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सवाल उठातीं जेलाें में बंद महिलाओं की अनकही कहानियां

करीब ढाई साल तक नैनी सेंट्रल जेल में रहने के दौरान डायरी लेखन की विधा का सार्थक उपयोग करते हुए सीमा आजाद ने 27 महिला बंदियों की दास्तान को दर्ज किया है जो अलग-अलग पृष्ठभूमियों से हैं और बर्बर पितृसत्ता व जातिवाद की शिकार हैं। नवल किशोर कुमार की समीक्षा

पुस्तक समीक्षा

भारत के जेलों में बंद महिलाओं की स्थिति कैसी है और वे किन कारणों से जेल में बंद हैं? यह सवाल भी मौजूं है कि अधिकांश महिला कैदी किस सामाजिक पृष्ठभूमि की हैं? इन सभी सवालों का जवाब देती है मानवाधिकार कार्यकर्ता सीमा आजाद की किताब “औरत का सफर : जेल से जेल तक”। यह किताब अगोरा प्रकाशन द्वारा प्रकाशित है। करीब ढाई साल तक नैनी सेंट्रल जेल में रहने के दौरान डायरी लेखन की विधा का सार्थक उपयोग करते हुए सीमा ने 27 महिला बंदियों की दास्तान को दर्ज किया है जो अलग-अलग पृष्ठभूमियों से हैं और बर्बर पितृसत्ता व जातिवाद की शिकार हैं। इन कहानियों में उन परिस्थितियों का जिक्र है, जिनकी वजह से वे अपराध के दलदल में फंसी और अमानवीय जीवन जीने को मजबूर की गईं।

इस किताब को पढ़ते समय कुछ आंकड़ों को जानना आवश्यक है। मसलन यह कि राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि देश में करीब 4 लाख 19 हजार 623 कैदी हैं। इनमें महिला कैदियों की संख्या 17 हजार 834 है। इनमें से 66.8 फीसदी यानी 11, 916 महिलाएं विचाराधीन कैदी हैं। आयु वर्ग के हिसाब से बात करें तो 30-50 वर्ष की आयु की महिलाओं संख्या करीब 50.5 फीसदी है। वहीं 18-30 साल की महिलाओं संख्यात्मक हिस्सेदारी 31.3 फीसदी है। यहां यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि देश में कुल 1,401 जेल हैं और इनमें से केवल 18 जेल महिलाओं के लिए हैं। शेष जेलों में महिलाओं के पृथक बैरक हैं।

एनसीआरबी का आंकड़ा यह बताता है कि देश में सबसे अधिक महिला कैदी उत्तर प्रदेश की जेलों में हैं। सीमा आजाद की किताब में जिन महिलाओं का जिक्र है, उनका संबंध भी सेंट्रल जेल नैनी, इलाहाबाद से है। सीमा ने अपनी किताब में सबसे पहले जिस महिला कैदी की दास्तान को कलमबद्ध किया है, उसका नाम रमा गिरि है। वह मूल रूप से बिहार की रहने वाली है जिसका घर नेपाल-बिहार की सीमा पर है। बिहार में गिरि सरनेम का इस्तेमाल अति पिछड़ी जातियों में शामिल गोस्वामी जातियां करती हैं, जिनका मुख्य पेशा महिलाओं के श्रृंगार के सामान बेचना रहा है। रमा गिरि नेपाल से वनस्पति व अन्य सामान लाकर बिहार में बेचती थीं। यह उस इलाके के लिए बेहद सामान्य बात है। लेकिन रमा को एक दिन गांजा-चरस की तस्करी के आरोप में पकड़ लिया जाता है और उसे नैनी जेल में डाल दिया जाता है।

समीक्षित पुस्तक “औरत का सफर : जेल से जेल तक का मुख्य पृष्ठ”

किताब की खासियत सीमा आजाद की शैली है। महिला कैदियों की बात कहते हुए वह सूक्ष्मता से उनके हर अनुभवों को दर्ज करती हैं। वह इस बात को विशेष रूप से उद्धृत करती हैं कि महिलाओं के लिए जेल केवल वह नहीं है जिसे जेल की संज्ञा दी गई है। उनके लिए जेल तो वह घर भी है जो उनका या तो मायका है या फिर ससुराल। रमा गिरि के मामले में सीमा आजाद ने इस बात को कुछ ऐसे उद्धृत किया है – 

“रमा पढी-लिखी बिल्कुल नहीं थी। जगह-जगह घूमते-घूमते, पढ़े-लिखे लोगों की बातें सुनती, तो उनके बात करने के ढंग को अपनी बात में शामिल करने की पूरी कोशिश करती। जैसे एक बार उसने रेल के सफर में किसी पढ़े-लिखे आदमी को पुलिस वाले से कहते सुना था– ‘हम भी इंसान हैं, जानवर नहीं’।”

रमा को अपना महत्व जताने का यह ढंग काफी अच्छा लगा और यह बात उसके दिमाग में बैठ गई। इसके काफी समय बाद जब पति ने एक बार उसे किसी काम के लिए डांटा तो रमा ने पलटकर जवाब दिया। ‘केतना काम करीं, हमहूं तो जानवरे हई इंसान नाहीं’ (हम भी कितना काम करें, हम भी जानवर हैं, इंसान नहीं)।

सुनते ही उसका पति हंसने लगा और पूछा ‘का हये तय’ (क्या हो तुम)?

रमा ने तमक कर फिर कहा ‘हां आउर का जानवरे तो हई, इंसान समझे हो का’। (हां और क्या जानवर तो हैं, इंसान समझे हो क्या?)”

यह भी पढ़ें – भारतीय जेल : कैद में संविधान, मनुवाद को सांस्थानिक संरक्षण

जेलों के अंदर महिलाओं का अपना समाज होता है, इसका स्पष्ट चित्रण सीमा अपने पात्रों के माध्यम से करती हैं। एक उदाहरण सरोजिनी नामक दलित कैदी है जो मूल रूप से मध्य प्रदेश की है। तेरह-चौदह साल की उम्र में वह अपने मां तरह दूसरों के घरों में साफ-सफाई का काम करती थी। अपना घर एक कमरा मात्र था और उसमें इतनी जगह नहीं होती थी कि सरोजिनी पैर भी पसार सके। ऐसे में वह दूसरों के घर में साफ-सफाई करने में जल्दबाजी नहीं करती थी। कोशिश करती कि अधिक से अधिक समय तक दूसरे के घर में रहे। साथ ही वह इसका प्रयत्न भी करती कि दोपहर के खाने के समय वह किसी ऐसे घर में रहे जहां उसे खाने को मिले। सरोजिनी का जीवन ऐसे गुणा-भाग के जरिए कट रहा था। उसके जीवन में तूफान तब आया जब एक घर में सफाई के दौरान फर्श पर उसे दस रुपए गिरे मिले। उसने वह रुपया अपने खीसे में रख लिया। लेकिन उसे ऐसा करते उसकी मालकिन ने देख लिया और उसके उपर आरोपों की झड़ी लगा दी। इसके बाद वह भाग निकली और मध्यप्रदेश की पारधी जनजाति के युवक के हत्थे चढ़ गई, जिसने उसे अपनी दूसरी पत्नी बना लिया। समय बीतने के साथ सरोजिनी जंगली जानवरों का खाल, हड्डी आदि के तस्करी करने लगी और एक दिन धर ली गई।

पितृसत्ता महिलाओं पर किस तरह असर डालती है, इसका एक उदाहरण कमला नामक महिला कैदी है, जिसने अपने ही परिवार के बच्चे की हत्या एक तांत्रिक के कहने पर कर दी, ताकि उसे संतान प्राप्त हो। इस पूरे मामले में न्याय का आलम यह है कि कमला को तो सजा मिल गई लेकिन वह तांत्रिक बेदाग बच गया। एक कहानी कुन्तला की है जो इलाहाबाद के कौशंबी इलाके की रहने वाली है। उसका नशेबाज पति जेल चला जाता है और एक दिन बीमारी का बहाना बनाकर अस्पताल में दाखिल हो जाता है। कुन्तला पुलिस के कहने पर अस्पताल में अपने पति की सेवा करने जाती है और इसी क्रम में उसका पति भाग जाता है, जिसके आरोप में पुलिस कुन्तला को गिरफ्तार कर लेती है।

किताब की अंतिम कहानी बेला अम्मा की है। उसकी बहू ने शादी के कुछ ही दिन बाद इसलिए फांसी लगा ली क्योंकि उसका पति मानसिक रूप से विक्षिप्त था। बहू के परिजनों की शिकायत पर पुलिस ने दहेज प्रथा अधिनियम के तहत बेला और उसके पति को जेल में डाल दिया। सीमा ने इस कैदी के बारे में लिखते हुए समाज के दोहरे चरित्र पर तीखा प्रहार किया है। वह लिखती हैं– “लड़की ने अपना मुंह बंद कर लिया और चौथे रोज की रस्म पूरी होते ही मायके चली गई। उसके जाने के बाद बेला अम्मा के घर बहू के मायके वालों को बुलाया गया और पुरोहित जी ने समाज के रीति-रिवाजों का हवाला देकर कहा कि अब तो शादी हो गई है, दोनों सात जन्मों के बंधन में बंध गए हैं। घर में कोई दिक्कत भी नहीं है। केवल इतना ही है न कि लड़के का दिमाग कम है, तो क्या हुआ?”

सीमा आजाद ने महिलाओं के अंदर उठने वाले सवालों को ईमानदारी से दर्ज किया है। सिया तिवारी और कांति पटेल की दास्तान में वह बताती हैं कि दोनों महिलाएं कैसे जहरखुरानी करने वाले रामाधार तिवारी के चंगुल में फंस जाती हैं और उसके साथ मिलकर लोगों को लूटने लगती हैं। दोनों सौतन हैं और एक दिन अपने पति के साथ ही पकड़ ली जाती हैं। हालात कुछ ऐसे बनते हैं कि जेल में ही दोनों औरतें अपने लिए नये जीवनसाथी का चुनाव कर लेती हैं। लेकिन अंत यह कि सिया तिवारी अपने पति रामाधार के साथ पूरे मामले में बरी हो जाती है और कांति पटेल को सजा हो जाती है।

बहरहाल, सीमा आजाद की इस किताब को मेरी टाइलर की किताब “भारतीय जेलों में पांच साल” का नया वर्जन माना जा सकता है, जो टाइलर ने पांच दशक पहले लिखी थी। सीमा आजाद की यह किताब पितृसत्ता व वर्चस्ववादी समाज से बेखौफ सवाल करती है।

समीक्षित पुस्तक – औरत का सफर : जेल से जेल तक

लेखिका – सीमा आजाद

प्रकाशक – अगोरा प्रकाशन, बनारस, उत्तर प्रदेश

मूल्य – 120 रुपए (अजिल्द)

(संपादन : अमरीश हरदेनिया)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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