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कोरोना महामारी : हाशिए से भी बाहर हैं दलित-बहुजन

काेविड-19 की दूसरी लहर के कारण पूरे देश में त्राहिमाम की स्थिति है। हालांकि गांवों की अपेक्षा शहरों में आर्तनाद अधिक है। साथ ही, इसका एक वर्गीय पक्ष भी है। बता रहे हैं सुशील मानव

मामला उत्तर प्रदेश के प्रयागराज (इलाहाबाद) जिले के फूलपुर तहसील के मेरे गांव पाली का है। दो दिन से डंगर कुर्मी घर नहीं आये थे। मैं पता करने उनके घर चला गया कि तबीयत तो ठीक है। सूप से गेहूं फटकती रामपुरहिया[1] (गयादीन की बीबी) पूछने लगीं कि “बचवा तोहार काम कइसे चलत बा”।

मैंने उन्हें बताया कि मेरे पास लैपटॉप है, तो काम घर से ही हो जाता है। रामपुरहिया बोली तोहरै काम ठीक बा बचई। दिल्ली में फिर से लॉकडाउन लागि गा। बऊ (रामपुरहिया का बड़ा बेटा) दुइ महीना पहिले हरियाणा गये रहे और अब फिर वापिस आवत हयेन। ई सरकार हम मजदूरन के कमाय खाय न देई।

दरअसल कोरोना महामारी की दूसरी लहर में रोटी और रोज़गार कमोवेश हर दलित-बहुजन की चिंता है। वहीं दूसरे वर्ग की चिंता और ज़रूरत में ऑक्सीजन और रेमडेसिवीर है।

कोरोना की दूसरी लहर में सुविधाभोगी वर्ग भयभीत है

कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर में चहुंओर दहशत का माहौल है। सोशल मीडिया से लेकर न्यूज चैनल और अख़बारों तक में ऑक्सीजन, रेमडेसिवीर और बेड का शोर है। दहशत का यह माहौल पिछली साल आई कोरोना की पहली लहर में भी था लेकिन तब दहशत में दलित, बहुजन (मजदूर) वर्ग था। लेकिन कोरोना की मौजूदा दूसरी लहर के समय सबसे ज़्यादा खौफ़जदा सुविधाभोगी वर्ग है। वे अपनी पूंजी लेकर ऑक्सीजन और रेमडेसिवीर में न मरने का आश्वासन ढूँढ़ते फिर रहे हैं। उसे सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था पर भरोसा नहीं है (पहले भी नहीं था)। तो वे प्राइवेट अस्पतालों के लिए सिफारिशें भिड़ाते फिर रहे हैं।

गांवों में पहुंचा कोरोना का खौफ

‘जान है तो जहान है’ कोरोना का दूसरी लहर में सुविधाभोगी वर्ग का टैगलाइन है। सुविधाभोगी लोग कह रहे हैं कि सरकार लॉकडाउन लगा दे नहीं, तो ज़िंदा बचना मुश्किल हो जायेगा।

गांव के लल्लन पांडे खांसी बुखार आते ही पूछ रहे हैं कि शरीर मे ऑक्सीजन नापने वाली मशीन (ऑक्सीमीटर) कहाँ मिलेगी। गर्मी बढ़ गई है लेकिन शहरों में हालात बदल गए हैं। इसबार एसी कूलर बंद हैं। फ्रीज बस सब्जी रखने के काम आ रही है, पानी तो भूलकर भी नहीं रख रहे लोग।

भूख से डर लगता है मौत से नहीं

वहीं गिने चुने संपन्न बहुजन परिवारों को छोड़ दिया जाये तो दलित बहुजन घरों में आपको सैनिटाइजर भी ढूंढ़ने से भी नहीं मिलेगा। पूछने पर लोग कहते हैं बहुत महंगी है। उतने में तो एक किलो दाल खरीद लायेंगे तो बच्चे खुश हो जायेंगे।

तो क्या कोरोना से डर नहीं लगता। इस सवाल के जवाब में बाल्मीकि समुदाय से संबंध रखने वाले और पेशे से सफाईकर्मी सुनील कुमार कहते हैं हमलोग तो रोटी के लिए रोज ही सिर पर कफन बांधकर मैनहोल में घुसते हैं भाई। अक्सर ही मैनहोल से किसी न किसी साथी की लाश निकलने की सूचना मिलती है। पता है कि नीचे मौत बैठी है लेकिन रोटी और बच्चों का ख्याल आते ही कूद जाते हैं। फिर कोरोना से क्या डरना।

सफेद हाथी : उत्तर प्रदेश के प्रयागराज जिले के एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र का दृश्य

वहीं संविदा पर बिजलीकर्मी का काम करने वाले राकेश भारतीया कहते हैं जिसके पास हर सुख सुविधा है वो डरे मौत से। हम मौत से डरकर घर बैठ जायें तो हमारा पूरा परिवार भूख से मर जायेगा। राकेश बताते हैं बिजली के खंभे पर चढ़ना मौत से पंजा लड़ाने से कम नहीं है लेकिन क्या करें, न करें तो पेट कैसे भरें। परिवार की छोटी मोटी ज़रूरतें कहां से पूरी करें।

शटरिंग मजदूर के तौर पर काम करने वाले देव नारायण प्रतिप्रश्न पूछते हुए कहते हैं करतब देखे हो कभी? 10-12 फुट की ऊंचाई पर रस्सी पर चलती लड़की, चाकू बँधे आग के गोले से फांदता लड़का, ऐसे ही करतब हमें रोज करना पड़ता है। चार इंच की 10-12 फीट ऊंची दीवार पर बैठकर गत्ते लगाना, प्लाई बिछाना ये सब करतब का काम है। मौत को हथेली पर लेकर करतब न दिखायें तो रोटी कहां से मयस्सर हो।

दलित बहुजन (मजदूर) नहीं चाहता लॉकडाउन लगे

बहरहाल, आज 29 अप्रैल को पश्चिम बंगाल विधानसभा और उत्तर प्रदेश के ग्राम पंचायत का आखिरी चरण का मतदान हो रहा है। ऐसे में संभावना है कि 30 अप्रैल से लेकर 3 मई के बीच पिछले साल की तर्ज पर पूर्ण तालाबंदी की घोषणा हो सकती है। इसके मद्देनजर तमाम शहरों से प्रवासी मजदूर वापिस अपने गांवों की ओर लौट चले हैं। लेकिन उनके साथ एक चिंता भी गांव लौट रही है। दरअसल दलित बहुजन वर्ग के लिए रोज कुआं खोदना रोज पानी पीना है। यानि रोज खाने के लिए रोज कमाना है। उनकी आय इतनी होती ही नहीं कि खाने के बाद कुछ विपत्ति के वक़्त के लिए बचा भी सके। जबकि पिछले साल तीन महीने का लॉकडाउन और उसके प्रभाव के चलते मजदूर वर्ग को न सिर्फ़ काम से हाथ धोना पड़ा था बल्कि लाखों लोगों को पैदल ही गांव वापस लौटने के लिए मजबूर होना पड़ा था। इस पूरी प्रक्रिया में अनेकानेक बेमौत मारे गए। इतना ही नहीं, अवसाद और निराशा के चलते जाने कितने ही मजदूरों ने आत्महत्या करके असमय ही मौत को गले लगा लिया था।

[1] गांवों में दलित-बहुजन महिलाओं काे संबाेधित करने के लिए उनके नाम के बजाय उनके मायके के गांव के नाम से बुलाये जाने की परंपरा आज भी है। रामपुरहरिया का मतलब रामपुर गांव की।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सुशील मानव

सुशील मानव स्वतंत्र पत्रकार और साहित्यकार हैं। वह दिल्ली-एनसीआर के मजदूरों के साथ मिलकर सामाजिक-राजनैतिक कार्य करते हैं

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