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फुले दंपत्ति, आंबेडकर और डु बोइस : नस्ल और जाति मुक्त न्यायपूर्ण दुनिया के लिए

सच को तोड़-मरोड़कर विघटन, हिंसा और दमन को बढ़ावा दिया जा रहा है। आज भी फुले, डु बोइस और आंबेडकर की बातें सच हैं। उनके बौद्धिक तर्क, उनकी राजनैतिक प्रतिबद्धतायें, उनके कार्यक्रम और आंदोलन और सभी लोगों को उनके मानवाधिकार दिलवाने का उनका अटूट संकल्प, सारी दुनिया के समाजों में परिवर्तन के लिए आज भी प्रासंगिक है। पी. दयानंदन का आलेख

भारत में जातिवाद और अमरीका में नस्लवाद मानवीय गरिमा का अपमान और प्रगति की राह में रोड़ा हैं। नस्ल और जाति दोनों विकृत मानसिकता की उपज हैं। वे सत्ता और संपत्ति को हासिल करने और अपने से दूर न होने देने के लिए हर किस्म की हिंसा और दमन को औचित्यपूर्ण ठहराने वाली व्यवस्थाओं की जनक हैं। दूरदृष्टि और मनुष्यमात्र के प्रति करुणा का भाव रखने वाले महान पुरुषों और महिलाओं ने ऐसे पूर्वाग्रहों के विरुद्ध संघर्ष किया, निर्धनों को सशक्त किया और मानवता को आशा की किरण दी। भारत के ऐसे ही दो जाति-विरोधी महानायक, जोतीराव फुले (11 अप्रैल, 1827 – 28 नवंबर, 1890)) और डॉ. भीमराव आंबेडकर (14 अप्रैल, 1891 – 6 दिसंबर, 1956), अमरीका के नस्लवाद-विरोधी संघर्ष के प्रशंसक थे। आंबेडकर और डब्ल्यू.ई.बी. डु बोइस (23 फरवरी, 1868 – 27 अगस्त, 1963) एक-दूसरे के साथ पत्राचार करते थे। दोनों के दृष्टिकोण और कार्यों में समानताएं थीं; वे एक-दूसरे से सीखते थे और कई मौकों पर अलग-अलग स्थानों पर उनकी मुलाकातें भी हुईं। यह इतिहास का एक दिलचस्प अध्याय है। दोनों के कार्यक्षेत्र की अपनी-अपनी जटिलताएं थीं। इसके बाद भी, दोनों को जोड़ने वाले तार तलाशे जा सकते हैं। दोनों का व्यक्तित्व और कृतित्व, जाति और नस्ल के विरुद्ध लडाई को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझने में हमारी मदद कर सकता है। यह महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि हाल के कुछ वर्षों में नस्लवाद ने अपना घिनौना रूप फिर से दिखानाना शुरू कर दिया है। वहीं भारत में जातिवाद बेरोकटोक जारी है और राजनैतिक व धार्मिक कट्टरतावाद उसे और हवा दे रहा है।    

जोतीराव और सावित्रीबाई फुले 

औपनिवेशिक काल में भारत में अनेक मेधावी जाति-विरोधी चिंतक हुए, जिन्होनें अपने भाषणों, लेखों, अभियानों और आंदोलनों के जरिए उस धार्मिक वैचारिकी और उसके वाहकों का पर्दाफाश किया जो दलितों, आदिवासियों, शूद्रों और महिलाओं के दमन के मूल में है। जोतीराव फुले और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले (3 जनवरी, 1831 – 10 मार्च, 1897) सन 1850 के दशक में इस आंदोलन के अग्रदूत के रूप में उभरे (ऑम्वेट 2008)। उनके पहले से ईसाई मिशनरियां दमितों की मदद कर रहीं थीं, परंतु  जाति-व्यवस्था के विरुद्ध उनका प्रतिरोध स्थानीय स्तर पर ही होता था और उसे जाति-विरोधी आंदोलन की संज्ञा नहीं दी जा सकती। 

जोतीराव फुले ने एक बड़ा और व्यापक आंदोलन शुरू किया, जो आज भी आमजनों के लिए प्रेरणा का स्रोत है। फुले दंपत्ति ने जाति प्रथा की बुराईयों पर प्रत्यक्ष हमला बोला। फुले का मानना था कि ब्राह्मणवाद ही जातिगत ऊंच-नीच और उससे जनित प्रभुत्व, भेदभाव, दमन और अछूत प्रथा का जड़ है। इस तरह देश का पहला ब्राह्मण-विरोधी आन्दोलन शुरू हुआ (ओ. हेनलोन)। फुले का आंदोलन मद्रास प्रेसीडेंसी के दक्षिणी इलाके में अनेक जाति-विरोधी नेताओं के उभार से काफी पहले शुरू हुआ था। इन नेताओं ने भारत के इतिहास की पुनर्व्याख्या की और भारी जनसमर्थन से प्रभावी जाति-विरोधी आंदोलन चलाए, जिनसे दमित समुदायों का सशक्तिकरण हुआ। इन नेताओं में शामिल थे अयोथिथास पन्दिथर (1845-1914), नारायण गुरु (1855-1928), रेत्तामलई श्रीनिवासन (1860-1945), अय्यंकाली (1863-1941), पेरियार (1879-1973) और एम.सी. राजा (1891-1943)। जोतीराव फुले के निधन के एक साल बाद, महाराष्ट्र में आंबेडकर का जन्म हुआ। देश के जाति-विरोधी नेताओं में उनका कद निस्संदेह सबसे ऊंचा था। वे सामाजिक कार्यकर्ता, समाजशास्त्री, राजनेता और देश के संविधान के निर्माता थे। वे फुले के प्रशंसक थे और उनसे प्रेरणा ग्रहण करते थे। उन्होंने 1946 में प्रकाशित अपनी पुस्तक हू वर द शुद्रज  फुले को समर्पित की थी।  

फुले दंपत्ति की पृष्ठभूमि और उनकी उपलब्धियां

जोतीराव फुले ने 1841 से लेकर 1847 तक पुणे के एक अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाई की। इस स्कूल की स्थापना चर्च ऑफ़ स्कॉटलैंड के मिशनरी रेवरेंड जेम्स मिशेल ने 1834 में की थी। छह साल के भीतर, पुणे और इन्दापुर में लड़कों के 11 और लड़कियों के 5 लड़कियों के स्कूल स्थापित हो गए, जिनमें कुल 600 विद्यार्थी अध्ययनरत थे। मिशेल और उनकी पत्नी मार्गरेट ने गरीबों और अनाथों के लिए आश्रय गृह भी स्थापित किये। मिशेल के स्कूल में फुले ने जो पढ़ाई की उसमें कई विषय शामिल थे। इन विषयों का विस्तार व्यापक था। इसी तरह की शिक्षा स्कॉटिश मिशन के अन्य स्कूलों में भी दी जाती थी। इनमें शामिल थे कलकत्ता में एलेग्जेंडर डफ़, बम्बई में जॉन विल्सन और मद्रास में जॉन एंडरसन द्वारा संचालित अंग्रेजी माध्यम स्कूल। इन स्कूलों के विद्यार्थी अंग्रेजी में प्रवीणता हासिल कर लेते थे और इस भाषा को धाराप्रवाह बोलने में सक्षम बन जाते थे। फुले और उनके दोस्तों ने अपने स्कूली जीवन में अनेक किताबें पढ़ीं। परंतु थॉमस पेन की दो पुस्तकों राइट्स ऑफ़ मैन  एवं ऐज ऑफ़ रीज़न  ने उन पर गहरा असर डाला और भविष्य के उनके कार्यकलापों को प्रभावित किया। फुले ज्ञानोदय  नामक एक पत्रिका के ग्राहक बन गए और उन्होंने उसके लिए अनेक लेख भी लिखे। इस पत्रिका का प्रकाशन अमेरिकन मराठी मिशन ने अहमदनगर से 1842 में शुरू किया था। जोतीराव की मृत्यु के बाद, इस पत्रिका ने 18 दिसंबर, 1890 के अपने अंक में संपादकीय में फुले को श्रद्धांजलि अर्पित की। 

भीमराव आंबेडकर, जोतीराव और सावित्रीबाई फुले, डब्ल्यू.ई.बी. डु बोइस

मिशेल के स्कूल में अध्ययन के दौरान फुले पर ईसाई धर्म के मूल्यों, विशेषकर समानता और न्याय, का प्रभाव पड़ा। सन् 1873 में फुले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की। इस संस्था का उद्देश्य दमितों में आत्मसम्मान का भाव जगाना, उन्हें शिक्षित करना, उन्हें उनके अधिकारों के प्रति जागरूक बनाना और इस प्रकार उनकी मुक्ति की राह प्रशस्त करना था। उन्होंने ईसा मसीह की दो शिक्षाओं को अपने जीवन में केंद्रीय स्थान दिया। वे थीं : “अपने पड़ोसी से प्रेम करो” और “जैसा तुम चाहते हो कि लोग तुम्हारे साथ करें, तुम भी उनके साथ वैसा ही करो”। अपनी अंतिम किताब सार्वजनिक सत्य धर्म पुस्तक  (फुले (पाटिल) खंड 2, 1991) में फुले ने इन दो शिक्षाओं का कई बार हवाला दिया है।     

उन्होंने ईसा मसीह के भारतीय नाम, ‘यीशु’ का मराठीकरण ‘यशवंत’ या ‘येशवंत’ के रूप में किया। उन्होंने अपने दत्तक पुत्र का नाम यशवंत रखा। गुलामगिरी  में फुले, ईसा मसीह को पश्चिम का बलिराजा बताते हैं, जिसे पाटिल ने बलिराजा द्वितीय के रूप में अनूदित किया है (फुले; पाटिल खंड एक, 1991, पृष्ठ 36, 38, 45, 59) (देशपांडे 2002 पृष्ठ 74, 75, 80, 88)। 

फुले दंपत्ति भारत में लैंगिक समानता को बढ़ावा देने वालों में अग्रणी थे। लड़कियों और महिलाओं की शिक्षा उनके समाज सुधार आंदोलन के महत्वपूर्ण घटक थे। फुले ने अपनी पत्नी सावित्रीबाई को पढाया और वे आगे चल कर शिक्षिका बनीं। सन् 1848 में फुले सिंथिया फरा से मिलने अहमदनगर गए ताकि वे यह समझ सकें कि सिंथिया अपना स्कूल कैसे चलातीं हैं। फरा को अमेरिकन बोर्ड ऑफ़ कमिश्नर्स फॉर फॉरेन मिशंस (एबीसीएफएम) ने 1827 में अहमदनगर भेजा था। उन्होंने ‘द फरा स्कूल्स’ नाम से अहमदनगर में पहली बार लड़कियों के लिए स्कूल खोले (एबीसीएफएम 1882 पृष्ठ 61-62)। जोतीराव की अहमदनगर यात्रा के बाद, फुले दंपत्ति ने अपने घर में लड़कियों के लिए एक स्कूल खोला। जल्दी ही वे लड़कियों के लिए 18 स्कूल चलाने लगे। ज्ञानोदय  ने 15 सितम्बर, 1853 के अपने अंक में फुले का एक भाषण प्रकाशित किया, जिसमें उन्होंने यह बताया था कि सिंथिया फरा से मिलने के बाद उन्होंने लड़कियों के लिए स्कूल क्यों खोला (जोतीराव 2020)। फुले दंपत्ति ने शूद्र-अतिशूद्र  लड़कों, लड़कियों और वयस्कों के लिए भी स्कूल खोले। शिक्षा के क्षेत्र में उनके अमूल्य योगदान के चलते, कई लोग सावित्रीबाई को देश की पहली महिला शिक्षक कहते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि वे एक नारीवादी भी थीं और अपने समय से आगे सोचतीं थीं। सन् 2014 में पुणे विश्वविद्यालय का नाम उनकेके नाम पर सावित्रीबाई फुले विश्वविद्यालय रखा गया। 

शूद्रों-अतिशूद्रों के साथ-साथ, उस काल में विधवाओं की हालत बहुत ख़राब थी। फुले दंपत्ति ने गर्भवती और शोषित विधवाओं के लिए अपने घर में “होम फॉर प्रिवेंशन ऑफ़ इन्फेंटीसाइड” (शिशु हत्या निरोधक गृह) खोला। ऐसी ही एक विधवा के लड़के को संतानहीन फुले दंपत्ति ने गोद ले लिया। उनका दत्तक पुत्र यशवंत डाक्टर बना। सन् 1890 में जोतीराव फुले की मृत्यु के पश्चात, सावित्रीबाई और उनके पुत्र ने अपनी सामाजिक और चिकित्सकीय सेवा गतिविधियां जारी रखीं। सन् 1896-97 में, पुणे और उसके आसपास के इलाके में ब्युबोनिक प्लेग की महामारी फैली। डा. यशवंतराव ने मरीजों की इलाज के लिए पुणे में एक क्लिनिक शुरू की। सावित्रीबाई उनकी मदद करतीं थीं और मरीजों को क्लिनिक तक पहुंचाती थीं। दुखद यह कि सावित्रीबाई इस रोग से ग्रस्त हो गयीं और 10 मार्च, 1897 को उनकी मौत हो गई। इसके कुछ ही समय बाद, डा. यशवंतराव भी प्लेग से ग्रस्त हो गए और उनका निधन हो गया। 

अमरीकी मुक्ति आंदोलन के संबंध में फुले दंपत्ति के विचार 

फुले संयुक्त राज्य अमरीका (यूएसए) में गुलामों की स्थिति और उनकी मुक्ति के लिए काम रहे नेताओं के बारे में गहरी जानकारी रखते थे। फुले की 15 से अधिक रचनाओं में से एक थी- गुलामगिरी। सन् 1873 में प्रकाशित यह पुस्तक नस्ल और जाति के बारे में है। इस पुस्तक का केंद्रीय संदेश है सभी मनुष्यों के लिए समान अधिकार। फुले ने ब्राह्मणवादी वर्चस्व को चुनौती दी, जो मिथकों के सहारे समाज के एक बड़े तबके को उनके अधिकारों और समानता से वंचित करता था। फुले ने इन मिथकों का खंडन किया और न्यायपरायण बलिराजा, जो अपने सभी प्रजाजनों को एक समान अधिकार और दर्जा देते थे, पर केन्द्रित एक वैकल्पिक इतिहास प्रस्तावित किया। 

गुलाम प्रथा का उन्मूलन करने वाले अमरीका के लोगों को फुले प्रशंसा की निगाह से देखते थे और उन्हें उम्मीद थी कि दासता उन्मूलन भारत के दमितों की मुक्ति की लिए नजीर बनेगा। उनकी पुस्तक गुलामगिरी  के प्रकाशन से केवल आठ साल पहले, सन् 1865 में, अमरीकी कांग्रेस ने देश के संविधान को संशोधित कर गुलाम प्रथा को हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त कर दिया। इसके कुछ ही समय बाद राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन की हत्या कर दी गयी। फुले ने अपनी पुस्तक को “यूनाइटेड स्टेट्स के उन भले लोगों” को समर्पित किया, जिन्होंने “नीग्रों लोगों को गुलामी से मुक्त कराने के कार्य में उदारता और निष्पक्षता के साथ सहयोग किया तथा उसके लिए कुर्बानी दी।” यहां फुले केवल 1865 की औपचारिक घोषणा की बात नहीं कर रहे थे, बल्कि उनके दिमाग में वह पूरा घटनाक्रम था, जिसकी परिणिति इस घोषणा में हुई थी – अर्थात गुलाम प्रथा उन्मूलन आंदोलन, गुलाम प्रथा के मुद्दे पर दक्षिणी राज्यों का संघ से पृथक्करण और इसके नतीजे में हुआ गृह युद्ध, जो 1861 से 1865 तक चला। दरअसल, फुले उन सभी को “यूनाइटेड स्टेट्स के भले लोग” कह रहे थे, जिन्होंने गुलाम प्रथा का विरोध किया। गुलाम प्रथा के उन्मूलन के लिए हजारों-हज़ार अमरीकियों ने काम किया था।  

‘गुलामगिरी’ में समर्पण पृष्ठ

अब्राहम लिंकन के जन्म (1809) से पहले भी कई दास प्रथाविरोधी नेता थे, जिनमें पुरुष और महिलाएं दोनों शामिल थे। एलिज़ाबेथ फ्रीमैन (मम बेट) (1742-1829) और सोजौर्नेर ट्रुथ (1797-1883) अश्वेत महिलाएं थीं, जिन्होंने इस प्रथा का साहसपूर्वक प्रेरणास्पद विरोध किया। कुछ अन्य प्रमुख महिला नेता थीं: लुक्रेशिया मोट (1793-1880), एलिज़ाबेथ मार्गरेट चैंडलर, अंकल टॉम्स केबिन की लेखिका हेरिएट बीचर स्टोव (1811-1896), हेरिएट टबमैन (1920-1913), जिन्होनें ‘अंडरग्राउंड रेलरोड’ के जरिए सैकड़ों गुलामों को मुक्त करने का साहसिक प्रयास किया था और सुसान बी. एंथोनी (1820-1906)। फ्रेडेरिक डगलस का एक प्रसिद्ध उद्धरण है कि “जब भी दासता विरोधी आंदोलन का सच्चा इतिहास लिखा जाएगा, उसके पन्नों के एक बड़े हिस्से में महिलाओं का बोलबाला होगा क्योंकि दासों का मुद्दा विशेषतः महिलाओं का मुद्दा रहा है।”   

गुलामगिरी  में फुले अमरीका के दासों की तुलना भारत के दमितों से करते हैं और आशा व्यक्त करते हैं कि जिस तरह 1865 में अमरीका में दास प्रथा का उन्मूलन हुआ, उसी तरह भारत में भी एक दिन जातिगत भेदभाव के सभी स्वरूपों का उन्मूलन होगा। फुले ने लिखा कि ब्रिटिश शासन ने दमितों को शारीरिक गुलामी से मुक्ति दिलाई (ईस्ट इंडिया कंपनी के शासनकाल के दौरान सरकार ने 1843 में इंडियन स्लेवरी एक्ट पारित कर आर्थिक गुलामी के सभी स्वरूपों को प्रतिबंधित कर दिया था। उसके पहले, 1807 में अंग्रेजों ने गुलामों की खरीद-फरोख्त पर रोक लगाई थी)। फुले ने यह आशा व्यक्त की कि सरकार दमितों को आवश्यक शिक्षा उपलब्ध करवाएगी और शिक्षा प्रदान करने के इस “अत्यावश्यक कार्य पर ध्यान देगी” और “आमजनों को कुटिल भट्टों की मानसिक गुलामी से मुक्त करवाएगी” (फुले खंड एक 1991)

और अब वर्तमान 

यह दिलचस्प है कि अफ़्रीकी-अमरीकी दासता विरोधी कार्यकर्ताओं ने भी फुले की तरह “मानसिक गुलामी” शब्द का प्रयोग किया। दमितों की मुक्ति के दोनों के प्रयासों में भी कई समानताएं हैं। गुलामगिरी  के प्रकाशन के 64 साल बाद, सन् 1937 में, मार्कस गार्वे ने लिखा, “हम अपने आप को मानसिक गुलामी से मुक्त करेंगे क्योंकि अन्य लोग हमारे शरीर को तो मुक्त कर सकते हैं, परंतु हमारे दिमाग को हमें ही मुक्त करना होगा।” सन् 1979 के आसपास, रेगे (गायन शैली) महानायक, जमैका के गायक और गीत लेखक बॉब मारले ने अपने प्रसिद्ध ‘रिडेम्पशन सोंग’ में भी इसी शब्दावली का उपयोग करते हुए “मानसिक गुलामी से स्वयं को मुक्त करने” की बात कही। 

अमरीकी गृहयुद्ध के एक सदी बाद, अमरीका के ब्लैक पैंथर्स से प्रभावित भारत के दलित कार्यकर्ता नामदेव ढसाल और ज.वि. पवार आदि ने दलितों के खिलाफ अत्याचारों का मुकाबला करने के लिए 1972 में महाराष्ट्र में दलित पैंथर्स की स्थापना की। दलितों की रक्षा के लिए इसी तरह की संस्था दलित पैंथर्स इयक्कम (इयक्कम का भावार्थ आंदोलन) की स्थापना 1982 में तमिलनाडु में हुई। आज इसे विधुथालाई चिरुथाईगल कात्ची या वीसीके (लिबरेशन पैंथर्स पार्टी) के नाम से जाना जाता है। वीसीके के नेता डॉ. थोल थिरुमवलावन हैं। वे एक अत्यंत प्रखर वक्ता और लेखक हैं और राज्य में उनके समर्थकों की खासी संख्या है। थिरुमवलावन और एक अन्य दलित बुद्धिजीवी और लेखक डी. रविकुमार को 2019 में सांसद चुना गया। अगर आज फुले हमारे बीच होते तो वे यह देखकर निराश भले ही होते, परंतु चकित नहीं कि दुनिया में अब भी जातिवाद और नस्लवाद जीवित हैं। वे यह देखकर प्रसन्न होते कि इन दोनों देशों के लोग आज भी समान अधिकारों, सम्मान और गरिमापूर्ण जीवन के लिए संघर्षरत हैं। वे आज के सभी ‘भले लोगों’ के साथ खड़े होकर दलितों, अश्वेतों और पूरी दुनिया के दमितों के संघर्ष में सबसे आगे रहते। 

डॉ. आंबेडकर का डॉ. डब्ल्यू.ई.बी. डु बोइस के साथ पत्राचार

दलितों की मुक्ति और उनके सशक्तिकरण की हर संभव राह की अपनी तलाश के भाग के रूप में डॉ. आंबेडकर ने अमरीकी अश्वेत नेता डॉ. डब्ल्यू.ई.बी. डु बोइस के साथ पत्राचार किया। आंबेडकर ने सन् 1913 से लेकर 1916 तक न्यूयॉर्क स्थित कोलंबिया विश्वविद्यालय में अध्ययन किया था। उस समय वे 22 साल के थे और वहीं उन्होंने पहली बार अछूत के कलंक से मुक्त जीवन के आनंद का अनुभव किया था। बाद में उन्होंने लिखा, “मेरे जीवन के सबसे अच्छे दोस्तों में कोलंबिया के मेरे कुछ सहपाठी और वहां के शानदार प्रोफेसर शामिल हैं।” भारत लौटने पर उनका साबका एक बार फिर भेदभाव और दलितों के  शोषण-उत्पीड़न की नृशंसता से हुआ। शोषण से दलितों की मुक्ति आंबेडकर के शेष जीवन का व्यक्तिगत मिशन बन गया।   

2 जुलाई, 1946 को आंबेडकर ने  डु बोइस को एक पत्र लिखा, जिसका उत्तर बोइस ने 31 जुलाई 1946 को दिया। इस पत्र में आंबेडकर ने लिखा कि उन्होंने उन्हें (डु बोइस को) पढ़ा है और उन्हें (डॉ. आंबेडकर स्वयं) अमरीका में अश्वेतों और भारत में दलितों के दमन में कई समानताएं नज़र आतीं हैं। आंबेडकर इस मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र संघ में उठाना चाहते थे और इसके लिए वे संयुक्त राष्ट्र के समक्ष प्रस्तुत नस्लवाद से संबंधित ज्ञापन की प्रति प्राप्त करने के इच्छुक थे। आंबेडकर ने अपने लेखों में अमरीका में दासों और भारत में दलितों के शोषण-उत्पीड़न की समानताओं और विभेदों पर प्रकाश डाला है। आंबेडकर का पत्र और डु बोइस का उत्तर यहां प्रकाशित किया जा रहा है:

अपने पत्रोत्तर में डु बोइस ने आंबेडकर को वह दस्तावेज भेजा जो वे चाह रहे थे और भविष्य में हर तरह के सहयोग का आश्वासन भी दिया। यह स्पष्ट नहीं है कि आंबेडकर ने दलितों के मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र संघ में उठाने की दिशा में आगे कोई कार्यवाही की अथवा नहीं। शायद 1946 में उनकी उर्जा और समय ब्रिटिश सरकार द्वारा देश का शासन भारतीय नेताओं को सौंपे जाने से उत्पन्न स्थितियों में व्यय होने लगा। दूसरी ओर, डु बोइस अत्यंत खिन्न थे क्योंकि अमरीका में नस्लवादी आचरण को मानवाधिकारों का उल्लंघन निरुपित करते हुए उनकी शिकायत को नवगठित संयुक्त राष्ट्र संघ के समक्ष प्रस्तुत करने के उनके प्रयासों पर पूर्ण विराम लगा दिया गया था। शायद इस कारण भी आंबेडकर ने दलितों का मसला संयुक्त राष्ट्र संघ में उठाने का इरादा त्याग दिया होगा। 

समाजशास्त्री, लेखक और नेता डॉ डब्ल्यू.ई.बी. डु बोइस

विलियम एडवर्ड बुरघार्ट डु बोइस का जन्म 23 फरवरी, 1868 को ग्रेट बारिंगटन, मासेचुसेट्स, अमरीका में हुआ था। उनकी मां का नाम मैरी सिल्विना बुरघार्ट और पिता का नाम अल्फ्रेड डु बोइस था। उनकी मां का परिवार उन स्वतंत्र अश्वेतों के समुदाय से था जो 100 वर्षों से भी अधिक समय से बर्कशायर हिल्स में रह रहे थे। उनके पिता का जन्म हैती में हुआ था और वे फ्रांसीसी व अफ़्रीकी मूल के थे। डु बोइस ने फिस्क विश्वविद्यालय, नैशविल, टेनेसी में शिक्षा प्राप्त की। यह विश्वविद्यालय एक लम्बे समय से अश्वेतों की शिक्षा का केंद्र था। उन्होंने हार्वर्ड विश्वविद्यालय से बीए और एमए किया। वे जर्मनी के फ्रीडरिच-विल्हेल्म्स विश्वविद्यालय में स्नातक विद्यार्थी रहे और उन्होंने 1895 में हार्वर्ड विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि हासिल की। सन् 1958 में उन्हें जर्मनी के होम्बोल्ट विश्वविद्यालय ने मानद डॉक्टरेट से विभूषित किया। डु बोइस 1897 से लेकर 1910 और फिर 1934 से लेकर 1944 तक एटलांटा विश्वविद्यालय में इतिहास, समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र के प्राध्यापक रहे। आधी सदी से भी अधिक समय तक एक सम्मानित लेखक, संपादक और अपने लोगों के नेता के रूप में उनकी प्रतिष्ठा रही। कहने की ज़रुरत नहीं कि डु बोइस और आंबेडकर के जीवन और रुचियों में कई साम्यताएं रहीं होंगीं।    

घाना के प्रथम प्रधानमंत्री क्वाम नेक्रुमा ने डु बोइस को अपने देश आने का निमंत्रण दिया। घाना स्वतंत्रता हासिल करने वाला पहला (दक्षिणी सहारा) अफ़्रीकी देश था। नेक्रुमा चाहते थे कि डु बोइस, इनसाइक्लोपीडिया अफ्रीकाना  के लेखन की अपनी परियोजना पूरी करें। इस परियोजना की परिकल्पना डु बोइस ने सर्वप्रथम 1909 में की थी। डु बोइस की इच्छा थी कि वे अफ्रीका के उन रहवासियों, जो ओल्ड वर्ल्ड के दूसरे देशों अथवा अन्य महाद्वीपों में चले गए थे या भेज दिए गए थे, के सामाजिक, सांस्कृतिक और वैज्ञानिक ज्ञान का दस्तावेजीकरण करें। वे उनमें से ऐसे व्यक्तियों के बारे में लिखने में भी दिलचस्पी रखते थे, जो बुद्धिजीवी, वैज्ञानिक अथवा कलाकार बने और अन्य प्रमुख अफ्रीकियों और अफ़्रीकी-अमरीकियों के बारे में भी। 

घाना में बसने और वहां का नागरिक बनने के दो साल बाद, 27 अगस्त, 1963 को डु बोइस का देश की राजधानी अक्रा में निधन हो गया। इसके साथ ही एक लंबे और अत्यंत फलदायक जीवन का अंत हो गया। उस समय डु बोइस 95 वर्ष के थे और उनकी मृत्यु रेवरेंड मार्टिन लूथर किंग जूनियर के नेतृत्व में प्रसिद्ध ‘मार्च ऑन वाशिंगटन’ के ठीक एक दिन पहले हुई थी। इसी मार्च में डॉ. किंग ने अपना अमर भाषण ‘आई हैव ए ड्रीम’ दिया था। घाना में डु बोइस की मृत्यु की घोषणा उसी दिन नेशनल एसोसिएशन फॉर द एडवांसमेंट ऑफ़ कलर्ड पीपल (एनएएसीपी) के सचिव रोय विल्किंस ने की। डु बोइस अलग-अलग नस्लों के उन महिलाओं और पुरुषों में शामिल थे, जिन्होंने 1909 में नागरिक अधिकार संगठन  एनएएसीपी की स्थापना की थी। अफ़्रीकी-अमरीकियों की मुक्ति की दिशा में आशानुरूप प्रगति न होने से अपने जीवन के संध्याकाल में डु बोइस काफी निराश और हताश हो गए थे। पूंजीवाद से उनका मोहभंग हो गया था और अमरीकी राजनैतिक ताकतों में गहरे तक जड़ जमाये नस्लवाद के कारण अमरीका से भी। उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ले ली। उनकी मान्यता थी कि पूंजीवादी विचारधारा को सुधारना संभव नहीं है और स्वार्थ से चालित इस दुनिया में कभी सब लोगों का भला नहीं हो सकता। डु बोइस ने अपनी अमरीकी नागरिकता को भी त्याग दिया था।  

एनएएसीपी, द क्राइसिस  पत्रिका और पुस्तकें 

डु बोइस की जर्मनी, इंग्लैंड व अन्य यूरोपीय देशों के अलावा सोवियत संघ, लातिन अमरीकी और अफ्रीकी देशों की यात्राओं से उन्हें विभिन्न राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक प्रणालियों से परिचय प्राप्त करने का मौका मिला। उन्हें एक अग्रणी बुद्धिजीवी कार्यकर्ता, कवि, समाजविज्ञानी, दार्शनिक, प्रोफेसर, आर्थिक इतिहासविद्, पत्रकार और सामाजिक समालोचक के रूप में याद किया जाता है। वे एक साहसी नागरिक अधिकार नेता और बीसवीं सदी के शुरूआती दशकों में अफ्रीकी-अमरीकियों के अधिकारों के अग्रणी प्रवक्ता थे। सन् 1909 में उन्होंने अन्य अफ्रीकी-अमरीकी नेताओं और दासता विरोधी श्वेतों के साथ मिलकर नेशनल एसोसिएशन फॉर द एडवांसमेंट ऑफ कलर्ड पीपुल (एनएएसीपी) की स्थापना की। एनएएसीपी ने हर किस्म के नस्लीय भेदभाव, हिंसा और अफ्रीकी-अमरीकियों के साथ असमान व्यवहार का विरोध किया। डू बोइस 1910 में एनएएसीपी के आधिकारिक प्रकाशन द क्राईसिस  के पहले संपादक बने और उन्होंने 23 साल तक इस पत्रिका का संपादन किया। यह प्रकाशन इतना लोकप्रिय हुआ कि दस साल के भीतर उसके ग्राहकों की संख्या एक लाख को पार कर गई। यह पत्रिका अब भी प्रकाशित होती है और इसमें यह उल्लेख रहता है कि डु बोइस उसके संस्थापक संपादक थे। यह अमरीका के इतिहास में नस्लवाद और सामाजिक न्याय पर केन्द्रित सबसे प्रभावी पत्रिका मानी जाती है

‘द सोल्स ऑफ़ ब्लैक फोक’ (1903) व ‘द क्राइसिस’ (1911) और ‘डार्क प्रिंसेस’ (1928) के प्रथम संस्करणों के मुखपृष्ठ. साभार: बिटवीन द कवर्स – रेयर बुक्स इंक, न्यू जर्सी व विकिपीडिया

डु बोइस की रचनाओं में से सबसे प्रसिद्ध है द सोल्स ऑफ ब्लेक फोक, जो सर्वप्रथम 1903 में प्रकाशित हुई। यह पुस्तक सामाजिक डाक्यूमेंट्री, इतिहास और आत्मकथा तो है ही, इसके साथ-साथ इसमें मानवशास्त्रीय विवेचना भी है। परंतु मूलतः यह पुस्तक डु बोइस के अफ्रीकी-अमरीकियों की मुक्ति और सशक्तिकरण के संबंध में दृष्टिकोण को प्रतिबिंबित करती है। उन्होंने लिखा था कि “बीसवीं सदी की समस्या कलर लाईन की समस्या है।” कलर लाईन से आशय है विभिन्न नस्लीय समुदायों के बीच सामाजिक, आर्थिक और नस्लीय अवरोध। उन्होंने 62 साल की अवधि में दर्जनों पुस्तकें लिखीं, जिनमें ब्लेक रिकंस्ट्रक्शन इन अमेरिका 1860-1880, ऑफ द डॉन ऑफ फ्रीडम, द गिफ्ट ऑफ ब्लेक फोक व अगेन्स्ट रेसिज्म  शामिल हैं। 

अंतर्राष्ट्रीय नेता के रूप में डू बोइस

डु बोइस ने स्वयं को किसी एक देश के अश्वेतों तक सीमित नहीं रखा। पूरी दुनिया के अश्वेत उनके अध्ययन और कार्य का विषय थे। उन्हें अखिल अफ्रीकी आंदोलन का ‘पितामह’ माना जाता है। लंदन में 1900 में आयोजित एक सम्मेलन में उन्होंने पहली बार अपनी यह भविष्यवाणी की थी कि ‘बीसवीं सदी की समस्या कलर लाइन की समस्या है’। उन्होंने यही बात अपनी पुस्तक द सोल्स ऑफ ब्लेक फोक में कही। उन्होंने सारी दुनिया के लोगों, विशेषकर अफ्रीका के यूरोपियन उपनिवेशों, के निवासियों के साथ न्याय की बात कही, चाहे फिर वे किसी भी वर्ग या नस्ल के क्यों न हों। “रंग और नस्ल, काले और गोरे लोगों के बीच भेद का आधार नहीं होना चाहिए, चाहे फिर इन लोगों की योग्यता और सामाजिक दर्जा कुछ भी क्यों न हो”, उन्होंने कहा। डू बोइस ने 1919 में पेरिस में पहली बड़ी अखिल अफ्रीकी कांग्रेस का आयोजन किया। यह वही समय था जब वर्साइ शांति समझौते, जिसने प्रथम विश्वयुद्ध का अंत किया, पर बातचीत चल रही थी। डु बोइस चाहते थे कि इस निर्णायक मौके पर अश्वेत लोगों की आवाज सुनी जाय। इसी तरह की तीन और कांग्रेस आयोजित की गईं। समय के साथ इस आंदोलन का नेतृत्व नेक्रूमा जैसे अफ्रीकी नेताओं के हाथों में चला गया। 

द क्राईसिस में प्रकाशित सामग्री से पता चलता है कि डु बोइस का फोकस पूरे विश्व पर था। यह दिलचस्प है कि पत्रिका में ‘द नीग्रोज ऑफ इंडिया’ एवं ‘आर्यन वर्सेस अनटचेबिल इन इंडिया’ शीर्षक से दो लेख क्रमशः दिसंबर 1942 और जनवरी 1943 में प्रकाशित हुए। इनमें भारत में दलितों की दुर्दशा पर प्रकाश डाला गया और आंबेडकर को दलितों के प्रवक्ता के रूप में प्रस्तुत किया गया। इन लेखों के रचयिता थे हेरी पेक्सटन होवर्ड और जब ये लेख प्रकाशित हुए उस समय रॉय विल्किंस इस पत्रिका के संपादक थे। यह अंबेडकर और डु बोइस के बीच पत्राचार के तीन वर्ष पहले की बात है। पत्रिका के पृष्ठ 378 पर आंबेडकर के व्यक्तित्व का जीवंत वर्णन किया गया है। दूसरे लेख में होवर्ड ने जोतीराव फुले का हवाला भी दिया है। 

सन् 1942 और 1943 में प्रकाशित ‘दी क्राइसिस’ पत्रिका के अंकों में दो अलग-अलग लेखों के पृष्ठ (साभार : गूगल बुक्स)

“हेरी पेक्सटन होवर्ड, सुदूर पूर्व में 25 वर्षों तक रहे हैं – 5 वर्ष तक जापान में और 19 वर्ष तक चीन में। वे द सोशलिस्ट एंड लेबर मूवमेंट इन जापान  पुस्तक के लेखक हैं, जिसके प्रकाशन के बाद उन्हें जापान से देशनिकाला दे दिया गया। उन्होंने चीन में कई समाचारपत्रों का संपादन किया, जिनमें शंघाई से प्रकाशित चायना कोरियर  शामिल है। वे सूचाऊ विश्वविद्यालय में चीन के कूटनीतिक इतिहास के प्राध्यापक भी रहे हैं। सन् 1940 में अमरीका लौटने के बाद से वे सुदूर पूर्व की समस्याओं के बारे में विपुल लेखन करते रहे हैं और इस विषय पर व्याख्यान भी देते रहे हैं।” (संपादक द्वारा लेखक का परिचय) 

सन् 1920 के दशक में डु बोइस की रूचि भारत के लोगों और उनके औपनिवेशिक शासकों में जागी. वे श्वेत प्राधान्य के विरूद्ध पूरी दुनिया के गैर-श्वेत लोगों, जिनमें अफ्रीका और एशिया के रहवासी शामिल थे, को एकजुट करना चाहते थे। निश्चय ही भारतीय लोगों में त्वचा के रंग की विविधता ने उन्हें आकर्षित किया होगा। डु बोइस ने पांच ऐतिहासिक उपन्यास भी लिखे। उनमें से एक का शीर्षक था डार्क प्रिसेंस (1928)। इस उपन्यास का मुख्य पात्र एक अफ़्रीकी-अमरीकी पुरुष है, जिसकी मुलाकात कौटिल्य नाम की एक भारतीय राजकुमारी से होती है। कौटिल्य अश्वेत लोगों के एक अंतर्राष्ट्रीय गठबंधन का हिस्सा है। यह गठबंधन पश्चिमी साम्राज्यवाद के खिलाफ है। इस उपन्यास ने डु बोइस को दुनिया के अश्वेत लोगों के इतिहास, उनके सौंदर्य और समाज को उनके योगदान की उनकी पसंदीदा थीम पर अपने विचार प्रस्तुत करने का मंच उपलब्ध करवाया। वे सभी नस्लों के अश्वेत लोगों का अंतर्राष्ट्रीय गठजोड़ बनाने के इच्छुक थे।

सामान्यताएँ और परस्पर सम्बन्ध   

डु बोइस की तरह आंबेडकर ने भी विपुल लेखन किया। उन्होंने एक दर्जन से अधिक पुस्तकें लिखीं। इसके अतिरिक्त, उनकी कई अन्य प्रस्तावित पुस्तकें अपूर्ण पाण्डुलिपियों के रूप में उपलब्ध हैं। उनके भाषणों और लेखों का संग्रह महाराष्ट्र सरकार ने 22 खण्डों में प्रकाशित किया है। चाहे मसला राजनैतिक हो, आर्थिक, प्रशासनिक, विधिक, भाषाई, मानवशास्त्रीय, धार्मिक, दार्शनिक या सामाजिक – आंबेडकर की विवेचना अत्यंत गहरी और तीखी है। सन् 1916 में कोलंबिया विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों की एक विचार गोष्ठी में प्रस्तुत उनका पहला शोधपत्र, कास्ट्स इन इंडिया: देयर मैकेनिज्म, जेनेसिस एंड डेवलपमेंट, भारतीय समाज की उनकी उत्कृष्ट समझ का द्योतक है। यहां से शुरू कर वे इस नतीजे पर पहुंचे कि जाति श्रम नहीं बल्कि श्रमिकों का विभाजन है। उन्होंने कहा कि भारतीय सामाजिक व्यवस्था ‘श्रेणीबद्ध असमानता’ की प्रणाली है, जिसमें नीचे से ऊपर की ओर जाने पर आदर बढ़ता जाता है और ऊपर से नीचे की ओर आने पर तिरस्कार। और यह भी कि वह एक स्केल है जिसमें नीचे से ऊपर जाने में घृणा बढ़ती है और ऊपर से नीचे आने में अपमान। जिन मूल्यों ने उनके जीवन, कार्यों और लेखन को आधार दिया वे थे न्याय, समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व। डु बोइस ने घोषणा की, “मैं सभी मनुष्यों की स्वतंत्रता में विश्वास करता हूँ…सांस लेने के अधिकार, वोट देने के अधिकार और अपने मित्र चुनने के अधिकार में…।” सन् 1936 में [जात-पांत तोड़क मंडल द्वारा लाहौर में]आंबेडकर को एक सभा में भाषण देने के लिए आमंत्रित किया गया। परंतु जब आंबेडकर ने आयोजकों द्वारा उनके भाषण के कुछ हिस्सों को बदलने की मांग अस्वीकार कर दी तो कार्यक्रम ही रद्द कर दिया गया। यह भाषण, जिसे आंबेडकर ने एनीहीलेशन ऑफ़ कास्ट शीर्षक से प्रकाशित किया, आज भी जाति प्रथा का सबसे पैना विश्लेषण है। 

सन् 1936 में प्रकाशित ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ का प्रथम संस्करण

दलितों ने उनकी इस रचना को अनेक भाषाओं में अनूदित किया है। वे आज भी उसे पढ़ते हैं और आंबेडकर की सोच और दृष्टिकोण का सम्मान करते हैं। परंतु द्विज समाज उस पुस्तक को पढने से बचता है और उसके निष्कर्षों के निहितार्थों को स्वीकार करने से सकुचाता है। आंबेडकर की अन्य रचनाओं को भी ऊंची जाति के लोग छूना नहीं चाहते। व्यापक विश्व ने भी आंबेडकर की अंतर्दृष्टि को समझने में बहुत देरी कर दी जबकि वे सभी देशों के लिए उपयोगी हैं। परंतु पिछले कुछ सालों से अध्येताओं ने आंबेडकर की ओर ध्यान देना शुरू किया है। आंबेडकर का “शिक्षित बनो, संगठित हो और संघर्ष करो” का आह्वान केवल भारत के दलितों के लिए है, यह मानना भूल होगी। यह दुनिया के सभी दबे-कुचलों के लिए है जो न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के लक्ष्यों को हासिल करना चाहते हैं।

अमरीका के समाज में सुधार के दिशा में प्रगति के अभाव से डु बोइस निराश थे। आंबेडकर भी हिंदू धर्म में सुधार लाने और जाति-विहीन समाज का निर्माण करने के अपने प्रयासों की असफलता से हताश थे, क्योंकि उनकी मान्यता थी कि इसके बगैर भारत एक संवैधानिक प्रजातंत्र के रूप में बना नहीं रह सकेगा। सन् 1935 में की गयी अपनी घोषणा कि “मैं एक हिंदू के रूप में नहीं मरूंगा” का पालन करते हुए अक्टूबर, 1956 में उन्होंने समतावादी बौद्ध धर्म अपना लिया। इसके कुछ ही महीने बाद दिसंबर, 1956 में उनकी मृत्यु हो गई। अपनी मौत से पहले आंबेडकर ने अपनी पुस्तक द बुद्धा एंड हिज धम्म  का लेखन पूरा कर लिया था।  

आंबेडकर (1891-1956) और डु बोइस (1868-1963) समकालीन थे। मुक्ति की प्रक्रिया के बारे में उनके दृष्टिकोणों की समानताओं की ओर कई अध्येताओं ने हमारा ध्यान आकर्षित किया है। आंबेडकर ने 1913 से लेकर जून 1916 तक कोलंबिया विश्वविद्यालय में अध्ययन किया। इसके बाद वे आगे की पढ़ाई के लिए लंदन चले गए। उन्होंने सन् 1915 में एमए किया, कोलंबिया विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि हासिल की और फिर लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स से एमएससी और डीएससी की डिग्रियां भी प्राप्त कीं। वे वकील भी थे। 

न्यूयॉर्क शहर में कोलंबिया विश्वविद्यालय के बगल में हार्लेम नामक एक इलाका है, जहां 1904 में दक्षिणी राज्यों और कैरिबियन द्वीपों से आने वाले प्रवासी बड़ी संख्या में बसने लगे। बुकर टी. वाशिंगटन (1856-1915), जो दूरस्थ दक्षिणी राज्यों में कौशलों की शिक्षा और समझौतों को अश्वेत लोगों के जीवनयापन का सहारा बनाने की रणनीति के पैरोकार थे, का युग समाप्त हो रहा था और एक नए युग का उदय हो रहा था, जिसमें अश्वेत निर्भीक होकर अपने नागरिक और मानव अधिकार मांगने वाले थे। इस सन्दर्भ में 1909-1910 में एनएएसीपी के स्थापना एक मील का पत्थर था। कोलंबिया विश्वविद्यालय और एनएएसीपी के बीच अनेक मज़बूत रिश्ते थे। 

कोलंबिया के दो सम्मानित शिक्षक एनएएसीपी की पहली सामान्य परिषद् के सदस्य थे: आंबेडकर के पसंदीदा गुरु और दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक जॉन डेवी और उनके पीएचडी गाइड व अर्थशास्त्र और सामाजिक विज्ञान के प्राध्यापक एडविन आर.ए. सेलिग्मैन। एनएएसीपी के एक अन्य प्रमुख सदस्य थे जोएल ई स्पिन्गार्न। वे विश्वविद्यालय के स्नातक और पूर्व शिक्षक थे. स्पिन्गार्न संस्था के बोर्ड के अध्यक्ष और कोषाध्यक्ष और संस्था के दूसरे अध्यक्ष थे। उन्होंने कुल मिलकर 26 सालों तक संस्था में काम किया। वे सभी डॉ डब्ल्यू.ई.बी. डु बोइस के साथ जुड़े हुए थे। यह स्वाभाविक है कि कोलंबिया के शिक्षक और विद्यार्थी डु बोइस द्वारा सम्पादित द क्राइसिस  के ग्राहक और पाठक रहे होंगे। यह भी संभव है कि आंबेडकर उन पाठकों में से एक हों। यद्यपि अमरीका में उनके रहवास के दौरान उन्होंने नस्ल पर कुछ लिखा हो, इसका कोई सबूत नहीं है। आंबेडकर और बोइस एक ही शहर न्यूयॉर्क में रहते थे, परंतु वे एक-दूसरे से कभी मिले नहीं। 

सामाजिक संघर्ष में कला की भूमिका 

द क्राइसिस, निश्चित रूप से हार्लेम रेनासां (ज्ञानोदय) (1917-1930) का भाग थी। जिस समय इस ज्ञानोदय का उभरना शुरू हुआ उस समय आंबेडकर न्यूयॉर्क में ही थे। हार्लेम रेनासां, अश्वेतों द्वारा अपने साहित्य, कला, संगीत और संस्कृति पर गर्व जताने का आंदोलन था। इस आंदोलन को प्रवासी अश्वेतों के साथ-साथ, प्रथम विश्वयुद्ध (1914-1918) में भाग लेकर लौट रहे सिपाहियों ने भी बढ़ावा दिया। बढ़ते भेदभाव और हिंसक नस्लवाद की प्रतिक्रिया में अश्वेतों के अपने सामाजिक और क़ानूनी अधिकार हासिल करने के तेज होते संघर्ष ने इस आंदोलन को मजबूती दी और इस आंदोलन ने उस संघर्ष को ताकत दी।  

इस संघर्ष के सभी सैनिक, शीर्ष चिन्तक, समाजसुधारक और दासप्रथा उन्मूलन आंदोलन के झंडाबरदार फ्रेडरिक डगलस (1881-1895) की रचनाओं के प्रति ऋणी थे। 

डु बोइस की यह मान्यता थी कि नस्लीय समानता की स्थापना में कलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका है। द क्राइसिस  के संपादक बतौर उन्होंने प्रदर्शनकारी कलाओं में निष्णात अनेक अफ़्रीकी-अमरीकियों कलाकारों और लेखकों के दिल की बात को पत्रिका में स्थान दिया। यह वह दौर था जब कई अश्वेत नेता अपने लोगों की मुक्ति और प्रगति के लिए अलग-अलग रणनीतियां प्रस्तावित कर रहे थे। जमैका के मार्कस गार्वीम, जो यूनिवर्सल नीग्रो इम्प्रूवमेंट एसोसिएशन के नेता थे, का प्रस्ताव था कि दुनिया भर के सभी अश्वेतों को पुनः अफ्रीका में बसाया जाय। डु बोइस और एनएएसीपी का अश्वेतों की समस्याओं और उनके हल के प्रति दृष्टिकोण गार्वी से बहुत अलग था। डु बोइस इस मामले में बुकर टी. वाशिंगटन के इस सुझाव से भी सहमत नहीं थे कि वर्तमान सामाजिक विभाजनों को स्वीकार कर उनके साथ जिया जाय। वे सभी नस्लों के संपूर्ण एकीकरण के लिए अनवरत काम करते रहे। 

दक्षिण भारत में जाति-विरोधी अभियान

अटलांटिक महासागर के उस पार से दासों को अमरीका लाने का सिलसिला करीब 500 साल पहले शुरू हुआ था। भारतीय जाति व्यवस्था – जो एक प्रकार की जन्म-आधारित दासता है – 2000 वर्षों से भी अधिक पुरानी है। जाति के प्रश्न पर अनेक सुधारकों ने विचार किया। बुद्ध ने जातिगत पदक्रम की निंदा की क्योंकि वह समाज को बांटती थी और कई प्रकार की बुराईयों की जननी थी। जाति प्रथा ने पहली सदी में आकार लेना शुरू किया था। इसका आधार बनी मनु की संहिता, जिसमें चारों वर्णों और अवर्णों के दर्जे और उनकी जिम्मेदारियों का वर्णन किया गया है। अगली कुछ सदियों में इस व्यवस्था ने पूरे भारत में अपनी जडें जमा लीं और इसके साथ ही शुरू हुआ इसका प्रतिरोध और इसमें सुधार लाने के प्रयास। इन प्रतिरोधों और प्रयासों की कहानियां हम आज भी पूरी तरह नहीं जानते। आज से 2000 वर्ष पूर्व के तमिल साहित्य में भी जन्म-आधारित भेदभाव के प्रतिरोध में गीत पाए जाते हैं। देश के शीर्ष बुद्धिजीवियों में से एक थे तमिल दलित तिरुवल्लुवर जिन्होनें समाज को कई वर्गों में बांटे जाने की निंदा की और संपूर्ण मानव जाति को एक परिवार का सदस्य बताया। तिरुक्कुरल  शीर्षक से उन्होंने एक अधार्मिक आचारसंहिता लिखी। मनोहारी दोहों में लिखी इस पुस्तक का 40 से अधिक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। जाति का प्रतिरोध आगे भी जारी रहा। 

जिस समय डु बोइस अफ़्रीकी देशों और वहां के निवासियों की उपेक्षित संस्कृति, इतिहास और उपलब्धियों का दस्तावेजीकरण कर रहे थे, उस समय दक्षिण भारत में कई जाति-विरोधी नेता सक्रिय थे। उदारमना तमिल अध्येता, समाज सुधारक और कार्यकर्ता अयोथिथास पंडिथर (1845-1914) ने दमनकर्ता ‘उच्च जातियों’ द्वारा दलितों के संबंध में प्रचलित कथाओं का विखंडन किया। उन्होंने मज़बूत तर्कों से यह साबित करने का प्रयास किया कि दलित पूर्व बौद्ध हैं और एक समय बुद्धिजीवी थे। सन् 1891 में उन्होंने एक बौद्ध और द्रविड़ संगठन की स्थापना की और अनेक पत्रिकाएं निकालीं जिन्हें भारत और उसके बाहर रहने वाले तमिल चाव से पढ़ते थे। पड़ोसी केरल राज्य में नारायण गुरु (1856-1928) और अय्यंकाली (1863-1943) जैसे नेता हुए जिन्होंने संगठनों, विरोध प्रदर्शनों और साहित्य के जरिए जातिगत प्रभुत्व को चुनौती दी और दलितों और अन्य दमित समुदायों की प्रगति के लिए काम किया। आंबेडकर के समकालीन तमिलनाडु के ई.वी. रामासामी पेरियार (1879-1973) एक तार्किकतावादी थे, उन्होंने जाति के उन्मूलन और महिलाओं की शिक्षा के लिए काम किया। हाशियाकृत समुदायों के शोषण, अंधश्रद्धा और पुरोहितवाद के विरुद्ध उनके अनवरत संघर्ष ने तमिल लोगों की मानसिकता को आमूलचूल बदल डाला और वे अपने अतीत पर गर्व करने लगे। कई राजनैतिक दल आज भी पेरियार की विरासत को जीवित रखे हुए हैं।  

आंबेडकर और डु बोइस में समानताएं

डु बोइस नस्लों से परे सभी अमरीकियों के एकीकरण और सभी के लिए मानवाधिकारों के पक्ष में थे। उनका यह दृष्टिकोण आंबेडकर द्वारा उनकी महान कृति जाति का विनाश (1936) में व्यक्त विचारों से मिलता-जुलता है। इस पुस्तक में आंबेडकर यह आशा व्यक्त करते हैं कि सभी भारतीय मनुष्यत्व के नाम पर एक होंगे। बाद में आंबेडकर ने गुलामी और जन्म-आधारित जातिगत दमन के बीच अंतर को स्पष्ट किया। उनका मानना था कि अछूत प्रथा, गुलामी का परोक्ष स्वरुप है और इसलिए उससे लड़ना और उस पर विजय पाना ज्यादा कठिन है। आंबेडकर चाहते थे कि उनके लोग शिक्षित हों, रोज़गार प्राप्त करें, जागृत हो और संगठित होकर अपने अधिकारों के लिए लड़ें। वे कहते थे कि उन्हें ऐसे बुद्धिजीवियों की बातों में नहीं आना चाहिए जो गांवों को रूमानी और आदर्श स्थान बताते हैं क्योंकि गांव, दरअसल, दमन के केंद्र है। डु बोइस को यह अहसास था कि अफ़्रीकी-अमरीकियों को उच्च गुणवत्ता की शिक्षा की ज़रुरत है ताकि वे काकेशियन लोगों से प्रतियोगिता कर सकें। एनएएसीपी और द क्राइसिस  पत्रिका की स्थापना के पीछे उनके जो कई उद्देश्य थे, उनमें से एक यह भी था। आंबेडकर ने भी शैक्षणिक संस्थाओं की स्थापना की और कई पत्रिकाएँ और अख़बार निकाले ताकि वे अपने विचार लोगों तक पहुंचा सकें तथा उन्हें जागृत कर सकें। इनमें से पहला था मूकनायक (1920), जिसका प्रकाशन तीन साल तक चला। इसके बाद आंबेडकर ने बहिष्कृत भारत (1927-1929), जनता (1930-1956) और प्रबुद्ध भारत (1956) का प्रकाशन किया। एक राजनैतिक दल की स्थापना करने की उनकी योजना उनकी मृत्यु के बाद (रिपब्लिकन पार्टी, 1956) ही पूरी हो सकी। 

जैसा कि पहले बताया जा चुका है, डब्ल्यू.ई.बी. डु बोइस सभी को बराबर अधिकार दिलवाने के अपने प्रयासों में रोड़े अटकाए जाने से अत्यंत खिन्न हो गए थे। इस कारण उनके जीवन के अंतिम वर्षों में उन्होंने अपनी राह बदल ली। वे घाना में रहने चले गए जहाँ उनका गर्मजोशी से स्वागत हुआ। यह दिलचस्प है कि अपने जीवन के अंतिम दौर में आंबेडकर ने सार्वजनिक रूप से हिंदू धर्म को नकार कर 1956 में बौद्ध धर्म अपना लिया। इसके पांच साल बाद, डु बोइस ने अपना देश छोड़ दिया। 

जब डॉ. मार्टिन लूथर किंग ने भारत से लौटने पर खुद को माना ‘अछूत’

समान अधिकारों के लिए संघर्ष में भारतीयों और अश्वेत अमरीकियों की साझेदारी आगे भी जारी रही (रेवरेंड डॉ. मार्टिन लूथर किंग जूनियर के बारे में यह सर्वज्ञात है कि उन्होंने अहिंसक प्रतिरोध का अपना तरीका भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन में एम.के. गांधी के प्रयोग से सीखा था। सन् 1959 में किंग दंपत्ति ने एक माह की भारत यात्रा पर आये जिस दौरान उन्हें यह समझ में आया कि अश्वेत अमरीकियों और भारतीयों में और भी समानताएं हैं। “हम लोगों को भाई-भाई समझा जाता है और इसमें हमारी त्वचा का रंग बहुत मददगार है।” 

कोरेटा एवं मार्टिन लूथर किंग भारत में, फरवरी 1959 (साभार: द मार्टिन लूथर किंग जूनियर रिसर्च एंड एजुकेशन इंस्टिट्यूट, स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय / द वर्ल्ड हाउस प्रोजेक्ट)

अपनी यात्रा के दौरान, किंग दंपत्ति त्रिवेंद्रम के एक स्कूल भी गए, जहां मुख्यतः दलित बच्चे पढ़ते थे। वहां के अपने अनुभव को किंग ने 1965 में एबेनेज़ेर बाप्टिस्ट चर्च में अपने धर्मोपदेश में सुनाया। उन्होंने कहा, “स्कूल के प्राचार्य ने मेरा परिचय देना शुरू किया। अंत में वे बोले, ‘बच्चों, मैं तुम्हे अमरीका से आए हमारे अछूत साथी से मिलवाना चाहता हूं’ एक क्षण के लिए मैं चौंक गया और मुझे गुस्सा भी आया कि मुझे अछूत बताया जा रहा है… फिर मैंने अपने आप से कहा, “हों, मैं अछूत ही तो हूं. और अमरीका का हर नीग्रो अछूत है।” 

दूरगामी योगदान

आंबेडकर और डु बोइस दोनों ने 20वीं सदी में नस्लवादी और औपनिवेशिक ताकतों से लड़ाई में प्रचुर बौद्धिक और व्यावहारिक योगदान दिया। उनके पहले, फुले ने मुक्ति आन्दोलन की मशाल प्रज्वलित की थी। भारत का संविधान और आंबेडकर का लेखन और जीवन उन सभी लोगों के लिए आज भी प्रेरणा का स्रोत हैं जो एक न्यायपूर्ण दुनिया बनाना चाहते हैं। एनएएसीपी आज भी अधिकारों की लड़ाई में अगुआ बना हुआ है। इन दूरदृष्टाओं ने अपनी असाधारण मेधा का उपयोग अल्पसंख्यक लोगों की स्वतंत्रता और गरिमा की लड़ाई को मजबूती देने के लिए किया। उनका कैनवास वैश्विक था और वे पूरी दुनिया के दमितों के हितचिंतक थे। उनकी उपलब्धियां, उनकी रचनाएं और उनकी विरासत आज, 150 साल बाद भी, एक शक्तिशाली ताकत है और हमें प्रेरित और प्रभावित करती है।   

कई देशों में नस्लवाद और नस्लीय हिंसा आज भी जारी है और भारत में दलितों के साथ भेदभाव और उन पर अत्याचार भी, भले ही इसके रूप बदल गए हों। लोगों, विशेषकर सत्ताधारियों, की पुरातनपंथी सोच और पूर्वाग्रह, संचार के वैश्विक साधनों के कारण और स्पष्ट नज़र आने लगे हैं। सच को तोड़मरोड़कर विघटन, हिंसा और दमन को बढ़ावा दिया जा रहा है। आज भी फुले, डु बोइस और आंबेडकर की बातें सच हैं। उनके बौद्धिक तर्क, उनकी राजनैतिक प्रतिबद्धतायें, उनके कार्यक्रम और आंदोलन और सभी लोगों को उनके मानवाधिकार दिलवाने का उनका अटूट संकल्प, सारी दुनिया के समाजों में परिवर्तन के लिए आज भी प्रासंगिक है।             

                                                   

(मैं दोनों पत्रों की प्रतियाँ उपलब्ध करवाने के लिए डब्ल्यू.ई.बी. डु बोइस लाइब्रेरी, मासेचुसेट्स विश्वविद्यालय, एमहर्स्ट के डिपार्टमेंट ऑफ़ स्पेशल कलेक्शन्स एंड यूनिवर्सिटी आर्काइव्ज का धन्यवाद करता हूँ. (आंबेडकर के पत्र की एक प्रति सिद्धार्थ कॉलेज लाइब्रेरी बम्बई में कैबिनेट मिशन और अन्य नेताओं के साथ उनके पत्राचार से सम्बंधित फाइल में भी होना बताया जाता है: देखें ए.एम. राजशेखरैय्या)  

 

संदर्भ

एलरिज, डेरिक पी. (2003). डब्ल्यू.ई.वी.डु बोइस इन जॉर्जिया. 2003. https://www.georgiaencyclopedia.org/articles/history-archaeology/w-e-b-du-bois-georgia

आंबेडकर, बी.आर. डॉ बाबासाहेब आंबेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेस  (https://archive.org/details/Dr.BabasahebAmbedkarWritingsAndSpeechespdfsAllVolumes/page/n3)

नोट: कलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ आंबेडकर के खंड 5 के अध्याय 3 का शीर्षक है ‘स्लेव्स एंड अनटचेबिल्स’ (पृष्ठ 9-17). इसी खंड के तीसरे भाग के अध्याय 8 का शीर्षक है ‘रूट्स ऑफ़ द प्रॉब्लम’. “पैरेलल केसेस” शीर्षक अध्याय 3 में आंबेडकर प्राचीन रोम में दमन, इंग्लैंड में बटाईदार किसानों और यहूदियों की दासता और “नीग्रोज एंड स्लेवरी” (पृष्ठ 75-88) की चर्चा की है. 

अमेरिकन बोर्ड ऑफ़ कमिश्नर्स फॉर फॉरेन मिशंस (एबीसीएफएम). मेमोरियल पेपर्स ऑफ़ द अमेरिकन मराठी मिशन, 1813-1881. बॉम्बे: एजुकेशन सोसाइटी प्रेस, भायकुला. 1882. https://archive.org/details/memorialpapersa00missgoog  (15 जनवरी 2021) 

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(अनुवाद: अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल)

लेखक के बारे में

पी. दयानंदन

डॉ. पी. दयानंदन ने मद्रास क्रिस्चियन कालेज में वनस्पतिशास्त्र का अध्यापन किया। वे मिशिगन विश्वविद्यालय में फुलब्राइट एवं नासा अध्येता रहे। उन्हें अनुसंधान हेतु सर सी. वी. रमन स्वर्णपदक एवं सर्वोतम शिक्षक पुरस्कार प्राप्त हुआ। दयानंदन की रूचि गुरूत्वाकर्षण जीवविज्ञान, पौधों के विकास, लाईट एंड स्केनिंग इलेक्ट्रान माईक्रोस्कोपी, पर्यावरण, क्रमागत विकास, मानव प्रवास के इतिहास, विज्ञान व धर्म, दलित सशक्तिकरण, पल्लवकालीन कला के इतिहास एवं तमिल साहित्य संबंधी अनुसंधान में है।

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