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भारतीय पत्रकारिता में इस्तीफा, जातिगत घृणा के खिलाफ क्यों नहीं होता है?

हाल ही में ‘एबीपी’ न्यूज के पत्रकार रक्षित सिंह ने इस्तीफे का एलान किसान आंदोलन के मंच से किया। उनके इस्तीफे को लेकर अभिव्यक्ति पर हमला से लेकर गोदी मीडिया तक तमाम बातें कही जा रही हैं। इस संबंध में अनिल चमड़िया यह सवाल उठा रहे हैं कि इस्तीफा देने वाले पत्रकार तब इस्तीफा क्यों नहीं देते जब उनके संस्थान में जातिगत भेदभाव किया जाता है

मीडिया विमर्श

दुनिया भर में पत्रकारिता में कई कारणों से इस्तीफों की घटनाएं हो रही हैं। भारत में भी पत्रकारिता के क्षेत्र में इस्तीफों का एक इतिहास रहा है। इस्तीफे के कारणों में व्यक्तिगत कारण भी होते हैं और पेशागत उसूलों की वजह से भी। मसलन इतिहास में रामवृक्ष बेनीपुरी का एक इस्तीफा है। बेनीपुरी जी ने ‘बालक’ नामक प्रकाशन से अपना इस्तीफा दे दिया। उन्होंने लिखा कि जब उनके संबंध उनके मालिक संपादक से आत्मीय नहीं रह गए तो ‘बालक’ में बने रहने का कोई मतलब नहीं है। उन्होंने लिखा कि वे पत्रकार बनने आए थे, लेकिन उन्हें नौकर समझ लिया गया। इसलिए वे सौ रुपए मासिक तनख्वाह होने के बावजूद संस्थान में नहीं रह सकते। उन्होंने ‘बालक’ से इस्तीफा देकर ‘युवक’ निकालने की घोषणा की। 

यदि भारत में पत्रकारिता के क्षेत्र में इस्तीफों के कारणों का एक विस्तृत अध्ययन किया जाय तो हम पाते हैं कि सबसे ज्यादा इस्तीफे व्यक्तिगत भावनाओं की वजहों से होते हैं। जैसे महात्मा गांधी को जब अफ्रीका में रेल यात्रा के दौरान व्यक्तिगत अपमान का एहसास हुआ तो उन्होंने उसे एक सामाजिक अपमान के रुप में ग्रहण किया। यह महसूस होना कि उनका अपमान वास्तव में उनके जैसे तमाम लोगों का अपमान है, यह एक सामाजिक चेतना का निर्माण करती है। गांधी ने अपमान को एक सामाजिक चेतना का जरिया बनाया। इसी तरह से पत्रकारिता में जब इस्तीफे की घटना होती है तो कई घटनाएं बेहद व्यक्तिगत सीमाओं में बंधी होती हैं और कई घटनाएं अभिव्यक्ति के अधिकार की आजादी के सवाल को मुखर बनाने में मददगार होती हैं। इस तरह के इस्तीफों पर समाज का ध्यान जाता है और अभिव्यक्ति के अधिकार की आजादी को लेकर विमर्श के लिए समाज संगठित होने की जरूरत महसूस करता है।

न्यूज रूमों में बहुजनों की न्यून भागीदारी के खिलाफ क्यों नहीं उठाई जाती कोई आवाज?

पत्रकारिता में सच की तस्वीर का ही नाम अभिव्यक्ति के अधिकार की आजादी और लोकतंत्र के रुप में भी सामने आता है। वर्ष 2016 में ‘जी न्यूज’ से विश्व दीपक ने इस्तीफा दिया था। उन्होंने इस्तीफे में एक लंबा पत्र लिखा और यह बताया कि कैसे यह संस्थान ‘झूठी खबरें’ तैयार करता है और उन्हें प्रचारित करता है। इस इस्तीफे के पत्र को लेकर समाज में ‘जी न्यूज’ के खिलाफ तीखी प्रतिक्रिया सामने आई। विश्व दीपक के इस्तीफे को एक साहसपूर्ण फैसला बताया गया। खासतौर से उस हालात में जब किसी महानगर में पूरे परिवार का आधार नौकरी हो। ऐसे उदाहरण बहुत कम होते हैं, लेकिन उनका समाज में लोकतंत्र और अभिव्यक्ति के अधिकार की आजादी के प्रति लोगों को संवेदनशील बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। 

हाल के दिनों में भी कुछेक इस्तीफे की घटनाएं सामने आई हैं। सुशांत सिंह राजपूत की मौत को लेकर जिस तरह से ‘रिपब्लिक टीवी’ ने जहरीला वातावरण बनाया, उससे क्षुब्ध होकर इस विषय पर रिपोर्टिंग कर रही पत्रकार शांताश्री सरकार ने इस्तीफा दे दिया। उन्होंने यह कहते हुए अपने इस्तीफे की घोषणा की कि इस संस्थान में (रिपब्लिक टीवी) पत्रकारिता मर चुकी है। उन्होंने ट्वीट के जरिए यह घोषणा की। पिछले दिनों ‘एबीपी’ यानी ‘आनंदबाजार पत्रिका’ टेलीविजन न्यूज चैनल के संवाददाता रक्षित सिंह ने इस्तीफे की घोषणा की। उनके द्वारा इस्तीफे की घोषणा में दो तरह की बातें थीं। पहली तो यह कि उनके परिवार के सामने भविष्य को लेकर अनिश्चितता है। उन्हें कर्ज चुकाने से लेकर अपने जीवकोपार्जन के लिए नये अवसर के तलाश की चुनौती होगी। दूसरा पक्ष यह है कि उन्होंने यह व्यक्तिगत और पारिवारिक चुनौती को इसीलिए स्वीकार किया कि उनकी कंपनी सच दिखाने के बजाय झूठ को गढ़ने और प्रचारित करने में सक्रिय दिखती है। रक्षित ने किसान आंदोलन के संदर्भ में यह आरोप ‘एबीपी’ पर लगाया। रक्षित ही ‘एबीपी’ के लिए किसान आंदोलन से जुड़ी खबरें जुटाते रहे हैं। लेकिन चैनल के झूठ से उबकर उन्होंने इस्तीफा देने का एलान किया। उन्होंने शांताश्री की तरह ही अपने इस्तीफे की घोषणा सार्वजनिक तौर पर की। उन्होंने इसके लिए किसान आंदोलन के मंच को चुना, जहां उन्होंने एक संक्षिप्त भाषण देकर 12 लाख रुपए की नौकरी को लात मारने के साहसपूर्ण फैसले को सुनाया। 

यह भी पढ़ें – भारतीय मीडिया : कौन सुनाता है हमारी कहानी?

अभिव्यक्ति की आजादी और समाज का सच एक दूसरे के पूरक माने जाते हैं। समाज के सामने सच को जाहिर करने से रोकने को ही अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला माना जाता है। लेकिन लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की आजादी और सच, ये सारे विषय की सीमा तक सिमटे दिखाई देते हैं। क्योंकि भारतीय समाज की बुनियादी समस्या यह है कि बहुसंख्यक जातियों को हर स्तर पर दबाने और तरह तरह से प्रताड़ित करने के एक मजबूत ढांचे की मौजूदगी इसी लोकतंत्र में बनी हुई है। परंतु पत्रकारिता का पूरा परिदृश्य इस ढांचे के पोषक के रूप में महसूस किया गया है। इसका अर्थ यह भी लगाया जा सकता है कि पत्रकारिता में जिस लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी के लिए आवाज  सुनाई देती है, वास्तव में उसकी अपनी एक सीमा है। वह व्यापक अर्थों में स्वीकार नहीं की जाती है । इस आवाज का जातीय घृणा की मानसिकता और व्यवहार से कोई लेना-देना नहीं है। देश में यदि दमन और शोषण की अनगिनत घटनाएं है तो वे दलितों यानी अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, पिछड़े वर्गो व महिलाओं के विरुद्ध हैं। यह शोध पूर्ण तथ्य है कि कंपनियों की पत्रकारिता ने दलितों, आदिवासियों के जनसंहारों की घटनआओं में भी शर्मनाक भूमिका अदा की है।

कंपनियों की पत्रकारिता के परिदृश्य में तो यह जातीय घृणा का सच इस हद तक नंगेपन के साथ दिखता है कि लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी देश की आबादी के एक खास हिस्से की भाषा लगती है। पत्रकारिता में यह लंबे समय से दोहराया जा रहा है कि यह सामाजिक स्तर पर सदियों से वर्चस्व रखने वाले समूहों के प्रतिनिधित्व वाली पत्रकारिता हैं। भारत लोकतांत्रिक देश है और पत्रकारिता लोकतंत्र के लिए एक स्तंभ है, लेकिन उसके व्यवस्थित और संगठित मजबूत ढांचे में बहुसंख्यक बहुजन आबादी का प्रतिनिधित्व नहीं हैं। 

क्या कभी यह भी देखने को मिलेगा कि बड़ी पूंजी वाली मीडिया कंपनियों में एक पत्रकार ने इसलिए इस्तीफा दे दिया कि आसपास एक भी दलित पत्रकार नहीं हैं या दलित पत्रकार खुद को सुरक्षित और अभिव्यक्ति की आजादी को महसूस नहीं कर रहा/रही है? दरअसल जब डॉ. आंबेडकर यह कहते हैं कि संविधान के जरिए एक राजनीतिक समानता तो हमने हासिल कर ली है, लेकिन आर्थिक और सामाजिक असमानता की एक गहरी खाई बनी हुई है, तो इसकी व्याख्या को समझने की कोशिश करनी होगी। राजनीतिक समानता की प्रासंगिकता तभी तक बनी रहती है, जबतक कि सामाजिक और आर्थिक असामनता के खिलाफ संघर्ष यानी उसे दूर करने के संगठित प्रयास भी जारी रहते हैं। इसे ब्राह्म्णवाद (सामाजिक) और पूंजीवाद (आर्थिक) के दो विचारधाराओं के रुप में भी देख सकते हैं। ये दोनों के खिलाफ चुनौती जब-जब पेश हुई है तो ये एक-दूसरे को अपना आधार प्रदान करती रही हैं। पत्रकारिता की कंपनियां वास्तव में इन दोनों विचारधाराओं के गठजोड़ के केंद्र हैं। बड़ी पूंजी है और समाज में बड़ी कहीं जाने वाली जातियां यहां लोकतंत्र की सुरक्षा का प्रचार करती हैं। 

भारतीय समाज में पत्रकार गहरे अंतरविरोधों के बीच तैयार होते हैं। उनके बीच चेतना का विस्तार इस हद तक व्यापक नहीं हो पाता है कि वे सामाजिक और आर्थिक स्तर पर वर्चस्व की विचारधारा के गठजोड़ के खिलाफ पत्रकारिता को विकसित करने में अपनी भूमिका अदा कर सकते हैं। भारतीय समाज में जातियों के विरुद्ध घृणा और जातियों को मनुष्य व नागरिक के रुप में स्वीकार नहीं करने की विचारधारा के विरुद्ध पत्रकारिता की चेतना के बिना लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी के लिए संघर्ष एक बुलबुले के समान ही दिखता है।

(संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

अनिल चमड़िया

वरिष्‍ठ हिंदी पत्रकार अनिल चमडिया मीडिया के क्षेत्र में शोधरत हैं। संप्रति वे 'मास मीडिया' और 'जन मीडिया' नामक अंग्रेजी और हिंदी पत्रिकाओं के संपादक हैं

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