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केजरीवाल लाइव प्रकरण : पीएम-सीएम सब एक पसेरी

संसदीय ढांचे में राजनीतिक पार्टियों व नेताओं के लिए अपने वर्चस्व को बनाने या उसका एक माहौल तैयार करने का एक औजार है, जिसे विज्ञापन कहते हैं। अब तक का अनुभव यही बताता है कि भारतीय समाज में लोकतंत्र एक विज्ञापन है। मीडिया विमर्शकार अनिल चमड़िया की टिप्पणी

भारत सरकार के पत्र सूचना कार्यालय (पीआईबी) की 23 अप्रैल, 2021 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कोविड-19 से सर्वाधिक प्रभावित 11 राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक की विज्ञप्ति पर गौर करें जो कि पीआईबी की वेबसाइट पर उपलब्ध हैं। इस विज्ञप्ति में प्रधानमंत्री ने जो कहा उसकी छह हेडिंग बनाई गई हैं। ग्यारह राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों में किस मुख्यमंत्री ने क्या कहा, इस विज्ञप्ति में स्पष्ट नहीं है। प्रधानमंत्री के संबोधन की मुख्य बातों का उल्लेख करने के बाद विज्ञप्ति में केवल निम्न सूचनाएं दी गई हैं – 

इस बातचीत के दौरान, राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने कोरोना की मौजूदा लहर को लेकर संबंधित राज्य सरकारों द्वारा उठाए जा रहे कदमों के बारे में प्रधानमंत्री को जानकारी दी। इसके अलावा उन्होंने यह भी कहा कि प्रधानमंत्री द्वारा दिए गए निर्देशों और नीति आयोग द्वारा प्रस्तुत किए गए रोडमैप से उन्हें बेहतर तरीके से प्रतिक्रियाओं को तैयार करने में सहायता मिलेगी।

 

विज्ञप्ति को पढ़कर यह हैरानी हो सकती है कि न ही 11 राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों के नामों का उल्लेख किया गया है और ना ही 11 राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों के नामों का ही उल्लेख मिलता है। 

संसदीय लोकतंत्र के बारे में यह मान्यता है कि यह लिखित से ज्यादा परंपराओं, मान्यताओं, मर्यादाओं की महीन लकीरों और लोक-लाज के प्रति संवेदनशीलता से चलता है। भारत में ब्रिटिश सत्ता ने संसदीय ढांचा तो विकसित कर दिया लेकिन समाज में लोकतंत्र की संस्कृति और विचार वर्चस्व के विचार व संस्कृति की जगह नहीं ले सका। भारतीय समाज का पूरा ढांचा वर्चस्व की संस्कृति पर आधारित है। समस्त गतिविधियां वर्चस्व की होड़ पर केन्द्रित होती है। स्वभाविक तौर पर इसमें राजनीतिक गतिविधियां प्रमुख है क्योंकि वह सत्ता का सर्वोच्च ढांचा है। 

जाहिर है कि संसदीय ढांचे के लिए लोकतंत्र एक संवैधानिक औपचारिकता भर रह गया है। संसदीय ढांचे में राजनीतिक पार्टियों व नेताओं के लिए अपने वर्चस्व को बनाने या उसका एक माहौल तैयार करने का एक औजार है, जिसे विज्ञापन कहते हैं। अब तक का अनुभव यही बताता है कि भारतीय समाज में लोकतंत्र एक विज्ञापन है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल

देश भर में कोविड-19 और उसके कहर से निपटने के लिए किए जाने वाले इंतजाम में विफलता के कारण हालात बदत्तर हो गए हैं। इनमें 11 राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों को सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले समाज के रुप में चिन्हित किया गया है। इन्हीं के साथ प्रधानमंत्री ने एक बैठक की। इस तरह की बैठकों को उस लोकतंत्र का हिस्सा माना जाता है जिसे परंपराओं, मान्यताओं, मर्यादाओं की लकीरों और लोक-लाज के प्रति संवेदनशीलता पर आधारित माना जाता है। प्रधानमंत्री ने इस बैठक में अपने संबोधन के जरिए एक तरह से पूरे देश को संबोधित किया। पीआईबी की प्रेस विज्ञप्ति भी बताती है कि कोविड-19 को लेकर प्रधानमंत्री बेहद चितिंत और गंभीर हैं। लेकिन भारत राज्यों का गणतंत्र है। राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों के बीच संविधान के मुताबिक कामकाज का बंटवारा किया गया है। न केवल काम-काज का बंटवारा किया गया है, बल्कि राज्यों के लिए मुख्यमंत्री का खास तौर से अपने राज्यों के नागरिकों के लिए जिम्मेदार और उत्तरदायित्व माना जाता है। प्रधानमंत्री राज्यों के बीच एक समन्वयक, उनके बीच एक राष्ट्रीय भावना को विकसित करने के विचार-केंद्र के रुप में देखे जा सकते हैं। राज्यों के लिए उन्हें एक सहायककारी के रुप में भरोसे के साथ देखा जाता है।

कल 23 अप्रैल, 2021 को प्रधानमंत्री के साथ मुख्यमंत्रियों की बैठक की सामग्री की प्रचार-राजनीति पर विचार करें तो यह मिलता है कि प्रधानमंत्री ने राष्ट्र के तौर पर तो संबोधित किया लेकिन राज्यों के मुख्यमंत्रियों की उपस्थिति उनके राज्यों के नागरिकों के बीच उनकी भूमिका के साथ दर्ज नहीं हुई। ध्यातव्य है कि बैठक प्रधानमंत्री द्वारा मुख्यमंत्रियों को संबोधित करने के लिए नहीं बुलाई गई थी बल्कि प्रधानमंत्री द्वारा के मुख्यमंत्रियों के साथ बातचीत करने लिए आयोजित की गई थी। प्रधानमंत्री के साथ बैठक के दौरान दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपने संबोधन को लोगों के लिए लाइव कर दिया। अरविंद केजरीवाल अन्य मुख्यमंत्रियों के साथ प्रधानमंत्री से जो कुछ कह रहे हैं, उन्हें लोगों को भी सीधे तौर पर सुनने का अधिकार है, ऐसा दिल्ली के मुख्यमंत्री ने माना। 

दिल्ली में चुनाव में बुरी हार के बाद भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) केन्द्र शासित प्रदेश की सत्ता को अपने नियंत्रण में रखना चाहती है। यह सभी जानते हैं। यानी दिल्ली में चुनाव के जरिये शासन प्रशासन का एक बेहद छोटा सा हिस्सा दिल्ली विधानसभा की सरकार को मिलता है, लेकिन भाजपा केंद्र में अपनी सत्ता की ताकत से इस सीमित अधिकार को भी स्वीकार करने को तैयार नहीं है। जैसा कि पहले कहा गया है कि संसदीय ढांचे में लोकतंत्र के अलावा वर्चस्व बनाए रखने की होड़ में आगे निकलने के लिए हर संभव तरीकों को स्वीकार्य माना जाता है। दिल्ली में भी वर्चस्व के विचार और संस्कृति को चोट महसूस होती है जब केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी से अलग पार्टी मतदाताओं द्वारा सत्ता के लिए चुन ली जाती है। अरविंद केजरीवाल को हर वक्त अपने वजूद को दर्ज कराने के लिए जुगत लगानी पड़ती है या जद्दोजहद करनी पड़ती है। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अरविंद केजरीवाल के संबोधन के दौरान ही उन्हें टोक दिया कि उन्होंने अपना भाषण लाइव कर दिया। प्रधानमंत्री ने इस संबोधन को खत्म होने का इंतजार भी नहीं किया। प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा उस पर आपत्ति जाहिर की जा सकती थी। लेकिन इस वक्त होड़ की गति बहुत ही तेज हो चुकी है। तकनीकी विकास और विस्तार ने राजनीति में असुरक्षा की भावना के भरने की गति को भी बहुत तेज कर दिया है। इसलिए धैर्य नाम का मूल्य गतिविधियों की पृष्ठभूमि में चला गया है। प्रधानमंत्री ने टोका और उसी क्षण अरविंद केजरीवाल ने माफी भी मांग ली। 

दरअसल परंपरा, लोक-लाज, मर्यादाओं की लकीरें यानी मूल्यों पर आधारित लोकतंत्र एक तरफ झुका नहीं होता है। वह यदि झुका होता भी है तो अपेक्षाकृत कमजोर के पक्ष में झुका होता है और वह भी एक सामाजिक मूल्य को विकसित करने के महान उद्देश्य के लिए। 

तकनीकी सवाल खड़े करना और तकनीकी रूप में उसका जवाब दे देना, इसकी राजनीतिक गतिविधियों में संभावनाएं ही संभावनाएं होती हैं। प्रधानमंत्री ने टोका, मुख्यमंत्री ने माफी मांग ली। बाद में यह भी तकनीकी तौर पर उल्लेख कर दिया गया कि पहले की बैठकों में लाइव करने पर आपत्ति नहीं की गई है और 23 अप्रैल की बैठक के लिए कोई दिशा-निर्देश जारी नहीं किया गया था कि मुख्यमंत्री अपने भाषणों का लाइव नहीं कर सकेंगे। 

दरअसल, प्रधानमंत्री विज्ञापन दाता हैं तो अरविंद केजरीवाल विज्ञापन बनाने वाले हैं। लोकतंत्र में हर घटना को विज्ञापित करना एक संस्कृति के रुप में विकसित हुई है। इसी तरह से सरकार अपने हर काम को एक विज्ञापन की शक्ल दे सके, इस उद्देश्य से काम करने की संस्कृति भी विकसित हुई है। अरविंद केजरीवाल अपने हर राजनीतिक क्षण को विज्ञापन की शक्ल देने में माहिर समझे जाते हैं। उन्होंने सरकारी गाड़ियों की लालबत्ती की संस्कृति के विरोध को अपने एक विज्ञापन में बदल दिया। उन्होंने भ्रष्टाचार के विरुद्ध राजनीतिक संघर्ष को एक विज्ञापन तक सीमित कर दिया। अरविंद केजरीवाल मर्यादाओं की लकीरों को तोड़ते हैं, परंपराओं से हटते हैं, लेकिन उसे एक नये मूल्य के रूप में स्थापित करने के उद्देश्य से नहीं, बल्कि लोकतंत्र के विज्ञापन में अपनी जगह बनाने के इरादे तक ही सीमित होते हैं। यदि प्रधानमंत्री और अरविंद केजरीवाल की सरकार के विज्ञापनों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाय तो यह समझना आसान होगा कि 23 अप्रैल को मर्यादाओं के टूटने और माफी की आवाज कितनी कमजोर है।     

(lसंपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अनिल चमड़िया

वरिष्‍ठ हिंदी पत्रकार अनिल चमडिया मीडिया के क्षेत्र में शोधरत हैं। संप्रति वे 'मास मीडिया' और 'जन मीडिया' नामक अंग्रेजी और हिंदी पत्रिकाओं के संपादक हैं

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