h n

बहुजनों द्वारा सामूहिक प्रतिरोध की मिसाल है 2 अप्रैल, 2018 का भारत बंद

तीन साल पहले हुए भारत बंद का महत्व एससी-एसटी एक्ट की पुनर्बहाली तक सीमित नहीं है। व्यापकता में इस आंदोलन ने मुल्क की लोकतांत्रिक चेतना को झकझोरा और उत्पीड़ित समूहों की लोकतांत्रिक सक्रियता को आवेग प्रदान किया। बता रहे हैं रिंकु यादव

तीन साल पहले 2 अप्रैल, 2018 का ‘भारत बंद’ बहुजन आंदोलन और व्यापकता में कहें तो भारत के लोकतांत्रिक आंदोलन के इतिहास में एक महत्वपूर्ण दिन के रूप में दर्ज हो गया है। साथ ही, बहुजनों के लिए प्रतिरोध की प्रेरणा का स्रोत भी बन चुका है। इसका महत्व इसलिए भी है क्योंकि इसका असर भी दिखा। नरेंद्र मोदी सरकार को झुकना पड़ा और संसद में कानून लाकर सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससी-एसटी एक्ट के संबंध में दिए गए निर्णयों को निष्प्रभावी बनाना पड़ा। 

यह महज केवल एससी-एसटी एक्ट को बचाने का आंदोलन भर नहीं था। यह ऐतिहासिक भारत बंद एक दिन के दायरे में सीमित नहीं किया जा सकता है और ना ही इसका महत्व एससी-एसटी एक्ट की पुनर्बहाली तक सीमित है। व्यापकता में इस आंदोलन ने मुल्क की लोकतांत्रिक चेतना को झकझोरा और उत्पीड़ित समूहों की लोकतांत्रिक सक्रियता को आवेग प्रदान किया। नई संभावनाओं का इससे आगाज हुआ। 

लेकिन इस ऐतिहासिक ‘भारत बंद’ की पृष्ठभूमि को समझने के लिए वर्ष 2014 से आकलन जरूरी है। नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद संविधान व लोकतंत्र को कमजोर करते हुए चौतरफा ब्राह्मणवादी वर्चस्व को पुनर्स्थापित करने की कोशिशों-साजिशों तेज हुईं तो दूसरी तरफ, भाजपा-आरएसएस से इतर सवर्ण सामाजिक समूहों की एससी-एसटी एक्ट और एससी, एसटी व ओबीसी के आरक्षण के खिलाफ सवर्ण आरक्षण जैसे मसले पर सक्रियता भी सामने आई। सवर्णों ने अन्याय व वर्चस्व की छूट का दावा जतलाना शुरु किया। खेत-खलिहानों से शैक्षणिक परिसरों और खेल के मैदान से लेकर सरकारी कार्यालयों तक, जीवन के हर क्षेत्र में सवर्णों के दबदबे व हिंसक हमले का दौर शुरू हुआ। दलितों-पिछड़ों की राजनीतिक शक्तियों के एक हिस्से की भाजपा के साथ यारी तो दूसरे हिस्से संपूर्ण विपक्ष की निष्क्रियता-अक्षमता सामने थी। 

ऐतिहासिक भारत बंद की तस्वीर

इस परिदृश्य में ही बहुजनों की सड़कों पर सक्रियता व मोर्चाबंदी का सिलसिला शुरु हुआ। सबसे पहले रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या के खिलाफ बहुजनों की सड़कों पर जबर्दस्त सक्रियता दर्ज हुई। इसने राष्ट्रीय स्वरूप ग्रहण किया। यहीं से मोदी राज में उल्लेखनीय बहुजन सक्रियता का आगाज होता है। इसके बाद सिलसिला आगे तब बढ़ा जब गुजरात के ऊना में दलितों की बर्बर पिटाई हुई। उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में दलितों के दमन व महाराष्ट्र के भीमा-कोरेगांव में बहुजन विरोधी हिंसा की घटनाओं के खिलाफ बहुजनों की आंदोलनात्मक सक्रियता राष्ट्रीय स्तर पर दर्ज किया गया। इस बीच विभिन्न विश्वविद्यालय परिसरों से लेकर शहर, कस्बों व खेत-खलिहानों तक ब्राह्मणवादी हमले के खिलाफ बहुजनों की आंदोलनात्मक सक्रियता भी दिखाई पड़ती है। इसी पृष्ठभूमि में एससी-एसटी अत्याचार निवारण अधिनियम को प्रभावहीन बनाने के खिलाफ 2 अप्रैल भारत बंद में सड़कों पर बहुजनों की सक्रियता ने हर लिहाज से नई ऊंचाई हासिल की। 

नये सिरे से बहुजनों के छोटे-बड़े आंदोलनों व पहलकदमियों की धारावाहिकता में ही 2 अप्रैल, 2018 का ऐतिहासिक भारत बंद हुआ। इसने सवर्णों के बढ़ते वर्चस्व का जोरदार जवाब दिया।

खासतौर से हिंदी पट्टी में इस आंदोलन में शहर से गांव तक की भागीदारी थी। संपूर्ण बहुजन समाज के प्रगतिशील हिस्सों के साथ खासतौर पर दलित समाज के शहरी मध्यवर्ग से लेकर गांव के गरीबों-मजदूरों के साथ छात्र-नौजवानों की व्यापक भागीदारी थी। भागीदारी और भौगोलिक विस्तार के लिहाज से नया इतिहास ही रच गया। आंदोलनकारी आर-पार की लड़ाई की भावना और जबरदस्त ऊर्जा से सड़कों पर आए थे। साहस और शहादत की मिसालें कायम हुईं। दर्जन भर से ज्यादा आंदोलनकारी शहीद हुए। हजारों जेल में बंद कर दिए गए। हजारों आंदोलनकारियों पर मुकदमा दर्ज किया गया। 

इन सबसे अलग बहुजन राजनैतिक धाराओं की निष्क्रियता और बहुजन समाज के आकांक्षा व आक्रोश को स्वर देने में विफलता व नकारेपन के विकल्प में मामूली कार्यकर्ताओं-संगठनों और आम बहुजनों ने ऐतिहासिक जिम्मेदारी और भूमिका अदा की तथा यह बता दिया कि बहुजन समाज जिंदा है। वह राजनीतिक शक्तियों और राजनेताओं का मोहताज नहीं है। वह वैकल्पिक विपक्ष की भूमिका और लड़ाई के लिए तैयार है। 

बहरहाल, 2 अप्रैल, 2018 को हुआ भारत बंद प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है। इसके बाद बहुजन राजनीतिक धाराओं से इतर बहुजन आंदोलन स्वतंत्र धारा के बतौर अपनी पहचान बुलंद कर रहा है। उसके बाद भी यह सिलसिला आगे बढ़ रहा है। कहना अतिश्योक्ति नहीं कि बहुजन समाज का लोकतांत्रिक जागरण आगे बढ़ रहा है और बहुजनों की लोकतांत्रिक दावेदारी भी आगे बढ़ रही है, जो अंततः मनु का विधान थोपने की साजिशों को शिकस्त देगा।

(संपादन : नवल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें 

मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

रिंकु यादव

रिंकु यादव सामाजिक न्याय आंदोलन, बिहार के संयोजक हैं

संबंधित आलेख

सामाजिक आंदोलन में भाव, निभाव, एवं भावनाओं का संयोजन थे कांशीराम
जब तक आपको यह एहसास नहीं होगा कि आप संरचना में किस हाशिये से आते हैं, आप उस व्यवस्था के खिलाफ आवाज़ नहीं उठा...
दलित कविता में प्रतिक्रांति का स्वर
उत्तर भारत में दलित कविता के क्षेत्र में शून्यता की स्थिति तब भी नहीं थी, जब डॉ. आंबेडकर का आंदोलन चल रहा था। उस...
पुनर्पाठ : सिंधु घाटी बोल उठी
डॉ. सोहनपाल सुमनाक्षर का यह काव्य संकलन 1990 में प्रकाशित हुआ। इसकी विचारोत्तेजक भूमिका डॉ. धर्मवीर ने लिखी थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि...
यूपी : दलित जैसे नहीं हैं अति पिछड़े, श्रेणी में शामिल करना न्यायसंगत नहीं
सामाजिक न्याय की दृष्टि से देखा जाय तो भी इन 17 जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने से दलितों के साथ अन्याय होगा।...
कबीर पर एक महत्वपूर्ण पुस्तक 
कबीर पूर्वी उत्तर प्रदेश के संत कबीरनगर के जनजीवन में रच-बस गए हैं। अकसर सुबह-सुबह गांव कहीं दूर से आती हुई कबीरा की आवाज़...