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ओबीसी बुद्धिजीवियों की राय : सवाल मराठा आरक्षण का नहीं, सवाल ओबीसी की पहचान की प्रक्रिया का है

गत 5 मई को सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने मराठाओं के लिए आरक्षण को खारिज कर दिया और साथ ही संविधान के 102वें संशोधन की व्याख्या की। इस संबंध में फारवर्ड प्रेस ने आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश व राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के पूर्व अध्यक्ष जस्टिस वी. ईश्वरैय्या, महाराष्ट्र से पूर्व राज्यसभा सांसद हरिभाऊ राठौर व ऑल इंडिया ओबीसी फेडरेशन के राष्ट्रीय महासचिव जी. करुणानिधि से बातचीत की

गत 5 मई, 2021 को सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी नौकरियों और दाखिले में मराठा समुदाय को आरक्षण देने संबंधी महाराष्ट्र के कानून को असंवैधानिक करार देते हुए खारिज कर दिया। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत तय करने के 1992 के इंदिरा साहनी फैसले को बड़ी पीठ को भेजने से इनकार किया। बताते चलें कि वर्ष 1993 में इंदिरा साहनी फैसले में सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों की पीठ ने फैसला सुनाया था कि केवल असाधारण परिस्थितियों में ही 50 फीसदी से अधिक आरक्षण दिया जा सकेगा। इस प्रकार महाराष्ट्र सरकार द्वारा मराठाओं को दिया गया आरक्षण अब निष्प्रभावी हो गया है। यह फैसला जस्टिस अशोक भूषण की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने सुनाया। पीठ में जस्टिस एल. नागेश्वर राव, जस्टिस एस. अब्दुल नजीर, जस्टिस हेमंत गुप्ता और जस्टिस रविंद्र भट्ट शामिल थे।

पीठ ने कहा कि ऐसी कोई असाधारण परिस्थिति मौजूद नहीं है, जिसके चलते मराठा समुदाय को आरक्षण देने के लिए मंडल फैसले के तहत तय की गई 50 प्रतिशत आरक्षण सीमा को लांघा जाए। बताते चलें कि संविधान पीठ ने मामले में सुनवाई 15 मार्च को शुरू की थी और 26 मार्च को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। इसके पहले बंबई हाईकोर्ट ने जून 2019 में कानून को बरकरार रखते हुए कहा था कि 16 फीसदी आरक्षण उचित नहीं है और रोजगार में आरक्षण 12 फीसदी से अधिक नहीं होना चाहिए तथा नामांकन में यह 13 फीसदी से अधिक नहीं होना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट की पीठ के समक्ष रहे ये सवाल 

सुप्रीम कोर्ट की पीठ के समक्ष जो सवाल थे उनमें एक यह था कि इंद्रा साहनी बनाम भारत सरकार (1992) के संदर्भ में दिए गए फैसले की पुनर्समीक्षा हेतु बड़े पीठ को भेजा जाय अथवा नहीं? इसके अलावा महराष्ट्र सरकार द्वारा मराठाओं को 50 फीसदी आरक्षण की सीमा को लांघते हुए 12 व 13 प्रतिशत आरक्षण दिया जाना वैध है अथवा नहीं? क्या महाराष्ट्र सरकार द्वारा गठित एम.सी. गायकवाड़ कमेटी की रिपोर्ट में वर्णित तथ्य सही हैं और क्या इसके आधार पर मराठाओं को आरक्षण दिया जा सकता है जैसा कि विशेष परिस्थिति होने पर करने का प्रावधान इंद्रा साहनी मामले में तय है? वहीं एक सवाल 102वें संविधान संशोधन से संबंधित था जिसका संबंध राज्यों द्वारा किसी भी जाति/समुदाय को शैक्षणिक व सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों में शामिल करने का अधिकार से है। सवाल यह था कि क्या जातियों का वर्गीकरण करने का अधिकार राज्यों से ले लिए जाएंगे और इससे संघीय व्यवस्था पर क्या असर पड़ेगा.

बाएं से- आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस वी. ईश्वरैय्या, पूर्व राज्यसभा सांसद हरिभाऊ राठौर व ऑल इंडिया ओबीसी फेडरेशन के अध्यक्ष जी. करुणानिधि

बहुमत के आधार पर पीठ ने कहा, 102वां संशोधन संविधान की मूल भावना के अनुरूप

पहले सवाल कि इंद्रा साहनी बनाम भारत सरकार (1992) मामले में दिए गए फैसले को पुनर्समीक्षा हेतु बड़ी पीठ को भेजा जाय अथवा नहीं के संदर्भ में संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से कहा कि 50 फीसदी से अधिक आरक्षण बिना किसी विशेष परिस्थिति के मान्य नहीं है और इंद्रा साहनी फैसले को बड़े पीठ को हस्तांतरित किए जाने की आवश्यकता नहीं है। वहीं महाराष्ट्र सरकार द्वारा गठित गायकवाड़ आयोग की रिपोर्ट, जिसके आधार पर मराठों को आरक्षण दिया गया, उसके बारे में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि रिपोर्ट में वर्णित तथ्य अति विशेष परिस्थिति की पुष्टि नहीं करते हैं इसलिए मराठाओं को दिया गया आरक्षण खारिज किया जाता है। 102वें संविधान संशोधन के संबंध में जस्टिस राव, जस्टिस गुप्ता और जस्टिस भट्ट इस बात पर सहमत थे कि इस संशोधन के बाद राज्यों से पिछड़े वर्गों की पहचान करने का अधिकार खत्म हो गया है। संसद की सहमति के बाद केवल राष्ट्रपति की अधिसूचना से ही सूचियों में बदलाव संभव है। इसमें राज्य केवल अनुशंसा कर सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से ओबीसी की नई सूची बनाने को भी कहा और साथ में यह भी कि जब तक नई सूची नहीं बन जाती है, तब तक पहले की सूची मान्य रहेगी। तीनों न्यायाधीशों ने कहा कि यह संशोधन संविधान के मूल स्वरूप के खिलाफ नहीं है। 

जस्टिस भूषण और जस्टिस नजीर ने इसके विपक्ष में अपनी बात कही। उनके मुताबिक संसद की मंशा राज्यों से अधिकार छीनने की नहीं थी।

मराठाओं का आरक्षण पहले से असंवैधानिक और ईडब्ल्यूएस का आरक्षण भी : जस्टिस ईश्वरैय्या

आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश व राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के पूर्व अध्यक्ष जस्टिस वी. ईश्वरैय्या के मुताबिक महाराष्ट्र में मराठा समुदाय के लोग कहीं से भी पिछड़े नहीं हैं। महाराष्ट्र विधानसभा में उनके डेढ़ सौ से अधिक विधायक हैं। उनमें सामाजिक पिछड़ापन भी नहीं है। इसलिए उन्हें अतिरिक्त आरक्षण दिया जाना असंवैधानिक है। लेकिन इंद्रा साहनी मामले में सुप्रीम कोर्ट को यह विचार अवश्य करना चाहिए कि यदि विशेष परिस्थितियां हों और किसी समुदाय काे आगे लाने के लिए अतिरिक्त आरक्षण देना अनिवार्य हो तो इसका प्रावधान होना चाहिए। साथ ही उन्होंने यह कहा कि आर्थिक आधार पर सामान्य वर्गों को दस फीसदी आरक्षण दिया जाना भी अवैध है, क्योंकि जब इसे लागू किया गया तब पहले से ही 50 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान दलितों, आदिवासियों और ओबीसी के लिए लागू था। 

वहीं 102वें संविधान संशोधन के बारे में उन्होंने कहा कि इससे जाति की राजनीति पर रोक लगेगी। उन्होंने कहा कि कई राज्य सरकारें जातिगत राजनीति के भाग के रूप  में किसी खास जाति को ओबीसी में शामिल कर देती हैं और इसका परिणाम यह होता है कि जिन्हें आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए, नहीं मिल पाता। उन्होंने बताया कि एससी और एसटी के मामले में क्या होता है, यह समझने की आवश्यकता है। होता यह है कि किसी भी जाति को एससी अथवा एसटी में शामिल करने से पूर्व राज्य सरकारें अपने अधीन आयोगों से समीक्षा करवाती है। इसके बाद उसे विधानसभा में प्रस्तुत करती हैं तथा वहां सहमति मिलने के बाद राज्यपाल केंद्रीय सामाजिक न्याय व आधिकारिता मंत्रालय को भेजते हैं, और फिर मंत्रालय एंथ्रोपाेलॉजिकल अध्ययन हेतु एंथ्रोपोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के निदेशक के पास भेजता है। आंकड़ों व ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के अध्ययन के बाद एक बार यह पाए जाने के बाद कि अमुक जाति एससी अथवा एसटी में शामिल करने योग्य है, मंत्रालय उसे केंद्रीय आयोग के पास भेजता है। इस क्रम में केंद्रीय आयोग भी अपने स्तर पर प्रस्ताव की छानबीन करता है तथा सहमति के बाद ही संसद की सहमति के बाद राष्ट्रपति की अधिसूचना के बाद किसी जाति को एससी व एसटी में शामिल किया जाता है। यही प्रक्रिया ओबीसी के मामले में भी अपनायी जानी चाहिए। जस्टिस ईश्वरैय्या ने यह भी कहा कि राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग, राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग व राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष सेवानिवृत्त न्यायाधीश अथवा मुख्य न्यायाधीश हों ताकि वे केंद्र सरकार के दबाव में आए बिना निरपेक्ष ढंग से फैसला ले सकें।

102वें संशोधन को लेकर अभी भी है भ्रम की स्थिति : हरिभाऊ राठौर

महाराष्ट्र विधान परिषद के सदस्य व पूर्व राज्यसभा सांसद हरिभाऊ राठौर के मुताबिक, मराठा आरक्षण को लेकर पहले से ही खींचतान चल रही थी। यह एक विशुद्ध रूप् से राजनीतिक सवाल है। ओबीसी के लिहाज से बात करें तो सबसे महत्वपूर्ण यही है कि ओबीसी में कौन शामिल रहेगा और कौन नहीं, यह तय कौन करेगा। एक भ्रम की स्थिति 102वें संविधान संशोधन को लेकर है। सुप्रीम काेर्ट की पीठ के तीन जज इसके पक्ष में हैं और दो इसके विरोध में। अनुच्छेद 342(ए) के आलोक में इसकी स्पष्ट व्याख्या होनी चाहिए।

केंद्र को अधिकार मिलने से उठेंगे गंभीर सवाल : जी. करुणानिधि

ऑल इंडिया ओबीसी फेडरेशन के राष्ट्रीय महासचिव जी. करुणानिधि का कहना है कि मराठाओं को आरक्षण का सवाल उनके सामाजिक पिछड़ेपन व अपर्याप्त प्रतिनिधित्व से जुड़ा है। इससे बड़ा सवाल यह है कि 102वें संविधान संशोधन के कारण शैक्षणिक व सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों की सूची में किसी जाति को शामिल करने अथवा हटाने का अधिकार केंद्र सरकार को प्राप्त हो गया है और राज्य इससे वंचित हो गए हैं। यह सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों से जुड़ा गंभीर मुद्दा है तथा इसका निराकरण किया जाना चाहिए।

(संपादन : अनिल/अमरीश)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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