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बंगाल में सवाल टीएमसी को नहीं, भाजपा को रोकने का था : दीपंकर भट्टाचार्य

पश्चिम बंगाल में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में वामपंथी दलों को खाली हाथ रहना पड़ा। वहीं भाजपा की सीटों की संख्या 3 से बढ़कर 77 हो गई। इसकी वजहें क्या रही हैं और कोरोना महामारी के मद्देनजर देश में किस तरह की राजनीति की आवश्यकता है, इन सभी सवालों को लेकर भाकपा माले के राष्ट्रीय महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य से नवल किशोर कुमार ने दूरभाष पर बातचीत की

हाल ही में संपन्न हुए पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में वामपंथी दल एक भी सीट जीतने में नाकाम रहे। आपके हिसाब से इसकी वजह क्या रही?

पहला कारण तो यही कि इस बार के चुनाव को समझने में वामपंथी दलों ने, खासकर सीपीएम ने भारी चूक की। उन्हें इस बार लगा कि दस सालों से तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) की सरकार चल रही है और जनता के सामने प्रमुख सवाल यह है कि टीएमसी को कौन हटा रहा है। जबकि यह सवाल नहीं था। बल्कि सवाल यह था कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने 38-40 प्रतिशत वोट और 18 सीटों के साथ पश्चिम बंगाल में मजबूत दस्तक दी थी, उसे किस तरह से कौन रोकेगा? यह सवाल प्रमुख था। दूसरी गलती यह रही कि 2011 में सत्ता खोने के बाद से सीपीएम को विपक्षी दल के रूप में अपनी भूमिका निभानी थी। उसे 34 वर्षों तक सत्ता में रहने के बाद एक विपक्षी दल के रूप में खड़ा होना था। लेकिन वे गवर्नमेंट वाली मानसिकता में बने रहे। गवर्नमेंट वाली यह मानसिकता उनको ले डूबी है। इसकी तुलना अगर मैं बिहार विधानसभा-2015 के चुनाव से करूं तो उस चुनाव में जब लालू यादव और नीतीश कुमार एक हो गए थे, जो कि भाजपा के खिलाफ सबसे बड़ा गठबंधन बना था। हम उस गठबंधन से बाहर रहकर भी 3 सीटें जीतने में कामयाब हुए थे। यह कोई नहीं कह सकता कि हम भाजपा के खिलाफ नहीं थे। कुछ इलाकों में हमारा संगठन और आंदोलन का जोर था, जहां हम त्रिकोणीय मुकाबले में कड़ी टक्कर दे सकते थे या स्वतंत्र रूप से सीट जीत सकते थे। आज सीपीएम इन दोनों ही मामलों में कमजोर स्थिति में है। आज सीपीएम स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ने के स्थिति में कहीं भी नहीं हैं। भाजपा के खिलाफ इसकी छवि कन्फ्युज्ड दिखाई देती है। खासकर, जब उन्होंने भाजपा और टीएमसी को एक ही सिक्के का दो पहलू बताया। दोनों को मिलाकर ‘बीजेमूल’ की थ्योरी खड़ी की। इसलिए मुझे लगता है कि वामपंथी समर्थक या कांग्रेस समर्थक दोनों ही गुमराह हुए हैं और इनका भी बड़ा हिस्सा भाजपा के खिलाफ टीएमसी को वोट के रूप में गया है।

कांग्रेस के साथ गठबंधन के फैसले को आप कितना उचित मानते हैं?

कांग्रेस से इनका गठबंधन 2016 से चल रहा है। इस बार इनका गठबंधन एक अलग तरह की पार्टी से भी हुआ, फुरफुरा दरबार शरीफ के पीरजादा अब्बास सिद्दीकी से इन्होंने गठबंधन किया। इनकी पार्टी का नाम था– इंडियन सेकुलर फ्रंट। प्रमुख बात यह रही कि इस पार्टी का रजिस्ट्रेशन भी नहीं हुआ। इन्होंने बिहार चुनाव में भी आल इंडिया मजलिस पार्टी के नाम से चुनाव लड़ा था। इस तरह सीपीआई का गठबंधन कांग्रेस से ही नहीं, बल्कि नई पार्टी के साथ भी था। लेकिन गठबंधन से कोई फर्क नहीं पड़ा। हालांकि इस गठबंधन से इंडियन सेकुलर फ्रंट को ही एक सीट मिली। यह सीट न तो कांग्रेस को मिली और ना ही सीपीएम को। इसका फायदा तीसरी पार्टी को मिला। कांग्रेस के साथ गठबंधन करना अप्रासंगिक था। 

आप अपनी पार्टी के प्रदर्शन का किस रूप में मूल्यांकन करेंगे?

चुनाव के हिसाब से देखा जाए तो हमारी पार्टी का प्रदर्शन कमजोर रहा है। हमने बंगाल में कम सीटों पर उम्मीदवार उतारने का निर्णय लिया था। हमने अपने कुल 12 उम्मीदवार इस चुनाव में उतारे थे। इस चुनाव में जो बड़े मुद्दे थे, उनको लेकर हमने चुनाव लड़ा। कुछ जगहों पर हमारे वोट जरूर बढ़े हैं, लेकिन ये वोट कोई मायने नहीं रखते। इसके अलावा लेफ्ट फ्रंट की 2016 में जीती हुई सीटों पर हमने लेफ्ट को समर्थन दिया था। वहीं 260 सीटों पर हमने यह कहा कि भाजपा को हराने के लिए स्थानीय स्तर पर जो उम्मीदवार सक्षम दिखें, उनको वोट करें। इस प्रकार हमारा पूरा जोर भाजपा को बंगाल में रोकने का था। यह मकसद पूरा हुआ। महत्वपूर्ण यह कि इस बार पश्चिम बंगाल विधानसभा में विपक्ष के नाम पर सिर्फ भाजपा है। इसमें एक भी वामपंथी विधायक नहीं है। इसलिए वामपंथ को अपनी भूमिका विधानसभा के बाहर सड़क के आंदोलनों से निभानी है और यह काम हम लोग करेंगे। 

दीपंकर भट्टाचार्य, राष्ट्रीय महासचिव, भाकपा माले

बिहार में आपका राजद के साथ गठबंधन रहा। राजद की सामाजिक न्याय का जो आधार था, उसका लाभ आपको मिला। साथ ही आपकी पार्टी की उपस्थिति का लाभ भी राजद के कैडर को मिला। लेकिन बंगाल के नजरिए से इसे कैसे देखते हैं। क्या वामपंथी दलों को यह मान लेना चाहिए कि समाज में सामाजिक भेदभाव और विषमताएं वर्गीय सवालों से अधिक महत्वपूर्ण सवाल है? 

इस सवाल को मैं बहुत सही नहीं मानता। सामाजिक विषमता अपने आप में एक वर्गीय सवाल है। डॉ. आंबेडकर का सबसे महत्वपूर्ण वाक्य है ‘‘जाति सिर्फ श्रम का विभाजन नहीं है, बल्कि श्रमिकों का विभाजन है।’’ इससे निष्कर्ष निकलता है कि हमारा लक्ष्य है कि हम श्रमिकों को सामाजिक विषमता एवं उत्पीड़न के खिलाफ खड़ा करें और श्रमिकों को एकताबद्ध करें। जब हम श्रमिकों को एकताबद्ध करेंगे, तो हम सिर्फ जाति के हिसाब से एकताबद्ध नहीं करेंगे। जाति से ऊपर उठकर करेंगे। हमें सभी श्रमिकों को एकताबद्ध करना है। वर्ग संघर्ष हर जगह है, जहां तक सामाजिक उत्पीड़न का सवाल है। चाहे जहां क्रूर किस्म के सामाजिक उत्पीड़न हो या किसी भी तरह के सामाजिक भेदभाव। उसका विरोध करना हम इस वर्ग संघर्ष का आयाम मानते हैं। 

पिछले वर्ष हुए बिहार विधानसभा के चुनाव का महत्व इस बात में नहीं था कि राजद का सामाजिक न्याय और माले का वर्ग संघर्ष दोनों को मिलाकर संघर्ष हुआ। यह बहुत सरलीकरण होगा। आप देखें कि बिहार के चुनाव के प्रारंभिक चरणों में खासकर दक्षिणी बिहार में हमारा सबसे बढ़िया प्रदर्शन रहा। सामाजिक न्याय का सवाल जिसे राजद आर्थिक न्याय कहता है, वह एकमात्र कारण नहीं रहा। यह कुल मिलाकर न्याय का संघर्ष कहेंगे। जैसाकि संविधान में न्याय के बारे में लिखित है– सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक। इस बार न्याय का यही सवाल हमारे सामने उभर कर आया था। सिर्फ एक सामाजिक न्याय के मुहावरे के साथ नहीं। पालीगंज में संदीप सौरभ, मनोज मंजिल को अगिआंव और अजीत कुशवाहा को डुमरांव में बड़ी संख्या में वोट मिला। इस प्रकार हम देखते हैं कि हमें अपने आधार क्षेत्रों से समर्थन मिला तथा राजद से भी समर्थन मिला। यहां तक कि भाजपा और जदयू को वोट करने वाले 18 से 35 साल के जो नौजवान हैं, इनके बड़े हिस्से का भी वोट हमें मिला। जब हम बाद के चरणों को देखते हैं तो जहां माले का आंदोलन कमजोर है और राष्ट्रीय जनता दल, जिसका वर्तमान में समीकरण सिकुड़ा हुआ है, सामाजिक न्याय से सिकुड़ते हुए माई समीकरण में तब्दील हो गया है। वहां आप देखेंगे कि पूरे बड़े हिस्से में एंटी-मुस्लिम एवं एंटी यादव समीकरण के तहत भाजपा और जदयू ने बाजी मार ली। 1990 के दशक में सामाजिक न्याय का जो सवाल शुरू हुआ था, बाद के दिनों में एक तरह से बड़ा बदलाव आया है। यूपी और बिहार में यह बदलाव देखने को मिला। इसलिए हमें देखना पड़ेगा कि आज भाजपा हर जगह बिहार, यूपी और बड़े हिन्दी क्षेत्रों में जिन जाति समूहों का असर है, उसके खिलाफ एक बड़ा समीकरण महादलितों, दलितों और पिछड़ों का, यादव छोड़कर कुशवाहा या अन्य पिछड़ी जातियों को जोड़ लेने में सक्षम रहती हैं। हमें इस पर गंभीरता से विचार करना होगा। इसको रोकने के लिए पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों की तर्ज पर जन आंदोलन खड़ा करना होगा। बिहार में नौजवानों के रोजगार का सवाल, कोरोना काल में स्वास्थ्य का सवाल, आक्सीजन की कमी से हुई मौत और जिंदगी के सवाल को सामने रखकर एक निर्णायक गोलबंदी करनी होगी।

चुनाव पश्चात विभिन्न विश्लेषणों से स्पष्ट होता है कि इस बार भाजपा को दलितों और पिछड़ों का साथ मिला। खासकर उत्तरी बंगाल का वह इलाका जहां नक्सलबाड़ी आंदोलन परवान चढ़ा, उन इलाकों में बीजेपी ने जीत हासिल की। इसे आप किस रूप में देखते हैं?  

बीजेपी ने नक्सलबाड़ी वाली सीट पर जीत हासिल की है। उत्तरी बंगाल से नक्सलबाड़ी आंदोलन की शुरुआत जरूर हुई थी, लेकिन आज उत्तरी बंगाल या पूरे बंगाल में वह आंदोलन उस तरीके से नहीं दिखाई देता। महत्वपूर्ण सवाल यहां यह है कि दलितों, आदिवासियों और पिछड़ी जातियों का बहुतायत वोट बीजेपी को गया है। आसाम के चाय बगान के मजदूर एवं चाय बगान के पूरे समुदाय का वोट बीजेपी को गया है। इसके अतिरिक्त बंगाल के दार्जिलिंग जैसे कुछ इलाकों में भी चाय बागान के समुदायों का वोट बीजेपी को मिला है। साथ ही राजबंशी जाति के समुदाय का भी वोट इन्हें मिला है। बांकुरा और पुरुलिया बेल्ट के आदिवासियों का भी वोट इन्हें मिला है। इसके बावजूद तुलनात्मक रूप से 2019 से इनका वोट प्रतिशत घटा है। दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के मुद्दे को लेकर, एनआरसी के मुद्दे को लेकर पिछले 2 साल से जो आंदोलन चले हैं, उसका असर हमें साफ दिखा है। जिसके कारण बीजेपी को अपेक्षित सफलता नहीं मिली है।

पश्चिम बंगाल के चुनाव के पश्चात काफी हिंसात्मक घटनाएं घटित हुई हैं। इस पर आप क्या कहना चाहेंगे?

बंगाल के चुनाव में और चुनाव के बाद जो हिंसा हुई यह सिर्फ वर्तमान की बात नहीं है, बल्कि बंगाल में लम्बे समय से राजनीतिक हिंसा की एक संस्कृति रही है। ऐसा सीपीएम के जमाने में भी रहा। 1993 के पंचायत चुनाव में हम लोगों को जनसंहार झेलना पड़ा। 2018 के पंचायत चुनावों में टीएमसी वालों ने अपने विरोधियों को नॉमिनेशन का फाइल करने तक नहीं दिया। मुझे लगता है कि चुनाव बाद स्थानीय कारणों से हिंसा-प्रतिहिंसा का दौर चला है। लेकिन भाजपा ने इस हिंसा को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की है। बीजेपी ने इसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया है, बहुत फेक न्यूज फैलाया हैं, जैसे कि इस हिंसा के कारण हिंदुओं को बंगाल से भागना पड़ रहा है। इस तरह के दुष्प्रचार को मैं गलत मानता हूं। यहां तक कि बंगाल के राज्यपाल भी इसी मुद्दे को केंद्र में रखकर सीतलकुची और नंदीग्राम का दौरा कर रहे हैं। एक तरह से राज्यपाल भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष के रूप में काम कर रहे हैं। यह बिल्कुल गलत है। राज्यपाल को संविधान की सीमा में, अपने पद की गरिमा के मुताबिक हस्तक्षेप करना चाहिए। यह हिंसा 2-4 दिनों की थी। अब हिंसा थम गई है। कोरोना काल में लोग महामारी से लड़ रहे हैं। हालांकि राज्य सरकार ने इस हिंसा में मारे गए लोगों को मुआवजा देने की घोषणा की है। इस पर उन्होंने कोई राजनीति नहीं की है। अब हमें यहां से आगे बढ़ना होगा। 

भाजपा ने गुजरात मॉडल के सहारे केंद्र में सत्ता हासिल की। लेकिन इस मॉडल की वास्तविकता को समझने में काफी समय लगा कि यह केवल एक मिथ था। क्या आपको नहीं लगता है कि वामपंथी दल केरल के मॉडल को एक उदाहरण के रूप में पेश करते (खासकर सांप्रदायिक सद्भाव, मानव विकास सूचकांक आदि के मामले में) तो राजनीतिक परिदृश्य कुछ और होता?

केरल का मॉडल सिर्फ केरल का ही मॉडल नहीं है, बल्कि पूरे दक्षिण भारत का मॉडल है, जिसमें तमिलनाडु भी है। यहां पूरे भारत की तुलना में स्वास्थ्य सुविधाएं, जन वितरण प्रणाली बेहतर है। सोशल वेलफेयर का कार्य अन्य राज्यों की तुलना में थोड़ा बेहतर ढंग से होता है। आज हम केरल और तमिलनाडु के मॉडल की चर्चा जरूर कर सकते हैं। कई अन्य राज्यों की भी चर्चा हम कर सकते हैं। हमें यहां तीन बिंदुओं को जरूर समझना चाहिए। कोरोना काल ने यह बिल्कुल साफ कर दिया है कि स्वास्थ्य का मामला लोगों का एक मूलभूत अधिकार होना चाहिए। इसको लेकर पनप रहे निजीकरण का कारोबार बेहद घातक है। यह गरीबों को ही नहीं, अमीरों को भी नहीं छोड़ेगा। कोरोना ने देश के सामने सबक रखा है कि स्वास्थ्य बीमा योजना या 2-5 लाख का कार्ड दे देने से कुछ नहीं होने वाला है। जब तक हमारे देश में एक बेहतर स्वास्थ्य का आधारभूत ढांचा प्राइमरी हेल्थ सेन्टर से लेकर ऊपरी हेल्थ सेन्टर तक खड़ा नहीं होगा, हमारे सामने यह खतरा हमेशा बना रहेगा। कम से कम स्वास्थ्य और शिक्षा के मामले में निजीकरण को रोकना चाहिए। 

दूसरा बिंदू, जैसाकि राजन मिश्रा के बेटे ने उठाई है, उनके नाम से कोविड अस्पताल खोल दिया गया। उन्होंने कहा कि देश में प्राथमिकता तय होनी चाहिए कि आप मंदिर और मूर्ति बनाएंगे या अस्पताल, बेड और ऑक्सीजन की व्यवस्था करेंगे। आरएसएस की विचारधारा पूरी तरह से विज्ञान-विरोधी है। वे लोगों के अंदर तरह-तरह से अंधविश्वास और कुसंस्कार को बढ़ावा देते हैं। ये देश के लिए बड़े दुर्भाग्य की बात है। कोविड की पहली-दूसरी लहर या कहर एक तरह से हमें मोदी राज में देखने को मिल रहा है। मोदी राज का मतलब आरएसएस राज और आरएसएस का मतलब अंधविश्वास, विज्ञान विरोधी मानसिकता। मोदी सरकार का दूसरा मतलब है– क्रोनि पूंजीवाद अर्थात् अडानी-अंबानी का राज। इस तरह दोनों के सामंजस्य का घातक परिणाम हम देख रहे हैं। आज हमें वैक्सीन का भरपूर उत्पादन कर कोविड से लड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए था। पूरे देश में पल्स पोलियो ड्रॉप या टीके की तर्ज पर हमें आक्रामक तरीके से टीकाकरण का अभियान चलाना चाहिए था। आज हम टीका लगाने एवं सप्लाई को लेकर परेशान हैं और इसको लेकर हमारे यहां व्यापार हो रहा है। इसलिए कोरोना का सबक है कि हमें आरएसएस के हिंदू राष्ट्र को बेनकाब करना होगा। हिंदी क्षेत्रों में ही नहीं, गैर हिंदी क्षेत्रों में भी। अभी हाल ही में बांग्ला में व्हाट्सएप पर एक कविता चल रही है जिसका मतलब है– ‘हिंदू राष्ट्र रहने दो, हमें कहीं से ऑक्सीजन लाकर दो।’ इस बात को वैचारिक धरातल पर जनता के बीच ले जाना चाहिए। आधुनिकता, आधुनिक विचार, विज्ञान और तर्क के पक्ष में पूरे देश में माहौल बनाना चाहिए। हमारे पास इसके लिए पर्याप्त समय है।

आखिरी सवाल, खासकर पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को अपेक्षित सफलता नहीं मिली। यदि असम और पांडिचेरी को छोड़कर देखा जाए तो बाकी तीन राज्यों में उसे बिल्कुल सफलता नहीं मिली। नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता कोरोना काल में बड़ी तेजी से घटी है। आप कोरोना के बाद देश की राजनीति किस दिशा में जाते देख रहे हैं?

बिल्कुल सही बात है, लेकिन बीजेपी को बंगाल में काफी सफलता हासिल हो गयी है। उन्होंने बंगाल में अपने पक्ष में जिस तरह का प्रचार अभियान चलाया था कि हम सत्ता में आ रहे हैं, उसे तुलनात्मक रूप से धक्का लगा है। लेकिन फिर भी बंगाल में 3 सीटों से 77 सीटों तक पहुंचना और 38 प्रतिशत वोट अपने कब्जे में रखना बीजेपी के लिए एक बड़ी सफलता है। बंगाल चुनाव के बाद यह संदेश गया कि भाजपा को रोकना बिल्कुल संभव है और जरूरी भी। हमें पूरे जोश-खरोश और आक्रामकता के साथ बीजेपी के खिलाफ लड़ने की जरूरत है। इस चुनाव से देश में चल रहे आंदोलनों– किसान आंदोलन, रोजगार के लिए नौजवानों का आंदोलन, राजनीतिक बंदियों के रिहाई के लिए आंदोलन जैसे अनेक आंदोलनों को ऊर्जा मिलेगी। विपक्षी दलों को एक बड़ा मोर्चा बनाकर एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम के साथ जल्दी ही सामने आना पड़ेगा और इसे एक जन आंदोलन में तब्दील करना पड़ेगा। जैसे बिहार में बहुत ही ऐन वक्त पर हम लोगों का एक मोर्चा बना, जिसमें काफी हद तक हम सफल हुए। बंगाल में भी चुनाव जनांदोलन में बदल जाने के कारण ही टीएमसी को 48 प्रतिशत वोट मिले। टीएमसी का अपना वोट 40 प्रतिशत से ज्यादा नहीं है। 8 प्रतिशत अतिरिक्त वोट भाजपा को रोकने के लिए बंगाल ने टीएमसी को दिया। किसान आंदोलन का प्रभाव भी हमें उत्तर प्रदेश के पंचायती चुनाव में देखने को मिला। हमें शीघ्र ही व्यापक रूप से विपक्षी एकता का निर्माण कर एक बड़े जनांदोलन की ओर बढ़ना होगा।  

(संपादन : इमामुद्दीन/अनिल/राजन)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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