रविदास को पददलित अपना मसीहा मानते हैं और उन पर वैसी ही श्रद्धा रखते हैं जैसी हिन्दू अपने देवी-देवताओं या सिख अपने गुरुओं पर रखते हैं। वे उनकी मूर्ति की पूजा करते हैं, उनके दोहों को गाते हैं और उनकी आध्यात्मिक शक्तियों में पूर्ण आस्था रखते हैं।

एजेंडे का विरोध

गुरु रविदास की जाति भले ही निम्न थी, परंतु उनका आध्यात्मिक दर्जा बहुत ऊंचा था। यह स्थिति ब्राह्मण पुरोहितों के लिए बड़ी चुनौती थी। ब्राह्मण अहिंसा, समानता, गरिमा और बंधुत्व पर आधारित उनके व्यावहारिक और क्रांतिकारी तर्कों से निपटने में नाकाम रहे। अतः, गुरु रविदास से सीधे भिड़ने की बजाय उन्होंने उन्हें हिन्दू धर्म की छतरी तले लाने के प्रयास शुरू कर दिए। उन्होंने गुरु रविदास के पिछले जन्म में ब्राह्मण होने की कहानियां गढ़ीं। एक ऐसी ही कथा के अनुसार, अपने पिछले जन्म में गुरु रविदास ब्राह्मण थे, परंतु मांस भक्षण और पत्नी के अछूत होने के कारण उन्हें चमार के रूप में जन्म लेना पड़ा। एक अन्य कहानी के अनुसार, अपने पिछले जन्म में उन्होंने एक ऐसे साहूकार से चढ़ावा स्वीकार कर लिया, जो चमड़े का काम करने वालों के साथ व्यापार करता था। इससे रुष्ट होकर उनके तथाकथित गुरु रामानंद ने उन्हें श्राप दिया कि अगले जन्म में वे अछूत परिवार में पैदा होंगे। गेल ऑमवेट लिखती हैं कि “इससे पता चलता है कि हिंदू संन्यासियों में भी पवित्रता-प्रदूषण पर आधारित व्यवहार किस हद तक व्याप्त था।”[2] यह कथा “चमारों के अत्यंत प्रदूषणकारी होने की पारंपरिक सोच को भी मजबूती देती है। रामानंद अपने शिष्य को इसलिए श्राप नहीं देते, क्योंकि उसने चमारों से सीधे कुछ स्वीकार किया है वरन वे इसलिए उससे रुष्ट हैं क्योंकि उसने ऐसे व्यक्ति से भोजन स्वीकार किया जो परोक्ष रूप से चमारों से संबद्ध था। मतलब परोक्ष स्पर्श से भी भोजन प्रदूषित हो जाता है।” यह कहानी यहीं समाप्त नहीं होती। हमें बताया जाता है कि रविदास ने नीची जाति की अपनी मां का दूध पीने से इंकार कर दिया। फिर जब रामानंद ने उन्हें उनके पूर्व जन्म की भूलों की याद दिलाई तब उन्होंने दूध पीना स्वीकार किया। ब्राह्मणवादी खेमे में उन्हें शामिल करने के उद्देश्य से गढ़ी गयी एक अन्य कहानी के अनुसार, उनकी त्वचा के नीचे एक सुनहरा जनेऊ था जो ऊपर से दिखलाई नहीं देता था। गुरु रविदास के सम्मान में चित्तौड़ की रानी झाली द्वारा दिए गए एक भोज में ब्राह्मणों ने उनके साथ एक पंक्ति में बैठ कर खाना खाने से इंकार कर दिया। इस पर गुरु रविदास वहां से चले गए। परन्तु जब ब्राह्मण भोजन करने बैठे तो उन्होंने पाया कि उनमें से हर एक की बगल में गुरु रविदास की मूर्ति प्रकट हो गयी है। कहानी यह भी बताती है कि फिर गुरु रविदास ने अपना सीना चीर कर शरीर के अंदर का जनेऊ दिखाया और इस प्रकार यह साबित किया कि पिछले जन्म में वे ब्राह्मण थे।

निम्न और उच्च दोनों जातियों में गुरु रविदास की बढ़ती लोकप्रियता से परेशान ब्राह्मणों ने कथाओं का एक पूरा संसार रच डाला ताकि यह साबित किया जा सके कि वे दरअसल ऊंची जाति के थे। “यह पूरे समाज पर उनका प्रभाव कम करने का एक मास्टरस्ट्रोक था।” अप्रवासी दलित कार्यकर्ता चानन चहल लिखते हैं कि शायद यह इसलिए किया गया ताकि नीची जातियों को इस चमत्कारिक व्यक्तित्व के आसपास गोलबंद होने से रोका जा सके। द्विजों ने उनकी लोकप्रियता घटाने के लिए उन्हें केवल चमारों के गुरु के रूप में प्रस्तुत करना भी शुरू कर दिया।

कुछ दलित कार्यकर्ताओं और अध्येताओं ने गुरु रविदास के इस ब्राह्मणीकरण/द्विजकरण की आलोचना की। उन्होंने ब्राह्मणवादी आख्यानों का उपहास बनाया और रामानंद को गुरु रविदास का गुरु मानने से इंकार किया। कुछ का तर्क है कि आदि ग्रंथ (गुरुग्रंथ् साहिब) में शामिल गुरु रविदास की सबसे प्रमाणिक बानी में उन्होंने रामानंद का नाम नहीं लिया है। हाँ, उन्होंने जयदेव, नामदेव और कबीर का नाम अवश्य लिया है।[3] कुछ दलित कार्यकर्ताओं का दावा है कि रविदास के गुरु सर्दानंद थे। ये दलित कार्यकर्ता इस बात पर भी जोर देते हैं कि रविदास ने अनेक बार बहसों में ब्राह्मणों को पराजित किया। इस तरह, रविदास के ब्राह्मणीकरण की परियोजना असफल हो गई और उन्हें ऊंची जातियों में शामिल नहीं किया जा सका। उलटे, इसने गुरु रविदास और नीची जातियों के उनके अनुयायियों के बीच के सांस्कृतिक-आध्यात्मिक जुड़ाव को और मज़बूत किया। वे अपने आप को रविदासिया कहलाने में गर्व का अनुभव करते हैं। गुरु रविदास सामाजिक समानता और गरिमा के उनके संघर्ष की मिसाल बन गए हैं। वे धर्मपरिवर्तन और द्विजकरण का एक व्यवहार्य विकल्प प्रस्तुत करते हैं।

बेगमपुरा: दलित राज का आदर्श लोक

यूटोपिया (काल्पनिक आदर्श लोक) ने भारत में सामाजिक बहिष्करण के विरुद्ध सबाल्टर्न संघर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। भारत में यूटोपिया का जन्म लगभग यूरोप के सामानांतर हुआ। इसकी कल्पना अधिकांशतः दलित और बहुजन समाजों के सबाल्टर्न शिल्पियों ने की, जो पूर्व-आधुनिक काल के क्रांतिकारी भक्ति आंदोलन के अग्रदूत थे। तुकाराम का पंढरपुर (सामाजिक समानता का नगर), कबीर का अमरपुर (जहाँ के सब रहवासी अमर हैं) और रविदास का बेगमपुरा (एक शहर, जहां न जाति है, न वर्ग और ना ही टैक्स और जो सभी प्रकार के रोगों, दुखों और सामाजिक वर्जनाओं से सर्वथा मुक्त है) इस काल के कुछ लोकप्रिय यूटोपिया हैं। फुले का बलि राज, पेरियार का द्रविड़िस्तान, शाक्य बौद्धों का बौद्ध गणतंत्र, मंगू राम का अछूतिस्तान और सचखंड और आंबेडकर का प्रबुद्ध भारत, सबाल्टर्न राज्य के कुछ अन्य यूटोपियन मॉडल हैं, जिनकी कल्पना दलित-बहुजन बुद्धिजीवियों और नेताओं ने की। सूफी परंपरा के बुल्ले शाह का प्रेमनगर (प्रेम का शहर) और पांचवे सिख गुरु अर्जुन देव का हलेमी राज (परोपकारी या कल्याणकारी राज्य) ऐसे कुछ यूटोपिया हैं, जिनके जन्मदाता दलित अथवा बहुजन नहीं थे, परंतु जो समानता के विचार की विरोधी एकाधिकारवादी इस्लामिक सामाजिक व्यवस्था और संस्कृतिकृत और ब्राह्मणवादी परिप्रेक्ष्य से ऊपर उठाने के साहसिक प्रयास थे। ये सभी यूटोपिया एक ऐसी दुनिया की कल्पना करते हैं, जहां का समाज समानता और समावेशिता पर आधारित होगा और जहाँ सभी लोग श्रम से अपना जीवनयापन करेंगे। सामाजिक न्याय और प्रेम की नींव पर खड़े इन आदर्श लोकों की कल्पना का आधार कोई पौराणिक स्वर्ण युग या काल नहीं था। ब्राह्मणवादी स्वर्ण युग के विपरीत, इन आदर्श लोकों की कल्पना शोषित जातियों, श्रमजीवियों और महिलाओं के सपनों पर आधारित थी।

इन यूटोपिया में से सबसे समग्र और पूर्ण बेगमपुरा है। इस कल्पना ने पंजाब में एक वैकल्पिक दलित एजेंडा के उभार में महती भूमिका निभायी। बेगमपुरा या दलित राज का यूटोपिया एक समतावादी सबाल्टर्न राज्य का ब्लूप्रिंट है, जिसकी परिकल्पना क्रांतिकारी भक्त कवि संत रविदास ने की थी। यूटोपिया के पहले भारतीय संस्करण के निर्माण का श्रेय उन्हें ही जाता है। इस राज्य में सभी को नागरिक अधिकार और स्वतंत्रताएं प्राप्त होंगी। किसी से साथ भी धर्म या जाति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा और किसी को भी कोई टैक्स नहीं चुकाना होगा। सभी रहवासियों को कहीं भी आने-जाने की स्वतंत्रता होगी और उन्हें अपने जीवनयापन की चिंता नहीं करनी होगी। बेगमपुरा में जाति-आधारित श्रेणीबद्ध असमानता के लिए कोई जगह नहीं होगी। वहां किसी क्षेत्र पर किसी का वर्चस्व नहीं होगा और लोगों पर जातिगत पूर्वाग्रहों के कारण कहीं भी आनेजाने पर कोई रोक नहीं होगी। दूसरे शब्दों में, बेगमपुरा में अछूत प्रथा नहीं होगी। संत रविदास का बेगमपुरा केवल कल्पना, फंतासी या परमानन्द की अवस्था से नहीं उपजा था। गेल ऑमवेट की राय में, “समानता और प्रेम पर आधारित समाज की स्थापना की संभावना से जो आशा जगती है, जो भाव उत्पन्न होते हैं, यह यूटोपिया उनका नतीजा था।” बेगमपुरा की परिकल्पना गुरु रविदास के समय की सामजिक-आर्थिक और राजनैतिक स्थितियों की गहरी समझ पर आधारित थी। गेल का ख्याल है कि यह यूटोपिया कल्पना से अधिक तार्किकता पर आधारित था। गुरु रविदास जिस युग में रहते थे, उसमें निम्न जातियों को उच्च जातियों और विदेशी शासकों – दोनों के अत्याचारों और दमन को झेलना पड़ता था। उन्हें कतई यह आशा नहीं थी कि पददलितों की स्थिति में कोई सुधार होगा। अपनी एक प्रसिद्ध कविता में वे कहते हैं, “दारिद देखि सब कोई हँसे, ऐसी दसा हमारी। अस्त दसा सीधी कर तलई, सब किरपा तुम्हारी।” (मेरी दरिद्रता देखकर सब हँसते हैं, यह मेरी स्थिति है। मेरे हाथों में तुम्हारी कृपा से आठों सिद्धियाँ हैं।) गुरु रविदास का संपूर्ण कविता कोष एक ओर गुलामी के विरुद्ध प्रतिरोध तो दूसरी ओर निराकार ईश्वर के प्रति असीम प्रेम और भक्तिभाव से भरा हुआ है। उनका मानना था कि ईश्वर ने सभी मनुष्यों को समान बनाया है और वह सब में वास करता है। अगर संपूर्ण मानवता में एक ही ईश्वर का वास है तब फिर समाज को जातियों में बांटना कितना मूर्खतापूर्ण है? उन्होंने मनुष्यों को जाति के आधार पर बांटने की घोर निंदा की। उन्होंने लिखा कि “जो हम शहरी सो मीत हमारा”। इसी सन्दर्भ में ध्यान और भक्ति पर आधारित यूटोपियन दलित राज या बेगमपुरा, जिसका वर्णन उनकी एक कविता में किया गया है, पंजाब में उभर रहे दलित एजेंडा का आदर्श है।

[यह आलेख ‘मार्डन एसियन स्टडीज’ जर्नल, खंड – 46, अंक – 3 (कैंब्रिज विश्वविद्यालय प्रेस, 2012) में संकलित शोध पत्र ‘बियांड कॅनवर्जन एंड संस्कृताइजेशन : आर्टिकुलेटिंग एन अल्टरनेटिव दलित एजेंडा’ का अंश है। यहां इसे हम लेखक की अनुमति से प्रकाशित कर रहे हैं।]

[1] शेल्लॅर, जोसेफ (1996). संस्कृताइजेशन, कास्ट अपलिफ्ट एंड सोशल डिस्टेंस इन दी संतरविदाासाज पाठ. इन लॉरेंजॅन, डेविड एन. (एड.), भक्ति रिलीजन इन नॉर्थ इंडिया :  कम्यूनिटी आइडेंटिटी एंड पॉलिटिकल एक्शन (पृष्ठ 94-119). नई दिल्ली : मनोहर

[2] गेल ऑम्वेट, बुद्धिज्म इन इंडिया, पृष्ठ 192

[3] गुरुनाम सिंह मुक्तसर, कहे रविदास चुमारा (दस स्पेक रविदास चामार), जालंधर : डेरा सच खंड बल्लान, 2002, पृष्ठ 70-74; यह भी देखें – हिज, सिख लहर दे सिरजक (आर्गेनाइजर्स ऑफ दी सिख मूवमेंट), जालंधर : बहुजन समाज प्रकाशन, 2004

(अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

रौनकी राम

रौनकी राम पंजाब विश्वविद्यालय,चंडीगढ़ में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर हैं। उनके द्वारा रचित और संपादित पुस्तकों में ‘दलित पहचान, मुक्ति, अतेय शक्तिकरण’, (दलित आइडेंटिटी, इमॅनिशिपेशन एंड ऍमपॉवरमेंट, पटियाला, पंजाब विश्वविद्यालय पब्लिकेशन ब्यूरो, 2012), ‘दलित चेतना : सरोत ते साररूप’ (दलित कॉन्सशनेस : सोर्सेए एंड फॉर्म; चंडीगढ़, लोकगीत प्रकाशन, 2010) और ‘ग्लोबलाइजेशन एंड द पॉलिटिक्स ऑफ आइडेंटिटी इन इंडिया’, दिल्ली, पियर्सन लॉंगमैन, 2008, (भूपिंदर बरार और आशुतोष कुमार के साथ सह संपादन) शामिल हैं।

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