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जातिवादी परिसर की शिनाख्त करतीं प्रो. कालीचरण ‘स्नेही’ की कविताएं

जातिगत जड़ता को बरकरार रखने के लिए साहित्य का भी इस्तेमाल किया गया है। जबकि साहित्य की सार्थकता तभी है जब वह जड़ता को समाप्त करने का आह्वान करे। प्रो. कालीचरण ‘स्नेही’ की कविताएं साहित्य के इसी पक्ष को ईमानदारी से सामने लाती हैं। बता रहे हैं युवा समालोचक सुरेश कुमार

हिंदी साहित्य में जाति विमर्श

वरिष्ठ दलित चिंतक और कवि प्रोफेसर कालीचरण ‘स्नेही’ का साहित्य सृजन का दायरा भारत की उन जातिवादी सुरंगों और गलियों का शिनाख्त करता है, जहां दलित तमाम तरह के अभाव और जुल्म के बीच अपना जीवन व्यतीत करने के लिए अभिशप्त हैं। उनकी कविताओं का ताना-बाना सर्वसमावेशी और समतावादी मूल्यों की बुनियाद पर टिका है। इस वरिष्ठ कवि की कविताओं की वैचारिकी में सवर्णवादी मूल्यों और ब्रह्मणत्व का नकार निहित है। वे अपने सृजनात्मक साहित्य से चेतना और अस्मितावादी बहस के विमर्श को दिशा देने का काम करते नज़र आते है। उन्होंने ‘आरक्षण अपना-अपना’, ‘जय भीम जय भारत’, ‘सुनो कामरेड’, ‘एवरेस्ट’, ‘सोन चिरैया’ आदि काव्य संग्रह लिखकर दलित साहित्य को ऊंचाई पर ले जाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

देखा गया है कि बहुजन समाज जब भी आगे बढ़ने की कोशिश करता है तो उच्च श्रेणी की मानसिकता और उसकी निर्मित संहतिाएं उसकी राह में बाधा को तौर पर खड़ी हो जाती हैं। इसलिए दलित लेखक सबसे पहले उन संहिताओ और वर्णवादी मानसिकता के खिलाफ गोलबंद होते हैं, जो बहुजन समाज के अधिकारों के दायरे को सीमित करने की वकालत करते हैं। प्रो. कालीचरण ‘स्नेही’ का मानना है कि बहुजन समाज के लोग ऐसी किसी किताब और ग्रंथ का न तो समर्थन करते हैं और न तो स्वीकार करते हैं, जिसमें मनुष्य की गरिमा और अस्मिता का ख्याल न रखा गया हो। वे ‘अपनी धम्म दीक्षा’ कविता के हवाले कहते हैं– “वे ग्रंथ भरोसे लायक नहीं हैं/ जिनमें भेदभाव भरा हो/ देवता अमर हो/ और आदमी मरा हो।/बात तो तब बात बनेगी, जब बात हो पते की/ शब्द तो शब्द है/ सोने सा खरा हो/ आदमी की चमक बढ़ती हो/ जिस किताब से/उस किताब को पढ़ना-पढ़ाना है/आपस में सद्भाव बढ़ाना है।”

प्रो. कालीचरण ‘स्नेही’

प्रो. स्नेही आगे बताते हैं कि इस देश में एक ऐसी किताब है– जिसमें मनुष्य की गरिमा और उसके अधिकारों की पूर्णतया गारंटी दी गई है। वह किताब भारत का ‘संविधान’ है, जिसमें मनुष्य केंद्र में है। उसी संविधान को आत्मसात करते हुए आगे बढ़ना है। उनके मुताबिक, दलित कविता का स्वर अनुभव और सर्वसमावेशी मूल्यों से होकर निकला है, जिसमें न तो बनावटीपन और ना ही कल्पना का दिखावापन मौजूद है। दलित कवि ऐसी किसी भी व्यवस्था में यकीन नहीं करते हैं, जिसमें समतावादी मूल्यों का अभाव रहा है। प्रो. ‘स्नेही’ अपनी कविताओं में वर्णवादी व्यवस्था पर प्रहार करते हैं। वे साझा-चूल्हा कविता में कहते हैं– “हमें विश्वास नहीं है-/उस व्यवस्था में,/जो रखती हो आदमी को, नीची अवस्था में।/मानवता जिस जगह,पैरों में पड़ी हो /बाम्हन की जाति, सब जातों से बड़ी हो।/ जहां ‘वर्ण’ की बेड़ियों ने आदमी को कसा हो/ जातियो के जाल में हर आदमी फंसा हो/ ‘जाति’ का जिस देश में आदमी को नशा हो/ पशुओं से बदतर दलितों की दुर्दशा हो।”

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विडंबना देखिये कि आजादी के सात दशक बीत जाने पर भी उच्च वर्ण के लोग बहुजन समाज के प्रति अपने नजारिए में कोई विशेष बदलाव नहीं ला पाए हैं। इक्कीसवीं सदी में भी दलित समाज के लोगों शवों को उनके द्वारा यह कहकर चिता पर से उठवा दिया जाता है कि यह सवर्णों का मरघट है, यहां दलित समाज के व्यक्ति का अंतिम संस्कार नहीं किया जा सकता है। प्रो. स्नेही अपने काव्य चिंतन में उस व्यवस्था और मानसिकता पर प्रहार करते हैं कि जो एक आदमी को देवता और दुसरे मनुष्य को पशु समझती आ रही है– ‘दो पाए का जानवर’ कविता में वे कहते हैं, “इस देश में/आदमी के रूप में पैदा हुए थे तुम भी/ और हम भी/पर तुम आदमी से ‘देवता’ बन गए/और, हमें आदमी से जानवर बना दिया/ तुम्हारी क्रूर व्यवस्था ने /दो पाए का जानवर।/ अब हमारी कोशिश है/ आदमी बनाऊं तुम्हें भी/और आदमी बनूं खुद भी।”

किसी विचारधारा की विश्वसनीयता पर खतरा तब पैदा होता है जब उस विचार का अनुसरण करने वाले लेखक और विचारक अपनी कथनी और करनी की कसौटी के मुताबिक आचरण नहीं कर पाते हैं। ऐसे लेखक अपने लेखन में आधुनिकता की वकालत करते दिखाई देंगे, लेकिन असल जिन्दगी में वैदिक व्यवस्था और विचारों का समर्थन में खड़े नजर आते हैं । हिंदी के सवर्ण लेखक जाति के विरोध में तो लिखेंगे, लेकिन व्यवहार में जातिवाद का पालन भी करते दीख जाएंगे। प्रो. कालीचरण ‘स्नेही’ की एक बड़ी मारक कविता ‘सुनो कामरेड’ है। यह कविता मार्क्सवादी विचार वाले लेखकों की कथनी और करनी को पर सवाल उठाती है। वे लिखते हैं– “सुनो कामरेड/ भारत के मजदूरों की आवाज सुनो /जो मजदूर के साथ-साथ /जन्म से धोबी-धानुक, चमार-पासी भी हैं/ इन्हें इस मुल्क में ‘वर्ग’ से नही /‘वर्ण’ और ‘जाति’ से जाना जाता है।” यह कविता उस सच्चाई की ओर इशारा करती है कि मार्क्सवादी लेखकों ने जाति व्यवस्था पर उतना प्रबल प्रहार नहीं किया कि जितना उन्हें करना चाहिए था। 

प्रो. कालीचरण ‘स्नेही’ आगे सवाल करते हैं– “सदियों से इस देश में /जाति-वर्ण के घेरे मे घेर कर हांके गए/ यह हाँका अब भी जारी है/ जाती नहीं जाति की खुमारी है/‘जाति’ यहां सबसे बड़ी बीमारी है/ इस बीमारी से तुम भी तो बीमार हो ‘कामरेड’।” इस कविता के परिसर में समाज की जातिगत विसंगतियां तो सामने आई ही हैं और मार्क्सवादी लेखकों को अपने अन्तर्रिक मन में झांकने के लिए विवश भी करती है। वे आगे इसी कविता में मार्क्सवाद के अंदर जो पाखंड आ गया है, उसे उजागर करते हुए लिखते हैं, “सुनो कामरेड/सावधान होकर मेरी बात सुनो-/आचरण में दोगलापन है तुम्हारे/तुम बाहर-बाहर मजदूरों के हिमायती बनते हो /सभा सोसायटी में ज्वार बनकर उफनते हो।/भीतर ही भीतर राम नाम जपते हो /‘दुर्गापुजा’ में महीना भर खटते हो। बंगाल और केरल में पंडों-पुजारियों की अब भी भारमार है/ कम्युनिस्टों की यही सबसे बड़ी हार है।”

 ब्राह्माणवादी सत्ता ने स्त्री और दलित की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने का काम किया है। इस सत्ता के समर्थकों ने स्त्री को यह तक अधिकार नहीं दिया कि वह अपने मुताबिक अपना वर चुन सके। प्रो. ‘स्नेही’ इतिहास की गहराई में जाकर स्त्री की पीड़ा को सामने लाते हैं। ‘जन्नत की हूर’ नामक कविता में मर्दवादियों को आइना दिखाते हुए वे कहते हैं कि “इस देश में/औरत ने पति को परमेश्वर पुकारा/ हो चाहे लुच्चा-लफंगा आवारा/ सारा जीवन उसी की शरण में गुजारा/पिछलग्गू बनी रही जब तक /किसी ने नहीं नकारा।” पितृसत्ता और मर्दवादी अहं से ग्रस्त लोग यह नहीं चाहते हैं कि स्त्रियों को उनका अधिकार मिले। जब स्त्रियां अपनी मुक्ति और अधिकारों की लडाई लड़ती हैं तब मर्दवादी परिसर में कैसा भूचाल आता है। इस दृश्य को रेखांकित करते हुए प्रो. कालीचरण स्नेही लिखते हैं– “औरत ने मांगा जब हक /हंगामा हो गया /सदियों का तालमेल पल भर में खो गया /मांगा तलाक तो अंहकार फूट पड़ा/ पुरुषों का झुड औरत पर टूट पड़ा।” 

प्रो. स्नेही स्त्री स्वतंत्रता और उसकी मुक्ति के प्रबल पक्षधर हैं और स्त्री मुक्ति की लड़ाई में स्त्रियों के साथ हैं। उनका मत है कि स्त्रियां पुरुष के हाथ की कठपुतली बनकर रह गई। ‘शबरी’ कविता में बहुजन समाज की स्त्रियों से आग्रह करते हैं कि मर्दवादियों की कुटिलता को बेनकाब करें। 

प्रो.कालीचरण ‘स्नेही’ की कविता दलित समाज की पीड़ा का स्वर बनकर उभरी है। इस कवि की कविताएं जहां एक ओर सविधानवादी व्यवस्था का दामन थाम कर चलती हैं, वहीं दूसरी ओर उच्चश्रेणी की मानसिकता वाली विचारधारा की प्रबल विरोधी भी है। उनकी कविताएं जाति व्यवस्था पर जमकर कुठाराघात करती और सवर्णवादी परिसर में दलित और स्त्री के साथ हो रहे सामाजिक अन्याय और अत्याचार को प्रमाणों के साथ सामाजिक पटल पर रखती हैं। 

(संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

सुरेश कुमार

युवा आलोचक सुरेश कुमार बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से एम.ए. और लखनऊ विश्वविद्यालय से पीएचडी करने के बाद इन दिनों नवजागरण कालीन साहित्य पर स्वतंत्र शोध कार्य कर रहे हैं। इनके अनेक आलेख प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित हैं।

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