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अखिलेश के ‘दलित दीवाली’ आह्वान को दलित-बहुजन बुद्धिजीवियों ने नकारा

सपा प्रमुख अखिलेश यादव द्वारा डॉ. आंबेडकर की जयंती के मौके पर ‘दलित दीवाली’ मनाने के आह्वान का विरोध किया जा रहा है। इस विरोध की वजह जानने के लिए फारवर्ड प्रेस ने दलित-बहुजन बुद्धिजीवियों, लेखकों व सामाजिक कार्यकर्ताओं से बातचीत की

बीते 8 अप्रैल, 2021 को समाजवादी पार्टी के नेता व उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने एक ट्वीट किया। अपने ट्वीट में उन्होंने लिखा – “भाजपा के राजनीतिक अमावस्या काल में वह संविधान खतरे में है, जिससे मा. बाबासाहेब ने स्वतंत्र भारत को नयी रोशनी दी थी। इसलिए मा. बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर जी की जयंती, 14 अप्रैल, को समाजवादी पार्टी उप्र, देश व विदेश में ‘दलित दीवाली’ मनाने का आह्वान करती है”। इसके साथ ही अखिलेश ने ट्वीटर पर नया हैश टैग #दलित_दीवाली भी शुरू किया। इसे लेकर सोशल मीडिया पर वे आलोचना के निशाने पर हैं। फारवर्ड प्रेस ने इस संबंध में दलित-बहुजन बुद्धिजीवियों, लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं से बातचीत की। 

आपत्तिजनक है ‘दलित दीवाली’ शब्द : राजेंद्र प्रसाद सिंह

ओबीसी साहित्य के पैरोकार रहे प्रो. राजेंद्र प्रसाद सिंह के मुताबिक, “अखिलेश यादव द्वारा 14 अप्रैल को डॉ. आंबेडकर की जयंती को धूमधाम से मनाए जाने का आह्वान एक सकारात्मक कदम है। लेकिन उन्होंने जो शब्द इस्तेमाल किये हैं, वे आपत्तिजनक हैं। इसमें दो शब्द हैं। एक शब्द तो दीवाली है जिसका संबंध हिंदू धर्म के वर्चस्ववादी मूल्यों से है और जिसे स्वयं डॉ. आंबेडकर ने खरिज किया था। ऐसे में इस शब्द को बिल्कुल ही आपत्तिजनक माना जाना चाहिए। इसके अलावा, इसमें एक शब्द और है – दलित। इसे लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं। लेकिन यह समझना आवश्यक है कि दलित कौन हैं। मैंने तो अपनी एक किताब में कहा है कि दलित का मतलब है वे सभी जिन्हें दबाया गया है। इनमें आदिवासी भी हैं, अनुसूचित जाति के लोग भी हैं और अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग भी। लेकिन एक विरोधाभास दलित समुदाय के बुद्धिजीवियों में भी है। वे दलित शब्द पर अपना एकाधिकार चाहते हैं।”

तर्कसंगत नहीं ‘दलित दीवाली’ का आह्वान : नीतिशा खलखो

दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रो. नीतिशा खलखो बताती हैं कि “प्रसिद्ध दलित लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि के अनुसार कोई भी चीज पलट देने मात्र से खूबसूरत नहीं हो जाती है। जिन बातों को द्विज बेहतर मानते हैं अगर हम भी उसका ही अनुसरण करें तो कुछ भी नहीं बदलने वाला। जैसे काला रंग के प्रति द्विज नकारात्मक दृष्टिकोण रखते हैं तो इसका मतलब यह नहीं है कि हम उजले रंग के प्रति नकारात्मक हो जाएं। आवश्यकता इस बात की है कि हम अपना खुद का नैरेटिव गढ़ें। डॉ. आंबेडकर की जयंती को उत्सव के रूप में मनाने के हमारे पास अपने तरीके हो सकते हैं। मेरा तो मानना है कि हमें अपने नायकों की जयंतियों के मौके पर उनके विचारों को याद करते हुए वर्तमान के संदर्भ में उन्हें अमल में लाने की दिशा में काम करना चाहिए। जैसे डॉ. आंबेडकर की जयंती के मौके पर हम अपने लोगों को संविधान के बारे में शिक्षित करें। दीवाली मनाना कहीं से तर्कसंगत नहीं है।” 

सपा प्रमुख अखिलेश यादव

दीवाली ही क्यों, ‘पुस्तकाली’ क्यों नहीं : गुलाब सिंह

दिल्ली में शिक्षक व लेखक गुलाब सिंह के मुताबिक, “यह सभी जानते हैं कि 14 अप्रैल को आंबेडकर जयंती अपने आप में भारत का एक बड़ा त्यौहार है। इस दिन को ‘दलित दीवाली’ के रूप में मनाए जाने का आह्वान राजनीति से प्रेरित है। लेकिन राजनीति को अलग रखें तो भी हमें इस पर भी विचार करना चाहिए कि दीवाली ही क्यों, पुस्तकाली क्यों नहीं? यह तो संस्कृति की बात है। हमारे यहां हर त्यौहार का संबंध मौसम से रहा है। जब कोई बड़ा तबका कोई उत्सव मनाने लगता है तो धीरे-धीरे वह संस्कृति का हिस्सा हो जाता है। महत्व इस बात की है कि हम किस रूप में कोई उत्सव मनाते हैं। मैं तो यह मानता हूं कि डॉ. आंबेडकर की जयंती मनाने के लिए दीवाली मनाने के बदले हम चाहें तो गांव के स्तर पर मेलों का आयोजन कर सकते हैं, पुस्तक मेलों का आयोजन कर सकते हैं, विचार गोष्ठियां आयोजित कर सकते हैं। उत्सव मनाने के अनेक तरीके हो सकते हैं। वैसे भी दीवाली का संबंध उन मान्यताओं से है, जिन्हें डॉ. आंबेडकर ने खारिज किया था।” 

बाएं से राजेंद्र प्रसाद सिंह, नीतिशा खलखो, गुलाब सिंह और रिंकु यादव

ब्राह्मणवाद के दलालों का चरित्र ज्यादा स्पष्ट होता जा रहा है : रिंकु यादव

सामाजिक कार्यकर्ता रिंकु यादव मानते हैं कि “अखिलेश यादव ने 14 अप्रैल को ‘दलित दीवाली’ मनाने का आह्वान कर दलित अस्मिता और डॉ. आंबेडकर के प्रति उनके नजरिए को जगजाहिर कर दिया है। दरहकीकत, बिहार-यूपी में मंडल धारा की पार्टियों और उसके नेताओं के पास प्रारंभ से ही कोई सुसंगत व स्पष्ट ब्राह्मणवाद विरोधी दृष्टि नहीं रही है। समय के साथ इस धारा के राजाओं-राजकुमारों का ब्राह्मणवाद के दलाल का चरित्र ज्यादा स्पष्ट होता जा रहा है। लेकिन विरोध में दलित समुदायों के द्वारा जो प्रतिक्रियाएं सामने आ रही हैं, वे प्रतिक्रियावादी हैं। वे इसके लिए पूरे ओबीसी समुदाय को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं। यह कहीं से उचित नहीं है। ऐसा कर वे न केवल ओबीसी या ओबीसी की एक खास जाति को ब्राह्मणवाद विरोधी लड़ाई से न जोड़ने की दिशा में बढ़ रहे हैं, बल्कि ऐसे दलालों के पीछे बहुजन समाज के एक हिस्से को धकेल भी रहे हैं।” 

(संपादन : अनिल/अमरीश)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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