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संतराम बी.ए. : जिन्होंने गांधी से दो टूक कहा, कीचड़ से कीचड़ न धोएं

संतराम जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा कि वे स्वामी दयानंद के सिद्धांतों से प्रभावित हो गए कि वर्णव्यवस्था जन्म से नहीं बल्कि गुण-कर्म और स्वभाव से होती है। लेकिन जब वे आर्य समाज मे सक्रिय हुए तो जल्दी ही इस संगठन का मुलम्मा उतारने लगा और इसका असली रूप सामने आने लगा। बता रहे हैं रामजी यादव

संतराम बी.ए. (14 फरवरी, 1887 – 31 मई, 1988) पर विशेष

संतराम बी.ए. को जब याद करते हैं तब हमारे सामने एक ऐसे व्यक्ति की शख्सियत उभरती है जो जितनी सज्जनता से अपनी सामाजिक गतिविधियों मे आगे बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता था उससे अधिक तीखी निगाह से अपने साथियों और समकालीनों के विचारों और व्यवहारों को देखता, उनका विश्लेषण करता और फिर अपनी स्पष्ट सहमति अथवा असहमति बनाता था। संतराम जी भारतीय सामाजिक इतिहास के ऐसे नायक हैं, जिनका मूल्यांकन किसी लहर के कारण नहीं हुआ, बल्कि जैसे-जैसे दलितों और पिछड़ों ने अपने इतिहास पुरुषों की खोज शुरू की और जातिविहीन तथा समतामूलक समाज की परियोजना की मजबूत वैचारिक परंपरा की खोज शुरू हुई, वैसे-वैसे संतराम बी. ए. हमारे बौद्धिक संसार के अपरिहार्य अंग बनते गए। यह साहित्य तथा इतिहास की जातिवादी दृष्टि और सामाजिक दुर्भावनाओं के विरुद्ध बहुजन समाजों के विद्रोह की एक अनिवार्य परिणति और मंजिल है। 

कुम्हार परिवार में हुआ था जन्म

संतराम बी.ए. 14 फरवरी, 1887 को पंजाब के होशियारपुर जिले के डेरा बस्सी गांव के एक सम्पन्न कुम्हार परिवार मे पैदा हुए थे। अपनी आत्मकथा ‘मेरे जीवन के अनुभव’ में उन्होंने लिखा है कि उनके परिवार के लोग सम्पन्न थे। वे व्यापार करते थे। उनके पास खच्चर थे, जिन पर सामान लादकर बाहर के इलाकों में जाया करते थे। कुम्हार जाति भारत की अति पिछड़ी जाति है और उत्तर प्रदेश तथा बिहार आदि में खेती-किसानी, मिट्टी के बर्तन बनाने का काम, मेहनत-मजदूरी आदि अनेक कामों से आजीविका कमाती है। इसे सामाजिक अपमान और उत्पीड़न से भी दो-चार होना पड़ता है लेकिन संतराम बी.ए. को अपने गांव मे जाति की हीनता का कोई बोध नहीं था। लेकिन जब वे अंबाला में पढ़ने आए तो उनके सहपाठी उन्हें कुम्हार कहकर चिढ़ाते और अपमानित करते थे। तभी पहली बार उन्हें समझ मे आया कि उनकी जाति नीची है। 

कड़वे अनुभवों के बाद खुद बनाई अपनी राह

धीरे-धीरे संतराम बी.ए. को जीवन के कड़वे अनुभव होते गए और उन्होंने देखा कि भारतीय समाज जात-पात की सड़ांध से बजबजा रहा है बल्कि तथाकथित उच्च और शुद्ध लोग अपने जाति अभिमान को बनाए रखने के लिए पाखंड और झूठ का लगातार सहारा भी लेते हैं। इसके अनेक अनुभव उन्हें हुए। उन दिनों होटलों मे गोमांस पकाने पर कोई रोकटोक नहीं थी। लेकिन अधिकांश ब्राह्मण ऊपर से गोमांस का विरोध करते थे, जबकि स्वयं गोमांस बड़े चाव से खाया करते थे। स्वयं संतराम बी.ए. की किताब में इस बात का ज़िक्र है कि स्वामी श्रद्धानंद ने एक अखबार के संपादक पंडित गोपीनाथ के खिलाफ एक मुक़द्दमे में सबूत पेश किया था कि पंडित गोपीनाथ गोमांस खाते थे। हुआ यह कि संतराम जी ने अपने खेत मे मरे हुए जानवरों की हड्डियां डलवा दी थीं, जिससे अच्छी खाद बन सके लेकिन इलाके के ब्राह्मणों ने अखबारों में लिखकर विरोध किया कि यह गाय का अपमान है। ऐसा लिखने वालों मे अखबार के संपादक पंडित गोपीनाथ भी थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि संतराम बी.ए. अपने व्यवहार में अत्यंत प्रगतिशील थे, वे वैज्ञानिक चेतना का प्रचार-प्रसार करते थे। किसी भी तरह का पोंगापंथ उन्हें नाकाबिले बर्दाश्त तो था ही, जातिगत पेशे के कारण अपमान और जिल्लत सहने वाले लोगों के प्रति उनके मन मे अत्यंत करुणा भी थी। वे बिलकुल ही हिन्दू समाज की जाति व्यवस्था और उसके गलीज सिद्धांतों को बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं थे। वे चाहते थे कि इस समाज का जितना जल्दी पतन हो, उतना ही अच्छा है, क्योंकि जब तक यह इसी रूप मे रहेगा तब तक मानवता पददलित ही रहेगी।

संतराम बी.ए. और महात्मा गांधी की तस्वीर

संतराम बी.ए. वास्तव में भारतीय समाज की संरचना और उसकी व्यवस्थाओं को लेकर बहुत उद्विग्न और बेचैन थे तथा इसी बेचैनी मे वे अपने उद्देश्यों की राह तलाश रहे थे। उन्होंने तमाम पाखंडों और सिद्धांतों की बखिया उधेड़ते हुए अपनी वैचारिकी का निर्माण जारी रखा तथा युवावस्था मे जब उन्होंने देखा कि आर्य समाज हिन्दू समाज व्यवस्था और विषमता को खत्म करके समाज को आगे ले जाना चाहता है, तब उन्होंने बड़ी आस्था के साथ आर्य समाज से जुड़कर काम करना शुरू किया। उस समय उनके समकालीन महात्मा हंसराज और परमानंद सरीखे लोग थे। संतराम बी. ए. अत्यंत मेधावी और प्रखर विचारक थे। उनका बड़ा कद था। लेकिन हम देखते हैं कि वे उस सम्मान से सर्वथा वंचित ही रहे जिसके कि वे वास्तविक हकदार थे। 

आज हम देख सकते हैं कि दिल्ली में महात्मा हंसराज के नाम पर एक सड़क और हंसराज कॉलेज स्थापित किया गया है और भाई परमानंद के नाम पर एक विशाल अस्पताल और अन्य कई संस्थाएं हैं लेकिन उनके साथ कदम से कदम मिलाकर चलने वाले संतराम बी.ए. के नाम से कुछ नहीं है। अपने एक लेख में सुप्रसिद्ध दलित लेखक कंवल भारती ने उल्लेख किया है कि 1997-98 के आसपास संतराम जी की एकमात्र जीवित पुत्री गार्गी चड्ढा ने भारती जी से अनुरोध किया कि उनके पिता के लेखों का संकलन किताबों के रूप मे आ जाय तो बड़ी मेहरबानी होगी। गार्गी चड्ढा ने उसके पहले भी अनेक प्रकाशकों से संपर्क किया था, लेकिन किसी ने इस बात की नोटिस नहीं ली। यह सब बताता है कि संतराम बी.ए. किस प्रकार के जातिवादी और घृणित सोच के लोगों के बीच काम करते रहे और आखिर क्यों उनका मोहभंग हुआ। वे क्यों लगातार तल्ख से तल्खतर होते गए और अपने ही साथियों द्वारा बहिष्कृत और उपेक्षित किए गए। ऐसे संतराम बी.ए. के भीतर जातिवादी व्यवस्था के बीच कैसी आग धधकती होगी इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है।

आर्य समाज से मोहभंग 

संतराम जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा कि वे स्वामी दयानंद के सिद्धांतों से प्रभावित हो गए कि वर्णव्यवस्था जन्म से नहीं बल्कि गुण-कर्म और स्वभाव से होती है। लेकिन जब वे आर्य समाज मे सक्रिय हुए तो जल्दी ही इस संगठन का मुलम्मा उतारने लगा और इसका असली रूप सामने आने लगा। संतराम जी चाहते थे कि वर्णव्यवस्था और जात-पात का विनाश हो जबकि आर्य समाज मे अनेक लोग ऐसे थे जो वर्णव्यवस्था और जात-पात की वकालत करते थे। इन तमाम सारे विरोधाभासों में संतराम जी को बहुत आहत किया। उनकी बेचैनी और बढ़ गई। वे चाहते थे कि आर्य समाज जात-पात के विरुद्ध एक निर्णायक जंग छेड़े। 1922 में जात-पात तोड़क मंडल की स्थापना हुई। उस समय के कद्दावर आर्य समाजी परमानंद उसके अध्यक्ष बनाए गए और संतराम बी.ए. मंत्री बने। वास्तव में तो इस संगठन के जन्मदाता संतराम बी.ए. ही थे लेकिन आर्य समाज की मर्यादाओं के अनुरूप उसका मुख्य चेहरा भाई परमानद ही बनाए गए थे। यह एक विडंबना ही थी, जिसे इतिहास ने और भी शिद्दत से ज़ाहिर कर दिया। कहने को यह आर्य समाज की कोख से पैदा हुआ जात-पात तोड़क मंडल था, लेकिन इसके अधिकांश पदाधिकारी जात-पात की भावना मे पूरा विश्वास रखते थे।

यह भी पढ़ें : सन्तराम बी. ए. : एक प्रतिबद्ध जाति तोड़क

जल्दी ही यह पता चल गया कि आर्य समाज में जात-पात तोड़क मंडल हाथी के दांत की तरह है। स्वयं संतराम जी ने लिखा है कि कई बार इसमें अजीबोगरीब स्थितियां पैदा हो जाती थीं। कुछ लोग कहते थे कि इसका नाम वर्णव्यवस्थापक मंडल होना चाहिए, जात-पात तोड़क मंडल नहीं। संतराम इस बात पर डटे हुए थे कि इस संगठन का काम जात-पात का विनाश ही है और वे इससे जौ भर भी नहीं हटे। एक बार तो दिल्ली के किसी सेठ ने इसका नाम बदलकर काम करने की सलाह दी और बदले मे दस हजार रुपए का दान देने की पेशकश भी की। मंडल के तत्कालीन अध्यक्ष भाई परमानंद इस लपेटे मे आ गए और बहुत ज़ोर लगाया कि संगठन का नाम बदलकर दस हजार का दान ले लिया जाय, लेकिन संतराम बी.ए. ने इसे पूरी तरह खारिज कर दिया।

आंबेडकर के विचारों से हुए प्रभावित

संतराम बी.ए. भारतीय इतिहास, धर्मशास्त्र, समाज और जाति-व्यवस्था के गंभीर अध्येता थे। उन्होंने अपने विचारों और तर्कों को बहुत शिद्दत से गढ़ा था। उनके विचार कागज के विचार नहीं थे कि हालात की आंधी आए तो उड़ जाये या संकट की बूंदे बरसें तो गल जाएं। उनका सबसे क्रांतिकारी व्यक्तित्व तब उभरा जब उस समय के महान भारतीय विचारक डॉ. आंबेडकर से खतो-किताबत शुरू किया और महाराष्ट्र मे उनके कामों के प्रभावों को देखते हुए पंजाब में उनकी भूमिका की अनिवार्यता को महसूस किया। डॉ. आंबेडकर  चावदार आंदोलन और कालाराम मंदिर सत्याग्रह के साथ ही महाराष्ट्र में मुरली, देवदासी आदि घृणित कुप्रथायों के खिलाफ आंदोलन छेड़े हुए थे। एक तरफ वे दलितों की नारकीय स्थिति के खिलाफ ब्रिटिश सत्ता से संघर्ष कर रहे थे और दूसरी ओर महाराष्ट्र में हिन्दू समाज व्यवस्था के खिलाफ निर्णायक संघर्ष छेड़े हुए थे। पूना पैक्ट के बाद वे और भी ताकत के साथ अपने आंदोलन को आगे बढ़ाने में लगे थे। पंजाब में संतराम बी.ए. को जल्दी ही यह लग गया कि डॉ. आंबेडकर ही पीड़ित मानवता के सच्चे मसीहा हैं। उन्होंने 1936 मे जात-पात तोड़क मंडल के वार्षिक अध्यक्षता के लिए डॉ. आंबेडकर को आमंत्रित किया। 

डॉ. आंबेडकर ने अपना अध्यक्षीय भाषण को लिखित रूप में तैयार किया था। इसे पहले ही आयोजकों ने मंगवा लिया था। उसमें उन्होंने यह भी लिखा था कि एक हिन्दू के नाते मेरा यह आखिरी भाषण होगा। संतराम जी ने उस वाक्य को निकाल देने की प्रार्थना की और कहा कि इस बात को किसी और मौके पर कहें, लेकिन डॉ. आंबेड्कर ने इस बात से मना कर दिया। अपनी बात पर अड़े रहे। इसकी सुगबुगाहट आर्य समाज के कई लोगों को हुई तो कुछेक लोगों ने डॉ. आंबेडकर को काला झंडा दिखाने की योजना बनाई। संतराम जी को जब इसका आभास हुआ तो उन्होंने इस असहज स्थिति से बचने का प्रयास किया। कुल मिलाकर हुआ यह कि संतराम जो कि स्वयं इस भाषण के मुरीद थे और लिखते हैं कि जातिगत व्यवस्था और उसके विनाश की परियोजना को लेकर इससे अधिक विद्वत्तापूर्ण लेख उन्होंने दूसरा नहीं देखा। लेकिन संतराम जी की अपनी सीमा थी। वे डॉ. आंबेडकर के सम्मान को लेकर संवेदनशील थे और उनकी अडिग प्रतिबद्धता में उनकी आस्था थी। 

गांधी को दिया जवाब

दुनिया जानती है कि कालांतर मे “जाति का विनाश” के नाम से प्रसिद्ध हुए इस भाषण ने उस समय जात-पात तोड़क मंडल के सदस्यों को विचलित और असहज कर दिया। उन्होंने व्याख्यान के अनेक अंशों को हटाने की बात की, जिसे डॉ. आंबेडकर ने सिरे से खारिज कर दिया। अंतत: 1936 में जात-पात तोड़क मंडल का वार्षिक अधिवेशन स्थगित हो गया। लेकिन इस पूरी घटना ने संतराम जी को बहुत व्यथित कर दिया और वे गुस्से से भर उठे। इसलिए जब गांधी जी ने अपने समाचार पत्र ‘हरिजन’ में इसके खिलाफ टिप्पणियां लिखीं तो संतराम जी चुप न रह सके। उन्होंने उन टिप्पणियों का खुलकर जवाब दिया। उनका कहना था कि आपका वर्णव्यवस्था का सिद्धांत अब अप्रासंगिक हो चुका है और भविष्य में भी वह परवान नहीं चढ़ सकेगा। आप वर्णव्यवस्था की उपयोगिता बताकर समाज का बहुत बड़ा नुकसान कर रहे हैं। अस्पृश्यता निवारण का आपका कार्यक्रम ढोंग हुआ जाता है। आप कीचड़ से कीचड़ को धोने की कोशिश कर रहे हैं। 

संतराम बी.ए. की निगाह इतनी तेज थी कि वे लोगों के व्यवहार की एक-एक बात और उसके निहितार्थ आसानी से समझ लेते थे। अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है कि एक बार अछूत जाति के एक युवा ने उनसे आर्य समाज द्वारा संचालित किसी संस्था में नौकरी दिलाने की प्रार्थना की। वे उसे लेकर एक आर्य समाजी नेता के पास गए और कहा कि आपके हाथ मे कई संस्थाएं हैं, उनमें से किसी में इस युवा को नौकरी दे दीजिये। पहले तो नेता ने उनको टाल दिया, लेकिन बाद में बोले कि मैं नहीं चाहता कि अछूत चौथी-पांचवीं से ज्यादा पढ़ें। हमारे बच्चों के लिए तो नौकरियां हैं नहीं, इनको कहां से नौकरी दें। संतराम जी को यह सुनकर बहुत गहरा धक्का लगा। इनको समझ में आ गया कि क्यों डॉ. आंबेडकर हिन्दू जाति व्यवस्था के खिलाफ कमर कसकर लड़ रहें हैं। जल्दी ही उन्हें यह भी समझ आ गया कि लोग ऊपर से चाहे जैसा भी चोंगा पहनें लेकिन अंदर से उनके भीतर जाति कभी मरती नहीं, बल्कि वह पाखंड और दिखावे के पत्थर के नीचे भले ही कुंठित हो और पीली पड़ती रहे, लेकिन जैसे ही उसके ऊपर से पाखंड का वह पत्थर हटता है वैसे ही वह हरी-भरी हो जाती है। एक बार गांधी जी की इस बात पर कि जातिव्यवस्था बनी रहने से लोगों को आसानी से काम मिल जाता है और वह पैतृक व्यवसाय मे बिना अतिरिक्त ट्रेनिंग के काम करने लगता है, संतराम जी इस बात से इतना चिढ़े कि उन्होंने साफ-साफ कहा कि महात्मा जी आप जाति से बनिया हैं। बनिए का काम नमक, तेल बेचना है, फिर आप हमें उपदेश क्यों देते हैं? जाइए कहीं जाकर आटे-दाल की दुकान खोल लीजिये। इस प्रकार हम देखते हैं कि इतिहास ने भले ही संतराम बी.ए. का मूल्यांकन करने मे देर की लेकिन वे अपने दौर के ऐसे महान व्यक्ति थे जो किसी के आगे दबने को तैयार नहीं थे। 

अपने विचारों के प्रति रहे अडिग

उन्होंने 21 वर्षों तक जात-पात तोड़क मंडल में काम किया लेकिन तमाम घटनाओं ने उन्हें इसकी असलियत और छद्म से परिचित करवा दिया। 1943 तक वे मानसिक रूप से इससे बाहर निकाल चुके थे क्योंकि वे स्वयं इसके भीतर के जातिवाद से दिन-रात लड़ रहे थे और एक समय ऐसा आया कि इन पाखंडियों को उनकी बातें बर्दाश्त से बाहर लगने लगीं। संतराम जी जानते थे कि आज़ादी चाहे जितनी धूमधाम से आए लेकिन जब तक जातिव्यवस्था खत्म नहीं होती तब तक उसका कोई अर्थ नहीं है। वे 1988 तक जीवित रहे और अपनी परियोजनाओं मे लगे रहे। समाज को जागरूक बनाने के लिए वे अपने पैसे से पुस्तिकाएं और पर्चे छ्पवाकर बांटते रहे। वे चाहते थे कि लोगों में जातिव्यवस्था के खिलाफ वास्तविक नफरत पैदा हो और इसे पूरी तरह नष्ट करके एक नया समाज बनाएं। लेकिन उन्हें दुख था कि हिन्दू जात-पात के बंधुवे हैं और इसे नष्ट नहीं करना चाहते। वे वर्णव्यवस्था में भी आदर्श की कल्पना करके उससे चिपटे रहते हैं। 

जिन लोगों के व्यक्तित्व और कृतित्व की रोशनी से सामाजिक न्याय ज़िंदा और आलोकित हो रहा है उनमें संतराम बी.ए. कभी न भुलाए जाने वाले व्यक्तित्व हैं।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

रामजी यादव

रामजी यादव एक राजनितिक कार्यकर्ता के रूप में विभिन्न संगठनों में सक्रिय रहे हैं। उन्होंने कानपुर के मिल मज़दूरों और रेलवे कर्मचारियों को संगठित करने में भी भूमिका निभाई। उन्होंने 100 से अधिक वृत्तचित्रों का निर्माण और निर्देशन भी किया है। उनके प्रमुख वृत्तचित्र हैं 'गाँव का आदमी', 'पैर अभी थके नहीं', 'एक औरत की अपनी कसम', 'यादें', 'समय की शिला पर', 'कालनदी को पार करते हुए', 'विकल्प की खोज', 'वह समाज जो जनता का है', 'जलसत्ता', 'द कास्ट मैटर्स', और 'इस शहर में एक नदी थी' आदि। उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं, 'अम्बेडकर होटल', 'खेलने के दिन', 'भारतीय लोकतंत्र' और 'दलित सवाल', 'भारतेंदु', 'ज्योतिबा फुले', 'गिजुभाई', 'रामचंद्र शुक्ल', 'आंबेडकर संचयन'। इन दिनों वे ‘गांव के लोग’ त्रैमासिक का संपादक कर रहे हैं।

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