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नरेंद्र मोदी का ‘न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन’ : दलित-बहुजन युवाओं के साथ फरेब

याद करें कि 2014 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी ने वादा किया था कि वह “न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन” के आधार पर शासन करेंगे। लेकिन यह समझने की आवश्यकता है कि उन्होंने देश में कैसे एक ऐसा माहौल बना दिया है कि संविधान की मूल अवधारणा पर ही सवाल उठने लगे हैं। बता रहे हैं श्याम रजक

केंद्र सरकार के द्वारा लैटरल इंट्री यानी पिछले दरवाजे के माध्यम से बिना किसी प्रतियोगी परीक्षा के शासन-प्रशासन में शामिल किया जा रहा है। सरकार का यह कदम दलित, आदिवासी और पिछड़ा वर्ग के प्रतिभाशाली युवाओं के साथ धोखाधड़ी है। केंद्र सरकार ऐसा करके फिर से देश में मनुवादी व्यवस्था कायम करने की साजिश कर रही है।

ध्यातव्य है कि केंद्रीय सचिवों का समूह ने फरवरी 2017 में अपनी रिपोर्ट भारत सरकार को सौंपी। इसमें प्रशासनिक सुधार से संबंधित सिफारिशें की गईं। रिपोर्ट में कहा गया कि संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारियों की कमी को पूरा करने के लिए निजी क्षेत्र से अनुबंध के आधार पर प्रतिभाशाली अधिकारियों की नियुक्ति की जाय। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि ऐसे अधिकारी राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान देंगे। इस रिपोर्ट के आलोक में दस पदों हेतु विभिन्न मंत्रालयों द्वारा विज्ञापन भी निकाला गया और नियुक्तियां भी की गईं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

याद करें कि 2014 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी ने वादा किया था कि वह “न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन” के आधार पर शासन करेंगे। लेकिन यह समझने की आवश्यकता है कि उन्होंने देश में कैसे एक ऐसा माहौल बना दिया है कि संविधान की मूल अवधारणा पर ही सवाल उठने लगे हैं। कहने की बात नहीं है कि इस देश की तरक्की में नौकरशाही की भी अहम भूमिका रही है। इसके लिए पहले से केंद्र के स्तर पर संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) और राज्य स्तर पर आयोगों का प्रावधान है। इन आयोगों के द्वारा परीक्षाओं का आयोजन होता है और मेधावी अभ्यर्थी चुने जाते हैं। इस प्रक्रिया में संविधान प्रदत्त आरक्षण का प्रावधान भी है। इसका ही परिणाम रहा है कि आज शासन तंत्र में दलित, पिछड़े और आदिवासी वर्ग के लोग भी आईएएस और आईपीएस अधिकारी हैं।

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असल में वर्तमान केंद्र सरकार द्वारा जो लैटरल इंट्री का तरीका अपनाया जा रहा है और आरक्षित वर्गों के साथ हकमारी की जा रही है, उसके लिए साजिश पहले से रची जा रही है। इसे यूपीएससी द्वारा घोषित रिक्तियों में गिरावट से समझा जा सकता है। एक तरफ देश में आईएएस अधिकारियों की संख्या दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही है तो होना यह चाहिए था कि सरकार अधिक से अधिक संख्या में पदों का सृजन करती। लेकिन ऐसा नहीं किया गया। यूपीएससी द्वारा वर्ष 2014 में 1364 पदों के लिए विज्ञापन निकाला गया। वहीं वर्ष 2021 में मात्र 712 पदों के लिए विज्ञापन निकाला गया। यानी 2014 के मुकाबले आधा।

आईएएस अधिकारियों के पदों के लिए यूपीएससी द्वारा विज्ञापित पद

वर्षविज्ञापित पदों की संख्या
20111001
20121091
20131228
20141364
20151164
20161029
2017980
2018782
2019896
2020796
2021712

जाहिर तौर पर यह एक प्रकार से संविधान पर प्रत्यक्ष हमला है क्योंकि आईएएस व आईपीएस अधिकारियों की नियुक्ति यूपीएससी के माध्यम से होती है, जिसका स्पष्ट प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 315(1) में है। केंद्र सरकार के इस पहल से आरक्षित वर्गों के अभ्यर्थियों को नुकसान तो होगा ही, सामान्य श्रेणी के अभ्यर्थियों को भी इससे नुकसान होना तय है।

सनद रहे कि लैटरल इंट्री का न तो संविधान में कोई स्पष्ट प्रावधान है और ना ही कोई पारदर्शी व्यवस्था ही है। भारत सरकार का कहना है कि विषय विशेष में विशेषज्ञता रखने वाले को प्राथमिकता देने से विकास होगा। सवाल उठता है कि क्या ऐसा कहकर सरकार प्रतिभाशाली आईएएस और आईपीएस अधिकारियों की प्रतिभा का मजाक नहीं उड़ा  रही है? सवाल यह भी उठता है कि आज जिस तरह से देश के सकल घरेलू उत्पाद दर ऋणात्मक हुई है, बैंक डूब रहे हैं, बेरोजगारों में हताशा बढ़ी है, खुदकुशी करने वालों की संख्या बढ़ी है, क्या इन सभी के लिए भारत सरकार स्वयं को दोषी न मानकर आईएएस अधिकारियों को कटघरे में खड़ा कर देना चाहती है?

कहना अतिश्योक्ति नहीं कि बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर के द्वारा रचित भारत के संविधान का उपहास उड़ाया जा रहा है। आरक्षण को साजिश के तहत निजीकरण के जरिए समाप्त करने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गई है।

(संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

श्याम रजक

लेखक बिहार सरकार के पूर्व मंत्री हैं

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