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‘असम के हर क्षेत्र में दिखता है ऊंची जातियों का वर्चस्व’

असम के पुराने राष्ट्रवादी नेताओं ने प्रवासियों को असमिया भाषा अपनाने के लिए प्रेरित किया। संस्कृत के साथ असमिया के पुरातन जुड़ाव ने भी असमिया बोलने वालों में श्रेष्ठता भाव उत्पन्न किया। वे गैर-आर्य मूलनिवासियों को अपने से अलग, निम्न व आदिम मानने लगे, बता रहे हैं उत्तम बथारी

{असम में इस समय विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। ईमेल के जरिये फारवर्ड प्रेस के साथ साक्षात्कार में उत्तम बथारी राज्य के जटिल ज़मीनी यथार्थ का विवरण देते हुए बता रहे हैं कि वहां के मूल रहवासियों के साथ अतीत में किस तरह के अन्याय हुए और वहां की सरकारों कैसे उन्हें नज़रंदाज़ करती रहीं हैं। बथारी दिमासा जनजाति से हैं और गुवाहाटी विश्वविद्यालय में मध्यकालीन और आधुनिक असम का इतिहास पढ़ाते हैं।} 

सामाजिक और नस्लीय दृष्टि से देश के सबसे विविधवर्णी राज्यों में असम शामिल है। क्या इस तथ्य का अहसास आपको तब होता है जब आप अपने विश्वविद्यालय के कैंपस या गुवाहाटी के किसी सरकारी दफ्तर में होते हैं? क्या आपको लगता है कि असम की राजनीति इस विविधता को प्रतिबिंबित करती है? क्या यह विविधता नागरिक विमर्श में झलकती है? 

भारत में विविधता केवल शाब्दिक जुगाली का विषय है। इसके अनुरूप आचरण नहीं होता। जैसे, देश में इतनी भाषाई विविधता होते हुए भी बार-बार हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित करने की बात कही जाती है। भेदभाव का एक और उदहारण है संविधान की आठवीं अनुसूची, जो केवल कुछ दर्जन भाषाओं को मान्यता देती है। दूसरी ओर सैकड़ों भाषाएं दम तोड़ने की कगार पर हैं, क्योंकि उन्हें प्रोत्साहन नहीं दिया जा रहा है।  

 

यह सच है कि सामाजिक और नस्लीय दृष्टि से असम देश का सबसे विविधवर्णी राज्य है। परंतु सार्वजनिक संस्थानों में आपको इस विविधता के दर्शन नहीं होते। विविधता की बात तो बहुत होती है परंतु अपने आसपास हमें विविधता दिखलाई नहीं पड़ती। उस विश्वविद्यालय का ही उदहारण लें जहां मैं पढाता हूं। गुवाहाटी विश्वविद्यालय, राज्य सरकार के नियंत्रण में है और प्रवेश और नियुक्तियों में राज्य सरकार के आरक्षण नियमों का पालन करता है। प्रदेश की अनुसूचित जनजातियां, मैदानी और पहाड़ी दोनों इलाकों में रहतीं हैं इसलिए उनके लिए उपलब्ध आरक्षण कोटे को दो भागों में बांटा गया है। अनुसूचित जनजातियों के लिए कुल 12 प्रतिशत आरक्षण में से 7 प्रतिशत मैदानी जनजातियों के लिए और 5 प्रतिशत पहाड़ी जनजातियों के लिए निर्धारित है। परंतु लगभग हर साल विभिन्न पाठ्यक्रमों में आरक्षित सीटें खाली रह जातीं हैं। विशेषकर पहाड़ी कोटा की। यही नियुक्तियों में भी होता है। जहां तक मेरी जानकारी है, विश्वविद्यालय में केवल चार शिक्षक और एक कर्मचारी पहाड़ी जनजातियों से हैं। शिक्षकों के अधिकांश आरक्षित पद रिक्त हैं। इसमें विश्वविद्यालय की भी कोई गलती नहीं है क्योंकि योग्य उम्मीदवार उपलब्ध ही नहीं होते। पर इससे यह तो पता चलता ही है कि सरकार पिछड़े समुदायों की शिक्षा पर पर्याप्त ध्यान नहीं दे रही है। पिछले पांच सालों में असम सरकार ने राज्य के कोने-कोने में शैक्षणिक संस्थान स्थापित किए परंतु पहाड़ी क्षेत्रों, विशेषकर दीमा हासो जिले में इनकी संख्या ना के बराबर है। 

विभिन्न सरकारी विभागों और संस्थानों में भी हालात बहुत अलग नहीं हैं। हजारों आरक्षित पद खाली पड़े हैं। जैसे केंद्रीय स्तर पर लोगों पर हिंदी थोपने के प्रयास होते हैं उसी तरह, राज्य स्तर पर असमिया भाषा को लादा जा रहा है। हाल में सरकार ने राज्य लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में असमिया को अनिवार्य विषय बना दिया। इससे पहाड़ी समुदायों को बहुत नुकसान होगा और सरकारी नौकरियों में उनका हाशियाकरण और बढेगा।

असमिया मुख्यधारा के एक छोटे से हिस्से को छोड़कर, आदिवासी समुदायों को नज़रअंदाज़ किया जाता है। कुल मिलाकर, राज्य की विविधता पर चर्चा तो बहुत होती है, परंतु यह विविधता सार्वजनिक जीवन में, सार्वजनिक संस्थानों में दिखती नहीं है।   

उत्तम बथारी

क्या विभिन्न समुदायों को अपना नेतृत्व विकसित करने में सफलता मिली है? क्या विभिन्न समुदायों के नेता अपने-अपने समुदायों का समुचित प्रतिनिधित्व कर रहे हैं? 

नेतृत्व का प्रश्न उतना ही जटिल है जितना कि विभिन्न जनजातियों और समुदायों के बीच रिश्तों का प्रश्न। और यह भी प्रदेश में सत्ता पर नियंत्रण में निहित विषमताओं को प्रतिबिंबित करता है। शुरू से ही सवर्ण हिंदू प्रदेश को राजनैतिक और बौद्धिक नेतृत्व प्रदान करते आए हैं और नस्लीय अल्पसंख्यकों को केवल सतही प्रतिनिधित्व मिल सका है। सवर्ण हिंदू नेतृत्व को पहली चुनौती सन् 1960 के दशक में आदिवासियों समुदाय ने दी, जिसके नतीजे में सन् 1970 में असम का पुनर्गठन हुआ। करबी और दिमासा जनजातियों ने नवगठित मेघालय राज्य का हिस्सा बनने की बजाए इस शर्त पर असम में रहना स्वीकार किया कि स्वायत्तशासी परिषदों को विकास कार्यों से संबंधित अधिक शक्तियां प्रदान की जाएंगी। उन्हें यह भरोसा भी दिलाया गया था कि संविधान के अनुच्छेद 244(ए) के तहत, राज्य के कुछ जनजातीय क्षेत्रों को मिलाकर एक स्वायत्त राज्य की स्थापना की जाएगी( परंतु इससे भी लम्बे समय तक शांति सुनिश्चित नहीं हो सकी। सन् 1980 के दशक में ऑटोनोमस स्टेट डिमांड कमेटी (एएसडीसी) के तत्वाधान में पहाड़ी क्षेत्रों में अनुच्छेद 244(ए) के कार्यान्वयन और एक स्वायत्त राज्य के निर्माण की मांग को लेकर एक विशाल प्रजातांत्रिक आंदोलन खड़ा हो गया। लगभग उसी समय असम में बोडोलैंड नाम के एक अलग राज्य के गठन की मांग को लेकर भी एक शक्तिशाली आंदोलन शुरू हुआ। इसके पहले से भी ब्रह्मपुत्र के उत्तरी तट पर रहने वाले आदिवासी समुदायों के लिए एक अलग राज्य, उदायचल की मांग होती रही थी। कई अन्य नस्लीय अल्पसंख्यक समूहों ने भी अपने अलग-अलग आंदोलन किये और कुछ न कुछ रियायतें या विशेष सुविधाएं पाने में सफल रहे। कुछ अन्य अभी भी अपनी राजनैतिक मांगों को लेकर सड़कों पर उतरे हुए हैं। उनकी मान्यता है एक विशिष्ट नस्लीय समूह के रूप में उनका अस्तित्व बने रहने के लिए इन मांगों की पूर्ति महत्वपूर्ण और प्रासंगिक है। इन मांगों में स्वायत्तशासी परिषद के गठन से लेकर संविधान की छठी अनुसूची के कार्यान्वयन और अनुसूचित जनजाति के रूप में मान्यता दिए जाने तक की मांगें शामिल हैं। 

इनमें से अधिकांश राजनैतिक आंदोलनों के पूर्व या उनके समानांतर भाषा, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्रों में रचनात्मक आंदोलन हुए। उदाहरण के लिए अलग बोडोलैंड के समर्थन में आंदोलन के पूर्व लिपि के मुद्दे पर आंदोलन हुआ था। एक लंबे सशस्त्र संघर्ष, जिसमें विभिन्न आदिवासी समूहों में परस्पर टकराव भी हुए, के नतीजे में संविधान की छठी अनुसूची के अंतर्गत बोडोलैंड क्षेत्रीय स्वायत्तशासी जिलों का गठन हुआ, जिन्हें हाल में बोडोलैंड टेरीटोरियल रीजन (बीटीआर) का नाम दिया गया है। इस मामले में देश में पहली बार इस अनुसूची का विस्तार पहाड़ी क्षेत्रों से बाहर मैदानी क्षेत्रों तक किया गया। इससे मिशिंग, राभा इत्यादि जैसे अन्य समुदायों में भी यह आशा जागी है कि उन्हें भी इस अनुसूची के अंतर्गत लाया जा सकता है। कारबी-दिमासा स्वायत्तता आंदोलन के नतीजे में स्वायत्तशासी परिषदों को विकास संबंधी कार्य करने के लिए अधिक शक्तियां प्राप्त हुई हैं। इस आंदोलन ने उग्र रूप धारण कर लिया था। 

असम में हाशियाकृत समुदायों के नेतृत्व की अपनी अलग राजनैतिक पहचान स्थापित करने अथवा विशेष सुविधाएं या रियायतें हासिल करने में सफलता और असफलता को राज्य की सत्ता के असमिया भाषी सवर्ण हिंदुओं की मुठ्ठी में होने के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। राज्य की लगभग हर संस्था उनके नियंत्रण में है और राज्य के राजनैतिक भविष्य के निर्धारण में उनकी महती भूमिका होती है। जनजातीय अल्पसंख्यक समुदाय कोई प्रभावी कार्यवाही इसलिए भी नहीं कर पाते क्योंकि राज्य में विभिन्न समुदायों की आबादी का वितरण इस प्रकार है कि चंद इलाकों को छोड़कर कहीं भी एक समुदाय के लोग एक स्थान पर नहीं रहते। इसके साथ ही असम के मैदानी क्षेत्रों में बाढ़ का प्रकोप लगातार बना रहता है और बाजार तक लोगों की पहुंच नहीं है। इन कारणों से लोगों को समुचित आर्थिक अवसर उपलब्ध नहीं होते और वे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए राज्य से प्राप्त होने वाले अनुदान पर निर्भर रहते हैं। यहां तक कि स्वायत्तशासी परिषदें भी राज्य शासन के अनुदान पर निर्भर हैं क्योंकि उनके पास राजस्व अर्जन करने के लिए स्वतंत्र मशीनरी ही नहीं है। इस आर्थिक निर्भरता के कारण वे राज्य सरकार के अन्यायपूर्ण निर्णयों का विरोध भी नहीं कर पातीं।

परंतु यहां यह समझना भी ज़रूरी है कि असमिया लोगों और हाशियाकृत समुदायों के परस्पर रिश्ते केवल बैर और कटुता पर आधारित नहीं हैं। कई मौकों पर वे एकजुट भी होते हैं। इसका एक उदाहरण है नागरिकता (संशोधन) अधिनियम (सीएए) के विरूद्ध आंदोलन। यद्यपि पहाड़ी क्षेत्रों को इस अधिनियम से मुक्त रखा गया है फिर भी उन लोगों ने इस अधिनियम का विरोध करने में मैदानी क्षेत्रों में रहने वाले अपने साथियों का साथ दिया। इस तरह राज्य में असमिया और अन्य नस्लीय समूहों के परस्पर रिश्ते प्रतिस्पर्धा, सहयोग और मोलभाव – तीनों पर आधारित हैं। 

सन 2019 में असम के कोकराझार में छह नए समुदायों को अनुसूचित जनजाति में शामिल किये जाने के विरोध में आदिवासी संगठनों का प्रदर्शन

दिमासा लोग सीएएए को किस तरह देखते हैं?

दिमासाओं की सबसे बड़ी आबादी दीमा हासओ, कार्बी आंगलोंग पूर्व और पश्चिम जिलों में है। ये इलाके संविधान की छठी अनुसूची के अंतर्गत हैं और उन्हें सीएए की परिधि से बाहर रखा गया है। परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि दिमासा सीएए से चिंतित नहीं हैं। औपनिवेशिक काल से ही दिमासा समुदाय के लिए प्रवासी एक बड़ी समस्या रहे हैं। इन क्षेत्रों में गैर-आदिवासियों की खासी आबादी है। उदाहरण के लिए, हेफलांग विधानसभा क्षेत्र में बांग्लाभाषी मतदाता दूसरा सबसे बड़ा समूह हैं। इसी तरह दिफू विधानसभा क्षेत्र में असमिया और बांग्लाभाषी क्रमशः तीसरे और चौथे सबसे बड़े समूह हैं। दिमासा लोग सीएए के उनके पड़ोसी मैदानी इलाकों पर पड़ने वाले प्रभाव से भी वाकिफ हैं। वे जानते हैं कि देर-सवेर उनके इलाके भी इससे प्रभावित होंगे। सरकार भले ही यह कह रही हो कि सीएए के कारण मुसलमान प्रवासियों का राज्य में बसना कम होगा परंतु दिमासा लोगों का मानना है कि सीएए से हिंदुओं के प्रवास को मान्यता मिलेगी और उनकी संख्या बढ़ेगी। 

 

ऐसे कौन से सामाजिक और सांस्कृतिक मुद्दे हैं जिनके उपर चुनावों में कोई चर्चा नहीं हो रही है?

सामान्यतः ऐसा माना जाता है कि असम जातिवाद से मुक्त है। परंतु यह सही नहीं है। पन्द्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी के नववैष्णव भक्ति संत शंकरदेव की उदारता और सामंजस्य पर आधारित आदर्श, समय के साथ कमजोर पड़ते गए और ब्राम्हणवादी मूल्यों ने असम के समाज में घुसपैठ बना ली। समाज के सभी क्षेत्रों में ऊंची जातियों का वर्चस्व स्पष्ट नजर आता है। कई लोग यह कह सकते हैं कि असम में जातिवाद का चेहरा उतना कुरूप और घिनौना नहीं है जितना कि देश के अन्य राज्यों में है। परंतु इसमें कोई संदेह नहीं है कि जातिभेद असम के समाज का एक सच है। 

इसके अतिरिक्त, चुनावों के दौरान सांप्रदायिक विद्वेष, विशेषकर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच, को भी जमकर हवा दी जाती है। परंतु इस चुनाव में सांप्रदायिकता भड़काने के प्रयास अधिक सफल नहीं हुए। इसका श्रेय सामान्य जनता के साथ-साथ नागरिक समाज के उस हिस्से को भी जाता है जो सांप्रदायिकता और संबद्ध मसलों पर जनजागरूकता बढ़ाने का सतत प्रयास कर रहा है। 

नस्लीय अल्पसंख्यकों की भाषा और संस्कृति के लिए उपलब्ध स्थान सिकुड़ता जा रहा है। इस मसले पर भी विचार होना चाहिए। परंतु असम में राजनीतिक पार्टियां तुष्टिकरण की नीति अपना रही हैं। अनुसूचित जनजातियों की सूची में छह नए नस्लीय समूहों को शामिल करने का प्रस्ताव इसका उदाहरण है। इनमें शामिल हैं- अहोम, कोच-राजबोंगी और चाय बागानों में काम करने वाले समुदाय। इन छह समुदायों को अनुसूचित जनजातियों में शामिल करने से उन समुदायों को नुकसान होगा, जिन्हें पहले से जनजाति के रूप में मान्यता प्राप्त है। चाय की खेती करने वाले, कोच-राजभोंगी और अहोम समुदायों की आबादी अन्य समुदायों की तुलना में अधिक है। यदि हम सवर्ण हिंदुओं को छोड़ दें तो अहोम, राज्य का सबसे उन्नत समुदाय है और उसे अनुसूचित जनजाति में शामिल करने से अन्य समुदायों को उन्हें मिलने वाले लाभ से वंचित होना पड़ेगा। सन 1955 में भारत सरकार ने एक अध्यादेश जारी कर कोच-राजबोंगियों को एसटी घोषित कर दिया था। उस साल आज के अनुसूचित जनजाति (मैदानी) श्रेणी के बहुत कम उम्मीदवारों को गुवाहाटी के कॉटन काॅलेज में दाखिला मिल सका था। इससे ही हम कल्पना कर सकते हैं कि छःह नए समुदायों को एसटी में शामिल करने का वर्तमान समुदायों पर क्या प्रभाव पड़ेगा।  

 

असम के लिए इतिहास की सही समझ पर आधारित सामाजिक न्याय आपकी दृष्टि में क्या होना चाहिए? असम में सामाजिक न्याय से जुड़े कौन से मुद्दे हैं और क्या उन पर ध्यान दिया जा रहा है?

असम में प्रारंभ से ही भाषा, राष्ट्रवाद और अस्मिता का आधार रही है। असम के पुराने राष्ट्रवादी नेताओं ने प्रवासियों को असमिया भाषा अपनाने के लिए प्रेरित किया। संस्कृत के साथ असमिया के पुरातन जुड़ाव ने भी असमिया बोलने वालों में श्रेष्ठता भाव उत्पन्न किया। वे गैर-आर्य मूलनिवासियों को अपने से अलग, निम्न व आदिम मानने लगे। इसके साथ ही असमिया को राज्य की अन्य भाषाओं पर प्राथमिकता देने से अन्य नस्लीय समूहों में अलगाव का भाव पैदा हुआ, जिसके नतीजे में सन् 1971 में इस क्षेत्र के राजनैतिक नक्शे में बड़े परिवर्तन आए। परंतु इससे विभिन्न नस्लीय समूहों की अपने अलग-अलग राज्य बनाने के आंदोलन समाप्त नहीं हुए। बोडो, कारबी और दिमासा के अतिरिक्त राभा, सोनोवाल कछारी और मिशिंग जैसी नस्लीय जनजातियां भी अपने-अपने क्षेत्रों को संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करने की मांग कर रही हैं ताकि उनकी जमीन पर उनका हक हो सके और उन्हें अन्य राजनैतिक अधिकार मिल सकें। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, कई अन्य समुदाय भी अपने को अनुसूचित जनजातियों की सूची में शामिल किए जाने की मांग करते आ रहे हैं। इनमें से चाय बागानों में काम करने वाले समुदाय सबसे अधिक शोषित और पिछड़े हुए हैं। नस्लीय समूहों की विविधता से उद्भूत समस्यायों को जनसंख्या का वितरण और जटिल बना देता है। किसी भी समुदाय के लिए कुछ करने का अर्थ होता है दूसरे समुदाय का किसी न किसी ढ़ंग से नुकसान करना। ऐसी परिस्थिति में सामाजिक न्याय की स्थापना एक बड़ी चुनौती है। मेरी दृष्टि में सबसे पहले असमिया भाषा को वरीयता देने की बजाए नस्लीय अल्पसंख्यकों के भाषायी और सांस्कृतिक सशक्तिकरण के लिए कदम उठाये जाने चाहिए। इससे इन समुदायों में विश्वास जागेगा और राज्य में विभिन्न नस्लीय समूहों के बीच संबंध बेहतर हो सकेंगे। 

हाल में असम सरकार ने दशकों पुरानी मांग को पूरा करते हुए बोडो व अन्य स्थानीय भाषाओं के लिए एक अलग संचालनालय की स्थापना की है। यह समावेशीकरण की दिशा में बहुत देरी से उठाया गया परंतु स्वागत योग्य कदम है। 

सन 2017 में कोच-राजबोंगी समुदाय की महिलाएं, अपने समुदाय को एसटी में शामिल किये जाने की मांग को लेकर प्रदर्शन करती हुईं

भारत के अन्य क्षेत्रों में दलित-बहुजन (आदिवासी, दलित, व ओबीसी) एकता को सामाजिक न्याय के लिए अपरिहार्य माना जाता है। क्या असम में इस तरह की एकता स्थापित हो सकती है?

इस तरह की एकता जरूरी है, इसमें तो कोई संदेह नहीं हो सकता। एसटी समूहों में नस्ल के आधार पर कुछ गठबंधन हैं यद्यपि उनमें भी हितों का टकराव होता रहता है। उदाहरण के लिए पहाड़ी जनजातियां, पहाड़ी जिलों में रहने वाले बोडो लोगों को अनुसूचित जनजातियां (पहाड़ी) में शामिल करने की विरोधी हैं। यह भी सही है कि अलग-अलग मुद्दों पर विभिन्न समुदायों में परस्पर सहयोग के उदाहरण भी हैं। जैसे हाल में गठित बोडो व अन्य आदिवासी भाषाएं संचालनालय विभिन्न जनजातीय समूहों और उनकी साहित्यिक संस्थाओं के संयुक्त प्रयासों का नतीजा है। 

परंतु इस तरह के गठबंधन में सभी समूहों को शामिल करना असम जैसे राज्य में एक बड़ी चुनौती है। इसका कारण यह है कि विभिन्न समुदायों के सशक्तिकरण के स्तर में बहुत अंतर है। उदाहरण के लिए अनुसूचित जातियों की तुलना में अनुसूचित जनजातियां अधिक संगठित हैं। दूसरी ओर, ओबीसी हर मामले में एसटी से बेहतर स्थिति में हैं। जैसे अहोम, जो ओबीसी हैं, औपनिवेशिक काल के पूर्व इस क्षेत्र की सबसे बड़ी राजनैतिक ताकत थे और उन्होंने संपूर्ण ब्रह्मपुत्र घाटी को एक राजनैतिक इकाई के रूप में संगठित किया था। वे उत्तरी बर्मा से 13वीं सदी में ब्रह्मपुत्र घाटी में आकर बस गए थे। नस्लीय दृष्टि से वे ताई-शान समूह में हैं। आगे चलकर उन्होंने हिंदू धर्म और असमिया भाषा को अपना लिया। ऊंची जातियों के बाद वे राज्य का सबसे उन्नत समुदाय हैं और राजनैतिक दृष्टि से सबसे अधिक प्रभावशाली हैं। राज्य के सबसे वंचित समूह हैं एससी, जो 2011 की जनगणना के अनुसार, राज्य की आबादी का 7.15 प्रतिशत हैं। वे संख्या की दृष्टि से और अन्य दृष्टियों से भी अत्यंत पिछड़े हुए हैं।

वर्तमान में असम में दलित-बहुजन एकता की राह में सबसे बड़ी बाधा है छह नए समूहों को एसटी में शामिल करने की मांग। इनमें से अधिकांश ओबीसी हैं और आबादी और अन्य मानकों से काफी मजबूत स्थिति में हैं। दूसरी ओर, चाय के बागानों में काम करने वाले समुदाय, जिनमें मुंडा, उरांव, गौंड, भूमिज, संथाल इत्यादि जैसे 96 समूह शामिल हैं, आबादी की दृष्टि से तो बड़े (राज्य की कुल आबादी का 18.5 प्रतिशत) हैं परंतु अत्यंत पिछड़े और शोषित हैं। स्वाभाविक तौर पर वर्तमान एसटी समुदाय इस मांग के विरोध में है। यहां तक कि इसके बदले आरक्षण के प्रतिशत में बढ़ोत्तरी के प्रस्ताव को भी वे स्वीकार करने को वे तैयार नहीं हैं। उन्हें लगता है कि यदि नए समुदायों को एसटी में शामिल किया गया तो वे राष्ट्रीय स्तर पर नौकरियों व अन्य सुविधाओं से हमेशा के लिए वंचित हो जाएंगे।

इसके बाद भी इन समूहों में असम समझौते के खंड 6 के बारे में आम सहमति है, जिसमें सभी समुदायों के राजनैतिक और सांस्कृतिक अधिकार सुनिश्चित किए जाने की बात कही गई है। अतः जैसा कि पहले कहा जा चुका है, असम में समय, मुद्दे और संदर्भ यह निर्धारित करते रहे हैं और कर रहे हैं कि विभिन्न समुदायों के बीच रिश्ते सहयोग और सामंजस्य पर आधारित होंगे या टकराव और संघर्ष पर।

(अनुवाद: अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल)

लेखक के बारे में

अनिल वर्गीज

अनिल वर्गीज फारवर्ड प्रेस के प्रधान संपादक हैं

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